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ऋषभदेव : एक परिशीलन
"अस्तिनास्ति-दिष्टं मतिः'' सूत्र के रहस्य का उदघाटन करते हुए भट्टोजी दीक्षित ने बड़ी खूबी के साथ सुलझाया है। उन्होंने पूर्वाग्रहरहित सूत्र का निष्कर्ष निर्भीकता के साथ प्रकाशित करते हुए कहा-"जो निश्चित रूप से परलोक व पुनर्जन्म को स्वीकारता है वह आस्तिक है और जो उसे स्वीकारता नहीं वह नास्तिक है।"२ अधिक स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो "पुण्य, पाप, स्वर्ग, नरक, पुनर्जन्म और इस प्रकार आत्मा के नित्यत्व में निष्ठा रखना ही प्रास्तिक्य है। आस्तिक के अन्तर्मानस में ये विचार-लहरें सदा तरंगित होती हैं कि 'मैं कौन हैं, कहाँ से
आया है, प्रकृत चोले का परित्याग कर कहाँ जाऊँगा और मेरी जीवनयात्रा का अन्तिम पड़ाव कहाँ होगा ?'3 वह प्रात्मा के अस्तित्व को स्वीकारता है और आत्मा की संस्थिति के स्थान लोक को भी स्वीकारता है, लोक में इतस्ततः परिभ्रमण के कारण कर्म को भी स्वीकारता है और कर्मों से मुक्त होने के साधनरूप क्रिया को भी। श्रमणसंस्कृति का यह दढ मन्तव्य है कि अनादि अनन्त काल से प्रात्मा विराट् विश्व में परिभ्रमण कर रहा है। नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति में इधर-उधर घूम रहा है। गणधर गौतम की जिज्ञासा का
१. अष्टाध्यायी, अध्याय ४, पाद ४, मू० ६० २. अस्ति परलोक इत्येवमतिर्यस्य स आस्तिकः, नास्तीतिमतिर्यस्य स
नास्तिकः। --सिद्धान्तकौमुदी (निर्णय सागर, बम्बई) पृ० २७३ ३. (क) अत्थि मे आया उववाइए ? नत्थि मे आया उववाइए ? के अहं आसी ? के वा इओ चुए इह पेच्चा भविस्सामि ?
___-आचारांग १।१।१ । सू० ३ (ख) कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः,
___का मे जननी को मे तातः ? इति परिभावय सर्वमसारं, सर्व त्यक्त्वा स्वप्नविचारम् ॥
~चर्पटपंजरिका-आचार्य शंकर ४. से आयावादी, लोगावादी, कम्मावादी, किरियावादी ।
.....आचारांग श्रु त० १, अ० १ उ० १, सू० ५
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