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प्रस्तावना
अनन्त असीम व्योममण्डल से भी विराट् ! अगाध अपार महासागर से भी विशाल ! एक अद्भुत, एक अद्वितीय ज्योतिर्धर व्यक्तित्व ! जिधर से भी देखिए, जहाँ भी देखिए, और जब भी देखिए-सहस्र-सहस्र, लक्ष-लक्ष, कोटिकोटि, असंख्य अनन्त प्रकाश किरणें विकीर्ण होती दीखेंगी। महाकाल इतिहास की गणना से परे हो गया, संख्यातीत दिन और रात गुजरते चले गए, परन्तु वह ज्योति न बुझी है, न बुझ सकेगी।
भगवान् ऋषभदेव के व्यक्तित्व और कृतित्व को शब्दों की सीमा में नहीं, बांधा जा सकता। प्राकृत में, संस्कृत में, अपभ्रंश में, नानाविध अन्यान्य लोक-भाषाओं में ऋषभदेव के अनेकानेक जीवन चरित्र लिखे गए हैं, लिखे जा रहे हैं, परन्तु उनके विराट् एवं भव्य जीवन की सम्पूर्ण छवि कोई भी अंकित नहीं कर सका है। अनन्त आकाश में गरुड़-जैसे असंख्य विहग जीवन-भर उड़ान भरते रहे हैं, पर आकाश की इयत्ता का अता-पता न किसी को लगा है, न लगेगा। क्या लौकिक और क्या लोकोत्तर, क्या भौतिक और क्या आध्यात्मिक, क्या सामाजिक और क्या राष्ट्रीय, क्या नैतिक और क्या धार्मिक-सभी दृष्टियों से उनका जीवन दिव्य है, महतोमहीयान् है। हम जीवन-निर्माण की दिशा में जब भी और जो कुछ भी पाना चाहें, उनके जीवन पर से पा सकते हैं । आवश्यकता है केवल देखने वाली दृष्टि की और उस दृष्टि को सृष्टि के रूप में अवतरित करने की ।
भगवान् ऋषभदेव मानवसंस्कृति के आदि संस्कर्ता हैं, आदि निर्माता हैं। पौराणिक गाथाओं के आधार पर, वह काल, आज भी हमारे मानसचक्षुओं के समक्ष है, जब कि मानव मात्र आकृति से ही मानव था । अपने क्षुद्र देह की सीमा में बँधा हुआ एक मानवाकार पशु ही तो था, और क्या ? न उसे लोक का पता था, न परलोक का । न उसे समाज का पता था, न परिवार का । न उसे धर्म का पता था, न अधर्म का। बिल्कुल कटा हुआ-सा अकेला
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