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रसधारा बही कि उजड़ते और वीरान होते जन-जीवन में सब ओर नव-वसन्त खिल उठा, महक उठा । हे मेरे देव, यदि उस समय तुम न होते तो पता नहीं, इस मानव जाति का क्या हुआ होता ? होता क्या, मानव-मानव एक दूसरे के लिए दानव हो गया होता, एक दूसरे को जंगली जानवरों की तरह खा गया होता । "बुभुक्षितः किं न करोति पापम् ?"
भौतिक वैभव एवं ऐश्वर्य के उत्कर्ष में एक खतरा है, वह यह कि मनुप्य स्वयं को भूल जाता है, अन्धरे में भटक जाता है । भोग में भय छिपा है, "भोगे रोगभयम् ।" तन का रोग ही नहीं, मन का रोग भी । मन का रोग तन के रोग से भी अधिक भयावह है। बढ़ती हुई मन की विकृतियाँ मानव को कहीं का भी नहीं छोड़ती-न घर का न घाट का। भगवान् ऋषभदेव ने इस तथ्य को भी ध्यान में रखा। उनका गृहसंसार से महाभिनिष्क्रमण अपनी अन्तरात्मा को परिमार्जित एवं परिष्कृत करने के लिए तो था ही, साथ ही सार्वजनीन हित का भाव भी उसके मूल में था । महापुरुषों की साधना स्व-परकल्याण की दृष्टि से द्व यर्थक होती है- "एका क्रिया ह यर्थक प्रसिद्धा ।" भगवान् ऋषभदेव ने शून्य निर्जन वनों में, एकान्त गिरि-निकुञ्जों में, भयावह श्मशानों में, गगनचुम्बी पर्वतों की शान्त नीरव गुफाओं में तपः साधना की। यह तप जहाँ बाह्य रूप में ऊँचा और बहुत ऊँचा था वहाँ आभ्यन्तर रूप में गहरा और बहुत गहरा भी था । वे शरीर से परे, इन्द्रियों से परे. और मन से परे होते गए-होते गए, और अपने आपके निकट, अपने शुद्ध-निरंजन-निर्विकार स्वरूप के समीप पहुँचते गए-पहुँचते गए। और लम्बी साधना के बाद एक दिन वह मंगल क्षण आया कि अन्तर में कैवल्य ज्योति का अनन्त अक्षय-अव्याबाध महाप्रकाश जगमगा उठा, स्वमंगल के साथ ही विश्वमंगल का द्वार खुल गया । भगवान् ऋषभदेव तीर्थङ्कर बन गए। धर्मदेशना के रूप में उनकी अमृतवाणी का वह दिव्यनाद गूजा कि जन-जीवन में फैलता आ रहा अन्धकार छिन्न-भिन्न होगया, सब ओर आध्यात्मिक भावों का दिव्य आलोक आलोकित हो गया।
भगवान् ऋषभदेव का जीवन समन्वय का जीवन है । वह मानवजाति के समक्ष इहलोक का आदर्श प्रस्तुत करता है, परलोक का आदर्श प्रस्तुत करता है, और प्रस्तुत करता है---इहलोक-परलोक से परे लोकोत्तरता का आदर्श। उनका जीवन-दर्शन उभयमुखी है। जहाँ वह बाह्यजीवन को परिकृत एवं विकसित करने की बात करता है, वहाँ अन्तर्जीवन को भी विशुद्ध एवं प्रबुद्ध
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