SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ ऋषभदेव : एक परिशीलन कितने ही आचार्यों का यह अभिमत है कि भगवान् के शब्द कर्णकुहरों में गिरने से उन्हें आत्मज्ञान हुआ और वे मुक्त हो गई । १७१ प्रस्तुत ग्रवसर्पिणी में सर्वप्रथम केवलज्ञान श्री ऋषभदेव को हुआ और मोक्ष मरुदेवी माता को । १७२ आचार्य जिनसेन ने स्त्रीमुक्ति न मानने के कारण ही प्रस्तुत घटना का उल्लेख नहीं किया है । धर्मचक्रवर्ती जिन बनने के पश्चात् भगवान् श्री ऋषभदेव स्वयं कृतकृत्य हो चुके थे । वे चाहते तो एकान्त शान्त स्थान में अपना शेष जीवन व्यतीत करते, पर वे महापुरुष थे । उन्होंने समस्त प्राणियों की रक्षारूप दया के पवित्र उद्देश्य से प्रवचन किया । १७३ एतदर्थ ही भगवान् श्री महावीर ने अपने अन्तिम प्रवचन में श्री ऋषभदेव को धर्म का मुख कहा है । १४ और ब्रह्माण्ड पुराण में भी श्री ऋषभदेव १७१. अन्न े भांति — भगवओ धम्मक हासदं सुरतीए तक्कालं च तीए खुट्टमाउयं ततो सिद्धा । १७२. मडयं मयस्स देहो तं १७३ मरुदेवीए पढमसिद्धोत्ति । (ख) पढमसिद्धोत्ति काऊरणं खीरोदे छूढा । - आवश्यक मलय० वृ० २२६ १७४ धम्मारणं कासवो मुहं । Jain Education International (ग) एतस्यामवसर्पिण्यां, सिद्धोऽसो प्रथमस्ततः । सत्कृत्य तद्वपुः क्षीरनीरधौ निदधेऽमरैः ।। - आवश्यक नियुक्ति - आवश्यक चूर्णि० पृ० १८१ सव्वजग जीवरक्खणदयट्टयाए पावयरणं भगवया सुकहियं । - त्रिषष्ठि० १।३।५३१ --- प्रश्नव्याकरण, सम्वरद्वार । --- उत्तराध्ययन, गा० १६ अ० २५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy