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________________ ऋषभदेव : एक परिशीलन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न होने से मानव ने अन्नादि का उपयोग प्रारम्भ किया। किन्तु पकाने के साधन का उस समय ज्ञान न होने से कच्चे अन्न का उपयोग प्रारम्भ हुना। आगे चलकर कच्चा अन्न दुष्पाच्य होने लगा तो लोग पुनः श्री ऋषभदेव के पास पहुँचे और उनसे अपनी समस्या का समाधान माँगा। श्री ऋषभदेव ने हाथ से मलकर खाने की सलाह दी। कालक्रम से जब वह भी दुष्पच हो गया तो पानी से भिगोकर और मुठी व बगल में रखकर गर्म कर खाने की राय दी। उससे भी अजीर्ण की व्याधि समाप्त नहीं हुई । श्री ऋषभदेव अग्नि के सम्बन्ध में जानते थे पर वह काल एकान्त स्निग्ध था, अग्नि उत्पन्न नहीं हो सकती थी। अग्नि उत्पत्ति के लिए एकान्त स्निग्ध और एकान्त रुक्ष दोनों ही काल अनुपयुक्त होते हैं। समय के कदम आगे बढ़े। जब काल स्निग्ध-रुक्ष हुआ तब लकड़ियों को घिसकर अग्नि पैदा की और पात्र निर्माण कर तथा पाक-विद्या सिखाकर खाद्यसमस्या का समाधान किया ।१६ संभवतः इसी कारण अथर्ववेद ने ६४. आसीय पाणिघंसी तिम्मिय तंदुलपवालपुडभोई । हत्थयलपुडाहारा जइया किल कुलगरो उसभो ।। घंसेऊणं तिम्मण घंसणतिम्मणपवालपुडभोई । घंसणतिम्मपवाले हत्थउडे कक्खसेए य ॥ -आव० नि० गा० २०६-२०७ (ख) आव० सू० हारिभद्रीयावृत्ति० मूल भाष्य ८ प० १३१।१ ६५. (क) तदा कालस्य एकान्तस्निग्धतया सत्यपि यत्ने वह्न युत्पादाभावात्, भगवांस्तु विजानाति न एकान्तस्निग्धरूक्षयोः कालयोर्वह्न युत्पादः किन्तु विमात्रया स्निग्धरूक्षकाले, ततो नादिष्टवानिति । ---आव० मल० वृ० १० १६७।१ (ख) आवश्यक चूणि, जिनदास पृ० १५४-१५५ ६६. पक्खेवडहणमोसहि कहणं निग्गमण हत्थिसीसम्मि । पयणारंभपवित्ती ताहे कासीय ते मरण्या ॥ -~~आव०नि० गा० २०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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