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________________ घृहस्थ-जीवन विधवा विवाह नहीं कितने ही आधुनिक विचारक कल्पना के गगन में विहरण करते हुए 'सुनन्दा' को विधवा मानकर श्री ऋषभदेव के उसके साथ किए गए विवाह को विधवा विवाह कहते हैं। उन विचारकों को यह स्मरण रखना चाहिए कि प्राचार्य भद्रबाह,६° प्राचार्य जिनदासगरिग महत्तर,६१ प्राचार्य मलयगिरि,६२ प्राचार्य हेमचन्द्र,६३ श्री समय ततो ब्राह्मी यशस्वत्यां, ब्रह्मा समुदपादयत् । कलामिवापराशायां, ज्योस्नपक्षोऽमलां विधाः ।। -महापुराण जिन० १६।४-५ पृ० ३४६ ६०. आवश्यक नियुक्ति, आचार्य भद्रबाहु गा० १६० । ......"ततो य तलरुक्खाओ तलफलं पक्कं समारणं वातेण आहतं तस्स दारगस्स उवरि पडितं तेण सो अकाले चेव जीवितातो ववरोवितो। -----आवश्यक चूणि, जिनदास महत्तर पृ० १५२ ६२. भगवतो देशोनवर्षकाल एव किञ्चिन्मिथुनकं सजातापत्यं सत् तदपत्यमिथुनकं तालवृक्षस्याधो विमुच्य रिरंसया कदलीगृहादि क्रीड़ा गृहमगमत्, तस्माच्च तालवृक्षात् पवनप्रेरितं पक्वं तालफलमपतत्, तेन दारकोऽकाल एव जीविताद् व्यपरोपितः । ----आवश्यक मल० वृत्ति० पृ० १६३ ६३. अन्येद्य : क्रीडया क्रीडद् बालभावानुरूपया । मिथो मिथुनकं किञ्चित् , तले तालतरोरगात् ।। तदैव देवदुर्योगात् , तन्मध्यान्नरमूर्धनि । तडिद्दण्ड इवैरण्डेऽपतत् तालफलं महत् ।। प्रहतः काकतालीयन्यायेन स तु मूर्धनि । विपन्नो दारकस्तत्र, प्रथमेनाऽपमृत्युना ।। -विष्ठि १।२।७३५ से ७३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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