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________________ १०४ ऋषभदेव : एक परिशीलन एक सम्वत्सर के पश्चात् भिक्षा प्राप्त हुई१५२ और सर्व प्रथम इक्षुरस का पान करने के कारण वे काश्यप के नाम से भी विश्र त हुए।१५3 स्त्यानो नु स्तम्भितोन्वासीद् व्योम्नि लग्नशिखो रसः । अञ्जली स्वामिनोऽचिन्त्यप्रभावाः प्रभवः खलु ।। ततो भगवता तेन, रसेनाऽकारि पारणम् । सुरासुरनृणां नेत्रः पुनस्तदर्शनामृतः ॥ __-त्रिषष्ठि० १।३।२६१-२६५ (ङ) श्रेयान् सोमप्रभेणामा, लक्ष्मीमत्या च सादरम् । रसमिक्षोरदात् प्रासुमुत्तानीकृतपाणये ।। -~-महापुराण जिन० १००।२०१४५४ (च) एएसि णं चउव्वीसाए तित्थगराण चउव्वीसं पढमभिक्खादायारो होत्था तं जहा सिज्जंस"" । -समवायाङ्ग १५२. संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसभेण लोगनाहेण । सेसेहिं बीयदिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ । -आवश्यक नियुक्ति गा० ३४२ (ख) संवच्छरेण भिक्खा लद्धा, उसभेण लोयणाहेण । -समवायांग १५३. कासं-उच्छू, तस्स विकारो-कास्यः रसः सो जस्स पारणं सो कासवो उसभ स्वामी। -दशवकालिक-अगस्त्यसिंह चूणि (ख) काशो नाम इक्खु भण्णइ, जम्हा त इवखु पिबंति तेन काश्यपा अभिधीयन्ते । ___-दशवकालिक-जिनदास चूणि पृ० १३२ (ग) पुठवगा य भगवतो इक्खुरसं पिविताइता तेण गोत्त कासवं ति । -आवश्यक चूणि जिनदास पृ० १५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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