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ऋषभदेव : एक परिशीलन
करने के लिए अभ्यर्थना करते, पर कोई भी विधिवत् भिक्षा न देता। भगवान् उन वस्तुओं को बिना ग्रहण किये जब उलटे पैरों लौट जाते तो वे नहीं समझ पाते कि भगवान् को किस वस्तु की आवश्यकता है ?
श्रीमद्भागवतकार ने भगवान् श्री ऋषभदेव को श्रमण बनने के पश्चात् अज्ञ व्यक्तियों ने जो दारुण कष्ट प्रदान किये उसका शब्द चित्र उपस्थित किया है,१४3 पर वैसा वर्णन जैन साहित्य में नहीं है। जैन-साहित्य के परिशीलन से यह भी ज्ञात होता है कि उस युग का मानव इतना क्र र प्रकृति का नहीं था, जितना भागवतकार ने
कोऽप्यवादीदिद सज्जं, स्नानीयं वसनं जलम् । तैलं पिष्टातकश्चेति, स्नाहि स्वामिन् प्रसीद नः ।। कोऽप्यूचे स्वोपयोगेन, स्वामिन् ! मम कृतार्थय । जात्यचन्दनकपूरकस्तुरीयक्षकर्दमान् ॥ कोऽप्युवाच जगद्रत्न ! रत्नालङ्करणानि नः । स्वाङ्गाधिरोपणात् स्वामिन्नलंकुरु दयां कुरु ॥ एवं व्यज्ञपयत् कोऽपि, गृहे समुपविश्य मे । स्वामिन्नङ्गानुकूलानि, दुकूलानि पवित्रय ॥ कश्चिदप्यब्रवीदेवं, देव ! देवाङ्गनोपमाम् । प्रभो ! गृहाण नः कन्यां, धन्याः स्मस्त्वत्समागमात् ।। कोऽप्यूचे पादचारेण, क्रीडयाऽपि कृतेन किम् ? । इममारोह शैलाभं कुञ्जरं राजकुञ्जर ! ।।
-त्रिषष्ठि १।३।२५१-२५८ १४३. तत्र-तत्र पुरग्रामाकरखेटवाटखट-शिविर-व्रजघोषसार्थगिरिवना
श्रमादिष्वनुपथमवनिपसदः परिभूयमानो मक्षिकाभिरिव वनगजस्तर्जनताडनावमेहनष्ठीवनमावशकृद्रजःप्रक्षेपपूतिवातदुरुक्तस्तदविगणयन्नेवा • सत्संस्थान एतस्मिः, देहोपलक्षणे सदपदेश उभयानुभवस्वरूपेण स्वमहिमावस्थानेनासमारोपिताहंममाभिमानत्वादविखण्डितमनाः पृथिवीमेकचरः परिबभ्राम ।
--भागवत ५।५।३०१५६४
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