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________________ श्री ऋषभ पूर्वभव आत्म-सिद्धि के प्रबल प्रमारण प्रस्तुत करते हुए उसने कहास्वसंवेदन से भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है । मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ यह अनुभूति शरीर को नहीं होती, अतएव इस अनुभूति का कर्ता शरीर से भिन्न ही होना चाहिए।४१ सभी को यह विश्वास होता है कि मैं हूँ, पर किसी को भी यह अनुभव नहीं होता कि मैं नहीं हैं।४२ प्रत्येक इन्द्रिय को अपने विषय का ही परिज्ञान होता है, अन्य इन्द्रिय के विषय का नहीं। यदि आत्म-तत्त्व को न माना जाय तो सभी इन्द्रियों के विषयों का जोड़ रूप [संकलनात्मक ज्ञान नहीं हो सकता, किन्तु पापड़ खाते समय स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द-इन पाँचों का संकलित ज्ञान स्पष्ट होता है । एतदर्थ इन्द्रियों के विषयों का संकलनात्मक परिज्ञान करने वाले को इन्द्रियों से पृथक् मानना होगा और वही आत्मा है। आत्मा और शरीर एक नहीं है । जो चैतन्य है, वह शरीर रूप नहीं है और जो शरीर है, वह चैतन्य रूप नहीं है, क्योंकि दोनों एक दूसरे से स्वभावतः विसदृश हैं। चैतन्य चित्स्वरूप है-ज्ञान दर्शन रूप है और शरीर अचित्स्वरूप है-जड़ है।४३ अात्मा और शरीर का सम्बन्ध ४१. स्वसंवेदनवेद्योऽयमात्माऽस्ति सुखदुःखवित् । निषेधित बाधाभावाच्छक्यते न हि केनचित् ।। सुखितोऽहं दुःखितोऽहमिति कस्याऽपि जातुचित् । जायते प्रत्ययो नैव विनाऽऽत्मानमबाधितः । -त्रिषष्ठि० १।१।३४७-३४८ । पृ० १३ ४२. सर्वोह्यात्माऽस्तित्वं प्रत्येति, न नाहमस्मीति । ---ब्रह्मभाष्य १।१।१ । आचार्य शंकर ४३. कायात्मकं न चैतन्यं, न कायश्चेतनात्मकः । मिथो विरुद्धधर्मत्त्वात्तयोश्चिदचिदात्मनोः ॥ -महापुराण पर्व ५, श्लो० ५१ पृ० ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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