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________________ ऋषभदेव : एक परिशीलन उत्पन्न हो जाती है । एतदर्थ ही लोक में पृथ्वी आदि तत्त्वों से बने हुए हमारे शरीर से पृथक् रहने वाला चेतना नामक कोई पदार्थ नहीं है । क्योंकि शरोर से पृथक् उसकी उपलब्धि नहीं होती । संसार में जो पदार्थ प्रत्यक्ष रूप से पृथक् सिद्ध नहीं होते उनका अस्तित्व भी आकाशकुसुमवत् माना जाता है । 3 वर्तमान के सुखों को त्याग कर भविष्य के सुखों की कल्पना करना "प्राधी छोड़ एक को धावै, ऐसा डूबा थाह न पावै" की लौकिक कहावत चरितार्थ करना है । १६ नास्तिक मत का निरसन करते हुए स्वयंबुद्ध अमात्य ने कहापदार्थों को जानने का साधन केवल इन्द्रिय और मन का प्रत्यक्ष ही नहीं, अपितु अनुभव प्रत्यक्ष, योगि प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम भी हैं । इन्द्रिय और मन की शक्ति अत्यन्त सीमित है। इनसे तो चार पाँच पीढी के पूर्वज भी नहीं जाने जा सकते तो क्या उनका अस्तित्व भी न माना जाय ? इन्द्रियाँ केवल शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्शात्मक मूर्त द्रव्य को जानती हैं और मन उन्हीं पदार्थों का चिन्तन करता है । यदि मन अमूर्त पदार्थों को जानता भी है तो श्रागम दृष्टि से ही । स्पष्ट है कि विश्व के सभी पदार्थ सिर्फ इन्द्रिय और मन से नहीं जाने जा सकते । आत्मा शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श नहीं है ।" वह प्ररूपी सत्ता है । ४° प्ररूपी तत्त्व इन्द्रियों से नहीं जाने जा सकते । ३७. पृथ्व्यप्तेजः समीरेभ्यः समुद्भवति ३८. ३६. चेतना | susोदकादिभ्यो, मदशक्तिरिव स्वयम् || ४०. (ख) पृथिव्यप्पवनाग्नीनां सङ्घातादिह चेतना । प्रादुर्भवति मद्याङ्गसङ्गमान्मदशक्तिवत् ॥ - त्रिषष्ठि०, १1१1३३१ ततो न चेतना कायतत्त्वात्पृथगिहास्ति नः । तस्यास्तद्व्यतिरेकेणानुपलब्धेः खपुष्पवत् ॥ अरूवी सत्ता' Jain Education International - महापुराण पर्व ५, श्लो० ३० पृ० ६३ सेण सद्द े ण रूवे, ण गन्धे, ण रसे, ण फासे । " ******* - महापुराण पर्व ५, श्लो० ३१, पृ० ९३ - आचारांग १।५।६।३३३ - आचारांग ११५२६।३३२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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