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________________ श्री ऋषभ पूर्वभव सभा में बैठे हुए मनोविनोद कर रहे थे । उनके प्रमुख चार श्रमात्यों में से स्वयंबुद्ध अमात्य सम्यग्दृष्टि था, संभिन्नमति, शतमति, और महामति ये मिथ्यादृष्टि थे । स्वयंबुद्ध ने देखा – सम्राट् भौतिक वैभव की चकाचौंध में जीवन के लक्ष्य को विस्मृत कर चुके हैं। उसने सम्राट् को सम्बोध देने हेतु धर्म के रहस्य पर प्रकाश डालते हुए कहा- दया धर्म का मूल है । प्राणों की अनुकम्पा ही दया है। दया की रक्षा के लिए ही शेष गुरणों का उत्कीर्तन किया गया है। दान, शील, तप, भावना, योग, वैराग्य उस धर्म के लिंग हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ही सनातन धर्म है । 35 अन्य अमात्यों ने परिहास करते हुए कहा- मंत्रिवर ! जब आत्मा ही नहीं है तब धर्म-कर्म का प्रश्न ही नहीं रहता । जिस प्रकार महुप्रा, गुड़, जल, आदि पदार्थों को मिला देने से उनमें मादक शक्ति पैदा हो जाती है, उसी प्रकार पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि के संयोग से चेतना ३५. कदाचिदथ तस्याऽऽसीद्वर्षवृद्धिदिनोत्सवः । मङ्गलैर्गीतवादित्रनृत्यारम्भैश्च संभृतः ।। सिंहासने तमासीनं तदानीं खचराधिपम् | ३६. स्वयम्बुद्धोऽभवत्तेषु सम्यग्दर्शनशुद्धधीः । शेषा मिथ्याहस्ते मी सर्वे स्वामिहितोद्यताः ॥ १५. --महापुराण० जिन० प० ५ श्लो० १-२ पृ० ९१ Jain Education International (ख) पुराणसार श्लो० ७, दयामूलो भवेद्धर्मो दयाप्राण्यनुकम्पनम् । दयायाः परिरक्षार्थं गुणाः शेषाः प्रकीर्तिताः ।। धर्मस्य तस्य लिङ्गानि दमः क्षान्तिरहिंस्रता । तपो दानं च शीलं च योगो वैराग्यमेव च ॥ अहिंसा सत्यवादित्वमचौर्यं त्यक्तकामता । निष्परिग्रहता चेति प्रोक्तो धर्मः सनातनः ॥ - महापुराण ४।१६२ | पृ० ८६ सर्ग १ । पृ० १ - महापुराण, पर्व ५, श्लो० २१, २२, २३ पु० ६२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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