SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऋषभदेव : एक परिशीलन महापुराण के अनुसार सम्राट् भरत पट्खण्ड पर दिविजय प्राप्त कर और अपार धन लेकर जब अयोध्या लौटे तो उनके मानस में यह संकल्प उत्पन्न हया कि इस विराट् धन का त्याग कहाँ करना चाहिए ?१९. इसका पात्र कौन व्यक्ति हो सकता है ? प्रतिभामूर्ति भरत ने शीघ्र ही निर्णय किया कि ऐसे विलक्षण व्यक्तियों को चुनना चाहिए, जो तीनों वर्गों को चिन्तन-मनन का पालोक प्रदान कर सकें। सम्राट भरत ने एक विराट् उत्सव का आयोजन किया। उसमें नागरिकों को नियंत्रित किया। विज्ञों की परीक्षा के लिए महल के मार्ग में हरी घास फल फूल लगा दिये ।१२० जो व्रतर हित थे वे उस पर होकर महल में पहुँच गये और जो व्रती थे वे वहीं पर स्थित हो गये । १२१ सम्राट ने महल में न पाने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि देव, हमने सुना है कि हरे अंकुर आदि में अनन्त निगोदिया जीव रहते हैं, जो नेत्रों से भी निहारे नहीं जा सकते । यदि हम आपके पास प्रस्तुत मार्ग से आते हैं तो जो शोभा के लिए नाना प्रकार के सचित्त फल-फूल और ग्रंकुर बिछाये गये है उन्हें हमें रौंदना ११६. भरतो भारतं वर्ष निर्जित्य सह पार्थिवः । षष्ट्या वर्षसहस्र स्तु दिशां निववृते जयात् ।। कृतकृत्यस्य तस्यान्तश्चिन्तेयमुदपद्यत । परार्थे सम्पदास्माकी सोपयोगा कथं भवेत् ।। - महापुराण ४-५॥३८।२४० द्वि० भा० १२०. हरितरकुरैः पुष्पैः फलश्चाकीर्णमङ्गणम् । सम्म्राडचीकरतेषां परीक्षायै स्ववेश्मनि ।। ---महापुराण ११।३८।२४० द्वि० भा० १२१. तेष्वव्रता विना सङ्गात् प्राविक्षन् नृपमन्दिरम् । तानेकतः समुत्सायं शेषानाह्वययत् प्रभुः ।। –महापुराण १२।३८।२४० द्वि० भा० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy