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तीर्थङ्कर जीवन
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भगवान् श्री ऋषवदेव की भविष्य वारणो को श्रवण कर सम्राट भरत भगवान् को वन्दन कर मरीचि परिवाजक के पास पहुँचे, और भगवान् की भविष्यवाणी को सुनाते हुए उससे कहा--अयि मरीचि परिव्राजक ! तुम अन्तिम तीर्थङ्कर वनोगे, अतः मैं तुम्हारा अभिनन्दन करता हूँ।२१८ तुम वासुदेव व चक्रवर्ती भी बनोगे।"
यह सुनकर मरीचि के हत्तत्री के तार झनझना उठे-मैं वासुदेव, चक्रवर्ती और तीर्थङ्कर बनूंगा ।२१९ मेरे पिता चक्रवर्ती हैं, मेरे पितामह तीर्थङ्कर हैं और मैं अकेला ही तीन पदवियों को धारण करूँगा !२२° मेरा कुल कितना उत्तम है !
एक दिन मरीचि का स्वास्थ्य बिगड़ गया। सेवा करने वाले के अभाव में मरीचि के मानस में ये विचार उद्बुद्ध हुए कि मैंने अनेकों को उपदेश देकर भगवान् के शिष्य बनाये, पर आज मैं स्वयं सेवा करने वाले से वंचित हैं। अब स्वस्थ होने पर मैं स्वयं अपना शिष्य
(ग) त्रिषष्ठि ११६।३७२ से ३७८ पृ० १६२ । २१८. नावि अ ते पारिवज्जं वंदामि अहं इमं च ते जम्मं । जं होहिसि तित्थयरो अपच्छिमो तेण वंदामि ॥
-आव० नि० गा० ४२८ प० २४४ (ख) महावीर चरियं गा० १२६ से १३६ प० १६ । २१६. जइ वासुदेव पढमो मूआइ विदेह चक्कवट्टित्तं । चरिमो तित्थयराणं होउ अलं इत्तियं मम ।।
-आव०नि० गा० ४३१ प० २४५ २२०. अहयं च दसाराणं पिया मे चक्कवट्टिवंसस्स । अज्जो तित्थयराणं अहो कुलं उत्तम मज्झ ।।
-आव० नि० गा० ४३२।२४५ (ख) यद्याद्यो वासुदेवानां विदेहेषु च चक्रभृत् ।
अन्त्योऽर्हन् भवितास्मीति पूर्णमेतावता मम ॥ पितामहोऽहतामाद्यश्चक्रिणां च पिता मम । दशार्हाणामहं चेति श्रेष्ठं कुलमहो मम ।।
—त्रिषष्ठि० १।६।३८६-३८७
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