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________________ तीर्थङ्कर जीवन १२५ दिगम्बराचार्य जिनसेन और प्राचार्य सकलकीति के मन्तव्यानुसार जिन चार सहस्र राजानों ने भगवान के साथ दीक्षा ग्रहण की थी, उनके साथ ही मरीचि ने भी दीक्षा ली थी।२२3 और वह भी उन राजाओं के समान ही क्ष धा-पिपासा से व्याकुल होकर परिवाजक हो गया था ।२२४ मरीचि के अतिरिक्त सभी परिवाजकों के आराध्यदेव श्री ऋषभदेव ही थे ।२२५ भगवान् को केवल ज्ञान होने पर मरीचि को को छोड़कर अन्य सभी भ्रष्ट बने हुए साधक तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप समझकर पुनः दीक्षित बने ।२२६ जैन साहित्य की दृष्टि से मरीचि 'अादि परिवाजक' था।२२७ (घ) गेलन्नेऽपडियरणं कविला ! इत्थंपि इहयंपि । -आवश्यक नि० गा० ४३७ २२३. (क) स्वपितामहसन्त्यागे स्वयञ्च गुरुभक्तितः । राजभिः सह कच्छाद्यः परित्यक्तपरिग्रहः ।। -उत्तरपुराण, श्लो० ७२ स० ५४, पृ० ४४६ (ख) महावीर पुराण-आचार्य सकल कीर्ति पृ० ६ । २२४. मरीचिश्च गुरोर्नप्ता, परिवाड्भूयमास्थितः । मिथ्या ववृद्धिमकरोद् अपसिद्धान्तभाषितैः ।। -महापुराण जिन० ५० १८, श्लो० ६१ पृ० ४०३ २२५. न देवतान्तरं तेषाम् आसीन्मुक्त्वा स्वयंभुवम् । -महा० जिन० १८६०।४०२ २२६. मरीचिवाः सर्वे पि तापसास्तपसि स्थिताः । भट्टारकान्ते सम्बुद्ध य महाप्रावाज्यमास्थिताः ।। -महापुराण जिन० २४।१८२।५६२ २२७. शशंस भगवानेवं, य एष तव नन्दनः । मरीचिर्नामधेयेन परिव्राजक आदिमः ।। -त्रिषष्ठि० १।६।३७३ (ख) अदीक्षयत् स कपिलं, स्वसहायं चकार च । परिव्राजकपाखण्डं, ततः प्रभृति चाऽभवत् ।। -त्रिषष्ठि० १।६।५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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