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________________ गृहस्थ जीवन का प्रारम्भ हो रहा था और संग्रह वृत्ति का सूत्रपात हो चला था । ऐसी स्थिति में अपराधवृत्ति का विकास होना भी स्वाभाविक था और वह हो रहा था । सर्वप्रथम राजा पूर्व में यह बताया जा चुका है कि श्री ऋषभदेव के पिता 'नाभि' अन्तिम कुलकर थे । जब उनके नेतृत्व में ही धिक्कारनीति का उल्लंघन होने लगा, प्राचीन मर्यादाएँ विच्छिन्न होने लगीं, तब उस अव्यवस्था से यौगलिक घबराकर श्री ऋषभदेव के पास पहुँचे और उन्हें सारी स्थिति का परिज्ञान कराया ।" ऋषभदेव ने कहा - "जो मर्यादाओं का अतिक्रमण कर रहे हैं उन्हें दण्ड मिलना चाहिए और यह व्यवस्था राजा ही कर सकता है, क्योंकि शक्ति के सारे स्रोत उसमें केन्द्रित होते हैं ।" समय को परखने वाले नाभि ने यौगलिकों की विनम्र प्रार्थना पर ऋषभदेव का राज्याभिषेक कर "राजा" घोषित किया ।" ऋषभदेव राजा बने और शेष जनता प्रजा । इस प्रकार पूर्व चली आ रही " कुलकर" व्यवस्था का अन्त हुआ और एक नवीन अध्याय का प्रारम्भ हुआ । राज्याभिषेक के समय युगलसमूह कमलपत्रों में पानी लाकर ऋषभदेव के पद-पद्मों का सिंचन करने लगे । उनके विनीत स्वभाव ७७. ७८. नीतीण अमरणे निवेयणं उसभसामिस्स ( ख ) राया करेइ दंड सि ते बेंति अम्हवि स होउ । मग्गहय कुलगरं, सो य बेइ उसभो य भे राया ॥ - आव० नि० गा० १६३ म० वृ० प० १६४ आवश्यक चूर्णि - पृ० १५३ -- Jain Education International ७५ (ख) आवश्यक चूर्णि पृ० १५३-१५४ (ग) विदितानुरागमापौरप्रकृतिजनपदो राजा । नाभिरात्मजं समयसेतु रक्षायामभिषिच्य ...*.*** || - आव० नि० गा० १६४ म० वृ० १९४ - श्री मद्भागवत ५|४|५ पृ० ५५६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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