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तीर्थङ्कर जीवन
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थे, अतः षट्खण्ड को तो उन्होंने जीत लिया था, पर अभी तक अपने भ्राताओं को अपना आज्ञानुवर्ती नहीं बना पाये थे; एतदर्थ अपने लघु भ्राताओं को अपने अधीन करने के लिए उन्होंने दूत प्रेषित किये ।२४१ अठानवें भ्राताओं ने मिलकर इस विषय में परस्पर परामर्श किया, परन्तु वे निर्णय पर नहीं पहुँच सके ।२४२ उस समय भगवान् श्री ऋषभदेव अष्टापद पर्वत पर विचर रहे थे। वे सभी भगवान् के पास पहुंचे ।२४३ स्थिति का परिचय कराते हुए नम्र निवेदन किया-प्रभो !
२४१. अन्नया भरहो तेसिं भातुगाणं पत्थवेति, जहा ममं रज्जं आयाणह;
-आवश्यकचूणि, पृ० २०६ (ख) अन्नया भरहो तेसि भाउयाणं दूयं पट्टवेइ, जहा-मम रज्जं आयाणह;
-आवश्यक मल०, २३१।१ (ग) प्राहिणोत्स निसृष्टार्थान् दूताननुजसन्निधिम् ।
-महापुराण जिन० ३४।८६।१५६ २४२. ते भणंति-अम्हवि रज्जं ताएण दिण्णं, तुज्झवि, एतु ताव ताओ पुच्छिज्जिहिति, जं भणिहिति तं करीहामो,
-आवश्यक मल वृत्ति० पृ० २३१।१ (ख) ते भणंति-अम्हवि रज्जं ताएहि दिन्न तुज्झवि, एतु ता तातो ताहे पुच्छिज्जिहित्ति, जं भणिहीत्ति तं काहामो ।
-आवश्यकचूणि, पृ० २०६ प्रत्यक्षो गुरुरस्माकं प्रतपत्येष विश्वहक । स नः प्रमाणमैश्वर्यं तद्वितीर्णमिदं हि नः ।। तदत्र गुरुपादाज्ञा तन्त्रा न स्वैरिणो वयम् । न देयं भरतेशेन नादेयमिह किञ्चन ।।
३४।६३-६४/१५९ २४३. आवश्यक चूणि पृ० २०६ । (ख) तेणं समएणं भयवं अट्ठावयमागओ विहरमाणो तत्थ सब्वे समोसरिया कुमारा।
-आवश्यक मल० वृत्ति, पृ० २३१।१
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