________________
तीर्थङ्कर जीवन
द्वादश वृतों का निरूपण किया ।१८२ मर्यादित विरति अणुक्त और पूर्ण विरति महावत है ।१८३
भगवान् के प्रथम गणधर ऋषभसेन हुए।८४ श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार वे सम्राट भरत के पुत्र थे८५ और दिगम्बर ग्रन्थों के अनुसार वे भगवान् श्री ऋषभदेव के पुत्र थे।१८६ श्री समयसुन्दर जी
(ख) आवश्यक नियुक्ति गा० ३४० । १८२. देखिए उपासक दशांग में द्वादश व्रतों का निरूपण ।
(ख) तत्त्वार्थ सूत्र में भी। १८३. एभ्यो हिंसादिभ्य एकदेशविरतिरणुव्रतं, सर्वतो विरतिर्महाव्रतमिति ।
-~-तत्त्वार्थ ७।२ भाष्य १८४. उस भस्स णं अरहओ कोसलियस्स उसभसेणपामोक्खाओ चउरासीई समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था । ।
-कल्पसूत्र, सू० १६७ पृ० ५८ पुण्य (ख) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (ग) समवायाङ्ग १५७ गा० ३६-४१ (घ) त्रिषष्ठि० ११३ (ङ) तेप ऋषभसेनाद्याश्चतुरशीतिर्गणधराः स्थापिताः
-कल्पार्थबोधनी पृ० १५१ (च) कल्पसुबोधिका विनय० पृ० ५१२ १८५. तत्थ उसभसेणो नाम भरहपुत्तो पुन्वभवबद्धगणहरनामगुत्तो जायसंवेगो पव्वइओ।
--आवश्यक मल० वृ०-पृ० २२६
१८६. योऽसौ पुरिमतालेशो भरतस्यानुजः कुती ।
प्राज्ञः शूरः शुचि/रो, धौरेयो मानशालिनाम् ।। श्रीमान् वृषभसेनाख्यः प्रज्ञापारमितो वशी। स सम्बुध्य गुरोः पाश्वें दीक्षित्वाभूद गणाधिपः ।।
-~-महापुराण २४११७१--१७२ पृ० ५६१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org