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तीर्थंङ्कर जीवन
है, तप संयम की विशुद्ध प्राराधना- साधना करता हुआ २१ एकादश ङ्गों का अध्ययन करता है । २३ पर एक बार वह भीष्म - ग्रीष्म के प्रातप से प्रताड़ित होकर साधना के कठोर कंटकाकीर्ण महामार्ग से विचलित हो जाता है । २०३ उसके अन्तर्मानस में ये विचार - लहरियाँ तरंगित होती हैं कि मेरुपर्वत सदृश यह संयम का महान् भार मैं एक मुहूर्त भी सहन करने में असमर्थ हूँ । २१४ क्या मुझे पुनः गृहस्थाश्रम स्वीकार करना चाहिए ? नहीं, कदापि नहीं । और मैं संयम का भी विशुद्धता से पालन नहीं कर पाता, अतः मुझे नवीन वेषभूषा का निर्माण करना चाहिए । २०५
श्रमण संस्कृति के श्रमण त्रिदण्ड- मन वचन काय के अशुभ व्यापारों से रहित होते हैं, इन्द्रियविजेता होते हैं, पर तो मैं त्रिदण्ड से युक्त हूँ, और अजितेन्द्रिय हूँ, अतः इसके प्रतीक रूप त्रिदण्ड को धारण करूँगा ।
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२०१. मरिईवि सामिपासे विहरइ तवसंजमसमग्गो ।
२०२. सामाइअमाई
इक्कारसमा उ जाव अंगाओ ।
उज्जुतो भत्तिगओ अहिज्जिओ सो गुरुसगासे ||
- आवश्यक भाष्य, गा० ३६
२०३. अह अन्नया कयाइ गिम्हे उण्हेण परिगयसरीरो । अहाणपण चइओ इमं कुलिंगं विचितेइ ॥
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-आवश्यक भाष्य० गा० ३७
- आव० नि० गा० ३५० मल० वृ० प० २३३।१ २०४. मेरुगिरीसमभारे न हुवि समत्यो मुहुत्तमवि वोढुं । सामन्नए गुणे गुणरहिओ संसारमरणुकखी ॥
- आव० नि० गा० ३५१ म० वृ० २३३।१
२०५ एवमरणुचितयंतस्स तस्स निअगा मई समुप्पन्ना । लो मए उवाओ जाया मे सासया बुद्धी ॥
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२०६. समणा तिदंडविरया भगवंतो निहुअसंकु अगा । अजिs दिअदंडस्स उ होउ तिदंड महं चिधं ॥
- आव० नि० गा० ३५२
- आव० नि० गा० ३५३ मल० प० २३३
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