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________________ श्री ऋषभ पूर्वभव लेने के पश्चात् सीमाप्रान्तीय राजा पुष्करपाल की प्राज्ञा का उलंघन करने लगे । वज्रजंघ उसकी सहायतार्थ गया और शत्रुओं पर विजय वैजयन्ती फहराकर पुनः अपनी राजधानी लौट रहा था कि उसे ज्ञात हुआ कि प्रस्तुत अरण्य में दो मुनियों को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है और उनके दिव्य प्रभाव से दृष्टिविष सर्प भी निर्विष हो गया है। वज्रजंघ मुनियों के दर्शन हेतु गया । उपदेश सुन वैराग्य उत्पन्न हुआ पुत्र को राज्य देकर संयम ग्रहण करूंगा, इस भावना के साथ वह वहाँ से प्रस्थान कर राजधानी पहुँचा ।" इधर पुत्र ने सोचा कि पिताजी जीते जी मुझे राज्य देंगे नहीं, तदर्थ उसने उसी रात्रि को वज्रजंघ के महल में जहरीला धुआँ फैलाया, जिसकी गंध से वज्रजंघ और 'श्रीमती' दोनों ही मृत्यु को प्राप्त हुए | " ७९ महापुराणकार आचार्य जिनसेन ने प्रस्तुत घटना का इस रूप में चित्रण किया है - "वज्रदन्त चक्रवर्ती ने अपने लघुभ्राता अमिततेज ७८. उत्पेदे केवलज्ञानं, द्वयोरत्राsनगारयोः । तत्र देवागमोद्योताद् दृग्विषो ( निर्विषोऽभवत् ॥ -त्रिषष्ठि १|१|७०२ ७६. त्रिषष्ठि १1१1७०८-७०६ । ८०. तदिदानीं पुरीं गत्वा, दत्त्वा राज्यं च सूनवे । हंसस्येव गति हंसः श्रयिष्येऽहं पितुर्गतिम् ॥ संवादिन्या व्रतादानेऽनुस्यूतमनसेव सः । सहितः श्रीमतीदेव्या, प्राप लोहार्गलपुरम् ॥ - त्रिषष्ठि १1७१०-७११ ८१. पुण रज्जकंखिणा वासघरे जोगघूवप्पयोगेण मारितो । Jain Education International -आव० मल० वृ० प० १५८ विषधूपं व्यधात् पुत्रस्तयोस्तु सुखसुप्तयोः । कस्तं निरोद्ध मीशः स्याद, गृहादग्निमिवोत्थितम् ? तद्ध पधूमैरधिकैर्जीवाकर्षाङकुरैरिव । घ्राणप्रविष्टस्तो सद्यो, दम्पती मृत्युमापतुः ॥ - त्रिषष्ठि १।१।७१४-७१५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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