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________________ श्री ऋषभ पूर्वभव इस प्रकार धन सार्थवाह का जीव, जो अब तक प्राध्यात्मिक विकास की प्रथम भूमिका - सम्यग् दर्शन — तक ही पहुँच पाया था, इस भव में अधिक अग्रसर हुआ। इस बार उसने चतुर्थ गुणस्थान से ऊपर उठ कर छठे - सातवें गुणस्थान की भूमिका पर पाँव रक्खा । [५] ललिताङ्ग देव महाबल का जीव ऐशान कल्प में ललिताङ्ग देव हुआ *४ और वह वहाँ स्वयंप्रभा देवी में अत्यधिक आसक्त बना | जब स्वयंप्रभा देवी वहाँ से च्यव जाती है तब ललिताङ्ग देव उसके विरह में प्राकुलव्याकुल बन जाता है । १५ स्वयं बुद्ध श्रमात्य, जो इसी कल्प में देव बना था, आकर सान्त्वना देता है । 48 स्वयंप्रभा देवी भी वहाँ से ५४. ५५. ५६. ईसार कप्पे सिरिप्पभविमारणे ललियंगतो नाम देवो जातो । - आवश्यक नियुक्ति मल० वृ० प० १५८ ( ख ) ईसाणे कप्पे सिरिप्पभेविमाणे ललियंओ नाम देवो जाओ । -- आवश्यक हरिभद्रीयावृत्ति प० ११६ त्रिषष्ठि० १|१|४६०।४६४ ( ग ) (घ) देहभारमथोत्सृज्य लघूभूत इव क्षणात् । प्रापत् स कल्पमैशानम् अनल्पसुखसन्निधिम् ।। तत्रोपपादशय्यायाम् उदपादि महोदयः । विमाने श्रीप्रभे रम्ये, ललिताङ्गः सुरोत्तमः ॥ दलं वृक्षादिव दिवस्ततोऽच्योष्ट स्वयम्प्रभा । आयुः कर्मणि हि क्षीणे, नेन्द्रोऽपि स्थातुमीश्वरः ॥ आक्रान्तः पर्वतेनेव, कुलिशेनेव ताडितः । प्रियाच्यवनदुःखेन, ललिताङ्गोऽथ मूच्छितः ॥ इतरच २१ - महापुराण ५।२५३-२५४।११६ स्वामिमरणोत्पन्न राग्यवासनः । स्वयम्बुद्धोऽप्यात्तदीक्ष: श्रीसिद्धाचार्यसन्निधौ । Jain Education International -त्रिषष्ठि १|१|५१५- ५१६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003187
Book TitleRishabhdev Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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