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ऋषभदेव : एक परिशीलन
वैभव था, सुदूर विदेशों में वह व्यापार भी करता था। एक बार उसने यह उद्घोषणा करवाई कि जिसे वसन्तपुर व्यापारार्थ चलना है वह मेरे साथ सहर्ष चले । मैं सभी प्रकार की उसे सुविधाएँ दूँगा । शताधिक व्यक्ति व्यापारार्थ उसके साथ प्रस्थित हुए।"
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धर्मघोष नामक एक जैन आचार्य भी अपने शिष्यसमुदाय सहित वसन्तपुर धर्म प्रचारार्थ जाना चाहते थे। पर, पथ विकट संकटमय होने से बिना साथ के जाना सम्भव नहीं था । आचार्य ने जब उद्घोषणा सुनी तो श्रेष्ठी के पास गये और श्रेष्ठी के साथ चलने की भावना अभिव्यक्त की । " श्रेष्ठी ने अपने भाग्य की सराहना करते हुए
१३.
(क) सो खितिपइट्टियातो नगरातो वाणिज्जेण वसन्तपुरं पट्टितो. घोसरण करेइ, जहा --- जो मए सद्धि जाइ तस्साहमुदन्तं वहामि, तं जहा - " खाणेण वा पारणेरण वा वत्थेण वा, पत्तेण वा, ओसहेण वा, भेसज्जेण वा अण्णेण वा जो जेण विणा विसूरइ तेरणं" ति ।
१५.
-- आवश्यक मल० वृ० पत्र १५८ । १
(ख) आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति पत्र ११५ (ग) सार्थवाहो धनस्तस्मिन् सकलेऽपि पुरे ततः । डिण्डिमं ताडयित्वोच्चैः पुरुषानित्यघोषयत् ॥ असौ धनः सार्थवाहो, वसन्तपुरमेष्यति । ये केऽप्यत्र यियासन्ति, ते चलन्तु सहाऽमुना ॥ भाण्डं दास्यत्यभाण्डायाऽवाहनाय च वाहनम् । सहायं चाऽसहायायाऽसम्बलाय च सम्बलम् || दस्युभ्यस्त्रास्यते मार्गे, पदोपद्रवादपि । पालयिष्यत्यसो मन्दान् सहगान् बान्धवानिव ॥
१४. तं च सोऊण बहवे तडियकप्पडियातो पयट्टा ।
- त्रिषष्टि० १1१1४५-४८ पृ० ३।१
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- आवश्यक मल० वृ० प० १५८.
आवश्यक चूर्णि० पृ० १३१
( ख ) आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति प० ११५
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