Book Title: Prakrit Vidya 02
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ISSN No.0971-796x प्राकृत दिया वर्ष 13, अंक 4 वर्ष 14, अंक 1 वैशालिक-महावीर-विशेषांक जनवरी-जून 2002 ई. विदेहकुण्डपुर में प्रतिष्ठापित होगी भगवान महावीर की दिव्यप्रतिमा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवरण पृष्ठ के बारे में विदेह - कुण्डपुर (वैशाली) में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव भगवान् वर्धमान महावीर की जन्मभूमि विदेह - कुण्डपुर (वैशाली) में 'अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी' जैसी सुप्रतिष्ठित राष्ट्रीय संस्था के तत्त्वावधान में भगवान् महावीर की एक भव्य एवं नयनाभिराम प्रतिमा का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव सन् 2005 में अत्यंत गरिमापूर्वक मनाये जाने की योजना बन चुकी है। इसके निमित्त इटली से शरदपूर्णिमा की चाँदनी जैसा धवल एवं आभावान् संगमरमर का पाषाण-खण्ड चुन लिया गया है । तथा विशेषज्ञ मूर्तिकार उसकी एक भव्य और विशाल प्रतिमा बनाने के लिये कार्यरत हैं । यह समस्त कार्य धर्मानुरागी श्री साहू रमेश चन्द्र जैन, अध्यक्ष, दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी तथा श्री नरेश कुमार सेठी, अध्यक्ष, अतिशयक्षेत्र श्रीमहावीरजी कमेटी आदि अनेकों सुप्रतिष्ठित धर्मानुरागी महानुभावों की सक्रिय देखरेख में अत्यन्त सावधानी और गरिमापूर्वक सम्पन्न हो रहे हैं । इस प्रतिष्ठा-महोत्सव की गरिमापूर्ण सफलता के लिये जैनसमाज के वरिष्ठतम आचार्य परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज से विनम्र अनुरोध किया गया है। इसके पीछे समाज का यही आशय है कि पूज्य आचार्यश्री के पावन सान्निध्य एवं मार्गदर्शन में गोम्मटेश्वर सहस्राब्दी महामस्तकाभिषेक समारोह (1981), गोम्मटगिरि की स्थापना का भव्य-समारोह, श्रीमहावीरजी सहस्राब्दी महामस्तकाभिषेक समारोह आदि अनेकों कार्यक्रम अभूतपूर्व गरिमापूर्वक सम्पन्न हुये हैं, तथा उन्हीं के सान्निध्य में यह कार्यक्रम भी श्रेष्ठता के नये मापदण्ड स्थापित करेगा । परमपूज्य आचार्यश्री ने उस समय के स्वास्थ्य की अनुकूलता आदि परिस्थितियों को देखते हुये कार्यक्रम में सान्निध्य प्रदान करने की अनुमति दी है । सम्पूर्ण समाज की ओर से यही मंगल - प्रार्थना है कि पूज्य आचार्यश्री का स्वास्थ्य अनुकूल रहे, और उनकी पावन - सन्निधि में यह कार्यक्रम सम्पन्न हो सके । यदि किसी स्वास्थ्य आदि अपरिहारी कारणवश पूज्य आचार्यश्री स्वयं इस कार्यक्रम में सम्मिलित नहीं हो सके, तो उनकी ओर से कोई विशिष्ट प्रतिनिधि ( मुनिराज ) अवश्य इस अवसर पर वहाँ सक्रियरूप से उपस्थित रहेंगे। वैसे वर्तमान स्वास्थ्य एवं मनोदशा को देखते हुये यह पूर्ण विश्वास है कि पूज्य आचार्यश्री की पावन - सन्निधि में ही यह पंचकल्याणक - प्रतिष्ठा-महोत्सव अभूतपूर्व गरिमा और उच्चस्तरीय आयोजन के साथ सम्पन्न होगा । पूज्य आचार्यश्री ने इस कार्यक्रम को अपना मंगल- आशीर्वाद तथा कार्यक्रम में स्वयं उपस्थित रहने की स्वीकृति मात्र इसीलिये प्रदान की है, कि अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर तीर्थक्षेत्र कमेटी ही भारत के दिगम्बर जैन तीर्थों की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था है, और उसके विरुद्ध प्राचीन तीर्थस्थानों सम्बन्धी किसी भी विवाद को प्रश्रय न मिले, तथा सभी लोग अच्छी तरह जान लें, कि भगवान् महावीर की जन्मभूमि 'विदेहकुण्डपुर' (वैशाली) ही थी, न कि मगध प्रान्त के ‘नालन्दा' के समीपवर्ती 'बडगांव'sbnal Use Only Jain सम्पादक www.jainenbrary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |ISSN No. 0971-796 x/ MA ।। जयदु सुद-देवदा।। प्राकृत-विद्या PRAKRIT-VIDYA Pagad-Vijja पागद-विज्जा शौरसेनी, प्राकृत एवं सांस्कृतिक मूल्यों की त्रैमासिकी शोध-पत्रिका The quarterly Research Journal of Shaurseni, Prakrit & Cultural Values वीरसंवत् 2528 जनवरी-जून 2002 ई० वर्ष 13 अंक 4, वर्ष 14 अंक 1 Veersamvat 2528 January-June '2002 Year 13 & 14 Issue 4 & 1 आचार्य कुन्दकुन्द समाधि-संवत् 2014 - मानद प्रधान सम्पादक प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन निदेशक, कुन्दकुन्द भारती जैन शोध संस्थान Hon. Chief Editor PROF. (DR.) RAJA RAM JAIN Director, K.K.B. Jain Research Institute मानद सम्पादक Hon. Editor डॉ. सुदीप जैन DR.SUDEEP JAIN एम.ए. (प्राकृत), पी-एच.डी. M.A. (Prakrit), Ph.D. . Publisher प्रकाशक श्री सुरेश चन्द्र जैन मंत्री श्री कुन्दकुन्द भारती ट्रस्ट SURESH CHANDRA JAIN Secretary Shri Kundkund Bharti Trust ★ वार्षिक सदस्यता शुल्क __ - पचास रुपये (भारत) ★ एक अंक - पन्द्रह रुपये (भारत) 6.0 % (डालर) भारत के बाहर 1.5 $ (डालर) भारत के बाहर प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 1. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादक-मण्डल डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री प्रो. (डॉ.) प्रेमसुमन जैन डॉ. उदयचन्द्र जैन . प्रो. (डॉ.) शशिप्रभा जैन प्रबन्ध सम्पादक डॉ. वीरसागर जैन श्री कुन्दकुन्द भारती (प्राकृत भवन) 18-बी, स्पेशल इन्स्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली-110067 फोन (011)6564510,6513138 फैक्स (011)6856286 Kundkund Bharti (Prakrit Bhawan) 18-B, Spl. Institutional Area New Delhi-110067 Phone (91-11)6564510, 6513138 Fax (91-11)6856286. वज्जि -रख इस देश के प्राचीनतम गणतन्त्रों में से एक सर्वाधिक प्रभावशाली गणतन्त्र का नाम 'वज्जि-गणतन्त्र' था, इसे वज्जिसंघ' या वज्जि-रटु' (वज्जिराष्ट्र) या वैशाली गणतन्त्र' भी कहा जाता था। यह वज्जि' शब्द 'वृजिन' शब्द से निर्मित है, जिसका अर्थ जिनेन्द्र भगवान् है। चूंकि वज्जि लोग जिनेन्द्र भगवान् के मतानुयायी थे, अत: उन्हें 'वज्जि' या 'वृजिन' संज्ञा प्राप्त हुई। - 'धनञ्जय नाममाला' (131) में पाप को जीतनेवाले को वृजिन' कहा गया है। चूंकि जिनेन्द्र मतानुयायी अन्तिम समय में शरीर मात्र को परिग्रह समझकर उसका मोह भी त्याग देते थे, और सल्लेखना-विधि से स्वेच्छापूर्वक देहत्याग कर देते थे; अत: उन्हें. 'वृजिन' कहा गया। काव्यशिक्षा' में तीर्थंकर ऋषभदेव को वृजिनं जिन:' की संज्ञा दी गयी है— श्रीमन्नाभि-नरेन्द्रस्य, नन्दनो वृजिनं जिन:। नीतित्रयी-लताकन्दो, हरतादघघस्मरः ।। -(काव्यशिक्षा, 29) .. श्रीमान् नाभिराजा के नंदन, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप नीतित्रयी-वल्लरीके कन्द (सत्प्रसव), पापों का विनाश करनेवाले भगवान् ऋषभदेव वृजिनेश्वर हमारे कलुषों का क्षय करें। ___ महाकवि 'कल्हण' ने काश्मीर नरेश को 'वृजिन' कहकर जैनमतानुयायी और जिनधर्म-प्रभावक घोषित किया है. 'य: शांतवृजिनो राजा, प्रपन्नो जिनशासनम् ।' ---(राजतरंगिणी, 1/102) ऋग्वेद में बाईसवें तीर्थकर अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) को भी वृजिन' कहा गया है- 'अरिष्टनेमि परिद्यामियानं, विद्याभेषं वृजिनं चीरदानम्।' (ऋग्वेद, 2/4/24) ** Jain Sallation International प्राकतविद्या-जनवरी-जन '2002 वैशालिक-महातीर-विपोषांक y.org Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम) लेखक पृष्ठ सं० आचार्य मल्लिषेण डॉ. सुदीप जैन सतीश चन्द्र जैन डॉ. योगेन्द्र मिश्र डॉ० ऋषभचन्द जैन 'फौजदार' डॉ. अरविन्द महाजन डॉ. जयदेव मिश्र डॉ. शान्ति जैन पं. नाथूलाल शास्त्री क्र. शीर्षक 01. मंगलाचरण : श्री वाग्देवी स्तोत्रम् 02. सम्पादकीय : क्या वर्धमान महावीर की जन्मभूमि 'वैशाली-कुण्डपुर' नहीं है? 03. भगवान् महावीर की जन्मभूमि कुण्डपुर' विदेह में या मगध में 04. महावीर की जन्मभूमि : जैन साहित्य के सन्दर्भ में। 05. भगवान् महावीर का जन्म-स्थान 06. वैशाली : जन्मभूमि महावीर की 07. वर्द्धमान और वैशाली : संस्कृत-साहित्य के सन्दर्भ में 08. सर्वमान्य है महावीर की जन्मस्थली वैशाली 09. भगवान् महावीर की जन्मभूमि 'कुण्डलपुर' या ___'कुण्डपुर' (तथ्य और सत्य) 10. वैशाली-कुण्डग्राम 11. वैशाली के राजकुमार 12. वैशाली-गणतन्त्र 13. कुन्दकुन्द-वचनामृत 14. महावीर की जन्मभूमि वैशाली' की महिमा 15. भगवान् महावीर : वैशाली की दिव्य-विभूति 16. वैशाली 17. भगवान् महावीर के उपदेशों की वर्तमान-सन्दर्भ में उपयोगिता 18. प्राकृत साहित्य में महावीर का धर्म दर्शन 19. महावीर की अचेलक परम्परा 20. नारी-जागरण के क्षेत्र में भगवान् महावीर का योगदान 21. सम्राट अशोक के शिलालेखों में उपलब्ध महावीर-परम्परा के पोषक-तत्त्व 22. महावीर-वाणी 23. भगवान् महावीर के अहिंसक-दर्शन में 'करुणा' 24. जैनधर्म की परम्परा और तीर्थकर ऋषभदेव 25. जैनधर्म का प्रसार 26. 'नीराजन' : स्वरूप एवं परम्परा 27. सांख्य दर्शन : परम्परा और प्रभाव 28. यह द्वादशांग का चिन्तन है 29. भारतीय आस्था के स्वर 'जन-गण-मन....... 30. राष्ट्रपति-सहस्राब्दी-पुरस्कार' मेरा सम्मान नहीं..... 31. पुस्तक समीक्षा 32. अभिमत 33. समाचार दर्शन 34. इस अंक के लेखक लेखिकायें पं. बलभद्र जैन डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री श्री राजमल जैन मिश्रीलाल जैन डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी महोपाध्याय पं. बलदेव उपाध्याय आचार्य चतुरसेन शास्त्री प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन डॉ. उदयचन्द्र जैन श्रीमती मंजूषा सेठी प्रो. (डॉ.) विद्यावती जैन प्रो. (डॉ.) शशि प्रभा जैन 115 152 पं. जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' 128 अजय कुमार झा 129 मधुसूदन नरहर देशपाण्डे 134 शान्ताराम भालचन्द्र देव 138 प्रभात कुमार दास 149 श्रीमती रंजना जैन डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया 162 डॉ. सुदीप जैन 163 प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन 167 172 177 184 203 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 003 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (मंगलाचरण श्री वाग्देवी स्तोत्रम् -आचार्य मल्लिषेण चन्द्रार्क-कोटिघटितोज्ज्वलदिव्यमर्ते ! श्रीचन्द्रिकाकलितनिर्मलसप्रभासे ! कामार्थदे ! च कलहंस-समाधिरूढे ! वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि!।।1।। अर्थ :-- हे कोटि-कोटि चन्द्रसूर्यों से निर्मित उज्ज्वल एवं दिव्यस्वरूपे ! हे लक्ष्मी और चन्द्रातप (कौमुदी) कलित स्वच्छप्रभाधारिणि ! हे कामनाओं और अर्थ-सम्पत्ति को प्रदान करनेवाली ! हे राजहंस-पृष्ठ-आरोहणशीले ! हे अम्ब ! वागेश्वरि ! देवि ! आप प्रतिदिन मेरी रक्षा करें।। 1।। देवासरेन्द्र-नतमौलिमणि-प्ररोचि: श्री मञ्जरी-निविड-रजित-पादपद्म ! नीलालके ! प्रमदहस्ति-समानयाने ! वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ! ।। 2 ।। अर्थ :- हे नतमस्तक होकर वन्दना करनेवाले देवेन्द्रों एवं असुरेन्द्रों की मुकुटमणिस्फुरित किरणमय श्री मंजरी से अतिशय-रंजित चरणकमल विशोभिते ! हे नील-श्यामकेशिनि ! हे मत्तगजेन्द्र-गामिनि ! हे अम्ब ! देवि ! वागीश्वरि (वाणी की ईश्वरी) ! आप प्रतिदिन मेरी रक्षा करें।। 2।। केयूर-हार-मणि-कुण्डल-मुद्रिकाद्यैः सर्वांगभूषण ! नरेन्द्र-मनीन्द्रवन्ध ! • नाना-सुरत्नवर-निर्मलमौलियुक्ते ! वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि!।। 3 ।। अर्थ :- हे अम्ब ! आप केयूर (अंगद-बाहुधारणीय आभूषण) हार (ग्रीवाभूषण) तथा मणिजटित कुण्डल तथा मुद्रिका (अंगुलि-अलंकार) आदि सर्वांग के आभूषणों से विभूषित हैं, नरपति और मुनीश्वर आपकी वन्दना करते हैं। आपका मौलिमुकुट अनेक श्रेष्ठ-रत्नों की निर्मल गुम्फन-विधि से विरचित है। हे देवि ! वागीश्वरि ! आप प्रतिदिन मेरी रक्षा करें।। 3 ।। पूज्ये ! पवित्रकरणोन्नकामरूपे ! नित्यं फणीन्द्र-गरुडाधिप-किन्नरेन्द्रैः ! विद्याधरेन्द्र सर यक्ष समस्तवृन्दैर्वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ! ।। 4।। अर्थ :-- हे पूजनीये ! देवि ! (दिव्यरूपिणी) हे पवित्र इन्द्रियवती एवं कामनाओं के 004 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नत स्वरूप को धारण करनेवाली ! फणीन्द्र-गरुडाधिप-किन्नरपति विद्याधर-इन्द्र-देवयक्ष आदि सभी से सामूहिकरूप से स्तवनीये ! वागीश्वरि ! आप प्रतिदिन मेरी रक्षा करें।। 4 ।। कंकेलि-पल्लव-विनिन्दक-पाणियुग्मे ! पद्मासने ! दिवसपद्म-समानवक्त्रे! जैनेन्द्रवक्त्र-भवदिव्य-समस्तभाषे! वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि!।।5।। अर्थ :- हे अशोकवृक्ष के सुकुमार-किसलय (नवीन पत्र) को तिरस्कृत करनेवाले करतल को धारण करनेवाली ! पद्म पर विराजमाने ! दिन में विकसित होनेवाले कमल के समान मुखशोभा-विलसिते ! भगवान् जिनेन्द्र के मुख से समुत्पन्न दिव्य-ध्वनि को समस्तरूप से भाषण करने में निपुणे ! हे देवि ! वागीश्वरि ! आप प्रतिदिन मेरी रक्षा करें।। 5 ।। मंजीरकोत्कनक-कंकण-किंकिणीनां ! काञ्च्याश्च झंकृतरवेण विराजमाने!. सद्धर्मवारिनिधिसन्तत-वर्धमाने ! वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि !।।6।। अर्थ :- हे देवि ! आप मंजीर (नपुर) खनकते हुए कंकण एवं किकिंणी और कांची (कटिसूत्र) से झंकृतस्वर से विराजमान हैं। सद्धर्मरूपसमुद्र से सिंचन से निरन्तर वृद्धि को प्राप्त हैं अथवा सद्धर्मरूप समुद्र के समान निरन्तर वर्धिष्णु हैं अथवा सद्धर्मसमुद्र में निरन्तर समृद्धि को प्राप्त करनेवाली हैं । हे देवि ! वागीश्वरि ! आप प्रतिदिन मेरी रक्षा करें।।6।। अर्धन्दमण्डित जटाललितस्वरूपे ! शास्त्रप्रकाशिनि ! समस्तकलाधिनाथे ! चिन्मुद्रिकाजपशराभयमुद्रिकांके ! वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि !।।7।। अर्थ :- हे देवि ! आपकी केशराशि में अर्धचन्द्रमा का मुकुट लगा है, जिससे आपका रूप अत्यधिक ललित हो उठा है। हे अम्बा ! आप शास्त्रों के गूढ़तत्त्व की प्रकाशयित्री हैं। सम्पूर्ण कलाओं की स्वामिनी हैं। आप ज्ञानमुद्रा, जपमाला, शर और अभयमुद्रा से शोभित हैं। हे वागीश्वरि ! आप प्रतिदिन मेरी रक्षा करें।। 7।। डिण्डीरपिण्डहिमशंखसिताभ्रहारे ! पूर्णेन्दुबिम्बरुचि-शोभित-दिव्यगात्रे! चाञ्चल्यमान मृगशाव-ललामनेत्रे ! वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि!।।8।। अर्थ :- हे देवि ! आपके गले में विराजमान हार (पुष्पहार अथवा मुक्तामाला) समुद्रफेन, तुषार (बर्फ), शंख और कपूर के समान श्वेत कान्ति है। आपका दिव्य-शरीर पूर्णिमा के चन्द्रबिंब की किरणों के समान दिव्य (तैजस्) हैं, आपके नेत्र चंचल-मृगशिशु के नेत्रों के समान मंजुल (लालम–सुन्दर) हैं। हे वागेश्वरि ! आप प्रतिदिन मेरी रक्षा करें।।8।। सरस्वत्या प्रसादेन काव्यं कुर्वन्ति मानवा: । तस्मान्निश्चलभावेन पूजनीया सरस्वती।।9।। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 005 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्वती मया दृष्टा दिव्या कमललोचना। हंसस्कन्धसमारूढा वीणापुस्तकधारिणी।। 10 ।। प्रथमं भारती नाम द्वितीयं च सरस्वती। ततीयं शारदादेवी चतुर्थं हंस-गामिनी।। 11 ।। पंचमं विदुषां माता षष्ठं वागीश्वरी तथा । कुमारी सप्तमं प्रोक्ता अष्टमं ब्रह्मचारिणी।। 12 ।। अर्थ :- मनुष्य सरस्वती भगवती के कृपा-प्रसाद से काव्य रचना करने में समर्थ होते हैं, अत: अविचलभाव से सरस्वती देवी की आराधना करनी चाहिये।। 9।। मैंने माता सरस्वती के पुण्यदर्शन किये हैं, वह दिव्यस्वरूपा, कमललोचना, हंसारूढा और वीणा तथा पुस्तक धारण करनेवाली हैं।। 10 ।। प्रथम वह भारती हैं, द्वितीय सरस्वती। शारदा देवी उनका तृतीय नाम है और चतुर्थ हंसगामिनी।। 11 ।। विद्वत्कुल की माता, वागीश्वरी, कुमारी ब्रह्मचारिणी, ये उनके पंचम-षष्ठ सप्तम और अष्टम नाम हैं।। 12 ।। नवमं च जगन्माता दशमं ब्राह्मणी तथा। एकादशं तु ब्रह्माणी द्वादशं वरदा भवेत् ।। 13 ।। वाणी त्रयोदशं नाम भाषा चैव चतुर्दशम् । पंचदशं श्रुतदेवी षोडशं गौ निगद्यते।। 14।। एतानि श्रुतनामानि प्रातरुत्थाय य: पठेत् । तस्य सन्तुष्यति माता शारदा वरदा भवेत् ।। 15।। सरस्वती ! नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणी।। विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा ।। 16।। अर्थ :- नवम से षोडश-पर्यन्त माता सरस्वती के जगन्माता, ब्राह्मी-ब्रह्माणी, वरदा, वाणी, भाषा, श्रुतदेवी और षोडगौ ... नाम हैं।। 13-14 ।। इन श्रुतदेवी के नामों को प्रात:काल उठकर जो पढ़ता है, उस पर माता शारदा प्रसन्न होती हैं एवं वर-प्रदान करती है। हे मात ! सरस्वती ! हे वरदायिनि ! हे सम्पूर्ण कामनाओं की उपलब्धि में नित्यसमर्थे ! आपको नमस्कार है। मैं विद्यारम्भ करता हूँ, मुझे आपकी कृपा से सदैव सिद्धि प्राप्त हो।। 15-16।। सम्यग्दर्शन बिन दुःख पाय 'समत्त-रहिद-चित्तो, जोइस-मंतादिएहि वर्सेतो। णिरयादिसु बहुदुक्खं, पाविय पविसदि णिगोदम्मि।।' —(आचार्य यतिवृषभ, तिलोयपण्णत्ति, भाग 1. 361, 262) अर्थ :- सम्यग्दर्शन से विमुख चित्तवाला ज्योतिष और मन्त्र-तन्त्रादिकों से आजीविका करता हुआ पुरुष नरकादि में बहुत दु:ख पाकर परम्परा से निगोद में प्रवेश करता है। 106 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सम्पादकीय क्या वर्धमान महावीर की जन्मभूमि "वैशाली-कुण्डपुर' नहीं है? ___-डॉ. सुदीप जैन 'भारतवास्ये विदेहकुण्डपुरे' – (आचार्य पूज्यपाद, निर्वाणभक्ति, 4) भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी जैसी सुप्रतिष्ठित एवं निर्विवाद संस्था ने भारत के |. दिगम्बर-जैनतीर्थों के बारे में व्यापक अनुसंधान और समर्पणपूर्वक प्रामाणिक रीति से आजतक कार्य किया है। इस विषय में उसने भारत के दिगम्बर जैन तीर्थों पर कई भागों में शास्त्राकार संस्करण भी प्रकाशित किये हैं, जोकि 'भारत के दिगम्बर जैनतीर्थ' शीर्षक से प्रकाशित हैं। इसी के द्वितीय भाग में बिहार, बंगाल एवं उड़ीसा के तीर्थों का परिचय दिया गया है। जिसके पृष्ठ 15 पर यह उल्लेख है कि “सम्पूर्ण प्राचीन वाङ्मय इस बात में एकमत है कि भगवान् महावीर विदेह में स्थित कुण्डग्राम में उत्पन्न हुए थे। जिस ग्रन्थ में भी भगवान् महावीर के जन्मस्थान का वर्णन आया है, उसमें कुण्डपुर को ही जन्म-स्थान माना है और उस कुण्डपुर की स्थिति स्पष्ट करने के लिए विदेह कुण्डपुर' अथवा 'विदेह जनपद स्थित कुण्डपुर' दिया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में कुण्डपुर या इससे मिलते-जुलते नामवाले नगर एक से अधिक होंगे। अत: भ्रम-निवारण और कुण्डपुर की सही स्थिति बताने के लिए कुण्डपुर के साथ विदेह लगाना पड़ा।" अभी समाज की एक संस्था-विशेष से सम्बद्ध कुछ व्रती एवं ब्रह्मचारीजनों द्वारा इस विषय में आक्षेपात्मक-लेख इस बारे में लिखे जा रहे हैं, जिनमें समाज को निष्क्रिय कहा जा रहा है, तथा भगवान् महावीर की जन्मभूमि विदेह-कुण्डपुर माननेवालों को नरक-निगोद भेजने की तैयारी हो रही है। ऐसे उच्चपदों पर स्थित जनों को ऐसे शब्दों का प्रयोग शोभा नहीं देता। क्या ही अच्छा होता कि यदि सम्पूर्ण आगमग्रन्थों के आलोक में तीर्थक्षेत्र कमेटी एवं प्रमुख समाज के विद्वानों को एकत्र कर इस विषय में निर्णय लिया जाता। आज अधिकांश विद्वान् एवं तीर्थक्षेत्र कमेटी एकमत से स्वीकार कर रहे हैं कि भगवान् महावीर की जन्मभूमि 'विदेह-कुण्डपुर' ही है। यह आलेख इस विषय में कई महत्त्वपूर्ण तथ्यों को निष्पक्षरूप से प्रस्तुत कर समाज को स्पष्ट दिशाबोध देने की | एक नैष्ठिक चेष्टा है। जैन-संस्कृति भारत की ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व की एक प्राचीन एवं सुसमृद्ध संस्कृति रही है। आज भी इसकी एक प्रतिष्ठित-परम्परा चल रही है। भले ही आज की पीढ़ी अपने प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 007 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन-गौरव से पूरी तरह परिचित न हो, किन्तु हमारा अतीत हमारे वर्तमान से कहीं अधिक शानदार और गरिमापूर्ण रहा है। उसका एक निदर्शन यह भी है कि हमारे देश का नाम जैन-संस्कृति के महापुरुषों के नाम पर आधारित रहा है। इसका सबसे प्राचीन नामकरण 'अजनाभवर्ष' मिलता है, जो कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पिताश्री महाराज नाभिराय के नाम पर आधारित है। कृषियुग में जैनों का कितना व्यापक प्रभाव था, यह बात इससे स्पष्ट है, किन्तु इस महत्त्व से आज का जैनसमाज प्राय: अपरिचित है। 'अजनाभवर्ष' नामकरण के बारे में प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता एवं भारतीय संस्कृति के विशेषज्ञ विद्वान् डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल लिखते हैं— स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत, प्रियव्रत के पुत्र अग्नीध्र, अग्नीध्र के पुत्र नाभि, नाभि के पुत्र ऋषभ और ऋषभदेव के सौ पुत्र हुए, जिनमें 'भरत' ज्येष्ठ थे। यही नाभि 'अजनाभ' भी कहलाते थे, जो अत्यन्त-प्रतापी थे और जिनके नाम पर यह देश 'अजनाभवर्ष' कहलाया।" __इस तथ्य की पुष्टि वैदिक-परम्परा के पुराण-ग्रन्थ भी करते हैं “हिमाह्वयं तु वै वर्षं नाभेरासीत् महात्मन:।" अर्थात् 'हिम' नामक यह क्षेत्र (हिमालय से लेकर समुद्रपर्यन्त की भूमि) महापुरुष नाभिराय के नाम से (अजनाभवर्ष) प्रसिद्ध था। “हिमादि-जलधेरन्त भिखंडमिति स्मृतम् ।" अर्थ :- हिमालय पर्वत से लेकर समुद्रपर्यन्त यह देश 'नाभिखण्ड' (अजनाभवर्ष) के नाम से जाना जाता था। बाद में इन्हीं नाभिराज के पौत्र एवं ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत के नाम पर इस देश का नामकरण 'भारतवर्ष' हुआ। इतना ही नहीं, ऋषभदेव के पुत्रों के नाम पर इस देश के विभिन्न प्रदेशों के नामकरण हुए थे, जिनमें से कुछ का उल्लेख आगे किया जा रहा है। विशेष-अनुसंधान से इस बारे में पूरा विवरण मिल सकता है। __ जैनपुराणों में वर्णित अनेकों पर्वतों के बारे में श्री एस. मुजफ्फरअली ने अपनी पुस्तक 'The Geography of the Puranas' में विस्तार से वर्णन करते हुये रूस के अनेकों पर्वतों से उनका साम्य व्यापक अनुसंधानपूर्वक प्रतिपादित किया है। वस्तुत: भौगोलिक प्रमाणों की गहन-अनुसंधानपूर्वक की गई प्रस्तुति के क्षेत्र में जैनेतर विद्वानों ने गम्भीरतापूर्वक काम किया है, जबकि जैन विद्वान् इस क्षेत्र में अपना कोई विशेष प्रभाव नहीं छोड़ पाये हैं। . भारत के अनेकों प्रान्तों में जैनधर्म का इतना अधिक प्रभाव था कि ब्राह्मण उनमें यात्रा-निमित्त जाना भी उचित नहीं समझते थे। इस बारे में यह उल्लेख द्रष्ट व्य है— "अंग-बंग-कलिंगेषु सौराष्ट्र-मागधेषु च। तीर्थयात्रां विना गत्वा पुन: संस्कारमर्हति ।।" इसका अभिप्राय विश्व हिन्दी-कोश' में यह दिया गया है कि अंग, बंग, कलिंग, सौराष्ट्र 008 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और मागध आदि प्रान्तों में जैनश्रमण अधिक थे, अतएव ब्राह्मणों ने इन प्रान्तों में तीर्थयात्रा के अलावा जाने की धार्मिक तौर पर मनाही कर दी थी। क्योंकि उनके यहाँ तो स्पष्ट-नीति है कि हस्तिना तायमानोऽपि न गच्छेज्जैनमन्दिरम।' अर्थात् हाथी से मारे जाने की स्थिति उत्पन्न होने पर भी जैनमन्दिर नहीं जाना। एक प्रसिद्ध जैनाचार्य विद्यानन्द स्वामी हुये, जिन्होंने आप्तपरीक्षा, तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक आदि अनेकों महान् ग्रन्थों की रचना की, वे मूल में वेदान्त के बहुत बड़े आचार्य थे। एक दिन वे पाँच सौ शिष्यों के साथ जा रहे थे, तो रास्ते में एक जैन-मन्दिर में किसी जैन मुनिराज के मुँह से उन्होंने देवागम-स्तोत्र' नामक स्तुति का पाठ सुना। वह सुनते ही उनके विचार बदल गये, और वे स्वयं तो जैन साधु बने ही, साथ ही उनके सारे शिष्य भी जैनधर्म में दीक्षित हो गये। तभी से जैनेतरों में यह कहावत प्रचलित हो गई की भले ही हाथी के पैर के नीचे आकर मर जाना, किन्तु जैन-मन्दिर में नहीं जाना, उसके सामने से भी नहीं गुजरना, नहीं हो तुम भी जैन बन जाओगे। तीर्थकर महापुरुषों के अनेकों कल्याणकों के पुण्य-सान्निध्य से पवित्र हुई आधुनिक 'बिहार' प्रान्त की भूमि में तीन प्रमुख-क्षेत्र थे, जिन्हें 'अंग', 'मागध' एवं 'विदेह' के नामों से जाना जाता है। इनमें 'अंग'-देश 'चम्पावती' या चम्पापुर' के नाम से प्रसिद्ध था, जिसे आज 'भागलपुर' के नाम से जाना जाता है। मगधदेश राजगृह' (राजगीर) एवं इसके समीपवर्ती प्रदेश का नाम था, जिसमें 'नालन्दा' (नालग्राम) आदि प्रसिद्ध नगर हैं। ये दोनों प्रान्त गंगा-नदी के दक्षिणी-भाग में स्थित थे तथा गंगा-नदी के उत्तरी-भाग में विदेह' प्रदेश था. जिसमें 'वैशाली' नगरी अतिप्रसिद्ध थी। इसप्रकार गंगा-नदी ने बिहार-प्रान्त को दो भागों में विभक्त कर रखा था, जो क्रमश: 'उत्तरी बिहार' एवं 'दक्षिणी बिहार' के नाम से आज भी जाने जाते हैं। गंगा के उत्तरी-भाग को उत्तरी बिहार' कहा जाता है, इसी को प्राचीनकाल में विदेह-जनपद' या विदेह-देश' कहते थे। तथा गंगा नदी के दक्षिणी-भाग के प्रदेश को 'दक्षिण-बिहार' कहा जाता है, इसी के अन्तर्गत प्राचीनकाल से 'अंग' एवं 'मगध' देश आते थे। ___ यह एक सुखद-संयोग है कि इन देशों-प्रदेशों का नामकरण आदि-तीर्थंकर ऋषभदेव के दो पुत्रों के नाम पर हुआ है। ज्ञातव्य है कि दीक्षा लेने के पूर्व श्री ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को अलग-अलग स्थानों का राजा बना दिया था। उनमें से कई पत्रों के नाम पर उनके राज्यों का नाम पड़ा। ऐसे पुत्रों के नाम हैं— कुरु (कुरुदेश-पश्चिमी उत्तर प्रदेश), अंग (अंगदेश-भागलपुर क्षेत्र), बंग (सम्पूर्ण बंगालप्रदेश), कौशल (कौशलप्रदेश-अयोध्यासंभाग), कलिंग (कलिंगदेश या दक्षिणी उड़ीसा), मागध (मागधदेश या दक्षिणी बिहार) विदेह (विदेहदेश), काश्यप (काश्मीर, यह ध्यातव्य है कि सम्राट अकबर के जमाने में काश्मीर में जैनों का व्यापक प्रभाव था, और उसने अपनी 'आईने-अकबरी' नामक पुस्तक में इसका प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 109 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पष्ट उल्लेख भी किया है) मलय (मलयदेश या केरल) एवं सुराष्ट्र (सौराष्ट्र प्रदेश)। इनमें सत्ताईसवें पुत्र 'मागध' के नाम पर देश का नाम 'मगध' या 'मागध' पड़ा तथा अट्ठाईसवें पुत्र विदेह' के नाम पर उस देश का भी विदेह' पड़ा। इसी क्रम में चक्रवर्ती भरत ने भी अपनी नौवीं पौत्री 'कुमारी' के लिये भारत के दक्षिणी समुद्रतट का राज्य दिया था, उसीके नाम पर 'कन्याकुमारी' नामक क्षेत्र आज भी प्रसिद्ध है। ___कोश-ग्रन्थों में इन दोनों देशों के बारे में जो परिचय मिलता है, प्रथमत: वह संक्षिप्तरूप में प्रस्तुत है1. अभिधानराजेन्द्रकोश___ मगह-मगध (पुं.)-राजगृहप्रतिबद्धे आर्य जनपदे। मगहपुर-मगधपुर (नपुं.)। विदेह(पु.)-ऋषभदेवस्य अष्टाविंशतितमे पुत्रे, तद्राज्ये मिथिलानगरी-प्रतिबद्ध जनपदे।..... इहेव भारहे वासे पुव्वदेसे विदेहा णामं जणवया। संपइकाले तिरहुत्ति देसो त्ति भण्णइ। विदेहजच्चविदेहजार्च (पुं.)– विदेहा-त्रिशला, तस्यां जाता अर्चा शरीरं यस्य स तथा वीरस्वामीति । 2. शब्दकल्पद्रुम- विदेहः (पं.)-जनकान्वय भूमियः । विदेहा (स्त्री.)-मिथिला - इति हेमचन्द्र:।10 मगध: (पुं.)—मगं दोषं दधाति इति ।..... कीकटदेश: । अधुना बिहाराख्यदेशस्य दक्षिणभागः।" 3. संस्कृत-हिन्दी-कोश___ मगध: (पुं.)-एक देश का नाम, बिहार का दक्षिणी भाग।" विदेहा: (पु.ब.व.)विगतो देहो देहसंबंधो यस्य । एक देश का नाम, प्राचीन मिथिला। 4. हिन्दी विश्वकोश विदेह - (सं.पुं.)—राजा जनक, प्राचीन मिथिला (वर्तमान तिरहुत), कायशून्य या जो शरीर से रहित हो।.... जो सिद्धिलाभ करते हैं, उन्हें 'विदेह' कहते हैं। प्रपौत्र: शकुनेस्तस्य भूपते: प्रपितृव्यज: । अथावहदशोकाख्य: सत्यसंधो वसुंधराम् ।। य: शान्तवृजिनो राजा प्रपन्नो जिनशासनम् । शुष्कलेत्रबितस्तात्रो तस्तार स्तूपमण्डलैः ।। धर्मारण्यविहारान्तर्बितस्तात्रपुरेश्भवत् । यत्कृतं चैत्यमुत्सेधावधिप्राप्त्यक्षमेक्षणम् ।। स षण्णवत्या गेहानां लक्षैर्लक्ष्मीसमुज्ज्वलैः । गरीयसी पुरीं श्रीमांश्चक्रे श्रीनगरी नृपः ।। अर्थ :- उसके बाद राजा शकुनि का प्रपौत्र सत्यप्रतिज्ञ अशोक पृथ्वी का शासक हुआ। वह पुण्यात्मा था, जैनधर्म को स्वीकार कर उसने 'शुष्कलेत्र' और 'वितस्तात्र' नामक दो स्थानों पर अनेकों मानस्तंभ बनवाये। उसने वितस्तात्रपुर के धर्मारण्य विहार में इतना ऊँचा जैन-मन्दिर बनवाया था, कि जिसकी ऊँचाई का निर्णय करने में दर्शकों की आँखें असमर्थ हो जाती थीं। उस परमप्रतापी एवं अतिशय धनाढ्य राजा ने धनजन से परिपूर्ण छियानवें लाख स्वर्ण-मुद्रायें खर्च करके दिव्यभवनों से विभूषित बहुत बड़ा ‘श्रीनगर' नामक नगर बसाया। - (महाकवि कल्हणकृत 'राजतरंगिणी' 1/101-104, प्रकाशक-पण्डित पुस्तकालय काशी, सन् 1960 ईस्वी) 00 10 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदेहपुर (सं.नपुं.)-राजा जनक की राजधानी । विदेहा - (सं.स्त्री.)-मिथिला नगरी और उस प्रदेश का नाम । विदेहिन् (सं.पुं.)-ब्रह्म।" मगध:—'ऋग्वेद' में इसको कीकट' कहा गया है। अथर्ववेद' में मगध नाम विद्यमान है। इसकी सबसे प्राचीन नगरी का नाम 'गिरिव्रज' था। बुद्धदेव के समय बिंबिसार की राजधानी राजगृह थी, यह गिरिव्रज के निकट ही था।... मगध में गया, पुन:-पुन: नदी, च्यवन का आश्रम और राजगृह वन, आदि पवित्र तथा पुण्य-स्थान हैं। इसीलिये इनका हिन्दू, बौद्ध तथा जैनी आदर करते आ रहे हैं। "कीकटेषु गया पुण्या नदी पुण्या पुन: पुन:।। च्यवनाश्रमं पुण्यं पुण्यं राजगृहं वनम् ।।"15 पटना विश्वविद्यालय के इतिहास-विभाग' के प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. ओम प्रकाश प्रसाद के शब्द इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं ___ "दूसरा महत्त्वपूर्ण जनपद 'मगध' था।.... इसका विस्तार आधुनिक बिहार-राज्य के 'गया' और 'पटना' जिलों के बराबर सम्भवत: था। इसके उत्तर में 'गंगा', पश्चिम में 'सोन', दक्षिण में विन्ध्याचलपर्वतश्रेणी का बढ़ा हुआ भाग और पूर्व में 'चम्पा' नदी थी। ... 'मगध' (मगधा) नामक क्षत्रियजाति की निवासभूमि होने के कारण यह जनपद 'मगध' कहलाया। मगध की राजधानी 'राजगृह' थी।"16 ___ "वज्जी-गणतन्त्र की स्थापना 'विदेह' के राजतन्त्र के पतन के समय हुई थी।... वज्जीसंघ का प्रदेश गंगा के उत्तर में नेपाल की तराई तक फैला था। इसमें आधुनिक बिहार-राज्य में स्थित मुजफ्फरपुर, चम्पारण, दरभंगा और सारण के अधिकांश-भाग सम्मिलित थे। इसके पूर्व में 'बागमती' नदी और पश्चिम में 'गण्डक' नदी थी। इसकी सीमा 'मल्ल-गणतन्त्र' और 'मगध-राज्य' से मिलती थी।"17 . प्रख्यात मनीषी डॉ. धीरेन्द्र वर्मा 'विदेह' का परिचय देते हुए लिखते हैं "कोसल के पूर्व में गंडक के आगे बिहार का वर्तमान 'मिथिला' प्रदेश प्राचीनकाल में 'विदेघ' या 'विदेह' जनपद के नाम से प्रसिद्ध था।.... कोसलाधिपति राम की स्त्री सीता विदेहाधिपति जनक की कन्या थी।..... विदेह-जनदपद वृजि' (वज्जि) गण के रूप में परिवर्तित हो गया था। इसके अन्तर्गत आठ जन थे, जिनमें 'विदेह' और 'लिच्छिवि' प्रधान थे। वृजिगण की राजधानी 'वैशाली' हो गयी थी।..... 'दरभंगा' के रूप में 'विदेह-जनपद' का पृथक्-अस्तित्व आज भी स्मरण हो आता है।"18 ऐतिहासिक स्थानावली' के लेखक डॉ. विजयेन्द्र कुमार माथुर ने 'मगध' और विदेह' का परिचय निम्नानुसार दिया हैमगध बौद्धकाल तथा परवर्तीकाल में उत्तरी-भारत का सबसे अधिक शक्तिशाली जनपद था। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 10 11 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसकी स्थिति स्थूलरूप से दक्षिण-बिहार के प्रदेश में थी। मगध का सर्वप्रथम उल्लेख 'अथर्ववेद' (5,22,14) में है-'गंधारिम्भ्यो मूजवद्भ्योगेभ्यो मगधेभ्य: प्रेष्यन् जनमिव शेवधिं तक्मानं परिदद्मसि' । इससे सूचित होता है कि प्राय: उत्तर-वैदिककाल तक मगध आर्य-सभ्यता के प्रभाव-क्षेत्र के बाहर था।' 'वाजसेनीय संहिता' (30,5) में मागधों या मगध के चारणों का उल्लेख है। वाल्मीकि रामायण' (बाल. 32,8-9) में मगध के 'गिरिव्रज' का नाम 'वसुमती' कहा गया है और 'सुमागधी' नदी को इस नगर के निकट बहती हुई बताया गया है—'एषा वसुमती नाम वसोस्तस्य महात्मनः, एते शैलवरा: पंच प्रकाशन्ते समंतत:, सुमागधीनदी रम्या मागधान्विश्रुताऽऽययौ, पंचानां शैलमुख्यानां मध्ये मालेव शोभते' । महाभारत के समय में मगध में जरासंध का राज्य था, जिसकी राजधानी 'गिरिव्रज' में थी। जरासंध की मृत्यु के समय श्रीकृष्ण अर्जुन और भीम के साथ मगध-देश में स्थित इसी नगर में आए थे-गोरथं गिरिमासाद्य ददृशुर्मागधं पुरम्' - (महाभारत, सभापर्व 20,30)। जरासंध की मृत्यु के पश्चात् भीम ने जब पूर्व दिशा की दिग्विजय की, तो उन्होंने जरासंध के पुत्र सहदेव को, अपने संरक्षण में ले लिया और उससे कर ग्रहण किया तत: सुह्मान् प्रसुह्मांश्च सपक्षानतिवीर्यवान् विजित्य युधिकौंतेयो मागधानभ्यधाद् बली' । 'जारासंधि सान्त्वयित्वा करे च विनिवेश्य ह' (सभापर्व, 30, 16-17)। गौतम बुद्ध के समय में मगध में बिंबिसार और तत्पश्चात् उसके पुत्र अजातशत्रु का राज था। इस समय 'मगध' की 'कोसल' जनपद से बड़ी अनबन थी। यद्यपि कोसल-नरेश प्रसेनजित् की कन्या का विवाह बिंबिसार से हुआ था। इस विवाह के फलस्वरूप काशी का जनपद मगधराज को दहेज के रूप में मिला था। यह मगध के उत्कर्ष का समय था और परवर्ती शतियों में इस जनपद की शक्ति बराबर बढ़ती रही। चौथी शती ई.पू. में मगध के शासक नव नंद थे। इनके बाद चन्द्रगुप्त मौर्य तथा अशोक के राज्यकाल में मगध के प्रभावशाली राज्य की शक्ति अपने उच्चतम-गौरव के शिखर पर पहुँची हुई थी और मगध की राजधानी पाटलिपुत्र भारत भर की राजनीतिक- सत्ता का केन्द्र-बिन्दु थी। मगध का महत्त्व इसके पश्चात् भी कई शतियों तक बना रहा और गुप्तकाल के प्रारंभ में काफी समय तक गुप्त-साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र ही में रही। जान पड़ता है कि कालिदास के समय (संभवत: 5वीं शती ई.) में भी मगध की प्रतिष्ठा पूर्ववत् थी; क्योंकि रघुवंश' (6,21) में इंदुमती के स्वयंवर के प्रसंग में मगधनरेश परंतप का भारत के सब राजाओं में सर्वप्रथम उल्लेख किया गया है। इसी प्रसंग में मगध-नरेश की राजधानी को कालिदास ने 'पुष्पपुर' में बताया है-'प्रासादवातायन-संश्रितानां नेत्रोत्सवं पुष्पपुरांगनानाम्' 6,24 । गुप्त-साम्राज्य की अवनति के साथ-साथ ही 'मगध' की प्रतिष्ठा भी कम हो चली और छठी-सातवीं शतियों के पश्चात् 'मगध' भारत का एक छोटा-सा प्रांत मात्र रह गया। मध्यकाल में यह 'बिहार' नामक प्रांत में विलीन हो गया और मगध का पूर्व-गौरव इतिहास का विषय बन गया। जैन-साहित्य में अनेक-स्थलों पर मगध तथा उसकी राजधानी राजगृह' (प्राकृत-रायगिह) का उल्लेख है।" 00 12 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक ___ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदेह उत्तरी-बिहार का प्राचीन-जनपद, जिसकी राजधानी 'मिथिला' थी। स्थूलरूप से इसकी स्थिति वर्तमान 'तिरहुत' के क्षेत्र में मानी जा सकती है। 'कोसल' और 'विदेह' की सीमा पर सदानीरा' नदी बहती थी। ब्राह्मण-ग्रंथों में विदेहराज जनक को 'सम्राट' कहा गया है, जिससे उत्तर-वैदिककाल में विदेह-राज्य का महत्त्व सूचित होता है। वाल्मीकि रामायण' में सीता के पिता मिथिलाधिप जनक को वैदेह' कहा गया है—'एवमुक्त्वा मुनिश्रेष्ठं वैदेहो मिथिलाधिप:' (बाल. 65,39)। सीता इसीकारण वैदेही' कहलाती थीं। 'महाभारत' में विदेहदेश पर भीम की विजय का उल्लेख है तथा जनक को यहाँ का राजा बताया गया है, जो निश्चयपूर्वक ही विदेह-नरेशों का कुलनाम था—'शर्मकान् वर्मकांश्चैव व्यजयत् सान्त्वपूर्वकम्, वैदेहकं राजानं जनकं जगतीपतिम्' –(सभापर्व, 30,13)। भास ने स्वप्नवासवदत्तम्' अंक 6 में सहस्रानीक के वैदेहीपुत्र' नामक पुत्र का उल्लेख किया है, जिससे ऐसा जान पड़ता है कि उसकी माता विदेह की राजकुमारी थी। वायुपुराण' (88,7-8) में निमि को विदेह-नरेश बताया गया है। विष्णुपुराण' (4,13,107) में विदेहनगरी (मिथिला) का उल्लेख हैवर्षत्रयान्ते च बभ्रूग्रसेन-प्रभृतिभिर्यादवैर्न तद्रत्नं कृष्णोनापहृतमिति कृतावगतिभिर्विदेहनगरी गत्वा बलदेव: सम्प्रत्याय्य द्वारकामानीत:' । बौद्ध-काल में संभवत: बिहार के वृज्जि' तथा 'लिच्छवी' जनपदों की भाँति भी विदेह भी गणराज्य बन गया था। जैन-तीर्थंकर महावीर की माता त्रिशला को जैन-साहित्य में 'विदेहदत्ता' कहा गया है। इस समय वैशाली की स्थिति विदेह-राज्य में मानी जाती थी। बुद्ध और महावीर के समय में वैशाली लिच्छवी-गणराज्य की भी राजधानी थी। तथ्य यह जान पड़ता है कि इस काल में विदेह' नाम संभवत: स्थूलरूप से उत्तरी-बिहार के सम्पूर्ण-क्षेत्र के लिए प्रयुक्त होने लगा था।20 जैन-परम्परा के चौबीसवें तीर्थंकर महापुरुष भगवान महावीर का जन्म इसी विदेहप्रान्त' में हुआ था। प्राच्य भारतीय भूगोल के विशेषज्ञों ने विदेह-प्रान्त की स्थिति आधुनिक बिहार में गंगा के उत्तरवर्ती क्षेत्र के रूप में मानी है। उनके अनुसार गंगा के उत्तर का भाग 'विदेह' कहलाता था, तथा गंगा के दक्षिण का भाग 'मगध' कहलाता था। इस विषय में भारत सरकार के द्वारा स्वीकृत मानचित्र की प्रति इस अंक के पृष्ठभाग पर दर्शायी गई है। समस्त प्राचीन आचार्यों, विद्वानों एवं आधुनिक गवेषी अनुसंधाताओं ने भगवान महावीर का जन्म विदेह- प्रान्त में ही माना है। उस समय विदेह-प्रान्त का प्रमुख महानगर वैशाली' था, जोकि वज्जि-गणतन्त्र की राजधानी भी था। इसी वैशाली महानगर के निकटवर्ती 'कुण्डपुर' को महाराजा सिद्धार्थ की राजधानी के नाम से जाना जाता था, जैसाकि इस मानचित्र से स्पष्ट है। प्राचीनकाल में वैशाली और कुण्डपुर दो भिन्न-भिन्न नहीं माने जाते थे, इसीलिये दोनों का एक साथ उल्लेख अनेक महत्त्वपूर्ण-प्रसंगों में किया गया है। उदाहरण के रूप में एक-दो उद्धरण द्रष्टव्य हैं प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर के समय की एक प्राचीन मुद्रा (सील) वैशाली के उत्खनन में पुरातत्त्व-विभाग के अनुसंधताओं को प्राप्त हुई है, जिसमें उत्कीर्ण है— वेसालीनामकुंडे कुमारामात्याधिकरण (स्य)। इसका अर्थ है वैशाली नामक कुण्डग्राम में कुमारामात्य के अधिकरण। इस पुरातात्त्विक प्रमाण के अतिरिक्त पाँचवीं शताब्दी के प्रख्यात जैनाचार्य पूज्यपाद देवनन्दि द्वारा विरचित 'दशभक्ति-संग्रह' में निर्वाण-भक्ति (4) में उल्लिखित है'भारतवास्ये विदेह-कुण्डपुरे' । इसमें भी विदेह-प्रान्त में कुण्डपुर का होना स्पष्ट सिद्ध होता है। इस विदेह-प्रान्त की महिमा का वर्णन करते हुये आचार्य जिनसेन हरिवंशपुराण' में लिखते हैं- 'अथ देशोस्ति विस्तारी जम्बूद्वीपस्य भारते। विदेह इति विख्यात: स्वर्गखण्डसम: श्रिया।।। अर्थ :-- इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में लक्ष्मी से स्वर्ग-खण्ड की तुलना करनेवाला, 'विदेह' इस नाम से प्रसिद्ध एक बड़ा विस्तृत देश है। 'सुखाम्भ:कुण्डमाभाति नाम्ना कुण्डपुरं पुरम् ।। अर्थ :- उस विदेह देश में सुखरूपी जल के कुण्ड के समान प्रतीत होनेवाला 'कुण्डपुर' नाम का एक ऐसा सुन्दर नगर है। 'विदेहविषये कुण्डसज्ञायां पुरि भूपति: । नाथो नाथकुलस्यैक: सिद्धार्थाख्यस्त्रिसिद्धिभाक् । तस्य पुण्यानुभावेन प्रियासीत्प्रियकारिणी।।23 अर्थ :- विदेह-देश के कुण्डपुर में नाथवंश के शिरोमणि एवं तीनों सिद्धियों से सम्पन्न राजा सिद्धार्थ राज्य करते थे। पुण्य के प्रभाव से प्रियकारिणी त्रिशला उन्हीं की गृहलक्ष्मी (धर्मपत्नी) हुई थी। __ इस कुण्डपुर में ही राजा सिद्धार्थ की पत्नी प्रियकारिणी त्रिशला की कुक्षि में भगवान् महावीर बालक वर्धमान के रूप में जन्मे थे। इस कुण्डपुर के बारे में आचार्य देशभूषण जी मुनिराज का अभिप्राय था “उस समय कुण्डग्राम वैशाली नगरी में सम्मिलित था।"24 इसलिये महावीर को जनपद विदेह की दृष्टि से 'वैदेह' कहा गया और कुण्डग्राम वैशाली का • एक उपनगर था, इसलिये उन्हें वैशालिक' कहा गया। इसकी पुष्टि प्रख्यात विद्वान् डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री के इस वाक्य से भी होती है “अभिषेक के पश्चात् इन्द्र उन्हें वैशाली के राजमार्गों से कुण्डग्राम लाया और इन्द्राणी ने पूर्ववत् प्रसूतिगृह में जाकर शिशु वर्धमान को माता प्रियकारिणी के बगल में सुला दिया।"25 _____ महावीर के समय में गंगा के दक्षिणवर्ती-प्रान्त मगध में कुछ लोग 'कुण्डलपुर' की कल्पना कर उसमें महावीर के जन्म की बातें करते हैं, वे संभवत: इतिहास के इस तथ्य को नहीं जानते कि गंगा के दक्षिणवर्ती मनध-प्रान्त में उस समय बिम्बसार श्रेणिक का शासन था। अत: वहाँ पर राजा सिद्धार्थ का शासन होना और उनके घर महावीर का जन्म होना 00 14 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतई असम्भव है । बौद्ध ग्रन्थ 'दीघनिकाय' में उस समय अजातशत्रु का शासन मगध में होना लिखा है— 'तेन खो पन समयेन राजा मागधे अजातसत्तु वेदेहिपुत्त वज्जी अभियातुकामो होति' इसका अर्थ है कि उस समय मगध का राजा अजातशत्रु कुणिक था, और वह वैदेहीपुत्र के वज्जिप्रदेश पर चढ़ाई करना चाहता था । - इतिहास साक्षी है कि बुद्ध के काल तक वैशाली की गरिमा अद्वितीय थी, फिर अजातशत्रु कुणिक ने उसे पददलित किया । तथा समुद्रगुप्त द्वितीय के काल में भी वैशाली को लूटा गया । प्रथम चीनी यात्री फाह्यान के समय तक वैशाली की कुछ गरिमा बची हुई थी, जबकि ह्वेनसांग के समय वैशाली खण्डहर के रूप में बदल गई थी । भगवान् महावीर के 2500वें निर्वाणोत्सव के सुअवसर पर प्रकाशित होम एज टू वैशाली' नामक वैशाली अभिनन्दन - ग्रन्थ में अनेकों विश्वविख्यात इतिहासकारों, पुरातत्त्वविदों एवं भारतीय संस्कृति के विशेषज्ञों ने गहन - 3 न-अनुसंधानपूर्वक यह सिद्ध किया है कि वैशाली के चार भाग थे और उसके एक भाग का नाम कुण्डपुर या क्षत्रिय - कुण्डग्राम था। इसी क्षत्रिय-कुण्डग्राम में राजा सिद्धार्थ के घर भगवान् महावीर बालक वर्धमान के रूप में जन्मे और उन्होंने अद्वितीय पुरुषार्थ द्वारा परमात्म- पद प्राप्त कर सत्य, अहिंसा आदि सिद्धान्तों के उत्कृष्ट स्वरूप का सम्पूर्ण देश में अपनी दिव्यध्वनि के माध्यम से प्ररूपण किया । पूजन-पाठ-प्रदीप के लेखक पं. हीरालाल जी जैन 'कौशल' ने इस पुस्तक के पृ.सं. 305 पर भगवान् महावीर का जन्मस्थान 'क्षत्रिय - कुण्डग्राम' (कुंडलपुर - वैशाली) बिहार प्ररूपित किया है। कुछ लोगों को न जाने किस भ्रमवश विदेह - प्रान्त के कुण्डपुर को मगध-प्रान्त के नालन्दा के पास स्थित 'बड़गाँव' में कुण्डलपुर होने का आभास हो गया और वहाँ प्रभूत- धनराशि की किसी महत्त्वाकांक्षी परियोजना बन जाने के कारण उसकी निष्फलता के भय से वे इस ज्वलंतसत्य को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। मेरा उनसे अनुरोध है कि इस देश के प्रत्येक प्रान्त में एक नामवाले कई ग्राम-नगर पहले भी थे, और अब भी हैं; अत: मात्र नामकरण की समानता के आधार पर मगध प्रान्त के नालन्दा के निकटवर्ती कुण्डलपुर (बड़गाँव) नामक ग्राम को विदेह के कुण्ड के रूप में कल्पित करना धर्मानुरागी जनता को गुमराह करना है । वहाँ पर जीर्णोद्धार के कार्य हों, इससे मुझे कोई एतराज नहीं है; किन्तु उस जगह को महावीर की 'जन्मभूमि 'कुण्डपुर' के रूप में धुआंधार प्रचारित कर धन-संग्रह का माध्यम बनाया जाये यह बात अवश्य चिन्ता के योग्य है। ऐसे लोग, जो इतिहास और भूगोल के ज्ञान को तुच्छ मानते हैं, वे ऐतिहासिक नगरी कुण्डपुर के भौगोलिक अस्तित्व के बारे में अपना अभिमत ही क्यों दे रहे हैं? जो व्यक्ति जिस विषय का ज्ञाता नहीं हो, उसे उस विषय के बारे में वक्तव्य नहीं देना चाहिये, अन्यथा उसकी अज्ञता प्रकट हो जायेगी। और यदि प्रामाणिक जानकारी के बिना कोई वक्तव्य दे भी दिया है, तो सप्रमाण तथ्यों की जानकारी मिल जाने पर उसे ईमानदारी के साथ स्वीकार कर लेना चाहिये। किन्तु ऐसा देखा जा रहा है कि उस क्षेत्र के जीर्णोद्धार के नाम पर जो विपुल धनराशि के संग्रह की महत्त्वाकांक्षी योजना शुरू की है, उसके ठप्प पड़ जाने प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के डर से मगध-प्रान्त के नालन्दा-कुण्डलपुर को महावीर की जन्मभूमि प्रचारित करनेवाले लोग विदेह-कुण्डपुर में महावीर की जन्मभूमि बतानेवालों को नरक-निगोद भेजने के फतवे दे रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिकों के द्वारा माने गये जगत्-सृष्टा ईश्वर को इन्होंने अपनेआप में मान लिया है, और उसी अहं भाव से ये सोच रहे हैं कि इनके कहने मात्र से सत्य को स्वीकार करनेवाले नरक-निगोद चले जायेंगे। जब उन्हें गंगा के उत्तरवर्ती विदेह में महावीर के जन्म की बात प्रामाणिकरूप से बताई गयी, तो वे ठिठाई के साथ बोले कि नदियों की धारा अपना स्थान बदलती रहती है, हो सकता है कि पहले गंगा-नदी के उत्तर में ही मगध प्रान्त में नालन्दा-कुण्डलपुर रहा होगा। ऐसी कल्पनाओं के आधार पर ही यदि सत्य का निर्णय होना है, तो मध्यप्रदेश के दमोह जिले में स्थित कुण्डलपुर' को भी महावीर की जन्मभूमि कहा जा सकता है; क्योंकि नाम तो उसका भी कुण्डलपुर' ही है। क्या ही अच्छा हो कि इस पूर्वाग्रही अप्रमाणिक प्रलाप को बन्द कर सत्य को स्वीकार करें, और नालन्दा-कुण्डलपुर के जीर्णोद्धार की योजना भले ही चलायें, किन्तु उसे 'महावीर की जन्मभूमि' कहकर समाज को दिग्भ्रमित न करें, और उसकी आस्था का धनादोहन करने की कोशिश न करें। मेरा उनसे विनम्र अनुरोध है कि इतिहास और भूगोल के तथ्यों को स्वीकार कर समाज में फैल रहे भ्रामक-वातावरण को दूर कर स्वस्थ और निर्धान्त-वातावरण का निर्माण करें, ताकि समाज की सक्रियता विकास के नये आयाम स्थापित कर सके। ___ मैं तीर्थंकर ऋषभदेव के सौ पुत्रों के नाम पर स्थापित भारत के विभिन्न राज्यों का भी प्रामाणिक अनुसंधान करना चाहता हूँ। और इस दिशा में कार्य भी कर रहा हूँ, किन्तु किसी बड़े पुस्तकालय का अभाव और अपेक्षित संसाधन न होने से यह कार्य शीघ्र सम्पन्न नहीं हो पा रहा है। यदि ऐसे संसाधन मिलें तो मैं न केवल यह कार्य, अपितु जैन-संस्कृति, इतिहास और भूगोल आदि के क्षेत्र में और भी अनेकों महत्त्वपूर्ण अनुसंधान करना चाहता हूँ। किन्तु क्या मात्र चावल चढ़ाने और विधान-पूजन कराने में ही अपने धन का उपयोग माननेवाली इस जैनसमाज से मुझ जैसे अनुसंधाताओं को कभी कोई अपेक्षित संसाधन मिल सकेंगे? कृपया समाज के कर्णधार इस क्षेत्र में विचार करें। सन्दर्भग्रन्थसूची 1. द्र, मार्कण्डेयपुराण : सांस्कृतिक अध्ययन, पादटिप्पण सं० 1, पृष्ठ 138 । 2. विष्णुपुराण, 1/1271 3. स्कन्धपुराण, 1/1/37/55। 4. विशेष द्रष्टव्य, 'भरत और भारत' नामक पुस्तक, प्रकाशक—कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली। 5. नगेन्द्रनाथ बसु, हिन्दी विश्वकोश, भाग 1, पृष्ठ 151। 6. डॉ. ओमप्रकाश प्रसाद, प्राचीन भारत, पृष्ठ 108 । 7. सं. के.ए. नीलकण्ठ शास्त्री, नंद-मौर्य-युगीन भारत, पृष्ठ 352। 40 16 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक For Private & Personál Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. “ऋषभदेवस्य अष्टाविंशतितमे पुत्रे " —द्र. अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग षष्ठ, पृ. 1194 । 9. द्र. अभिधानराजेन्द्रकोश:, भाग 6, पृष्ठ 37, एवं पृष्ठ 1194 । 10. शब्दकल्पद्रुम, भाग 4, पृष्ठ 388 । 11. वही, भाग 3, पृष्ठ 563। 12. आप्टेकृत संस्कृत हिन्दी कोश, पृष्ठ 759। 13. वही, पृष्ठ 935। 14. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 21, पृष्ठ 359-360। 15. वही, खण्ड 16, पृष्ठ 432-4331 16. प्राचीन भारत, पृष्ठ 108 । 17. वही, पृष्ठ 109। 18. मध्यदेश, प्रकाशक- बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, पृष्ठ 18 । 19. ऐतिहासिक स्थानावली, पृष्ठ 691-693 । 20. ऐतिहासिक स्थानावली, पृष्ठ 857-858। 21. आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, 2-1 पृ. 12। 22. वही, 2-5 । 23. आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, 75-7-8, पृ. 482 24. जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, भाग 1, पृ. 3571 25. शास्त्री नेमिचन्द्र, तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा, भाग 1, पृ. 106 1 26. दीघनिकाय सुत्तपिटक, महापरिनिव्वाणसुत्त, महावग्ग 2, पृ. 327, प्रकाशक- बौद्ध भारती, वाराणसी 1996। महावीर की विशेषता महावीर स्वामी ने तोड़ने का काम नहीं किया, हमेशा जोड़ने का काम किया । उनके साथ बातचीत के लिये कोई उपनिषद् का अभिमानी आता, तो उसके साथ वे उपनिषद् के विषय के आधार पर चर्चा करते थे, गीता का अभिमानी आता, तो के विषय का आधार लेकर चर्चा करते, कोई वेद का अभिमानी आता, तो वेद के विषय का आधार लेकर चर्चा करते, बौद्धों के साथ उनके विषय का आधार लेकर चर्चा करते । उन्होंने अपना विचार किसी पर जरा भी लादा नहीं और सामनेवाले के विचार के अनुसार-सोचकर समाधान देते थे। - संत विनोबा भावे | जैन और हिन्दू बिना अच्छा जैनी हुये मैं अच्छा हिन्दू नहीं बन सकता..... जैनधर्म नास्तिक नहीं है । जीव की सत्ता में विश्वास करनेवाला नास्तिक हो ही नहीं सकता । — डॉ. परिपूर्णानन्द वर्मा .. प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर-विशेषांक 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर की जन्मभूमि ‘कुण्डपुर' विदेह में या मगध में ___-सतीश चन्द्र जैन आज भगवान् महावीर के 2600वें जन्मकल्याणक वर्ष के प्रसंग में और कोई उपलब्धि हुई हो या न हुई हो; किन्तु एक विवाद अवश्य उठ खड़ा हुआ है, और वह है भगवान महावीर की जन्मभूमि के विषय में। प्राचीन आचार्यों और विद्वानों का बहुसंख्यक वर्ग भगवान् महावीर की जन्मभूमि ‘कुण्डपुर' को विदेहप्रान्त में स्पष्ट रूप से घोषित करता है, जबकि कुछ आचार्य और विद्वान् इसे मात्र कुण्डपुर' या 'कुण्डलपुर' बताते हैं, इसके क्षेत्र-विशेष का उल्लेख नहीं करते। अभी कुछ लोगों ने इसे नालन्दा के पास मगध-प्रान्त में बताने का एक नया आन्दोलन छेड़ा है। ऐसी स्थिति में समाज में बहुत बड़ा भ्रम फैल रहा है कि भगवान् महावीर की जन्मभूमि वास्तव में क्या थी? तथ्यों के आलोक में यदि हम विचार करें, तो हम पाते हैं कि सभी आचार्यों ने इसे 'कुण्डपुर', 'कुण्डग्राम' या कुण्डलपुर' के नाम से उल्लेखित किया है; चूँकि इस नाम के नगर या ग्राम आधुनिक बिहार-प्रान्त में भी कई हैं, और यह स्थिति प्राचीन आचार्यों और विद्वानों के सामने भी आई होगी; कि इनमें से किसे भगवान् महावीर की जन्मभूमि माना जाये? तो अधिकांश आचार्यों और विद्वानों ने इसके साथ विदेह' शब्द को जोड़ दिया, और यह स्पष्ट किया कि विदेह में जो कुण्डपुर है, वही भगवान् महावीर की जन्मभूमि है, अन्य कोई नहीं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान् महावीर की जन्मभूमि तत्कालीन विदेह' नामक प्रान्त में थी। अत: आज यह जानना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि महावीर के समय में विदेह-प्रान्त किसे कहा जाता था? और आज जिस नालन्दा के समीपवर्ती गाँव कुण्डलपुर को महावीर की जन्मभूमि के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, क्या वह महावीर के युग में विदेह-प्रान्त में था? __यह एक बड़े आश्चर्य की बात है कि नालन्दा के पास का गाँव 'बड़गाँव' के नाम से जाना जाता रहा है, और आज भी जाना जाता है। इसके नामकरण में 'कुण्डपुर' या 'कुण्डलपुर' का प्रयोग प्राचीन ग्रन्थों अथवा आधुनिक सरकारी दस्तावेज़ों में कहीं नहीं है। फिर भी इसे भगवान् महावीर की जन्मभूमि बताने का अभियान चलाया जा रहा है यह चिन्ता का विषय है। प्राचीन इतिहास और भूगोल के अनुसार यह गाँव मगधप्रान्त' में रहा 018 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, जबकि महावीर की जन्मभूमि की पहिचान विदेहप्रान्त' है। सन् 1965 में धर्मानुरागी श्रेष्ठिवर्य्य श्री गुलाबचन्द हिराचन्द दोशी द्वारा जैन संस्कृति संघ, सोलापुर से प्रकाशित 'तीर्थवन्दनसंग्रह' नामक कृति के पृष्ठ संख्या 63-64 में मगध देश का और उसके अन्तर्गत आनेवाले नगर आदि का वर्णन दिया गया है। इसके रचयिता सन् 1578 से 1620 के मध्यवर्ती भट्टारक श्रीभूषण हैं, जो कि श्री ज्ञानसागर के गुरु थे। इसमें लिखा है कि - मागध देश विशाल नयर पावापुर जाणो। जिनवर श्रीमहावीर तास निर्वाण बखाणो।। अभिनव एक तलाब तस मध्ये जिनमंदिर। रचना रचित विचित्र सेवक जास पुरंदर ।। जिनवर श्रीमहावीर तिहाँ कर्म हणि मोक्षे गया। ब्रह्म ज्ञानसागर वदति सिद्ध तM पद पामया।। 5 ।।..... मगध देश मझार नयर राजगृह चंगह। . विपुलाचल गिरिसार शिखर तस पंच उतंगह ।। समवसरण संयुक्त वर्धमान जिन आया। सुर नर किन्नर भूप सकल संघ मन भाया। विविध प्रकार के जिनवरे श्रेणिक नृप प्रतिबोधियो। मिथ्यामत दूरे करी कर्म हणी मोक्षे गयो।। 7।। मगध देश मंडान नयर पाडलिपुर थानह । शीलवंत सुविचार सेठ सुदर्शन जाणह ।। दृढकर संयम ग्रह्यो तपकरि कर्म विनाश्यो । प्रकट्यो केवलज्ञान लोकालोक प्रकाश्यो ।। शूलि सिंहासन थयो जय जय जगमाँ नीपनो। ब्रह्म ज्ञानसागर वदति अखय अचल सुख ऊपनो।।8।। इसमें भी मगधदेश के वर्णन-प्रसंग में महावीर के युग के तीन प्रमुख नगरों का उल्लेख किया है, वे हैं— पावापुर, राजगृह एवं पाटलिपुत्र । इनमें से पावापुर और राजगृह —ये दोनों महावीर से संबद्ध रहे हैं, जबकि पाटलिपुत्र का सुदर्शन सेठ से संबंध बताया गया है। यदि मगधप्रान्त में कुण्डपुर' या कुण्डलपुर' नाम से विख्यात भगवान् महावीर की जन्मभूमि होती, तो इस ग्रन्थ के कर्ता अवश्य उसका नामोल्लेख करते। इससे भी यह बात पुष्ट होती है कि महावीर की जन्मभूमि 'विदेहप्रान्त' में ही थी, 'मगधप्रान्त' में नहीं। जबकि आज प्रचारित किया जा रहा नालन्दा के निकटवर्ती बड़गाँव अपरनाम कुण्डलपुर उस समय भी मगधप्रान्त में था, और आज भी इसकी स्थिति समस्त इतिहासकार एवं भूगोलवेत्ता मगधप्रान्त में ही मानते हैं। चूँकि आज प्राचीन तीन राज्यों— अंगदेश, विदेहप्रान्त एवं मगधप्रान्त को प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलाकर एक 'बिहार' नामक राज्य बना दिया गया है। अत: सामान्य लोगों को महावीर की जन्मभूमि बिहार में थी —ऐसा कहकर दिग्भ्रमित किया जा रहा है। जबकि वस्तुस्थिति यह है कि महावीर के समय में बिहार नामक किसी प्रान्त की सत्ता ही नहीं थी। 'तीर्थवन्दनसंग्रह' नामक उपर्युक्त पुस्तक में ही पृष्ठ 129 पर महावीर की जन्मभूमि 'कुण्डपुर' का परिचय निम्नानुसार दिया गया है... कुण्डपुर-रूपान्तर कुण्डग्राम, क्षत्रियकुण्डग्राम, कुण्डलपुर। यह विदेह (उत्तर बिहार) प्रदेश की राजधानी वैशाली का एक उपनगर था। यहाँ अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर का जन्म हुआ था (यतिवृषभ, पूज्यपाद, रविषेण, जटासिंहनंदि, जिनसेन, गुणभद्र)। इस समय वैशाली नगर के स्थान पर बसाढ नामक छोटा गाँव है, यह उत्तर बिहार में मुजफ्फरपुर शहर से 22 मील दूर है। कुण्डग्राम के स्थान को वहाँ बसुकुण्ड कहते हैं। यह बहुत वर्षों से उद्ध्वस्त पड़ा हुआ था। गत कुछ वर्षों में वहाँ भगवान् महावीर का स्मारक स्थापित किया गया है तथा वैशाली प्राकृत जैन विद्यापीठ का निर्माण चल रहा है (फिलहाल यह संस्था मुजफ्फरपुर में ही कार्य कर रही है)। ___इस स्थान के विस्मृत हो जाने से आधुनिक समय में कुछ लोगों ने दक्षिण बिहार के नालन्दा के समीप के वडगांव को कुण्डलपुर मान लिया था। मध्यप्रदेश के दमोह जिले के कुण्डलपुर का भी इस स्थान से कोई संबंध नहीं है। इस क्षेत्र के संबंध में विजयेन्द्रसूरिकृत वैशाली' तथा दर्शनविजयकृत 'क्षत्रियकुण्ड' ये स्वतन्त्र पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इस दूसरे पुस्तक में श्वेताम्बर मध्ययुगीन परम्परा के अनुसार दक्षिण बिहार में लछवाड ग्राम के निकट क्षत्रियकुण्ड होने का समर्थन किया है जो विशेष युक्तिसंगत नहीं है। अधिक विवरण के लिए द्रष्टव्य - प्राचीन तीर्थमाला संग्रह प्र. 22, जैन तीर्थोंनो इतिहास (न्या.) प्र. 485।-(तीर्थवन्दनसंग्रह', प्रकाशक—गुलाबचन्द हिराचन्द दोशी, जैन संस्कृति संघ, सोलापुर, पृ. 129-130) विशेषज्ञ विद्वानों ने और भी अनेक प्रकारों से भगवान् महावीर की जन्मभूमि 'विदेह-कुण्डपुर' होने के व्यापक प्रमाणों के साथ लेख लिखे हैं, मुझे उक्त तीर्थवन्दनसंग्रह' नामक पुस्तक में जो सामग्री मिली, उसके आधार पर अपना अभिप्राय यहाँ व्यक्त किया है। यह बात विशेष उल्लेखनीय है कि यह ग्रन्थ दिगम्बर जैनतीर्थों के बारे में ही प्रामाणिक रूप से परिचय दिया गया है, तथा इसके सम्पादक सुविख्यात इतिहासज्ञ प्रो. विद्याधर जोहरापुरकर हैं। सन् 1965 से यह पुस्तक प्रकाशित है, और इसमें भगवान् महावीर की जन्मभूमि के बारे में दो टूक उल्लेख विदेहकुण्डपुर का ही किया गया है। तब से आज तक किसी ने कोई विवाद खड़ा नहीं किया, और अब एक नया विवाद किस उद्देश्य से खड़ा किया गया है? -- यह समाज के प्रमुख लोग स्वयं विचार कर सकते हैं। ___ अंतत: मैं उपर्युक्त विवरण के आधार पर स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूँ कि भगवान् महावीर की जन्मभूमि विदेहकुण्डपुर' ही है। नालन्दा के पास का कोई गाँव महावीर की जन्मभूमि नहीं है, क्योंकि यह क्षेत्र ‘मगधप्रान्त' में था, न कि विदेहप्रान्त' में। 0020 ___प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर की जन्मभूमि : जैन साहित्य के सन्दर्भ में . -डॉ. योगेन्द्र मिश्र भगवान् माहवीर की जन्मभूमि के सम्बन्ध में विद्वानों में कोई मतभेद नहीं है। उन्हें । पता है और उनकी मान्यता है कि “भगवान् महावीर ज्ञातृकुल में, वैशाली में, समीप के कुण्डपुर अथवा क्षत्रियकुण्डपुर (आधुनिक बासोकुण्ड) में उत्पन्न हुये थे।" गड़बड़ी कुछ अन्य लोगों की मान्यता के कारण होती है। कुछ श्वेताम्बर-जैनों की मान्यता है कि महावीर की जन्मभूमि मुंगेर' जिले के 'जमुई' अनुमण्डल के 'सिकन्दरा' थाने के लछुआड़' नामक स्थान पर दक्षिण की ओर स्थित 'क्षत्रियकुण्ड' है। कुछ दिगम्बर जैन मानते हैं कि यह स्थान नालन्दा के समीप कुण्डलपुर है, अथवा यह भी कि वह स्थान दमोह जिले (मध्यप्रदेश) का कुण्डलपुर है। किन्तु जन्मभूमि तो आखिर कहीं एक ही जगह होगी। __ वैशाली पर लिखे अपने शोध-प्रबन्ध एन अर्ली हिस्ट्री ऑफ वैशाली' (दिल्ली, 1962 ई.) में हमने पृष्ठ 212-237 पर भगवान् महावीर की जन्मभूमि वैशाली पर यथासम्भव कुछ सामग्री प्रस्तुत की है। वहाँ पृष्ठ 226-27 पर, हमने प्राचीन जैन साहित्य से जन्मभूमि-विषयक नौ उद्धरणों का भी संकलन कर दिया है। भगवान् महावीर की वास्तविक जन्मभूमि जानने के लिए प्राचीन जैन-साहित्य में आये तत्सम्बन्धी-प्रसंगों एवं उसके उद्धरणों का विश्लेषण सबसे अधिक उपयोगी होगा। अतएव हम यहाँ इसी पर अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे। ____ जन्मभूमि के सम्बन्ध में संकलित उपर्युक्त नौ उद्धरणों में जन्मभूमि की स्थिति जम्बूद्वीप के भारत/भारतवर्ष नामक देश के 'मज्झिमदेश' (सं. मध्यदेश) नामक भाग में बतलाई गई है, वहाँ यह विदेह' में 'कुण्डपुर' में स्थित है। मध्यदेश तक तो कोई विवाद है भी नहीं, 'कुण्डपुर' या 'कुण्डलपुर' या 'कुण्डग्राम' नाम में भी विवाद नहीं है (कहीं-कहीं कुण्ड के बदले कुण्डल डाला रहता है)। विवाद केवल इसमें है कि भगवान् महावीर की जन्मभूमि 'विदेह' में (गंगा के उत्तर) है या मगध/अंग में (गंगा के दक्षिण) है। अतएव हम आगे इसी पक्ष पर विशेष ध्यान देंगे। हमारे पास उपलब्ध नौ उद्धरणों में से पाँच में जन्मभूमि के विदेह में होने की स्पष्ट चर्चा है (रचनाकारों के नाम कालसहित कोष्ठों में दिये गये हैं।) :___ 1. भारतवास्ये 'विदेहकुण्डपुरे (पूज्यपाद रचित 'दशभक्ति', विक्रम की पाँचवी प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदी)। 2. “देश......विदेह इति विख्यात:” (जिनसेन रचित 'हरिवंशपुराण', विक्रम की आठवीं सदी)। 3. “विदेहाख्ये विषये”, “विदेहविषये” (गुणभद्र रचित 'उत्तरपुराण', विक्रम की नवीं सदी)। 4. “अस्मिन् भारते वर्षे विदेहेषु महर्द्धिषु" = “इस भारतवर्ष में महाऋद्धि-सम्पन्न विदेहं जनपद में" (दामनन्दि-कृत 'पुराणसंग्रह:' हस्तलिखित ग्रन्थ)। 5. वर्धमानचरित्र' के लेखक सकलकीर्ति (मृत्यु 1464 ई.) के दो प्रासंगिक श्लोक इसप्रकार हैं (विशेष उपयोगिता के कारण पूर्ण उद्धरण दिये जा रहे हैं) : अथेह भारते क्षेत्रे विदेहाभिध ऊर्जित-देश: सद्धर्मसंघाद्यैः विदेह इव राजते ।। 2 ।। इत्यादिवर्णनोपेतदेशस्याभ्यन्तरे पुरम्। राजते कुण्डलाभिख्यं.................... | | 10 ।। अर्थात्, “इस भारतक्षेत्र में विदेह नामक सुन्दर देश, प्रमुख सद्धर्मसंघों के कारण विदेह' के समान चमकता था। वहाँ कुण्डलपुर' नामक नगर, हर प्रकार की प्रशंसा से युक्त देश के अन्तर्गत स्थित हो जगमगा रहा था।" यहाँ हमने 'विदेह' पर विशेष ध्यान दिया है; क्योंकि यही मूल-मुद्दा है। ऊपर के उद्धरणों से जन्मभूमि के सम्बन्ध में यथानिर्दिष्ट बातें स्पष्ट होती हैं : (1) कुण्डपुर 'विदेह' में स्थित था। (2) 'विदेह' विख्यात देश था। (क) इसे कई स्थानों पर स्पष्ट रूप से देश कहा गया है। (ख) जनपदसूचक बहुवचन का प्रयोग किया गया है। जनपद के नाम में बहुवचन होता है। --(पाणिनि : जनपदे लुप्, अध्याय 2) (ग) विदेह पर श्लेष का प्रयोग : (अ) विदेह (दश), (ब) विदेह (जनक विदेह, विगतो देहो देह-सम्बन्धो यस्य सः=देहातीत अवस्था को प्राप्त)। प्राचीन जैन-साहित्य में कहीं-कहीं 'विदेह' अथवा 'तीरभृक्ति' के लिए भगवान महावीर अथवा उनके नाना चेटक का प्रसंग आने पर सिन्धुदेश' या सिन्धविषय' शब्द का प्रयोग किया गया है। हमने अपने उपर्युक्त शोधप्रबन्ध में, पृष्ठ 227-28 पर, इसतरह के चार उद्धरण दिये हैं। यह प्रयोग उस समय की प्रचलित-परम्परा के अनुसार ही था। सिन्धु' का एक अर्थ नदी होता है। इसप्रकार 'सिन्धु देश' या सिन्धविषय' का अर्थ हुआ – “नदी के तीर पर स्थित प्रदेश = तीरप्रदेश = तीरभुक्ति । हमारे इस सिन्धुदेश या सिन्धुविषय का, जो तीरभुक्ति' के पर्याय के रूप में प्रयुक्त हुआ है, पश्चिम के 'सिन्धुसौवीर' से कोई सम्बन्ध नहीं है। अपनी जन्मभूमि से भगवान् महावीर के सम्बन्ध अत्यन्त दृढ़ थे। इस बात की पुष्टि के लिए हम यथानिर्दिष्ट प्रमाण या तर्क उपस्थित करना आवश्यक समझते हैं :1 भगवान् महावीर की माता त्रिशला क्षत्रियाणी विदेहदत्ता' के नाम से प्रख्यात थीं। । —(कल्पसूत्र', 'आचारांगसूत्र') 0022 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. भगवान् का जन्म जैन-साहित्य के प्रमाणानुसार विदेहदेश' के 'कण्डपुर' नामक स्थान पर हुआ था। (अब तक किसी जैन-ग्रन्थ ने उनके 'अंगदेश' या 'मोदगिरि' या 'मुद्गलगिरिक्षेत्र' या 'मगध' में जन्म लेने की बात नहीं लिखी)। 3. भगवान् को वैदेह, विदेहदत्त, विदेहजात्य और विदेहसुकुमार' कहा गया है ---(कल्पसूत्र', 'आचारांगसूत्र')। (उनका कोई नाम अंगदेशोत्पन्नता-सूचक या मगधदेशोत्पन्नतासूचक नहीं है।) भगवान् के जीवन के प्रथम तीस वर्ष 'विदेह' में व्यतीत हुए। —(कल्पसूत्र', 'आचारांगसूत्र') ज्ञातृकुल (नायकुल, नातकुल) में जन्म लेने और उसे उजागर करने के कारण भगवान् को 'ज्ञात, ज्ञातृपुत्र और ज्ञातृकुलचन्द्र' कहा गया है – (कल्पसूत्र', 'आचारांगसूत्र')। बौद्ध-साहित्य भी उन्हें 'ज्ञातपुत्र' (नाटपुत्र) के रूप में ही जानता है। 'वैशाली' में जन्म-धारण करने के कारण भगवान् को वेसालिए' (सं० वैशालिक, वैशालीय) कहा गया है --(सूत्रकृतांग', उत्तराध्ययनसूत्र')। 7. भगवान के जीवनकाल में ही वैशाली में उनके यथेष्ट-अनुयायी हो गये थे। यह बात जैन-साहित्य और बौद्ध-साहित्य (सिंह सेनापति की कथा) से सिद्ध होती है। जब पावा में भगवान् परिनिर्वाण को प्राप्त हुए, तब वहाँ नौ मल्लि गणराज, नौ लिच्छवि गणराज और अट्ठारह काशी-कोसल के गणराज उपस्थित हुए, जिन्होंने इस निर्वाण की स्मृति में दीपोत्सव की प्रथा प्रारम्भ की। (इस दीपोत्सव में मगध और अंग का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था।) भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद भी निर्ग्रन्थ या जैन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनकी जन्मभूमि के साथ जुड़े रहे : (i) वैशाली में जैनों और बौद्धों की अधिकता के कारण 'मनुस्मृति' (10.20) ने वहाँ के लिच्छवियों को 'व्रात्य' (संस्कारच्युत) करार दिया। (ii) वैशाली की एक गुप्तकालीन मुहर (सील) पर लिखा है- "वेसाली-नामकण्डे कमारामात्याधिकरण (स्य)"। इससे सिद्ध है कि 'वैशालीकुण्ड'= वैशाली' (स्थित 'क्षत्रियकुण्ड') की स्मृति अभी (चौथी-पाँचवीं सदी में) शेष थी। आज का 'बासोकुण्ड' उसी की याद दिला रहा है। (ii) प्रसिद्ध चीनी बौद्ध-यात्री ह्वेनसांग (621-645 ई.) ने, जो 637 ई. में वैशाली पहुंचा था, निर्ग्रन्थों को वहाँ अच्छी संख्या में पाया था। (iv) वैशाली में जैन-तीर्थंकरों की पालयुग (770-1191 ई.) की बनी मूर्तियाँ प्राप्त हैं, जिनमें एक वहाँ 'बौना पोखर' पर निर्मित जैन-मन्दिर में रखी जाकर वर्षों से पूजित हो रही है। (v) सन् 1332 ई. में लिखित विविधतीर्थकल्प' नामक अपनी पुस्तक में जिनप्रभसूरि ने 'कुण्डग्राम' को जैनतीर्थ दिखलाया है, वहाँ वीर की मूर्ति की स्थापना की बात लिखी है, तथा वहीं 'खत्तिअ-कुण्डग्गामणयर' एवं 'वेसाली-वाणिअग्गाम' के होने की स्पष्ट- चर्चा की है। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर का जन्म-स्थान --डॉ० ऋषभचन्द जैन 'फौजदार' भगवान् महावीर की जन्मभूमि में वर्षों से साहित्यसाधना, अनुसंधान एवं लेखनकार्य में निमग्न डॉ. फौजदार ने अपने सुदीर्घ अध्ययन, अनुसंधान अनुभव से इस सत्य को गहराई से पहिचाना है और दोटूक शैली में सप्रमाण अपनी बात कही है। यह कोई पक्ष-प्रतिपक्ष का प्रश्न नहीं है, हमारी सबकी आस्था के केन्द्र भगवान् महावीर की जन्मभूमि के विषय में प्राचीन आचार्यों एवं मनीषियों के प्रमाणोल्लेख-सहित तथ्यपरक प्रस्तुति है। —सम्पादक भगवान् महावीर के 2600वें जन्म-कल्याणक महोत्सव वर्ष के उपलक्ष्य में भारत सरकार ने वर्ष 2001-2002 को 'अहिंसा-वर्ष' घोषित किया है। इस प्रसंग में पूरा राष्ट्र एवं जैनसमाज, सामूहिक तथा एकल रूप में अनेक कार्यक्रम आयोजित कर रहा है। ऐसे समय में भगवान् महावीर के जन्म-स्थान के सम्बन्ध में भ्रम पैदा करना जैनसमाज के लिये शुभ-लक्षण नहीं है। इसी वर्ष मई 2001 के 'सम्यग्ज्ञान', अप्रैल-जून 2001 के 'अर्हत्-वचन और दिसम्बर 2001 के 'जैन महिलादर्श' में 'भगवान् महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है, जो प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती माता जी द्वारा लिखित है। पुन: फरवरी 2002 के 'सम्यग्ज्ञान' में उक्त माताजी की ही 'बजी कुण्डलपुर में बधाई, वैशाली कहाँ से आई' शीर्षक लेख भी छपा है। उक्त लेखों में पूज्य माताजी ने मगधदेश के 'कुण्डलपुर' को 'विदेह' का सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, जो उचित नहीं है। इसी प्रसंग में मेरा यह विनम्र प्रयास है। ___यहाँ भगवान् महावीर के जन्म-स्थान से सम्बद्ध शास्त्रीय-उद्धरण मूलरूप में हिन्दीअनुवाद के साथ प्रस्तुत किये जा रहे हैं : सिद्धार्थनृपतितनयो भारतवास्ये विदेहकुण्डपुरे। देव्यां प्रियाकारिण्यां सुस्वप्नान् संप्रदर्श्य विभुः।। --(आचार्य पूज्यपाद, निर्वाणभक्ति, पद्य 4) अर्थ :--- भगवान् महावीर का जीव भारतवर्ष में विदेह' (दश) के 'कुण्डपुर' नगर में उत्तम-स्वप्नों को दिखाकर प्रियकारिणी देवी और सिद्धार्थ राजा का पुत्र हुआ। 10 24 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ देशोऽस्ति विस्तारी जम्बूद्वीपस्य भारते। विदेह इति विख्यात: स्वर्गखण्डसम: श्रियः ।। 2/1 तत्राखण्डलनेत्रालीपद्मिनीखण्डमण्डलम् । सुखाम्भ: कुण्डमाभाति नाम्ना कुण्डपुरं पुरम् ।। 2/5 -(आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, 2/1 एवं 5, पृ. 12) - अर्थ :--- अथानन्तर इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में लक्ष्मी से स्वर्ग-खण्ड की तुलना करनेवाला, विदेह इस नाम से प्रसिद्ध एक बड़ा विस्तृत देश है। उस विदेह देश में कुण्डपुर नाम का एक ऐसा सुन्दर नगर है, जो इन्द्र के नेत्रों की पंक्तिरूपी कमलिनियों के समूह से सुशोभित है तथा सुखरूपी जल का मानो कुण्ड की है। । तस्मिन्षण्मासशेषायुष्यानाकादागमिष्यति। भरतेऽस्मिन्विदेहाख्ये विषये भवनांगणे।। राज्ञ: कुण्डपुरेशस्य वसुधारापतत्प्रथु। सप्तकोटिर्मणि: सार्धा सिद्धार्थस्य दिनम्प्रति।। -(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, 74/251-52, पृ. 460) अर्थ:- जब उसकी आयु छह माह की बाकी रह गई और वह स्वर्ग से आने को उद्यत हुआ, तब इसी भरतक्षेत्र के विदेह' नामक देश-सम्बन्धी कुण्डपुर' नगर के राजा सिद्धार्थ के भवन के आँगन में प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ रत्नों की बड़ी मोटी धारा बरसने लगी। विदेहविषये कुण्डसंज्ञायां पुरि भूपतिः ।। नाथो नाथकुलस्यैक: सिद्धार्थाख्यस्त्रिसिद्धिभाक् । तस्य पुण्यानुभावेन प्रियासीप्रियकारिणी।।-(वही, 75/7-8) अर्थ :--- विदेह देश के 'कण्ड' नगर में नाथवंश के शिरोमणि एवं तीनों सिद्धियों से सम्पन्न राजा सिद्धार्थ राज्य करते थे। पुण्य के प्रभाव से प्रियकारिणी उन्हीं की स्त्री हुई थी। 4. श्रीमानथेह भरते स्वयमस्ति धात्र्या पुंजीकृतो निज इवाखिलकान्तिसारः । नाम्ना विदेह इति दिग्वलये समस्ते ख्यात: परं जनपद: पदमुन्नतानाम् ।। तत्रास्त्यधो निखिलवस्त्ववगाहयुक्तं भास्वत्कलाधरबुधैः संवृष सतारम् । अध्यासितं वियदिव स्वसमानशोभं ख्यातं पुरं जगति कुण्डपुराभिधानम् ।। उन्मीलितावधिदृशा सहसा विदित्वा तज्जन्म भक्तिभरत: प्रणतोत्तमांगाः। घण्टा-निनाद-समवेतनिकायमुख्या दिष्ट्या ययुस्तदिति कुण्डपुरं सुरेन्द्राः ।। -(महाकवि असग, वर्द्धमानचरित, 17/1, 7, 61) अर्थ :– अथानन्तर इसी भरतक्षेत्र में एक ऐसा लक्ष्मी सम्पन्न देश है जो पृथिवी की स्वयं इकट्ठी हुई अपनी समस्त कान्तियों का मानों सार ही है, जो समस्त दिशाओं में विदेह इस नाम से प्रसिद्ध है, तथा उत्तम मनुष्यों के रहने का उत्कृष्ट स्थान है। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तदन्तर उस 'विदेह' देश में 'कुण्डपुर' नाम का एक जगत्-प्रसिद्ध नगर था, जो स्वसदृश-शोभा से सम्पन्न होता हुआ आकाश के समान सुशोभित हो रहा था; क्योंकि जिसप्रकार आकाश समस्त वस्तुओं के अवगाह से युक्त है, उसीप्रकार वह नगर भी समस्त वस्तुओं के अवगाह से युक्त था। तात्पर्य यह है कि “आकाशस्यावगाह:" इस आगम-वाक्य से जिसप्रकार आकाश, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल — इन छह द्रव्यों को अवगाह देता है, उसीप्रकार वह नगर भी संसार के समस्त-पदार्थों को अवगाह देता था .... उसमें संसार के समस्त पदार्थ पाये जाते थे। जिसप्रकार आकाश भास्वत्-सूर्य, कलाधर-चन्द्रमा और बुध आदि ग्रहों से अध्यासित-अधिष्ठित है; उसीप्रकार वह नगर भी भास्वत्कलाधर बुधों-दैदीप्यमान कलाओं के धारक विद्वानों से अधिष्ठित था, इन सबका उसमें निवास था। जिसप्रकार आकाश सवृष-वृष राशि से सहित होता है, उसीप्रकार वह नगर भी सवृष' अर्थात् 'धर्म से सहित' था; व जिसप्रकार आकाश सतार' - ताराओं से सहित है, उसीप्रकार वह नगर भी सतार - चाँदी, तरुण पुरुष, शुद्ध मोती अथवा मोतियों आदि की शुद्धि से सहित था।' ___ 'खुले हुए अवधिज्ञानरूपी नेत्र के द्वारा शीघ्र ही जिनबालक का जन्म जानकर भक्ति के भार से जिनके मस्तक झुक गये थे, तथा जिनके मुख्य-भवन घण्टा के शब्द से शब्दायमान हो रहे थे— ऐसे इन्द्र उस समय सौभाग्य से कुण्डपुर आये।' 5. अथाऽस्मिन् भारते वर्षे विदेहेषु महर्द्धिषु । आसीत्कुण्डपुरं नाम्ना पुरं सुरपुरोत्तमम् ।। - (आचार्य दामनन्दि, पुराणसारसंग्रह 2, वर्धमानचरित 4/1, पृ. 188) अर्थ :- इसी भरतक्षेत्र में विदेह' नाम का समृद्धिशाली देश है, वहाँ देवों के नगरों से भी बढ़कर 'कुण्डपुर' नाम का नगर था। 6. णिवसइ विदेहु णामेण देसु खयरामरेहिं सुहयर-पएसु । तहिं णिवसइ कुंडपुराहिहाणु पुरुधय-चय-झंपिय-तिव्व भाणु।। -(विबुध श्रीधर, वड्ढमाणचरिउ, 9/1, पृ. 198-99) अर्थ :- उसी भारतवर्ष में विद्याधरों और अमरों से सुशोभित प्रदेश-वाला विदेह नामक एक सुप्रसिद्ध देश है, जहाँ सुन्दर धार्मिक लोग रहते हैं। ..........उसी विदेह. देश में कुण्डपुर नामक एक नगर है, जिसने अपनी ध्वजा-समूह से तीव्र भानु को ढंक दिया था। 7. च्युत्वा विदेहनाथस्य सिद्धार्थस्याङ्गजोऽजनि । सोऽत्र कुण्डपुरे शक्रः कृत्वाभिषवणादिकम् ।। –(पं. आशाधर सूरि, त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र, 24/24, पृ. 153) अर्थ :- पुष्पोत्तर विमान (स्वर्ग) से च्युत होकर विदेह देश के राजा सिद्धार्थ व प्रियकारिणी के गर्भ से कुण्डपुर में महावीर नाम से जन्मे । इन्द्र ने अभिषेकादि कार्य किये। 00 26 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. अथेह भारते क्षेत्रे विदेहाभिध ऊर्जित: । देश: सद्धर्मसंघाद्यैः विदेह इव राजते।। इत्यादि वर्णनोपेतदेशस्याभ्यन्तरे पुरम् । राजते कुण्डलाभिख्य.............. || -(भट्टारक सकलकीर्ति, वर्धमानचरित, 7/2, प्र. 10) अर्थ :-- इसी भरतक्षेत्र में विदेह नामक शक्तिशाली देश है, जो सद्धर्म और सद्संघ आदि से विदेह की तरह शोभायमान है। इसप्रकार के वर्ण से युक्त देश में कुण्डलपुर' नामक नगर है। बहु जनपद मीझार तु वीदेह देस रूपडो ए। कुंडलपुर सोहि चंग तु पुरुष नामी जीम ए। ते नयर तणु नाथ तु कासप-गोत्र-धणी ए। सीधारथ भूप जाणंतु हरिवंस सिरोमणि ए। ते भूप तणी पटरांणी तु नाम प्रियकारिणी ए।। -(महाकवि पद्म, महावीररास, 14/6 10, 16, एवं 21) अथेह भरते क्षेत्रे विदेहविषये शुभे। भूरिपुरादिसंयुक्ते भाति कुण्डपुरं पुरम् ।। -(मुनि धर्मचन्द्र, गौतमचरित्र, 4/1) अर्थ :- इसी भरतक्षेत्र में एक विदेह देश है जो कि बहुत ही शुभ है और अनेक नगरों से सुशोभित है। उसमें एक कुण्डपुर नाम का नगर है। 11. अब यह आरजखण्ड महान्, देश सहस बत्तीस प्रमान । तामें दक्षिण-दिस गुणमाल, महा विदेहा देश रसाल ।। सो विदेहवत है समुदाय, सब शोभा ता कही न जाय । कोई तप-फल के परभाय, उपजें वर विदेह में आय।। ताके मध्य नाभिवत् जान, कुण्डलपुर नगरी सुख खान । पुरपति महीपाल मतिमान, श्री सिद्धारथ नाम महान् ।। तिनहिं भवन देवी महा, प्रियकारिणी वरं नार। त्रिशला त्रस-रक्षा-करण, रूप अधिक परताप।। --- (कवि नवलशाह, वर्धमानपुराण, 7/84, 85, 91, 103, 108, 109) 12. समण भगवं महावीरे णाते णातपुत्ते णायकुलविणिव्वते विदेह विदहदिण्णे विदेहजच्चे विदेहसूमाले तीसं वासाई विदेहे त्ति कटु..... । --(आचारांग, 2/15, सूत्र 746, ब्यावर संस्करण) अर्थात् श्रमण भगवान् महावीर, जो कि ज्ञातपुत्र के नाम से प्रसिद्ध हो चुके थे, ज्ञातकुल प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 1027 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (के उत्तरदायित्व) से विनिवृत्त थे, अथवा ज्ञात कुलोत्पन्न थे, देहासक्ति रहित थे, विदेहजनों द्वारा अर्चनीय-पूजनीय थे, विदेहदत्ता (माता) के पुत्र थे, विशिष्ट शरीर वज्रऋषभ नाराच संहनन एवं समचतुरस्र-संस्थान से युक्ते होते हुये भी शरीर से सुकुमार थे । ( इसप्रकार की योग्यता से सम्पन्न ) भगवान् महावीर तीस वर्ष तक विदेहरूप में गृह में निवास करके. । -- (वही, पृ. 377 ) 13. समणे भगवं महावीरे.. ..नायपुत्ते नायकुलचंदे विदेहे विदेहदिन्ने विदेहजच्चे .. कटटु | विदेहसूमाले तीसं वासाइं विदेहंसि.. - ( कल्पसूत्र - सूत्र, श्रमण भगवान् महावीर.. 110, पृ. 160, प्राकृत भारती संस्करण, जयपुर) अर्थ :....ातृवंश के थे, ज्ञातृवंश में चन्द्रमा के समान थे, विदेह थे, विदेहदिन्ना- त्रिशला माता के पुत्र थे, विशिष्ट कान्ति के धारक थे, विशिष्ट देह से अत्यन्त सुकुमार थे । वे तीस वर्ष तक गृहस्थाश्रम में निस्पृह रहकर ... I - ( वही, पृ. 161 ) 14. (क) अरहा णायपुत्ते भगवं वेसालीए वियाहिए । - (सूत्रकृतांग, 1/2/3/22, पृ. 178, ब्यावर सं . ) अर्थ :“इन्द्रादि देवों द्वारा पूजनीय (अर्हन्त ) ज्ञातृपुत्र तथा ऐश्वर्यादि-गुणयुक्त भगवान् वैशालिक महावीर स्वामी ने 'वैशाली' नगरी में कहा था । (ख) “ नायपुत्ते भगवं वेसालिए” “ ज्ञातृपुत्र भगवान् वैशालिक । ” – (महावीर ) चूर्णि "णातकुलप्पसूते सिद्धत्थखत्तियपुत्ते ।” - ( उत्तराध्ययनसूत्र, 6 / 18, पृ. 51, वीरायतन संस्करण, 1972 ) साध्वी चन्दना दर्शनाचार्य ने उक्त संस्करण में उक्त गाथासूत्र के टिप्पण में पृ. 429 पर लिखा है-—“भगवान् महावीर का विशाला (अर्थात् उपनगर - कुण्डग्राम) में जन्म होने से उन्हें वेसालिए या वैशालिक कहा जाता है।” 15. अत्येत्थ भरहवासे, कुण्डग्गामं पुरं गुणसमिद्धं । तत्य य णरिंदवसहो सिद्धत्यो णाम णामेणं । । - (विमलसूरि, पउमचरियं, 221 ) अर्थ :- इसी भरतक्षेत्र में गुण एवं समृद्धि से सम्पन्न 'कुण्डग्राम' नाम का नगर था । वहाँ पर राजाओं में वृषभ के समान उत्तम 'सिद्धार्थ' नामक राजा राज्य करता था । सिद्धत्थराय-पियकारिणीहिं णयरम्मि कुंडले वीरो । उत्तरफग्गुणिरिक्खे चित्तसिया - तेरसीए उप्पण्णो ।। 16. ☐☐ 28 - (आचार्य यतिवृषभ, तिलोयपण्णत्ति, 4/549) अर्थ :- “ भगवान् महावीर कुण्डलपुर में पिता सिद्धार्थ और माता प्रियकारिणी से चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में उत्पन्न हुये । प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. अह चित्तसुद्धपक्खस्स तेरसीपुव्वरत्तकालम्मि । हत्युत्तराहिं जाओ कुंडग्गामे महावीरो ।। ――――― - ( आवश्यक नियुक्ति, गाथा 304 ) अर्थ :- चैत्रशुक्ल त्रयोदशी को रात्रि के पूर्वभाग में उत्तरहस्ता नक्षत्र में कुंडग्राम में महावीर उत्पन्न हुये। 18. अत्थि इह भरहवासे मज्झिमदेसस्स मण्डणं परमं । सिरिकुण्डगामनयरं वसुमइरमणी तिलयभूयं । । - ( नेमिचन्द्र सूरि, महावीरचरियं) अर्थ इस भारतवर्ष (भरतवर्ष-क्षेत्र) के मध्यदेश का परम - आभूषण और पृथ्वीरूपी रमणी का तिलकभूत श्रीकुण्डग्राम नामक नगर है। 19. कुण्डपुरपुर वरिस्सर सिद्धत्थक्खत्तियस्य णाहकुले । तिसिलाए देवीसदसेवमाणाए । । 28।। देवीए - ( आचार्य वीरसेन, षट्खंडागम (धवला), पु. 9, खण्ड - 4, भाग-1, पृ. 122 ) - (वही, कसायपाहुड (जयधवला ), भाग-1, पृ. 78, गाथा 23 ) अर्थ :- कुंडपुर (कुण्डलपुर ) रूप उत्तमपुर के ईश्वर सिद्धार्थ - क्षत्रिय के नाथ - कुल सैकड़ों देवियों से सेव्यमान त्रिशला देवी के... I 20. आसाढ जण्हपक्खछट्ठीए कुंडलपुरणगराहिव - णाहवंस - सिद्धत्थणरिंदस्स तिसिलादेवीए गब्भमागंतूण तत्थ अट्ठदिवसाहिय णवमासे अच्छिय- चइत्तसुक्कपक्खतेरसीए उत्तराफग्गुणीणक्खते गब्भादो णिक्खंतो । - ( आचार्य वीरसेन, षट्खंडागम (धवला), पु. 9, खण्ड - 4, भाग-1, पृ. 121 ) ."कुंडपुर... .. वड्ढमाणजिणिंदो"..... शेष वही । - ( आचार्य वीरसेन, कसायपाहुड ( जयधवला), भाग-1, पृ. 76-77) अर्थ :- आषाढ़ शुक्लपक्ष की षष्ठी के दिन कुण्डलपुर नगर के अधिपति नाथवंशी सिद्धार्थ नरेन्द्र की त्रिशलादेवी के गर्भ में आकर और वहाँ आठ दिन अधिक नौ मास रहकर चैत्र शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के दिन उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र में गर्भ से बाहर आये।” इह जंबुदीवि भरहंतरालि । रमणीय - विसइ सोहा विसालि । कुंडउरि राउ सिद्धत्य सहित्थु । जो सिरिहरु मग्गण- वेस रहिउ ।। 21. - ( महाकवि पुष्पदंत,, वीरजिणिंदचरिउ, 1/6, पृ. 10 ) अर्थ :इस जम्बूद्धीप के भरतक्षेत्र में विशाल शोभाधारी विदेह प्रदेश में कुण्डपुर नगर के राजा सिद्धार्थ राज्य करते हैं । वे आत्म- हितैषी और श्रीधर होते हुए भी विष्णु के समान वामनावतार-सम्बन्धी याचक- वेष से रहित हैं । —— उक्त शास्त्रीय-उद्धरणों से स्पष्ट है कि भगवान् महावीर का जन्म विदेह- देश के 'कुण्डपुर' (कुण्डलपुर या कुण्डग्राम) में हुआ था, जो आज 'बासोकुण्ड' नाम से जाना जाता प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक 00 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। महावीर का जन्मस्थान होने के कारण ही यहाँ सन् 1955 ई. में बिहार सरकार ने (स्व. साहू शान्तिप्रसाद जैन के आर्थिक सहयोग से) प्राकृत और जैनविद्या के उच्चतर अध्ययन-अनुसन्ध पान के निमित्त 'प्राकृत जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली' की स्थापना की थी। संस्थान के भवन तथा जन्मस्थान बासोकुण्ड में महावीर-स्मारक का शिलान्यास 23 अप्रैल 1956 को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने किया था। देश-विदेश के जैन-जैनेतर विद्वानों ने पिछले एक-डेढ़ सौ वर्षों में भगवान् महावीर के जन्म-स्थान के विषय में खूब विचार किया है। उनमें से कतिपय विद्वानों का स-सन्दर्भ उल्लेख यहाँ किया जा रहा है :विदेशी-विद्वान् 1. हर्मन जैकोबी, सेक्रेड ऑफ दि ईस्ट, जिल्द-22, ऑक्सफोर्ड, 1884; एवं भारत 1964, प. 10-13 (जैनसूत्र, प्रथम भाग की भूमिका) तथा इन्साईक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एण्ड एथिक्स, जिल्द 7, पृ. 466 2. डॉ. ए.एफ. रूडोल्स होर्नले, 'उवासगदसाओ' के अंग्रेजी-अनुवाद में, बिब्लियोथेका . इण्डिका सीरीज, कलकत्ता, 1888, फुट नोट 8, पृ. 3-5 3. डॉ. विसेन्ट ए. स्मिथ, जर्नल ऑफ दि रायल एशियटिक सोसायटी, 1902, पृ. 267 288 तथा इन्साईक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एण्ड एथिक्स, जिल्द 12, पृ. 567-68, सन् 1921 4. डॉ. टी. ब्लॉक, ‘एक्सकैवेसन्स एट बसाढ़' 'ऑर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया' का वार्षिक विवरण, सन् 1903-4, पृ. 81-122 5. श्रीमती सिंक्लेयर स्टेवेन्शन, दि हार्ट ऑफ जैनिज्म, ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, 1915, पृ. 21-22 6. डॉ. जाल चार्पेण्टियर, उपसाला विश्वविद्यालय, कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, प्रथम भारतीय संस्करण, एस. चांद एण्ड कम्पनी, दिल्ली, जिल्द 1, पृ. 140, सन् 1955 7. डॉ. डी.पी. स्पूनर, ऑर्कियालॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया का वार्षिक विवरण, सन् 1913___ 14, पृ. 98-185 8. जी.पी. मल्लाल शेखर, डिक्शनरी ऑफ पालि प्रोपर नेम्स, भाग 2, लन्दन, सन् 1938, पृ. 943 तथा भाग 1, पृ. 64 जैनेतर-विद्वान् 1. सुरेन्द्रनाथ दास गुप्त, ए हिस्ट्री ऑफ इण्डियन फिलॉसफी, वाल्यूम-1, कैम्ब्रिज, 1922, पृ. 173 2. नन्दलाल डे, द ज्योग्राफिकल डिक्शनरी ऑफ एशिएण्ट एण्ड मेडिएवल इण्डिका लंदन, 1927, पृ. 107 00 30 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक ___ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. बी.सी. ला, महावीर : हिज लाइफ एण्ड टीचिंग्स, लंदन, 1937, पृ. 19, वैशाली अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ. 169-72 4. सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन्, इण्डियन फिलॉसफी, वाल्यूम-1, इण्डियन एडीशन, 1940 पृ. 291-92 5. राहुल सांकृत्यायन, दर्शन-दिग्दर्शन, इलाहाबाद, 1944, पृ. 492 6. डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी, 31 मार्च 1945 को प्रथम वैशाली महोत्सव का अध्यक्षीय ___भाषण, वैशाली अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ. 6 7. श्री रामतिवारी, ब्र. चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ, आरा, सन् 1954, पृ. 666-67 8. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, भारत के प्रथम राष्ट्रपति द्वारा प्राकृत जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान के भवन का शिलान्यास करते समय दिया गया भाषण, वैशाली अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ. 103, प्रथम संस्करण की भूमिका एवं महावीर स्मारक लेख, 23 अप्रैल, 1956 बासुकुण्ड, वैशाली 9. श्री रंगनाथ रामचन्द्र दिवाकर, राज्यपाल बिहार, 23 अप्रैल, 1956 को बारहवें वैशाली महोत्सव के अवसर पर अध्यक्षीय भाषण, वैशाली अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ. 116-17 10. डॉ. एस. मुकर्जी, वही, पृ. 120 11. प्रो. राधाकृष्ण शर्मा, ब्र. चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ. 597 12. पं. नरोत्तम शास्त्री, वही, पृ. 605 13. डॉ. सम्पूर्णानन्द, वैशाली अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ. 394 14. योगेन्द्र मिश्र, एन अर्ली हिस्टरी ऑफ वैशाली, दिल्ली, 1962, वैशाली अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ. 251-59 तथा ब्र. चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ.669-76 15. डॉ. वी.एस. अग्रवाल द्वारा लिखित (श्री विजयेन्द्र सूरि लिखित पुस्तक) की भूमिका एवं 'वैशाली अभिनन्दन ग्रन्थ', पृ. 108 16. पं. बलदेव उपाध्याय, वैशाली अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ. 237-42 17. टी.एन. रामचन्द्रन्, वही, पृ. 128-33 18. जे.सी. माथुर, वही, पृ. 387 19. डॉ. सुरेन्द्रनाथ दीक्षित, वही, पृ. 398-99 20. श्री नागेन्द्र प्रसाद सिंह, वही, पृ. 471-72 21. पं. बिहारी लाल शर्मा, मंगलायतनम्', संस्कृत गद्य रचना, 2500वाँ निर्वाण महोत्सव वर्ष 1975 में वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट, वाराणसी से प्रकाशित। जैन-विद्वान 1. ब्र. भूरामल शास्त्री (आचार्य ज्ञानसागर) वीरोदय महाकाव्य, दूसरा सर्ग। 2. पं. मूलचन्द शास्त्री, वर्धमान चम्पू। प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. श्री चिमनलाल जे. शाह, जैनिज्म इन नॉर्थ इण्डिया (800 बी.सी.से. 526 एडी.) ..लौंगमेन्स ग्रीन एण्ड कम्पनी, 1932, पृ. 23-24। 4. बाबू कामता प्रसाद जैन, 'वैशाली' शीर्षक लेख, जैन सिद्धांत भास्कर, वर्ष 3, 1936, पृ. 48-52। . 5. जे.एल. जैनी, आउट लाइन्स ऑफ जैनिज्म, कैम्ब्रिज, 1916, रिप्रिन्ट 1940, पृ. 27। 6. पं. कल्याणविजय गणि, श्रमण भगवान् महावीर, शास्त्र संग्रह समिति, जालोर, 1941 प्रस्तावना, पृ. 25-28। 7. पं. के. भुजबली शास्त्री, 'भगवान् महावीर की जन्मभूमि' शीर्षक निबन्ध, जैन सिद्धांत भास्कर, 10/2, सन् 1943, पृ. 60-661 8. विजेन्द्र सूरि, वैशाली (प्रथम एवं द्वितीय संस्करण) सन् 1946, 1957, तीर्थकर महावीर, भाग-1, बम्बई, 1960, वैशाली अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ. 160-168 एवं 264 । 9. डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, लाईफ इन एन्शिएण्ट इण्डिया एज डिपिक्टेड इन द जैन कैनन्स, बम्बई, 1947, पृ. 297 । 10. पं. सुखलाल संघवी, अध्यक्षीय भाषण, नवम् वैशाली महोत्सव 28 मार्च 1953, वैशाली अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ. 84-94 । 11. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, ब्र. चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ, आरा 1954, पृ. 626 । 12. श्री बी.सी. जैन, वही, पृ. 688। 13. डॉ. हीरालाल, वैशाली अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ. 97-98, प्राकृत जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान वैशाली का कैलेण्डर, सन् 1961, सन् 1992 तथा वीरजिणिंद चरिउ की प्रस्तावना। 14. आचार्य श्री हस्तिमल्ल जी महाराज, जैनधर्म का मौलिक इतिहास, पृ. 556 (उद्धृत शोधादर्श-44, पृ. 59)। 15. राष्ट्रसंत आचार्य श्री विद्यानन्द जी मुनिराज। 16. महासती चन्दना, उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण, वीरायतन, संस्करण, 1972, पृ. 429 । 17. कैलाशचन्द्र जैन, लॉर्ड महावीर एण्ड हिज टाइम्स, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1974, पृ. 34-371 18. श्री अजित प्रसाद जैन, शोधादर्श-44, पृ. 58-59 । 19. डॉ. शशिकान्त, वही, पृ. 17। ___ उपर्युक्त सभी विद्वानों ने एक स्वर से विदेह देश में मौजूद वैशाली के समीपवर्ती कुण्डपुर (कुण्डलपुर, कुण्डग्राम) वर्तमान वासोकुण्ड को भगवान् महावीर का जन्मस्थान माना है। .. श्वेताम्बर सम्प्रदाय के कुछ लोग लिछुआड़ (जो अंग देश में था) को भगवान् महावीर की जन्मभूमि मानते हैं, जो शास्त्रीय दृष्टि से मान्य नहीं है। उसी परम्परा के प्रसिद्ध विद्वान् 00 32 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी लिछुआड़ को भगवान् महावीर का जन्मस्थान नहीं मानते । यहाँ दो विशिष्ट विद्वानों के मन्तव्य उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत किये जा रहे हैं श्वेताम्बर-विद्वान् पुरातत्त्ववेत्ता पं. कल्याणविजय गणि का अभिप्राय इसप्रकार है“प्रचलित परम्परानुसार आजकल भगवान् की जन्मभूमि पूर्व बिहार में 'क्यूल' स्टेशन से पश्चिम की ओर आठ कोस पर अवस्थित 'लच्छ-आड़' गाँव माना जाता है, पर हम इसको ठीक नहीं समझते। इसके अनेक कारण हैं :– 1. . सूत्रों में महावीर के लिये “ विदेहे विदेहदिन्ने विदेहजच्चे विदेहसूमाले तीसं वासाई विदेहं-सिकट्टु” इत्यादि जो वर्णन मिलता है, उससे यह स्वत: सिद्ध होता है कि महावीर विदेह देश में अवतीर्ण हुए और वहीं उनका संवर्द्धन हुआ था । यद्यपि टीकाकारों ने इन शब्दों का अर्थ और ही तरह से लगाया है, पर शब्दों से प्रथमोपस्थित विदेह, विदेहदत्त, विदेहजात्य, विदेहसुकुमाल, तीस वर्ष विदेह में (पूरे) करके, इन अर्थवाले शब्दों पर विचार करने से यही ध्वनित होता है कि भगवान् महावीर विदेह जाति के लोगों में उत्तम और कुमाल थे। एक जगह तो महावीर को 'वैशालिक' भी लिखा है। इससे ज्ञात होता है कि आपका जन्मस्थान क्षत्रियकुण्डपुर वैशाली का ही एक विभाग रहा होगा । 2. जबकि भगवान् ने राजगृह और वैशाली आदि में बहुत से वर्षों में चातुर्मास किए थे, तब क्षत्रियकुण्डपुर में एक भी वर्षाकाल नहीं बिताया। यदि क्षत्रियकुण्डपुर जहाँ आज मान जाता है, वहीं होता तो भगवान् के कतिपय वर्षाकाल भी वहाँ अवश्य हुये होते, पर ऐसा नहीं हुआ । वर्षावास तो दूर रहा, दीक्षा लेने के बाद कभी क्षत्रियकुण्डपुर अथवा उसके उद्यान भगवान् के आने-जाने का भी कहीं उल्लेख नहीं है। हाँ, प्रारम्भ में जब आप ब्राह्मणकुण्डपुर के बाहर 'बहुसालचैत्य' में पधारे थे, तब क्षत्रियकुण्डपुर के लोगों को आपकी धर्मसभा आने और जमालि के प्रव्रज्या लेने की बात अवश्य आती है । में भगवान् महावीर बहुधा वहीं अधिक ठहरा करते थे, जहाँ पर राजवंश के मनुष्यों का आपकी तरफ सद्भाव रहता । राजगृह - नालंदा में चौदह और वैशाली - वाणिज्यग्राम में बारह वर्षावास होने का यही कारण था कि वहाँ के राजकर्त्ताओं की आपकी तरफ अनन्यभक्ति थी। क्षत्रियकुण्डपुर के राजपुत्र जमालि ने अपनी जाति के पाँच सौ राजपुत्रों के साथ निर्ग्रन्थ- प्रव्रज्या ली थी। इससे भी इतना तो सिद्ध होता है कि क्षत्रियकुण्डपुर, जहाँ से एक साथ पाँच सौ राजपुत्र निकले थे, कोई बड़ा नगर रहा होगा । तब क्या कारण है कि महावीर ने एक वर्षावास अपने जन्मस्थान में नहीं किया? इसका उत्तर यही है कि क्षत्रियकुण्डपुर वैशाली का ही एक उपनगर था और वैशाली - वाणिज्यग्राम में बारह वर्षा - चातुर्मास हुए ही थे, जिनसे क्षत्रियकुण्ड और ब्राह्मणकुण्ड के निवासियों को भी पर्याप्त लाभ मिल चुका था । इस क्षत्रियकुण्ड में आने अथवा वर्षावास करने सम्बन्धी उल्लेखों का न होना अस्वाभाविक नहीं है । प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक 33 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूलग्राम ___. 3. भगवान् की दीक्षा के दूसरे दिन कोल्लाकसंनिवेश में पारणा करने का उल्लेख है। जैन सूत्रों के अनुसार कोल्लाकसंनिवेश दो थे - एक वाणिज्यगांव के निकट और दूसरा राजगृह के समीप । यदि भगवान् का जन्मस्थान आजकल का क्षत्रियकुण्ड होता, तो दूसरे दिन कोल्लाक में पारणा होना असम्भव था, क्योंकि राजगृहवाला कोल्लाकसंनिवेश वहाँ से कोई चालीस मील दूर पश्चिम में पड़ता था और वाणिज्यग्रामवाला कोल्लाक इससे भी बहुत दूर। इससे यही मानना तर्कसंगत होगा कि भगवान् ने वैशाली के निकटवर्ती क्षत्रियकुण्ड के ज्ञातृखण्ड-वन में प्रव्रज्या ली और दूसरे दिन वाणिज्यग्राम के समीपवर्ती कूलग्राम में बकूल राजा के यहाँ कोल्लाक में पारणा की। 4. क्षत्रियकुण्ड में दीक्षा लेकर भगवान् ने कारग्राम, केल्लाकसंनिवेश आदि में विचर कर अस्थिकग्राम में वर्षा-चातुर्मास के बाद भी मोराक, वाचाला, कनकखल, आश्रमपद और श्वेतविका आदि स्थानों में विचरण के उपरान्त राजगृह की तरफ प्रवास किया और दूसरा वर्षावास राजगृह में किया था। उक्त विहार-वर्णन में दो मुद्दे ऐसे हैं, जो आधुनिक-क्षत्रियकुण्ड असली-क्षत्रियकुण्ड नहीं है, ऐसा सिद्ध करते हैं। एक तो भगवान् प्रथम चातुर्मास के बाद श्वेताविका नगरी की तरफ जाते हैं और दूसरा यह कि उधर विहार करने के बाद आप गंगा नदी उतरकर राजगृह जाते हैं। श्वेताविका श्रावस्ती से कपिलवस्तु की तरफ जाते समय मार्ग में पड़ती थी। यह भमि-प्रदेश कौशल के पूर्वोत्तर में और विदेह के पश्चिम में पड़ता था और वहाँ से राजगह की तरफ जाते समय बीच में गंगा पार करनी पड़ती थी, यह भी निश्चित है। आधुनिक क्षत्रियकुण्डपुर के माघ मास में तो श्वेताविका नगरी थी और न उधर से राजगह जाते समय गंगा ही पार करनी पड़ती थी। इससे ज्ञात होता है कि भगवान् की जन्मभूमि आधुनिक क्षत्रियकुण्ड जो आजकल पूर्व बिहार में गिद्धौर-स्टेट में और पूर्वकालीन प्रादेशिक सीमानुसार 'अंग देश' में पड़ता है, नहीं हैं, किन्तु गंगा से उत्तर की ओर उत्तर-बिहार में कहीं थी और वह स्थान पूर्वोक्त प्रमाणों के अनुसार वैशाली' के निकटवर्ती क्षत्रिय-कुण्ड' ही हो सकता — (जैन सिद्धांत भास्कर, 10/2, सन् 1943, पृ. 63-65, उद्धृत, पं. के. भुजबली शास्त्री, भगवान् महावीर की जन्मभूमि) स्व. आचार्य विजयेन्द्रसूरि ने अपनी पुस्तक वैशाली' में भगवान् महावीर के जन्मस्थान के विषय में जो निष्कर्ष निकाले, वे यथावत् रूप में इसप्रकार हैं__“अब हम संक्षेप में इस परिणाम पर पहुँचते हैं :1. आधुनिक स्थान जिसे क्षत्रियकुण्ड कहा जाता है और जिसे लिच्छुआड़ के पास बताया - जाता है, मुंगेर जिला के अन्तर्गत है, महाभारत में इस प्रदेश को एक स्वतंत्र राज्य 00 34 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक ___ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मोदगिरि' के नाम से उल्लेख किया गया है, जो कि बाद में अंग-देश से मिला दिया गया था अर्थात् प्राचीन ऐतिहासिक युग में यह स्थान विदेह में न होकर अंग-देश अथवा मोदगिरि-अन्तर्गत था। इसलिये भगवान् की जन्मभूमि यह स्थान नहीं हो सकती। 2. आधुनिक क्षत्रियकुण्ड पर्वत पर है, जबकि प्राचीन क्षत्रियकुण्ड के साथ शास्त्रों में पर्वत का कोई वर्णन नहीं मिलता। वैशाली के आसपास क्योंकि पहाड़ नहीं है, इसलिये भी वही स्थान भगवान् का जन्मस्थान अधिक सम्भव प्रतीत होता है। 3. आधुनिक क्षत्रियकुण्ड की तलहटी में एक नाला बहता है, जो कि गण्डकी नहीं है। गण्डकी नदी आज वैशाली के पास बहती है। 4. शास्त्रों में क्षत्रियकुण्ड को वैशाली के निकट बताया है, जबकि आधुनिक-स्थान के निकट वैशाली नहीं है। 5. विदेह-देश तो गंगा के उत्तर में है, जबकि आधुनिक क्षयित्रकुण्ड गंगा के दक्षिण में है। इससे स्पष्ट है कि भ्रांतिवश लिच्छआड़ के निकट पर्वत के ऊपर के स्थान को क्षत्रियकुण्ड मान लिया गया है। यहाँ भगवान् का कोई भी कल्याणक-गर्भ, जन्म और दीक्षा नहीं हुआ। शास्त्रों के अनुसार हमारी यह सम्मति है कि जो स्थान आजकल बसाढ़' नाम से प्रसिद्ध है, वही प्राचीन वैशाली है। इसी के निकट क्षत्रियकुण्ड ग्राम था, जहाँ भगवान् के तीन कल्याणक हुए थे। इसी स्थान के निकट आज भी वणियागाँव, कूमनछपरागाछी और कोल्हुआ मौजूद हैं। आजकल यह क्षत्रियकुण्ड स्थान वासुकुण्ड नाम से प्रसिद्ध हैं। पुरातत्व विभाग भी वासुकुण्ड को ही प्राचीन क्षत्रियकुण्ड मानता है। यहाँ के स्थानीय लोग भी यही समझते हैं कि भगवान् का जन्म यहीं हुआ था। -(श्रवण 261, में प्रकाशित वैशाली' नामक लेख, पृ. 46-47) ___पं. कल्याणविजय गणि और आचार्य विजयेन्द्र सूरि जी महाराज के उपर्युक्त निष्कर्ष से यह स्पष्ट है कि भगवान् महावीर का जन्म विदेह-देशस्थ कुण्डपुर, जो वैशाली के समीप है, में हुआ था, लिछुआड़ (मुंगेर-अंगदेश) या कुण्डपुर (नालन्दा-मगध) देश में नहीं। जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा के शास्त्रों में अंग, मगध और विदेह स्वतन्त्र देश बतलाये गये हैं। बृहत्कल्पसूत्र वृत्ति, प्रज्ञापनासूत्र, सूत्रकृतांग, टीका, प्रवचनसारोद्धार सोलह महाजनपदों में भी इनका नामोल्लेख पाया जाता है। आदिपुराण में भी इनका पृथक्-पृथक् उल्लेख है। अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन समय में ये तीनों स्वतन्त्र देश रहे हैं। वर्तमान बिहार अंग, मगध और विदेह इन तीनों प्राचीन देशों का संयुक्त रूप हे, केवल विदेह का नहीं। यहाँ उक्त तीनों देशों (जनपदों) की सीमाओं के विषय में विचार करते हैं। __ अंग जनपद की सीमाओं के विषय में डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री का यह कथन द्रष्टव्य है"चम्पेय जातक (506) के अनुसार चम्पानदी अंग-मगध की विभाजक प्राकृतिक सीमा थी, प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 0035 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसके पूर्व और पश्चिम में ये दोनों जनपद बसे हुए थे। 'अंग' जनपद की पूर्वी सीमा राजमहल की पहाड़ियाँ उत्तरी सीमा कोसी नदी और दक्षिण में उसका समुद्र तक विस्तार था।" ---(आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ. 44-45) अत: अंग-देश का विस्तार पूर्व में राजमहल की पहाड़ियों तक, पश्चिम में चम्पा नदी तक, उत्तर में कोसी नदी तक और दक्षिण में समुद्र तक था। प्राचीनकाल में मगध देश गंगा नदी के दक्षिण में वाराणसी से मुंगेर तक फैला हुआ था, इसकी दक्षिणी सीमा दामोदर (दमूद) नदी के उद्गम-स्थान कर्णसुवर्ण (सिंहभूम) तक मानी जाती थी। बौद्धकाल में मगध की सीमा पूर्व में चम्पा नदी, पश्चिम में शोण (सोन) नदी, उत्तर में गंगा नदी और दक्षिण में विन्ध्य पर्वतमाला थी। -(डिक्शनरी ऑफ पालि-प्रोपर नेम्स, भाग 2, पृ. 403 एवं प्राङ् मौर्य बिहार, पृ. 78) मगधदेश के सीमा विस्तार के सम्बन्ध में 'शक्ति संगम तन्त्र' में इसप्रकार कहा है___ कालेश्वरं समारभ्य तप्तकुण्डान्तकं शिवे। मगधाख्यो कालेश्वर-कालभैरव-नहि दुष्यति ।। 3-7-10 अर्थात् कालेश्वर-कालभैरव-वाराणसी से लेकर तप्तकुण्ड-सीता-कुण्ड-मुंगेर तक 'मगध' नामक महादेश माना गया है। हुयान्-त्संग के अनुसार, मगध जनपद की मण्डलाकार परिधि 833 मील थी। इसके उत्तर में गंगा नदी, पश्चिम में वाराणसी, पूर्व में हिरण्य-पर्वत और दक्षिण में सिंहभूमि वर्तमान थी। 'ऋग्वेद' और 'महाभारत' में मगध को 'कीकट' कहा गया है। ‘शक्ति संगम' के अनुसार मगध के दक्षिण में कीकट देश था। विदेहदेश के विस्तार के सम्बन्ध में शक्ति संगम तन्त्र' के 'सुन्दरी खण्ड' में इसप्रकार कहा गया है- गण्डकीतीरमारभ्य चम्पारण्यान्तकं शिवे । विदेहभू: समाख्याता तैरभुक्त्यभिया तु सा।। अर्थात् तीरभक्ति कही जानेवाली विदेहभूमि गण्डकी (गण्डक नदी) के तीर से लेकर चम्पारण की अन्तिम-सीमा तक फली हुई है। 'शक्ति-संगम-तन्त्र' के ही प्रसंग से बिहार थ्रो द एजेज' पृ. 55 पर लिखा है— 'फ्रॉम द बैन्क ऑफ गण्डक टू द फॉरेस्ट ऑफ चम्पारण न कन्ट्री वाज कॉल्ड, विदेह और तीरभुक्ति, इट वाज बाउन्डेड ऑन इस्ट, वैस्ट एण्ड साउथ बाई थ्री बिग रिवर्स, द कोसी, गण्डक एण्ड गंगाज, वाइल द तराई रीजन्स फॉर्मड् इट्स नॉर्दर्न, बाउण्डरी”, अर्थात् गण्डक नदी के तट से लेकरं चम्पारण-पर्यन्त का स्थान विदेह' अथवा 'तीरभुक्ति' कहा जाता था। उसके पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में कोसी, गण्डक तथा गंगा —ये तीन बड़ी नदियाँ हैं और हिमालय का तराई-क्षेत्र इसके उत्तर की ओर है। 'वृहद् विष्णुपुराण' में विदेह के तीरभुक्ति तथा मिथिला आदि बारह नाम कहे गये हैं। 0036 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 'For Private & Personal use only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनमें से 'तीरभुक्ति' या तिरहुत' आज भी प्रसिद्ध है, इसी नाम से प्रमण्डल भी बना हुआ है। विदेह की सीमा के सूचक वृहद् विष्णुपुराण' के मूलपद्य इसप्रकार हैं "गंगा-हिमवतोर्मध्ये नदी पंचदशान्तरे। तैरभुक्तिरिति ख्यातो देश: परमपावन: ।। कौशिकी तु समारभ्य गण्डकीमधिगम्य वै। योजनानि चतुर्विंशत् व्यायाम: परिकीर्तित:।। गंगाप्रवाहमारभ्य यावद्धैमवतं वनम् । विस्तार: षोडश: प्रोक्तो देशस्य कुलनन्दनः।। मिथिला नाम नगरी तत्रास्ते लोकविश्रुत:। पंचभि: कारणैः पुण्या विख्याता जगतीत्रये ।।" -(वहविष्णुपुराण, मिथिलामाहात्म्य, 2/5, 10-12) अर्थात् गंगा नदी और हिमालय पर्वत के मध्य पन्द्रह नदियों वाला परमपवित्र तीरभुक्ति (विदेह) नामक देश है। कौशिकी (कोशी) से लेकर गण्डकी (गण्डक) तक विदेह की पूर्व से पश्चिम तक की सीमा 24 योजन (96 कोस) है। गंगा नदी से लेकर हैमवत वन (हिमालय) तक चौड़ाई 16 योजन (64 कोस) है। ऐसे विदेह अथवा तीरभक्ति देश में तीनों लोकों के विख्यात पाँच कारणों से पुण्यशाली 'मिथिला' नाम की नगरी है। सम्राट अकबर द्वारा महामहोपाध्याय मिथिलेश पंडित महेश ठाकुर के दान-पत्र में भी मिथिला की यह सीमा गंगा से हिमालय तथा कोशी और गण्डकी नदी के बीच बताई गई है। मूल उद्धरण इसप्रकार है-“अज गंग ता संग अज कोसी ता गोसी।" –(पं. के. भुजबली शास्त्री, जैन सिद्धांत भास्कर, 10/2, पृ. 62, सन् 1943) आचार्य विजयेन्द्र सूरि ने वैशाली' नामक अपनी पुस्तक में उक्त उद्धरण दिया है, जिससे स्पष्ट होता है कि विदेह-देश गंगा-नदी से उत्तर-दिशा में था—"गंगाया उत्तरत: विदेहदेश: । देशोऽयं वेदोपनिषत्पुराणमीयमानानां जनकानां राज्यम् । अस्यैव नामान्तरं मिथिला राज्यस्य राजधान्यपि मिथिलैव नामधेयं बभव।" --(भारत-भूगोल, पृ. 37) इनके अतिरिक्त प्रो. उपेन्द्र ठाकुर, प्रो. कृष्णकान्त मिश्र, भवानी शंकर त्रिवेदी, डॉ. देव सहाय त्रिवेद, डॉ. सावित्री सक्सेना आदि विद्वानों ने भी विदेह की उक्त सीमा को ही मान्य किया है। यहाँ यह ध्यातव्य है वर्तमान 'बिहार' केवल प्राचीन 'विदेह' का पर्याय नहीं है, बल्कि, अंग, मगध और विदेह, तीनों का संयुक्तरूप है। इनमें मगध और विदेह की विभाजक-नदी गंगा नदी, अंग और मगध की विभाजक चम्पा नदी तथा अंग और विदेह की विभाजक कोशी नदी थी और इनकी भौगोलिक स्थित प्राय: आज भी वैसी ही है। इसलिये प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 37 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस भ्रांति से बचने की जरूरत है कि प्राचीन 'विदेह' ही आज का 'बिहार' राज्य है । उपर्युक्त शास्त्रीय उद्धरणों, विद्वानों के विमर्श एवं मन्तव्यों, अंग, मगध और विदेह देशों ( जनपदों) के सीमा - सम्बन्धी विवरणों से स्पष्ट है कि भगवान् महावीर का जन्म विदेह - देश कुण्डपुर (कुण्डलपुर या कुण्डग्राम) में हुआ था, जो इससमय वासुकुण्ड या बासोकुण्ड नाम से प्रसिद्ध है तथा मुजफ्फरपुर जिले के सरैया' प्रखण्ड में है । यहाँ से प्राचीन वैशाली ( बसाढ़) लगभग पाँच किलोमीटर की दूरी पर है। लिछुआड़ का समीपवर्ती क्षत्रियकुण्ड, जो मुगेर जिले में है, तथा कुण्डलपुर ( नालन्दा ) भगवान् महावीर का जन्मस्थान नहीं है, क्योंकि ये 'क्रमश: अंग और मध्य देश में मौजूद हैं। समाज तो श्रद्धालु होता है, इसलिये विद्वानों, साधुसंस्थाओं, समाज के नेतृत्त्व वर्ग से यह अपेक्षित है कि वे उसे भ्रम में न डालें । यदि पहले से समाज में कोई गलत धारणा बनी हुई है, तो उसके विषय में उसे सावधान करें । मेरे इस लेख का उद्देश्य किसी की श्रद्धा को प्रभावित करना नहीं है, बल्कि समाज को यथार्थ की जानकारी देना है । अनेकान्तवादी जैनदर्शन में आग्रह के लिये स्थान नहीं है । महावीर की जन्मभूमि के विषय में जैनसमाज के वर्तमान नेतृत्व के उद्गार यह निर्विवाद सत्य है कि भगवान् महावीर की जन्मस्थली 'वैशाली' है । इसके साक्ष्य प्राचीनतम ग्रन्थों में उपलब्ध हैं । दुःख की बात है कि इस विषय में कुछ विवाद उठ खड़े हुए हैं। किन्तु मेरा विश्वास है, यह स्मारिका उन विवादों को सुलझाने में सर्वथा सहायक सिद्ध होगी । भगवान् महावीर की जन्मस्थली पुण्यतीर्थ 'वैशाली' को मैं अपना प्रणाम निवेदित करता हूँ। -प्रदीप कासलीवाल, अध्यक्ष, श्री दिगम्बर जैन महासमिति, इन्दौर - बिहार की पुनीत भूमि पर अवस्थित 'वैशाली' भगवान् महावीर की जन्मभूमि के रूप में गौरवान्वित है । वर्द्धमान के 2601 वें जन्म महोत्सव के अवसर पर समस्त जैनसमाज वैशाली के प्रति पूर्ण आस्था के साथ श्रद्धानत हो, ऐसी मेरी मंगलकामना है। -निर्मल कुमार जैन (सेठी), अध्यक्ष, श्रीभारतवर्षीय दिगम्बर जैन (धर्मसंरक्षिणी ) महासभा, इन्दौर •• जिस तरह बुद्ध की जन्मभूमि लुम्बिनी को अशोक से लेकर आज तक के बौद्ध न भुला सके, उसी तरह जैन बन्धुओं को महावीर की जन्मभूमि 'वैशाली' को नहीं भुलाना चाहिये । - आचार्य विजयेन्द्र सूरि •• ☐☐ 38 - (साभार उद्धृत - 'भगवान् महावीर स्मृति- तीर्थ' नामक स्मारिका, प्रकाशक- भगवान् महावीर स्मारक समिति, पटना ) प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर विशेषांक Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाली: जन्मभूमि महावीर की भारतीय पुरातत्त्व के प्रारम्भिक चरण को यदि 'बौद्ध - पुरातत्त्व' की संज्ञा दी जाये, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, फलत: बौद्धधर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध के जन्म से परिनिर्वाण तक की घटनाओं के स्थान पर कोई संशय अथवा बहस की गुंजाइश नहीं रहेगी। परवर्ती दौर में जब पुरातत्त्व की दिशा परिवर्तित हुई, तब वह ब्राह्मण-धर्म की ओर मुड़ी, और इस दिशा में भी काफी पुरातात्त्विक कार्य हुए। परन्तु जैनधर्म पुरातत्त्ववेत्ताओं के लिए अछूता बना रहा और इस दिशा में कोई ठोस कार्य न होने के कारण जैनधर्म के प्रवर्त्तक वर्द्धमान महावीर के जन्मस्थल के निर्धारण के सम्बन्ध में विवाद बना हुआ है । साहित्य से स्पष्ट परावर्तन के बावजूद इतिहासकार तथ्यों की अनदेखी करते हुए अलग-अलग स्थानों को महावीर की जन्मस्थली बताते हैं और भ्रम की स्थिति बनाये रखना चाहते हैं । जैसे— दिगम्बर सम्प्रदाय से अभिप्रेरित विद्वान् ‘नालन्दा' के समीप स्थित 'कुण्डलपुर' को भगवान् महावीर के जन्मस्थान होने के पक्ष में तर्क देते हैं, जब कि श्वेताम्बर - पन्थ से प्रभावित लोग वर्तमान 'जमुई' जिले के 'लछुआ - क्षत्रियकुण्ड' को महावीर का जन्मस्थान बताते हुए उसका पक्ष रखते हैं । जैनधर्म के सम्प्रदायवाद से अभिप्रेरित हुए बगैर इससे ऊपर उठकर साहित्य में वर्णित भगवान् महावीर के प्रारम्भिक जीवन से सम्बन्धित तथ्यों का यदि सूक्ष्म-विवेचन ईमानदारी - पूर्वक किया जाये, तो हम 'वैशाली' के समीप स्थित 'कुण्डग्राम' को भगवान् महावीर का जन्मस्थान पाते हैं । भगवान् महावीर के जन्मस्थान के निर्धारण के सम्बन्ध में निम्नांकित साहित्यिक उल्लेख, पुरातात्त्विक संकेत और पूर्व विद्वानों के कथन विचारणीय हैं :― भगवान् महावीर के विभिन्न नामों में वैदेह, वैदेहदत्ता, विदेहजात्य, विदेहसुकुमाल का उल्लेख जैनग्रन्थों (आचारांगसूत्र, पत्र 389 ) में आता है। साथ ही उनके लिए वैसालिय (वैशालिक ) विशेषण भी व्यवहृत हुआ है (सूत्रकृतांग, शीलांकाचार्य-कृत टीकासहित, अध्याय 2, उद्दे. 3)। इन विशेषणों से यह परिलक्षित होता है कि महावीर के काल में 'वैशाली' वृहत्तर 'विदेह' की एक प्रमुख नगरी थी और इससे उनका गहरा सम्बन्ध था । भगवान् महावीर के चातुर्मासों में से उन्नीस 'विदेह' में व्यतीत हुए और उनमें बारह 'वैशाली' में, छ: 'मिथिला' में और एक 'अस्थिकग्राम' में बीता। इससे भी यह प्रकट होता है कि उस समय मिथिला की प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक - डॉ. अरविन्द महाजन 39 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलना में वैशाली की महत्ता अधिक थी। वैशाली की पहचान निर्विवादरूप से वर्तमान वैशाली जिले के 'बसाढ़' क्षेत्र से की गई है। महावीर की माता त्रिशला को 'विदेहदत्ता' (आचारांगसूत्र, पत्र 389) और महावीर को 'विदेहदत्ता' पुत्र होने के कारण वैदेहदत्त' भी कहा गया। त्रिशला विदेह देश' की नगरी वैशाली के गणप्रधान चेटक की बहन थी (आवश्यक चूर्णि, पूर्वभाग, पत्र 245)। निरयावलियों के अनुसार चेटक वैशाली का अधिपति था ओर उसके नौ मल्ल गणराजा और नौ लिच्छवि गणराजा परामर्शी थे। मल्ल जाति काशी में और लिच्छवि कोशल में स्थित थे और इनके सम्मिलित गणतन्त्र की राजधानी वैशाली थी, जिसका अधिपति चेटक था। उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर इतना तो निश्चितरूप से कहा जा सकता है कि भगवान महावीर का प्राचीन 'अंग' (जिसमें वर्तमान लछुआड़ का क्षेत्र आता है) अथवा 'मगध' (जिसके अन्तर्गत वर्तमान नालन्दा के समीपस्थ कुण्डलपुर का क्षेत्र आता है) के राजकुलों से जन्म का कोई सम्बन्ध नहीं था। विदेह' गंगा के उत्तर में स्थित है, जबकि लछुआड़' का क्षत्रियकुण्ड गंगा के दक्षिण में स्थित है और यह प्रदेश भगवान् महावीर के काल में 'अंग' महाजनपद का हिस्सा था। कहीं और किसी भी साहित्य में लछुआड़-क्षत्रियकुण्ड क्षेत्र को भी विदेह' का हिस्सा नहीं बताया गया है। प्राचीन जैन-साहित्य में 'क्षत्रियकुण्ड' (वह स्थान जो भगवान् महावीर की जन्मभूमि है) को वैशाली के समीप बताया गया है, जबकि लछुआड़-क्षत्रियकुण्ड के समीप 'वैशाली' नामक (छोटा या बड़ा) कोई स्थान नहीं है। लछुआड़-क्षत्रियकुण्ड को भगवान् महावीर का जन्मस्थान माननेवाले वहाँ स्थित नाले को नदी (गण्डक) बताते हैं। नदी और नाले में स्पष्टतया भेद किया जा सकता है, जबकि 'गण्डक नदी' वर्तमान 'वैशाली' जिले से होकर आज भी बहती प्रव्रज्या के पश्चात् महावीर ने जिन स्थानों पर वास किया, उनकी भौगोलिक स्थिति पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है, वे सभी वैशाली के आसपास थे। दीक्षा लेने के दूसरे दिन महावीर ने कोल्लाक सन्निवेश' में पारणा की। जैनसूत्रों में दो कोल्लाक-सन्निवेशों का उल्लेख है- एक 'बनियाग्राम' के समीप और दूसरा राजगृह' के समीप । लछुआड़' के समीप अथवा 'अंग' में किसी कोल्लाक-सन्निवेश के होने की चर्चा नहीं है और लछुआड़ से दोनों में से किसी कोल्लाक-सन्निवेश पर एक दिन में पैदल पहुँचना सम्भव नहीं है। नालन्दा के समीप स्थित कुण्डलपुर से राजगृह का समीपस्थ कोल्लाक-सन्निवेश भी लगभग चालीस मील की दूरी पर स्थित है। वहाँ से एक दिन में चालीस मील की दूरी तय करना, वह भी विश्राम-हेतु, युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। अत: भगवान् महावीर को वर्तमान वैशाली का वासी मानना ही उचिंत होगा; क्योंक वहाँ से कोल्लाक-सन्निवेश अत्यन्त समीप है। प्राचीन जैन-साहित्य में क्षत्रियकुण्ड के साथ किसी पर्वत अथवा पहाड़ी का जिक्र नहीं 0040 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आता। लछुआड़-क्षत्रियकुण्ड स्थित धर्मस्थल दो समानान्तर पहाड़ियों के मध्य स्थित है। बासोकुण्ड (वैशाली-स्थित), जिसकी पहचान भगवान् महावीर के जन्मस्थान कुण्डग्राम से की जाती है, के समीप कोई पहाड़ी अथवा पर्वत नहीं है। स्थानीय परम्परा भी वासुकुण्ड को भगवान् महावीर की जन्मभूमि मानती आयी है। वैशाली में सम्पन्न पुरातत्त्व-कार्य, भले ही उसका उद्देश्य भगवान् बुद्ध और उनके जीवन से जुड़ी घटनाओं के स्थान की पहचान एवं खोज रहा, से जुड़े पुरातत्त्ववेत्ताओं ने कभी वैशाली को भगवान् महावीर की जन्मस्थली होने से इनकार नहीं किया। भारतीय पुरातत्त्व के पुरोधा कनिंघम ने 'आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया रिपोर्ट (अंक I, एवं XVI) में यह सम्भावना व्यक्त की है कि 'मर्कट-हद सरोवर' (वर्तमान अभिषेक-पुष्करिणी) के पार्श्व में स्थित 'कूटागार-सभाकक्ष' का भगवान् महावीर के जन्मस्थान 'कुण्डग्राम' से कोई सम्बन्ध हो सकता है। कनिंघम ने अपनी पुस्तक 'एनशियेण्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया' (प.717) में प्राचीन वैशाली की पहचान वर्तमान वैशाली जिले (तत्कालीन मुजफ्फरपुर जिला) के 'बसाढ़' क्षेत्र से की है। थियोडर ब्लॉक (आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, एनुअल रिपोर्ट, 1903-1904,प्र. 81-122) ने बसाढ़ के उत्खनन के सम्बन्ध में विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि महावीर वसालिय' कहे जाने के कारण वैशाली के मूलवासी थे और उनका जन्मस्थान 'कुण्डग्राम' विदेह में स्थित था। विदेह और तीरभुक्ति एक-दूसरे के पर्याय हैं और जब तिरहुत की सीमा के अन्दर वैशाली नामक स्थान है, तब इसे ही भगवान् महावीर का जन्मस्थल-क्षेत्र होना चाहिए। डी.बी. स्पूनर (आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, एनुअल रिपोर्ट, 1913-14, पृ. 98185) ने भी वैशाली की पहचान वर्तमान बसाढ़ क्षेत्र से की है और इस क्षेत्र को ही भगवान् महावीर की जन्मभूमि बताया है। वी.पी. सिन्हा और सीताराम राय (वैशाली एक्शकेवेशन्स, 1958-62) ने भी प्राचीन वैशाली की पहचान वर्तमान बसाढ क्षेत्र से की है और इसे भगवान् महावीर से सम्बद्ध बताया है। __इतिहासकारों के यूरोपीय एवं भारतीय दोनों समूहों के अधिसंख्य वैशाली को ही भगवान् महावीर का जन्मस्थान बताते हैं। इस सम्बन्ध में कुछ विचार इसप्रकार हैं : हर्मन जैकोबी (सैकरेड बुक ऑफ दी ईस्ट', जैन सूत्राज, अंक -22, खण्ड-1, एवं अंक-45, खंड-2) 'इनसाइक्लोपीडया ऑफ रिलीजन एण्ड अथिक्स', अंक-7, पृ. 466) ने लिखा है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायवाले महावीर को कुण्डग्राम अथवा कुण्डपुर के राजा सिद्धार्थ का पुत्र मानते हैं। बौद्ध एवं जैनग्रन्थों में उपलब्ध संकेतों की पड़ताल कर बहुत हद तक वर्द्धमान महावीर का जन्मस्थान निश्चित किया जा सकता है। बौद्ध-ग्रन्थ 'महावग्ग' में कहा गया है कि कोटिग्राम में अल्पकालिक वास के पश्चात् भगवान बुद्ध जातिकों के निवास की ओर गये, जहाँ उन्हें जातिकों के सभाकक्ष में ठहराया गया। वहाँ से वह वैशाली प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 40 41 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गये, जहाँ उन्होंने लिच्छवी-गण के प्रधान को, जो निम्रन्थ (जैन मुनि के अनुयायी) थे, अपना गृहस्थ-अनुयायी बनाया। बौद्धों के कोटिग्राम' का जैनों के 'कुण्डग्राम' होने की पूरी सम्भावना है। जातिकों की पहचान ज्ञातक-कुल के क्षत्रियों से की जा सकती है, जिनके वंशज भगवान् महावीर थे। कुण्डग्राम और वाणिज्यग्राम 'विदेह' की राजधानी वैशाली' के उपनगर थे, जिसकी पहिचान वर्तमान वैशाली-क्षेत्र के बनियागाँव' और 'वासुकुण्ड' से की जा सकती है। जैकोबी ने हॉर्नले द्वारा भी पहचान किये गये इन्हीं क्षेत्रों का समर्थन किया है। ए.एफ. रुडोल्फ हॉर्नले द्वारा अंग्रेजी में अनूदित उवासगदसाओ' (बिब्लियोथेका इण्डिका सीरीज, पृ.3-6) में 'बसाढ़' को स्पष्टतया भगवान् महावीर का जन्मस्थान बताया गया है। हॉर्नले का कहना है कि बनियाग्राम' लिच्छवी-देश की राजधानी वैशाली का ही दूसरा नाम है। यद्यपि कल्पसूत्र' में इसकी चर्चा अलग से है, परन्तु इसे वैशाली से सम्बद्ध बताया गया है। सच्चाई यह है कि वैशाली नगर का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत था और इसके परिक्षेत्र में स्थानीय वैशाली (वर्तमान बसाढ़) के अतिरिक्त बनियाग्राम' और 'कुण्डग्राम' अथवा 'कुण्डपुर' जैसे दूसरे क्षेत्र भी समाहित थे। ये दोनों स्थान बनिया' और 'वासुकुण्ड' नामक गाँवों के रूप में आज भी विद्यमान हैं। वैशाली के कुण्डग्राम को ही भगवान् महावीर का जन्मस्थान होने के कारण उन्हें वसालीय' यानि वैशाली का वासी' कहा गया है। सिंक्लेयर स्टीवेंसन ने अपनी पुस्तक 'दि हर्ट ऑफ जैनिज्म' (पृ. 21-22) में लिखा है कि प्राचीन वैशाली में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वणिक वर्ग के लोग अलग-अलग पुरों में रहते थे और यह पृथक्ता इतनी बड़ी थी कि उनके पुरों की अलग-अलग गाँवों के रूप में सम्बोधित किया गया, जैसे— क्रमश: वैशाली, कुण्डग्राम और वाणिज्यग्राम। .. प्रसिद्ध इतिहासकार विंसेण्ट ऑर्थर स्मिथ ने भी वैशाली को ही भगवान् महावीर का जन्मस्थान बताया (जर्नल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी', 1902, पृ. 282-283; 28687)। वे लिखते हैं कि जैन-परम्परानुसार वैशाली, कुण्डग्राम और बनियाग्राम जैसे तीन स्पष्ट प्रक्षेत्र सन्निहित थे। वैशाली की पहचान राजा विशाल के गढ़क्षेत्र से की जा सकती है। बनियागाँव (चकरामदास के समीपस्थ) स्पष्टतया बनियाग्राम का प्रतिनिधित्व करता है। इस गाँव में अनेक टीले हैं और आज (1902 ई.) से दस वर्ष पहले सतह से आठ फीट नीचे से जैन-तीर्थकर की दो प्रतिमायें मिलीं। यह स्थान भगवान् महावीर का निवास-स्थान था। कोल्लाग सम्भवत: मर्कटह्रद-सरोवर के समीपस्थ कोल्हुआ' का क्षेत्र था और कुण्डग्राम, जो वैशाली का ब्राह्मणपुर था, की पहचान 'वासुकण्ड' से की जा सकती है। स्मिथ ने 'इनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एण्ड इथिक्स' (अंक 12, प्र. 567-68) में लिखा है कि भगवान महावीर वैशाली के एक कुलीन-परिवार से सम्बद्ध थे और वहीं (वैशाली में) उनका जन्म हुआ और प्रारम्भिक जीवन बीता। प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् बारह वर्षावास उन्होंने वैशाली में ही बिताये। एल.एस.एस.ओ. माली ने 'बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर-मुजफ्फरपुर' (पृ. 13-14) में 00 42 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्द्धमान, जिनका अन्य नाम महावीर था, को 'नात' या 'नाय' नामक क्षत्रिय-वंश के प्रधान सिद्धार्थ का पुत्र और वैशाली के 'कोल्लाग' उपनगर का वासी बताया है। वहीं ई.पू. 599 में उनका जन्म हुआ। वैशाली की स्थिति ओ. माली ने तत्कालीन 'मुजफ्फरपुर' जिले के बसाढ़ में निश्चित की (पृ. 138-139)। पी.सी. रायचौधरी ने बिहार डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, मुजफ्फरपुर' (पृ. 143) में महावीर का जन्मस्थान वैशाली का उपनगर कुण्डग्राम' या 'कुण्डपुर' बताया है और वर्तमान बसाढ़ के समीप वासुकुण्ड' ही प्राचीन 'कुण्डग्राम' है। भारतीय विद्वानों में भारत के पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्लि राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक 'इण्डियन फिलोसॉफी', भाग-1' में लिखा है कि वर्द्धमान महावीर का जन्म ई.पू. 599 में वैशाली में हुआ। ___ बिहार के पूर्व राज्यपालं आर.आर. दिवाकर द्वारा सम्पादित पुस्तक बिहार श्रू दि एजेज़ (पृ.125) में वैशाली के कुण्डपुर' नामक उपनगर को भगवान् महावीर का जन्मस्थान कहा गया है और वैशाली की पहचान तत्कालीन मुजफ्फरपुर जिले के 'बसाढ़' नामक स्थान से की गई है। प्रसिद्ध इतिहासकार रमेशचन्द्र मजूमदार ने 'एन्शियेण्ट इण्डिया' में लिखा है कि लगभग 540 ई. पू. में वर्धमान का जन्म वैशाली के उपनगर कुण्डग्राम में हुआ। उनके पिता सिद्धार्थ सम्पन्न क्षत्रियों के ज्ञातक कुल से सम्बद्ध थे और उनकी माता त्रिशला वैशाली के लिच्छविकुलीन चेटक की बहन थी (प.168)। मजूमदार ने भी वैशाली की स्थिति वर्तमान वैशाली क्षेत्र में ही बताई है। सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त ने अपनी पुस्तक 'ए हिस्ट्री ऑफ इण्डियन फिलॉसफी' (अंक 1, प्र. 173) में कहा है कि जैनों के अन्तिम तीर्थंकर महावीर क्षत्रियों के ज्ञातकुल के वंशज और पटना से 27 मील उत्तर में स्थित वैशाली' के निवासी थे। . जी.पी. मल्लसेवेफर ने 'डिक्शनरी ऑफ पालि प्रापर नेम्स' (अंक II, पृ. 943) बताया है कि मुजफ्फरपुर जिला-स्थित (वर्तमान वैशाली जिला) बसाढ़ ही प्राचीन वैशाली है और महावीर वैशाली के ही नात (अथवा नाय) वंश के थे। नन्दलाल डे ने ज्योग्राफिकल डिक्शनरी एन्शियेण्ट एण्ड मेडियेवल इण्डिया (इण्डियन एण्टीक्वेरी, अंक XLIX, खंड DCXXVII, बम्बई : दिसम्बर, 1920, पृ. 107-108) में कुण्डग्राम की पहचान वैशाली (वर्तमान वसाढ़) के वासुकुण्ड से की है और उसे ही 'नाय' अथवा 'नात'वंशोत्पन्न वर्द्धमान महावीर की जन्मस्थली बताया है। डे ने कुण्डलपुर की भी पहचान 'कुण्डग्राम' से ही की है। प्रो. योगेन्द्र मिश्र ने भी विदेह-स्थित 'कुण्डग्राम' (वैशाली के समीप) को भगवान् महावीर का जन्मस्थान बताया है। (हिस्ट्री ऑफ विदेह, पृ.2)। प्रो. उपेन्द्र ठाकुर ने अपने लेख 'ए 0043 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिस्टोरिकल सर्वे ऑफ जैनिज़्म इन नॉर्थ बिहार' (दि जर्नल ऑफ बिहार रिसर्च सोसाइटी, अंक XLV, खंड I-IV, जनवरी - दिसम्बर 1959, पृ. 188 ) में चौबीसवें जैन तीर्थंकर महावीर को वैशाली में एक कुलीन-वंशोत्पन्न बताया है। वहीं उनका प्रारम्भिक जीवन बीता। प्रो. ठाकुर ने प्राचीन वैशाली के तीन जिलों में एक कुण्डग्राम बताया और वहीं के क्षत्रिय ज्ञातृकुल वंशज महावीर थे । के इस प्रकार, उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में यह कहा जा सकता है कि वर्तमान वैशाली जिला-स्थित बसाढ़ के समीप का वासुकुण्ड ही भगवान् महावीर का जन्मस्थान है, जो साहित्य और पुरातत्त्व दोनों की कसौटी पर खरा उतर सकता है । भगवान् महावीर के प्रारम्भिक जीवन से जुड़े स्थानों की भौगोलिक स्थिति भी वैशाली के पक्ष का ही समर्थन करती है । उपर्युक्त कसौटियों पर यदि 'जमुई' जिला - स्थित 'लछुआड़' और नालन्दा स्थित 'कुण्डलपुर' को कसें, तो कलई स्पष्ट नजर आती है। हाँ, ये दोनों स्थान जैनतीर्थ हो सकते हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता । माली ने बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, मुँगेर (पृ.220) में इण्डियन एटलस शीट का हवाला देते हुए लछुआड़ से तीन मील दक्षिण में स्थित दो मठों का उल्लेख किया है, जो बुद्ध और पुरुषनाथ के मठ के रूप में जाने जाते थे। उन्होंने दो समानान्तर पहाड़ियों के बीच स्थित दो छोटे मन्दिरों की भी चर्चा की है, जहाँ भगवान् महावीर की दो छोटी प्रतिमायें स्थापित थीं । एक प्रतिमा तिथियुक्त बताई गई हैं, जो संवत् 1505 है। माली के अनुसार ये मन्दिर हाल के बने हैं । उन्होंने कहीं भी लछुआड़ को महावीर का जन्मस्थान नहीं बताया है 1 भगवान् महावीर के जीवन से जुड़ी घटनाओं और लछुआड़ की भौगोलिक स्थिति का विवेचन किया जाये, तो लछुआड़ का दूर-दूर तक भगवान् महावीर से कोई सम्बन्ध नहीं जान पड़ता । जैसे—जैनसूत्रों के अनुसार महावीर ने प्रथम चातुर्मास 'अस्थिकग्राम' में बिताया और दूसरा 'राजगृह' में। राजगृह जाने के क्रम में 'श्वेताम्बिका' नगरी से होते हुये गये और गंगा पार कर राजगृह पहुँचे । बौद्ध-ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि श्वेताम्बिका 'श्रावस्ती' से 'कपिलवस्तु' जाते समय मार्ग में पड़ती थी। यह प्रदेश 'कोशल' के पूर्वोत्तर और 'विदेह' के पश्चिम में स्थित था, जहाँ से राजगृह जाते समय मध्य में गंगा पार करना पड़ता था, यह इन स्थानों की भौगोलिक स्थिति के विवेचन से जान पड़ता है। लछुआड़ क्षत्रिय - कुण्डपुर जहाँ बताया जाता है, वहाँ उपर्युक्त भौगोलिक स्थिति समीचीन नहीं है। वहाँ से राजगृह जाते समय न तो कोई श्वेताम्बिका नगरी मार्ग में पड़ेगी और न ही गंगा पार करने का अवसर आयेगा । अतः, उपर्युक्त प्रमाणों के आधार पर यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि वर्तमान 'विदेह' जनपद-स्थित वैशाली ही जैनधर्म के चौबीसवें और अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर की जन्मभूमि है और इसमें किसी प्रकार के सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं है । 44 प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर विशेषांक Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्द्धमान और वैशाली : संस्कृत-साहित्य के सन्दर्भ में -डॉ. जयदेव मिश्र भगवान् महावीर की जन्मभूमि के विषय में सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय में अनेकत्र उल्लेख प्राप्त होते हैं। चूँकि भगवान् महावीर न केवल जैनों के चौबीसवें तीर्थंकर थे, बल्कि आधुनिक इतिहास की दृष्टि से भी वे ऐतिहासिक महापुरुष हैं। प्रस्तुत आलेख में विद्वान् लेखक ने संस्कृत-साहित्य के सन्दर्भ में भगवान् महावीर के बारे में विशद-रीति से | ऐतिहासिक अनुशीलन प्रस्तुत किया है। –सम्पादक ___संस्कृत-साहित्य प्राचीन भारतीय परम्परा का प्रमुख साधन-स्रोत है। इसमें वैशाली और वर्द्धमान महावीर से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्षरूप से सम्बन्धित अनेक साक्ष्य भरे पड़े हैं। यद्यपि जैनधर्मावलम्बियों ने लोकभाषा 'प्राकृत' को अपना माध्यम बनाया; तथापि संस्कृत की महत्ता को देखते हुए एवं अर्न्तराष्ट्रीयता प्राप्त करने के लिये उसे अपनाना पड़ा। संस्कृत महाकाव्यों, पुराणों, लघुकाव्यों, सुभाषितों, कथा-साहित्यों तथा रूपकात्मक-प्रबन्धों में वैशाली और जैनधर्म तथा महावीर विद्यमान हैं। ... 'वाल्मीकि रामायण' में वैशाली वैशाला' या 'उत्तमपुरी' के नाम से वर्णित है। पूर्वकाल में महाराज इक्ष्वाक के एक परम-धर्मात्मा पुत्र थे, जो 'विशाल' नाम से प्रसिद्ध हुए। उनका जन्म ‘अलम्बुषा' के गर्भ से हुआ था। उन्होंने इस स्थान पर विशाला' नाम की पुरी बसायी थी। इक्ष्वाकोस्तु नरव्याघ्र पुन: परमधार्मिकः । अलम्बुषायामुत्पन्नो विशाल इति विश्रुत: । तेन चासीदिह स्थाने विशालेति पुरी कृता।। 'रामायण' में ही विशाला के नाम से इसका और इसके संस्थापक तथा उसके वंशजों की वंशावली मिलती है। विशाल' से लेकर रामचन्द्र के समकालीन विशाला-नरेश 'सुमति' तक की वंशावली इसप्रकार है :____ 1. विशाल, 2. हेमचन्द्र, 3. सुचन्द्र, 4. धूम्राश्व, 5. सृञ्जय, 6. सहदेव, 7. कुशाश्व, 8. सोमदत्त, 9. काकुलस्थ और 10. सुमति । विशाला-नरेशों के सम्बन्ध में महर्षि विश्वामित्र ने यह कहा है कि “वे सब इक्ष्वाकु की प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 0045 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृपा से दीर्घायु, महात्मा, वीर्यशाली और धार्मिक हुये" इक्ष्वाकोस्तु प्रसादेन सर्वे वैशालिका नृपाः । दीर्घायुषो महात्मानो वीर्यवन्त: सुधार्मिका: ।। वैशाली में ही देवों और दानवों ने समुद्र-मंथन की मन्त्रणा की थी। यहीं 'दिति' की तपस्या का वर्णन है, और इन्द्र को मारनेवाले पुत्र दिति' की तपस्या का विफल होना भी वर्णित है। पुराणों में वैशाली के लिए विशाल, विशाला तथा वैशाली -ये तीन नाम दिये गये हैं। 'विष्णुपुराण' के मत में राजा विशाल इक्ष्वाकुवंश के 'तृणबिन्दु' राजा के पुत्र थे। इस बात की पुष्टि 'भागवतपुराण' से भी होती है। वाराहपुराण, नारदीयपुराण, मार्कण्डेय-पुराण, श्रीमद्भागवत तथा सूत्रकृतांग में भी इस सन्दर्भ का विस्तृत उल्लेख मिलता है। ___ वैशाली में अनेक विभूतियाँ उत्पन्न हुई। उनमें वर्द्धमान महावीर भी थे, जिनकी प्रभा आज भी चमत्कृत कर रही है। साक्ष्यों से विदित है वैशाली के कुण्डग्राम (पुर) में इनका जन्म हुआ था। इसलिए महावीर का एक और नाम था वैशालिक' और उनकी जननी त्रिशला का दूसरा नाम था विशाला' । कुण्डग्राम को कोल्लाग' या 'नायकुल' कहा जाता था। यह ज्ञातृकों का घर था। उसी वैशाली में महावीर का जन्म हुआ था। महावीर को वैशाली का 'जिन' कहा जाता है। इस सम्बन्ध में 'सूत्रकृतांग' की शीलांकाचार्य की टीका (2.3) द्रष्टव्य है विशाला जननी यस्य विशालं कुलमेव च । विशालं वचनं चास्य तेन वैशालिको जिनः ।। अर्थात् जिनकी माता विशाला हैं, जिनका कुल विशाल है, जिनके वचन विशाल हैं, इससे 'वैशालिक' नामक जिन हुए। 'भागवतपुराण' में तो स्पष्ट उल्लेख है कि 'विशालो वंशकृद्राजा वैशाली निर्ममे पुरीम् ।' यानि विशाल राजा ने वंश की वृद्धि करनेवाला वैशाली नगर' बसाया। ___ महान् चिन्तक शंकराचार्य ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ में, नगरों की सूची में वैशाली की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। यथा :-- विशाला कल्याणी स्फुटरुचिरयोध्या कुवलयैः, कृपाधारा धारा किमपि मधुराभोगवतिका । अवन्तिर्दृष्टिस्ते बहुनगरविस्तारविजया, धुवं तत्तन्नामव्यवहरणयोग्या विजयते।। आचार्य शंकर के अनुसार 'विशाला' नगरी कल्याणकारी और सब तरह से गुणयुक्त है। संस्कृत-साहित्य में न केवल वैशाली की विस्तृत-चर्चा है, बल्कि वर्द्धमान महावीर की जन्मभूमि कुण्डग्राम' का भी उल्लेख अनेक ग्रन्थों में है। पूज्यपाद ने अपने ग्रन्थ 'दशभक्ति' 00 46 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पाँचवीं शती) में स्पष्ट लिखा है कि सिद्धार्थ राजा के पुत्र भारतवासो 'विदेह' के 'कुण्डपुर' में देवी को प्रिय करनेवाले सुन्दर - स्थान को देखकर प्रसन्न हुई । आचार्य जिनसेन के 'हरिवंशपुराण' ( 8वीं शती) में उल्लेख है जम्बूद्वीप में भारतवर्ष और उसमें 'विदेह' स्वर्ग के समान प्रिय है। उस देश में सब तरह से सुशोभित कुण्ड होने के कारण 'कुण्डपुर' नाम पड़ा। गुणभद्र ने उत्तरपुराण ( 9वीं. वि.सं.) में कुण्ड की प्रशंसा की है एवं स्वर्ग से अवतरित होने की बात बताई है। यज्ञ में सात कोटि मणि उपलब्ध होने की बात भी आई है । दामनन्दी ने तो 'पुराणसंग्रह' में विदेह को देवपुरी' की संज्ञा दी है । सकलकीर्ति ने 'वर्द्धमानचरित' ( 15वीं शती) में विदेह को सभी गुणों से युक्त बातया गया है, जहाँ कुण्डपुरी अवस्थित है। असग ने ‘वर्द्धमानचरित' (दसवीं शती) में इस स्थान को धर्मकर्म से परिपूर्ण बताया एवं यहाँ सुरेन्द्र का आविर्भाव होना भी बताया गया है। इस ग्रन्थ के पूरे 18 सर्गों में से केवल अन्तिम दो सर्गों में वर्द्धमान महावीर के जीवनचरित्र का सांगोपांग वर्णन है । इतर सर्गों में उनके पूर्वभवों की कथा विस्तार से वर्णित है। इसमें महावीरस्वामी के चारित्रिक विकास का चित्रण अनेक जन्मों के भीतर से किया गया है । कई ग्रन्थों में तो वैशाली के साथ वैशाली के चेटक राजा एवं सामन्त का भी उल्लेख मिलता है। जैनधर्म के अन्य महाकाव्यों में वरांगचरित, चन्द्रप्रभचरित, वर्द्धमानचरित, पार्श्वनाथचरित, प्रद्युम्नचरित, शान्तिनाथचरित, धर्मशर्माभ्युदय, नेमिनिर्माण-काव्य, जयन्तविजय, पद्मानन्द महाकाव्य, सन्तकुमार महाकाव्य, मल्लिनाथचरित, अभयकुमारचरित, श्रेणिकचरित, मुनिसुव्रत महाकाव्य, विजयप्रशस्ति काव्य, जम्बूस्वामीचरित, जगडूचरित आदि प्रसिद्ध हैं । लघुकाव्यों में धनेश्वर सूरिकृत 'शत्रुञ्जय माहात्म्य' ( 15वीं शती) वादिराज का 'यशोधरचरित' (11वीं शती) जयशेखरसूरि का 'जैन - कुमारसम्भव' चारित्रभूषण का 'महिपालचरित', वादीभसिंह का ‘क्षत्रचूडामणि', धनराज का 'त्रिशतीशृंगर' तथा जैन - सुभाषित-काव्यों में अमितगति का 'सुभाषितरत्नसन्दोह ' एवं सोमप्रभाचार्य की 'सूक्तिमुक्तावली' विशेषरूप से प्रसिद्ध है । अन्य देशी एवं विदेशी विद्वानों ने अपना मन्तव्य दिया है, जिसमें प्रमुख हैं— जर्मन जैकोबी (1884), रुडोल्फ हॉर्नले (1898), वी. ए. स्मिथ (1902), टी. ब्लॉच (1903), स्टेवंशन (1915), काप्रेण्टर (1992), मलालोसकर (1938), इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका (1953), तथा 'इन्साइक्लोपिडिया ऑफ रिलिजन्स एण्ड एथिक्स' भी इसी तर्क पर मुहर लगाते हैं । भारतीय विद्वानों ने एस.एन. दासगुप्त (1909), सर्वपल्ली राधाकृष्णन (1923), राहुल सांकृत्यायन (1944), नन्दलाल डे (1927), बी. सी. लॉ (1937) आदि प्रसिद्ध हैं । जैन विद्वानों में जुगमन्दरलाल जैन (1940), चिमनलाल जे. साह (1932), कल्याणविजयजी गणी (1941), विजयेन्द्रसूरिजी (1952), सुखलालजी संघवी (1953), हीरालाल जैन (1955), , प्राकृतविद्या + जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर-विशेषांक 47 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगदीशचन्द्र जैन (1947), मुनिरत्न प्रभाविजय (1948), कामता प्रसाद जैन (1936), नेमिचन्द्र शास्त्री (1954) तथा प्रो. योगेन्द्र मिश्र (1948) भी वर्द्धमान महावीर का आविर्भाव-स्थल वैशाली ही मानते हैं। - इसप्रकार हम पाते हैं कि संस्कृत-साहित्य वैशाली, कुण्डपुर एवं महावीर से सम्बन्धित कई गूढ-तथ्यों को छिपाये हुये है। आवश्यकता है इस पर विस्तृत-कार्य करने की। पटना विश्वविद्यालय के पाण्डुलिपि-विभाग में संकलित जैन पाण्डुलिपियाँ बड़े महत्त्व की है एवं विवेच्य-बातों को प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत करती हैं। भगवान महावीर के जन्मस्थान के सम्बन्ध में वैशाली-क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य की चर्चा हमें कहीं नहीं मिली। किसी भी संस्कृत-ग्रन्थ में 'लछुआई' या 'नालन्दा-क्षेत्र' को महावीर की जन्मभूमि नहीं बताया गया। जैनदर्शन नास्तिक नहीं 'इसी प्रसंग में भारतीय दर्शन के विषय में एक परम्परागत मिथ्या-भ्रम का उल्लेख करना भी हमें आवश्यक प्रतीत होता है। कुछ काल से लोग ऐसा समझते हैं कि भारतीय दर्शन की 'आस्तिक' और 'नास्तिक' नाम से दो शाखायें हैं । तथाकथित वैदिक-दर्शनों को 'आस्तिक-दर्शन' और जैन-बौद्ध जैसे दर्शनों को 'नास्तिक-दर्शन' कहा जाता है। वस्तुत: यह वर्गीकरण निराधार ही नहीं, नितान्त मिथ्या भी है। 'आस्तिक' और 'नास्तिक' शब्द 'अस्ति नास्ति दिष्टं मति:' (पाणिनि 4/4/60 अष्टाध्यायीसूत्र) इस पाणिनिसूत्र के अनुसार बने हैं। मौलिक अर्थ उनका यहा था कि परलोक (जिसे हम दूसरे शब्दों में इन्द्रियातीत-तथ्य भी कह सकते हैं) की सत्ता को माननेवाला 'आस्तिक' और न माननेवाला 'नास्तिक' कहलाता है। स्पष्टत: इस अर्थ में जैन और बौद्ध जैसे दर्शनों को नास्तिक कहा ही नहीं जा सकता। इसके विपरीत हम तो यह समझते हैं कि शब्द-प्रमाण की निरपेक्षता से वस्तु-तत्त्व पर विचार करने के कारण दूसरे दर्शनों की अपेक्षा उनका अपना एक आदरणीय वैशिष्ट्य ही है।' 'इसमें सन्देह नहीं कि न केवल भारतीय दर्शन के विकास का अनुगमन करने के लिए, अपितु भारतीय-संस्कृति के स्वरूप के उत्तरोत्तोर विकास को समझने के लिए भी जैनदर्शन का अत्यन्त महत्त्व है। भारतीय विचारधारा में अहिंसावाद के रूप में अथवा परमत-सहिष्णुता के रूप में अथवा समन्वयात्मक-भावना के रूप में जैनदर्शन और जैन-विचारधारा की जो देन है, उसे समझे बिना वास्तव में भारतीय संस्कृति के विकास को नहीं समझा जा सकता।' -(जैनदर्शन' प्राक्कथन, डॉ. मंगलदेव शास्त्री) 00 48 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक - Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वमान्य है महावीर की जन्मस्थली वैशाली -डॉ. शान्ति जैन वैशाली के नामकरण से आज भले ही कितनी ही आपत्ति उठायी जाये, किन्तु यह स्पष्ट सत्य है कि भगवान् महावीर की जन्मभूमि कुण्डपुर-कुण्डग्राम' या 'कुण्डलपुर' विदेहक्षेत्र में स्थित होने के कारण वस्तुत: वैशाली से पर्याप्त सामीप्य रखती है। इसी तथ्य को आधुनिक भारतीय एवं विदेशी मनीषियों की मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में विदुषी लेखिका ने इस आलेख में भली-भाँति स्पष्ट किया है। –सम्पादक अनेकानेक साक्ष्यों के आधार पर इसे निर्विवाद-सत्य माना जा सकता है कि भगवान् महावीर की जन्मस्थली 'वैशाली' ही है। जैन-साहित्य में ऐसे उद्धरण भरे पड़े हैं, जिनमें महावीर की जन्मभूमि वैशाली' को बताया गया है। - वैशाली का इतिहास राजनीतिक दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण है ही, किन्तु यहीं बौद्धसंघ की संगीति हई थी और यहीं चौबीसवें तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर का जन्म हुआ था, इसलिए यहाँ की धरती अत्यन्त पुनीत एवं महिमामयी है। प्राचीन मतों के अतिरिक्त हम आधुनिक विद्वानों के मतों पर भी दृष्टि डाल सकते हैं। - सन् 1945 ई. में आयोजित 'प्रथम वैशाली महोत्सव' में अपने विचार प्रकट करते हुए डॉ. राधाकुमद मुखर्जी ने कहा था "Vaishali first emerges into history as the birthplace of the great leader of Jainism Vardhamana Mahavira, the 24th of the Jain Tirthankaras, Mahavira was born in one of the three distircts of Vaisali, known as Vaisali proper, Kundagrama of Kundpura and Vanijyagrama. The centre of the Kundagrama was a place called Kalliaga, described as Naya-Kula, the home of the people called Imatrikas of whom Mahavira was born. Therefore Mahavira known as vesalie, Vaisalika in the Sutrakritang, the first citizen of Vaisali." तत्कालीन राज्यपाल महामहिम श्रीमाधव श्रीहरि अणे ने 'चतुर्थ वैशाली-महोत्सव' में 21 अप्रैल, 1948 को कहा था Just outside Vaisali lay the Suburb Kundagrama-probably surviving in प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 1049 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ the modern village of vasukunda. Siddhartha was living here. He was married to Trishala, sister of Chetaka, the Licchavi Republican president, Mahavira or Vardhamana was born to them at this place. सन् 1952 ई. 'आठवें वैशाली-महोत्सव' के अवसर पर श्री कन्हैयालाल मानिकलाल मुंशी के शब्दों में :- "Vaisali was not merely the home of wealth, power and beauty, it was also rich in the learning and high aspirations. Here in Kundagrama a Suburb of Vaisali, was born Vardhmana Mahavira, the founder of Jainism. He spent twelve rainy seasons of his ascetic life here.' ___Mahavira was the son of Siddhartha, a wealthy noble-man of Vaisali. His mother Trishala was the sister of Vaisali's chief Chetaka. - वैशाली को 'धर्म और विद्या का तीर्थ' मानते हुये सन् 1953 ई. में पं. सुखलाल जी संघवी. ने 'नवें वैशाली-महोत्सव' में कहा था कि दीर्घतपस्वी महावीर की जन्मभूमि और तथागत बुद्ध की उपदेशभूमि होने के कारण वैशाली विदेह' का प्रधान नगर रहा है। यह केवल जैनों और बौद्धों का नहीं, अपितु मानवजाति का एक तीर्थ बन गया है। सन् 1955 ई. में “ग्यारहवें वैशाली-महोत्सव' में अपने विचार व्यक्त करते हुए डॉ. हीरालाल जैन ने कहा कि वैशाली वह भूमि है, जिसने महावीर जैसे महापुरुष को जन्म दिया। ढाई हजार वर्ष पहले वैशाली एक वैभवशाली राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित थी। वैशाली का एक भाग ‘कुण्डपुर' या 'क्षत्रियकुण्ड' कहलाता था, जहाँ के राजभवन में राजा सिद्धार्थ अपनी रानी त्रिशला के साथ धर्म और न्यायपूर्वक शासन करते थे। रानी त्रिशला की कुक्षि से वर्द्धमान महावीर का जन्म हुआ, जिसका पालन-पोषण राजकुमार के अनुरूप हुआ। 23 अप्रैल, 1956 ई. को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था--- वैशाली लिच्छिवियों और वृज्जियों के गणराज्य की राजधानी थी। इसके अतिरिक्त वैशाली भगवान् महावीर की जन्मभूमि है जो भगवान् बुद्ध को भी बहुत प्रिय थी। __ सन् 1956 ई. में ही 'बारहवें वैशाली-महोत्सव' के अन्तर्गत डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के शब्दों में वैशाली नामक पवित्र राजधानी भारत के सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास में चिरविश्रुत है। यहीं लिच्छवि गणराज्य ने मानव की व्यक्तित्व-गरिमा, समता और स्वतन्त्रता के महत्त्वपूर्ण प्रयोग किये और इसी के समीप कुण्डग्राम में जन्म लेकर ज्ञातवंशीय भगवान् महावीर ने मानव को चिरप्रतिष्ठा प्राप्त करानेवाले उस महान् बुद्धि-परायण एवं साधनाप्रधान धर्म का उपदेश दिया था। ___ इसी अवसर पर 23 अप्रैल, 1956 को अध्यक्षीय भाषण में अपने विचार प्रकट करते हए तत्कालीन राज्यपाल महामहिम श्रीरंगनाथ रामचन्द्र दिवाकर ने कहा था— “वैशाली नाम में जादू का असर है। इसी क्षेत्र का 'वासुकुण्ड' अन्तिम जैन तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर का जन्मस्थान है। वे जैनधर्म के संस्थापक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। लगभग दो हजार वर्षों से अधिक 00 50 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक ___ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय से वासुकुण्ड ग्राम का यह छोटा-सा क्षेत्र भगवान् की जन्मभूमि होने के कारण उन्हें समर्पित है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के विचार से भगवान् महावीर ने अपने सिद्धिलाभ के पहले तपस्वी जीवन के आठ वर्षावास वैशाली' में बिताये थे और सिद्धिलाभ के बाद चार और वर्षावास वैशाली में बिताये। वैशाली ही महावीर की जन्मभूमि थी। यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि जैनों ने अपने तीर्थकर की जन्मभूमि का नाम तक भुला दिया। 30 मार्च, 1961 ई. को 'सत्रहवाँ वैशाली-महोत्सव' आयोजित हुआ, जिसमें टी.एन. रामचन्द्रन ने अपने विचार इसप्रकार व्यक्त किये : Vaisali (Basadha, is Hajipur sub-division of Muzaffarpur) is the birthplace of Lord Mahavira, the 24th Tirthankara of Jainism. It was the capital of the Licchavi clan, related by marriage to the Magadh Kings and the ancestors of the king of Nepal, of the Mauryas and of the Guptas. Subsequently but long prior to the birth of the last Tirthankara Mahavira, Vaisali became a republic and a not-worthy seat of democratic ideas. Such in brief is the life account of Lord Mahavira, which is important in our study of the cultural history of India, and the city of Vaisali played an important part in the spiritual effort which Mahavira made, Modern researches and excavations in and around here have definitely proved the correctness of identifying the present site with ancient Vaisali. Outside Vaisali is Kundgrama, at present represented by the modern village of Vaskunda. Here it was that Siddartha of the Natha-Vansa married Trishala, sister of Chetaka, who was then the president of the Licchivi Republic. To them and in this place was born Mahavira. सन् 1962 ई. में 17 अप्रैल को अट्ठारहवें वैशाली-महोत्सव में प्रमुख वक्ता-पद से बोलते हुए डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा था कि वैशाली ही वह भूमि है, जिसमें भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर की चरणरज पड़ी है। यहाँ के आकाश में, वायुमण्डल में उनके सन्देश गूंज रहे हैं। महान् है यह नगरी वैशाली ! हिन्दु-धर्म के सर्वश्रेष्ठ-पुरुष मर्यादापुरुषोत्तम राम ने इसे पवित्र कहा है और महावीर की तो यह जन्मभूमि ही रही है। ___ सन् 1963 ई. में '19वें वैशाली-महोत्सव' पर प्राकृत जैन शोध-संस्थान की विद्वत्सभा में आचार्य विजयेन्द्र सूरि के एक लेख, वैशाली : जैनधर्म और जैनदर्शन' का पाठ किया गया था, जिसके कुछ अंश इसप्रकार हैं : “वैशाली के निकट भगवान् महावीर का जन्म-स्थान निश्चित करने के कारण मुझे रूढ़िवादियों के विरोध का भी सामना करना पड़ा, पर मैं सदा नये-नये प्रमाणों के संग्रह में लगा रहा। वैशाली-गण में स्थित कुण्डपुर' में भगवान् का जन्म हुआ। इसी भूमि में उनका बचपन 10 51 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीता, यौवन बीता। अपने घरवालों से अनुमति लेकर यहीं उन्होंने दीक्षा ग्रहण की। अपने छद्मस्थ तथा केवली-काल का भी कुछ समय भगवान् ने यहीं बिताया। वैशाली के राजा चेटक का सम्बन्ध उस समय के प्राय: सभी प्रमुख राजाओं से था। चेटक की बहन त्रिशला का विवाह कुण्डपुर' के राजा सिद्धार्थ से हुआ था। वे ही भगवान् महावीर की माता थीं। मुझे इस बात का दुःख है कि अभी जैन-समाज अपने कर्तव्य-निर्वाह में पीछे है। इसका एक कारण उनकी अज्ञानता और प्रचार की कमी है। पर यदि समृद्ध और पढ़ा-लिखा समाज भगवान के जन्म-कल्याण की पवित्र-भूमि पर मन्दिर-निर्माण करा दे, तो निश्चय ही तीर्थयात्री भी यहाँ दर्शन-पूजन के लिये आने लगे और विस्मत-तीर्थ अपने योग्य-गौरव को प्राप्त कर ले।" डॉ. बी.सी. लॉ ने एक लेख में लिखा है : "Mahavira is spoken as Vesalie or Vaisalika an inhabitant of Vaisali. Abhayadeva in his commentry on the Bhagawatisutra explains Vaisalika by Mahavira and speaks of visala as Mahavira. The Venerable ascetic Mahavira, a Videha, son of Videha-datta, native of Videha, a prince of Videha had lived 30 years in Videha, the capital of which was Vaisali, when his parents died. During his later ascetic life Mahavira did not neglect the city of his birth and out of forty two rainy seasons during this period of his life he passed no less than twelve at Vaisali." __ आचार्य बलदेव उपाध्याय ने वैशाली को 'युगान्तरकारिणी नगरी' की संज्ञा दी है। इसे ही जैनधर्म के संशोधक तथा प्रचारक महावीर वर्द्धमान की जन्मभूमि होने का विशेष गौरव प्राप्त है। उन्होंने लिखा है कि वैशाली में अनेक विभूतियाँ उत्पन्न हुई, परन्तु उनमें सबसे सुन्दर विभूति है— भगवान् महावीर, जिसकी प्रभा आज भी भारत को चमत्कृत कर रही है। लौकिक विभूतियाँ भूतलशायिनी बन गईं, परन्तु यह दिव्यविभूति आज भी अमर है और आनेवाली अनेक शताब्दियों में अपनी शोभा का इसीप्रकार विस्तार करती रहेंगी। महावीर गौतम बुद्ध के समसामयिक थे, परन्तु बुद्ध के निर्वाण से पहले ही उनका अवसान हो गया था। इसप्रकार वैदिक-धर्म से पृथक् धर्मों के संस्थापकों में महावीर वर्द्धमान प्रथम माने जा सकते हैं और इनकी जन्मभूमि होने से वैशाली की पर्याप्त-प्रतिष्ठा है। प्रसिद्ध इतिहासविद् साहित्यरत्न प्रो. योगेन्द्र मिश्र ने अपने लेख में अनेक साक्ष्यों के आधार पर वैशाली को महावीर की जन्मस्थली माना है। उनके अनुसार आज भी वैशाली के लोग वैशाली के पास स्थित 'वासुकुण्ड' को 'महावीर की जन्मभूमि' के रूप में मानते हैं। सन् 1960 ई. में 'सोहलवें वैशाली-महोत्सव' के अवसर पर अपने उद्गार व्यक्त करते हुए डॉ. सम्पूर्णानन्द ने कहा था- वैशाली की ख्याति एक प्रबल-राज्य का मुख्य-स्थान होने के कारण नहीं है, वरन् इसलिए कि वह इस देश के धार्मिक इतिहास में अपना विशेष-स्थान रखती है। जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर का जन्म यहीं हुआ। उनकी दृष्टि 0052 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में वैशाली को 'भारत का सांस्कृतिक तीर्थ' कहा जा सकता है। __श्री जगदीशचन्द्र माथुर के एक रेडियो-रूपक, वैशाली दिग्दर्शन' में एक पथिक के माध्यम से यह संवाद कहलाया गया है.-"महावीर ने अपने आत्मबल से समस्त भूखण्ड को वैशाली के अधीन कर दिया। ये ही वे महावीर थे, जिनके द्वारा बढ़ाये गये जैनधर्म को आज भी भारतवर्ष में हजारों स्त्री-पुरुष मानते हैं। ये जैनों के चौबीसवें तीर्थंकर माने जाते हैं। इन्होंने श्रीपार्श्वनाथ के मत को अपनाकर उसे परिष्कृत रूप दिया। तुम्हारे इस गाँव से सटा जो वासुकुण्ड गाँव है, वही तब 'कुण्डग्राम' कहलाता था और वहीं उनका जन्म हुआ। तीस वर्षों तक सांसारिक जीवन बिताकर फिर वह श्रमण बनकर निकल पड़े। सारा वज्जी और मगधप्रदेश उनके उपदेशों से अनुप्राणित हो चला, लेकिन वैशाली को वे न भूले और बहुत बार ये वर्षावास करने कुण्डग्राम भी आये।" 'इस वैशाली के आँगन में' शीर्षक कविता में श्री मनोरंजनप्रसाद सिंह की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य है : सुना, यहीं उत्पन्न हुआ था किसी समय वह राजकुमार। त्याग दिये थे जिसने जग के भोगविलास राज-शृंगार ।। जिसके निर्मल जैनधर्म का देश-देश में हुआ प्रचार। तीर्थंकर जिस महावीर के यश अब भी गाता संसार।। है पवित्रता भरी हुई इस विमल भूमि के कण-कण में। मत कह क्या क्या हुआ यहाँ इस वैशाली के आँगन में।। वैशाली की पुण्यभूमि में तीर्थंकरों की कई मतियाँ मिलने के अतिरिक्त ऐसे अनगिनत-साक्ष्य हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि वर्द्धमान महावीर की जन्मस्थली वैशाली' ही है। * ध्यान और दिगम्बर-परम्परा ..... हम स्वयं अनुभव करेंगे कि हमारी श्वेताम्बर-परम्परा की अपेक्षा दिगम्बरपरम्परा में ध्यान की पद्धति सुरक्षित रही है और जितने ग्रंथ दिगम्बर-आचार्यों के हैं, ध्यान के विषय में श्वेताम्बर-आचार्यों के उतने नहीं हैं। उन लोगों में साधना का बहुत अच्छा क्रम चला है। जो परम्परा बाद में रही, उसमें बाह्य-क्रिया ज्यादा आ गई।" –(चेतना का ऊर्ध्वारोहण, पृष्ठ 62).. अहिसारूपी अमृत औषधि अहिंसाधर्म को रसायन एवं अमृत का पर्यायवाची माना है— _ 'अमृतत्वहेतुभूतं परममहिंसारसायनं लब्ध्वा ।' - (पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 78) अर्थ :--- अहिंसा अमरता प्रदान करनेवाला परम रसायन है। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 53 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर की जन्मभूमि 'कुण्डलपुर' या 'कुण्डपुर' (तथ्य और सत्य) नाथूलाल जैन शास्त्री वर्तमान में जैन विद्वत्परम्परा के सर्वश्रेष्ठ, सर्वाधिक प्रतिष्ठित एवं सर्वाधिक वयोवृद्ध मनीषी-प्रवर पं. नाथूलाल जी संहितासूरि हैं। उनकी पुण्य-लेखनी से प्रसूत यह आलेख अपने आप में दो टूक शब्दों में विदेह-कुण्डपुर' को भगवान् महावीर की जन्मभूमि घोषित करता है। जिन्हें जैन-विद्वत्परम्परा पर आस्था है, उन्हें इस आलेख को पढ़ने के बाद संभवत: भ्रम का कोई अवकाश नहीं रह जायेगा। समाज को निभ्रान्तरूप से दिशाबोध देने के लिये ही ऐसी वरिष्ठतम विद्वान् का आलेख यहाँ सादर प्रस्तुत किया जा रहा है। --सम्पादक भगवान् महावीर का जन्मस्थान 'विदेह देश' में स्थित था। उसके 'कुण्डलपुर' या 'कुण्डपुर' दोनों नाम प्रसिद्ध थे। विदेह' हिमालय और गंगा के मध्य था। दूसरी सीमा पूर्व में 'कोसी' पश्चिम में 'गंडकी' उत्तर में हिमालय' और दक्षिण में 'गंगा' थी। प्राचीन साहित्य के अनुसार दक्षिण-पूर्व में वैशाली' और उत्तर-पूर्व में 'कुण्डलपूर' या 'कुण्डपुर' स्थित था। पश्चिम में वाणिज्य ग्राम था। वैशाली और कुण्डलपुर या कुण्डपुर पास ही अवस्थित थे। दोनों पृथक्-पृथक् और स्वाधीन-स्वतंत्र नगर थे, जो गंडकी नदी के पूर्वी तट पर थे। भगवान् महावीर के दीक्षित होकर बाहर विहार कर जाने से 'कुण्डपुर' पूर्ववत् नहीं रहा। चौथी शताब्दी के आचार्य यतिवृषभ तिलोयपण्णत्ती' ग्रन्थ, पृष्ठ 549 पर लिखते हैं सिद्धत्थराय पियकारिणी हि णयरम्भि कुंडले वीरो। उत्तर फागुणि दिवसे चितसिया तेरसीए उप्यण्णो।। अर्थात् भगवान् महावीर कुण्डलपुर में पिता सिद्धार्थ और माता प्रियकारिणी से चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र में उत्पन्न हुए। 'षट्खण्डागम धवला' (9वीं शताब्दी के चतुर्थ खण्ड पृष्ठ 121) में कुण्डलपुर जन्मस्थान और उसी ग्रंथ के भाग 9, 4-1-44 में कुण्डपुर लिखा है। 00 54 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके पश्चात् आचार्य गुणभद्र ने 'उत्तरपुराण' 74-251 तथा 74-252 में भरतेऽस्मिन् विदेहाख्ये, विषये भवनांगणे। - राज्ञ: कुंडपुरेशस्य वसुधारा पतत्पृथुः ।। अर्थात् भरतक्षेत्र के विदेहदेश में कुण्डपुर के महाराज सिद्धार्थ के भवन के आंगन में रत्नवर्षा हुईं वहाँ नंद्यावर्त सप्तखंड महल था। भगवान् के गर्भ में आने के पूर्व से देवों द्वारा रत्नवर्षा की जाती है। पाँचवीं शताब्दी के आचार्य पूज्यपाद की. 'निर्वाण-भक्ति' में लिखा है- सिद्धार्थ नृपति तनयो भारतवास्ये विदेहकुंडपुरे । देव्यां प्रियकारिण्यां सुस्वप्नान् संप्रदर्श्य विभुः।। 4 ।। अर्थात् महाराज सिद्धार्थ के सुपुत्र महावीर ने भारत के विदेहस्थ कुण्डपुर में सोलह स्वप्न के पश्चात् देवी प्रियकारिणी के गर्भ से चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को जन्म लिया। इसीप्रकार 9वीं शती के हरिवंशपुराण' 2/1 व 2/5 में आचार्य जिनसेन ने लिखा है कि भारत के विदेह देशस्थ कुण्डपुर स्वर्ग की शोभा को धारण करते हुए सुखरूप जलकुंड सोपान है। ____ कुण्डलपुर 20 मील की लम्बाई-चौड़ाई में बसा हुआ था, जिसने चीनी यात्री हयुएन्सांग ने देखा था कि यह बड़ा सरसब्ज विविध सुन्दर वृक्षों और महलों से समृद्ध था। इस नगर की आर्थिक स्थिति कृषि होने से सन्तोषजनक थी। अन्नोत्पादन खूब होता था। प्रजा का सानंद जीवनयापन होता था, मजदूरी का रिवाज नहीं था। प्रजा में अमीर और गरीब का कोई खास भेद नहीं था। सामाजिक व्यवस्था सन्तोषप्रद थी। ___ वर्धमान चरित' के रचयिता महाकवि असग के अनुसार कुण्डपुर सभी प्रकार की वस्तुओं से युक्त परकोटा, खातिका, वापिका एवं वाटिकाओं से परिपूर्ण था। यहाँ के ऊँचे भवन और रत्नजटित गोपुर अपनी रमणीयता से पथिकों के मन को मुग्ध कर लेते थे। धनधान्य एवं पशुधन से सहित वह नगर प्रजाजनों को आनंदप्रद था। आचार्य जिनसेन (प्रथम) ने विदेह के कुण्डपुर का वर्णन किया है। उन्होंने नगर की शोभा के संबंध में लिखा है कि वहाँ शरद के मेघ सदृश उन्नत भवनों से आकाश भी श्वेत होकर शोभित होता है। वह नगरी चारों ओरसे कोट एवं खातिका से वेष्टित है। वहाँ के प्रमुख इक्ष्वाकुवंशीय क्षत्रिय-शासक प्रजा के संरक्षण में सदा तत्पर रहते हैं। नगर का आयाम कई मील विस्तृत है। महाराज सिद्धार्थ वैभव सम्पन्न प्रसिद्ध पुरुष थे, इसीलिए चेटक महाराज ने अपनी सबसे बड़ी विदुषी पुत्री त्रिशला (प्रियकारिणी) का भगवान् महावीर के पिता सिद्धार्थ से विवाह संबंध कर अपना सौभाग्य माना था। ___'अवसर्पिणी युग' का चतुर्थ काल होने से वैमानिक देव, सौधर्म आदि इन्द्र, भगवान् के गर्भ, जन्म आदि कल्याणक समारोहपूर्वक मनाते थे। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 55 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भगवान महावीर के पूर्व से भारत में राजसत्तायें गणतंत्र के रूप में उदित हो चकी थी। जितने भी गणतंत्र स्थापित हुए, उनमें वृजि संघ' अधिक बलशाली था, जिसे 'वज्जीसंघ' भी कहते थे। यह भगवान् महावीर के पिता सिद्धार्थ से संबंधित था, वैशाली मिथिला आदि के साथ मिलकर बिना भेदभाव के सब राज्यों का एक विशाल गणतंत्र बन गया था। गणपति का चुनाव कम से होकर इस संघ में कुमार वर्धमान 'कुमारामात्य' पद पर रहकर लोककल्याण और प्रजा के दु:ख दर्द दूर करने के कार्य में संलग्न रहते थे। __ भगवान महावीर के समय धार्मिक एवं दार्शनिक क्रांति भी हो रही थी। गौशाल, पूरण, कश्यप, कात्यायन अपने-अपने सिद्धांत का प्रचार कर रहे थे। ___ श्वेत केतु, उद्दालक, याज्ञवल्क आदि वैदिक व उपनिषद ज्ञाता, अपने धर्म का प्रचार कर रहे थे। उधर चीन में कनफ्युशस, लाओत्से तथा ईरान में जरथुस्त, यूनान में पैथेगोरस, फिलिस्तीन में मूसा आदि विचारक एवं धर्म-प्रवर्तक हुए थे। गौतमबुद्ध श्रमणानुयायी श्रमणांतर्गत थे ही। भगवान् महावीर के नाना चेटक और मौसा महाराज श्रेणिक (बिंबसार) थे, जो राजगृह के नृपति थे। श्रेणिक के एक पुत्र कुणिक (अजातशत्रु) ने अपने पिता को राज्य की लालसा से बन्दी बनाकर कारागृह में यातना देना प्रारंभ कर दिया था। उसी ने चेटक से भी युद्ध करके वैशाली को क्षति पहँचाई। भगवान् महावीर के पावापुरी में परिनिर्वाण के एक हजार वर्ष बाद चन्द्रगुप्त के गुप्तवंशीय समुद्रगुप्त ने वैशाली और गणराज्यों को बिलकुल नष्ट कर दिया। इस विनाशलीला से वहाँ की बहुत-सी प्रजा बाहर भाग गई। कुछ ने धर्म-परिवर्तन कर लिया। राजगृही, नालंदा (मगध) आदि स्थानों पर श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों ने ही नई बस्ती बनाकर भगवान् महावीर के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा और जैनत्व के गौरव को न भुलाते हुए, वहीं मंदिर का निर्माण कर भगवान् के गर्भ, जन्म, तप कल्याणक मनाना तथा वार्षिक मेला प्रारंभ कर दिया। __ भगवान् महावीर के मुनि जीवन के चातुर्मास (वर्षायोग) प्राय: वहीं होते रहे। ‘पावापुर' सिद्धक्षेत्र भी वहीं था। श्वेताम्बर, दिगम्बर पहले तो साथ रहे, पीछे वहीं दूरी पर श्वेताम्बरों ने अपना प्रथक क्षेत्र बना लिया। इसप्रकार 1500 वर्ष का दीर्घकाल व्यतीत हो जाने पर भी मगध के इस कुण्डलपुर का विकास नहीं हो सका। इसका कारण हमारी समझ से सम्मेदशिखरजी के समान दोनों सम्प्रदायों का साथ रहना है। वर्तमान में पुरातत्व की शोध व खोज के कारण पुन: विदेह का प्राचीन कुण्डलपुर एवं वैशाली प्रकाश में आ रहे हैं। इनकी जो दुर्दशा हुई है, उससे कुण्डलपुर का गौरवपूर्ण स्थान नहीं रहा। पूर्व राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसाद जी द्वारा भगवान् महावीर के जन्म स्थल, पूर्व स्मारक कुण्डपुर के वहाँ महावीर स्मारक की स्थापना वि.सं. 2012 में कर दी गई है। तीर्थ-प्रबंध 00 56 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमेटी की स्थापना भी हो गई है। भगवान् महावीर के ज्ञातृवंश की अपभ्रंश जथरिया जाति वहाँ विद्यमान है। पास ही गंडकी नदी अभी भी बहती है। उधर राजगृह के पास ही पावापुर सिद्धक्षेत्र भी है, जो दिगम्बर श्वेताम्बर आम्नाय का सम्मिलित है। दूसरे पावापुर सिद्धक्षेत्र बनाने की चेष्टा, व्यर्थ ही अपनी शक्ति और आस्था को नष्ट करना है। नोट :- वैशाली गणतंत्र जो अनेक राज्यों का मिलकर विशाल संघ के रूप में बना, जिसमें सभी राज्य स्वतंत्र थे, उसके द्वारा भगवान् महावीर 'कुमारामात्य' पद पर चुने गए थे। गणपति भी सिद्धार्थ और चेटक क्रम-क्रम से चुने गये थे। भगवान् महावीर को श्वेताम्बर-मतानुसार इस विशाल संघ के कुमारामात्य होने से वैशालिक' कहा जाता था। कुमारामात्य की प्राचीन सील भी निकली है। भगवान् महावीर के जन्म-स्थान के संबंध में अनेक रचनायें पढ़ने पर यह समझ में आया कि उन्होंने वैशाली गणतंत्र और वैशाली नगरी दोनों को एक मान लिया इससे, कुण्डलपुर को उसका उपनगर कुण्डग्राम लिख दिया। वर्तमान में भी कुण्डलपुर जन्म-स्थान की भूमि अतिक्रमण होने से संकुचित दिखती है। अत: वैशाली का प्रचार-प्रसार और प्रसिद्धि होने से उसके अंतर्गत कुण्डलपुर या कुण्डग्राम की धारणा सर्वथा गलत है। भगवान् महावीर के जन्म स्थान के संबंध में वैशाली गणतंत्र और वैशाली नगर को एक मानने से कुण्डपुर या कुण्डलपुर को उप-नगर कुण्डग्राम, वासुकुण्ड, क्षत्रिय कुण्ड मानना सही खोज नहीं है। इसका सही परिचय विदेह-कुण्डपुर ही है। मगध-प्रान्त के नालन्दा-कुण्डलपुर को भगवान् महावीर की जन्मभूमि मानना कदापि उचित नहीं है। शास्त्राभ्यास के लिये अपात्र व्यक्ति “आलस्यो मंदबुद्धिश्च, सुखिनो व्याधिपीडित:। निद्रालुः कामुकश्चेति, षडैते शास्त्रवर्जिता: ।।" -(आचार्य माघनंदि, शास्त्रसार समुच्चय) अर्थ :- आलसी, मंदबुद्धि, सुखाभिलाषी, बीमार व्यक्ति, निद्राभिलाषी और कामुक (कामवासनायुक्त चित्तवाले) —ये छह व्यक्ति शास्त्राभ्यास के अयोग्य कहे गये हैं। इन्हें शास्त्राभ्यास वर्जित है। कर्तव्यबोध 'तत्कर्म पुरुष: कुर्याद्, येनान्ते सुखमेधते।' – (नैषधचरित) यानि मनुष्यों को वह कार्य करने चाहिए, जिससे अन्त में सुख-शांति मिले। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 57 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाली-कुण्डग्राम __ _पं. बलभद्र जैन सम्पूर्ण प्राचीन-वाङ्मय इस बात में एकमत है कि भगवान् महावीर विदेह' में स्थित 'कुण्डग्राम' में उत्पन्न हुए थे। उस कुण्डपुर की स्थिति स्पष्ट करने के लिए विदेह कुण्डपुर' अथवा 'विदेह'-जनपद-स्थित ‘कुण्डपुर' नाम दिया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में 'कुण्डपुर' या इससे मिलते-जुलते नामवाले नगर एक से अधिक होंगे; अत: भ्रम-निवारण और कुण्डपुर की सही स्थिति बताने के लिए कुण्डपुर के साथ विदेह' पद लगाना पड़ा। आचार्य पूज्यपाद-विरचित संस्कृत निर्वाण-भक्ति' में भगवान् के जन्म-सम्बन्धी सभी आवश्यक बातों पर प्रकाश डालते हुए कहा है “सिद्धार्थनृपति-तनयो भारतवास्ये विदेहकुण्डपुरे। देव्यां प्रियकारिण्यां सुस्वप्नान्संप्रदर्श्य विभुः ।।" अर्थ :- सिद्धार्थ राजा के पुत्र (महावीर) को भारतदेश के विदेह कुण्डपुर' में सुन्दर (सोलह) स्वप्न देखकर देवी प्रियकारिणी (त्रिशला) ने चैत्र-शुक्ल-त्रयोदशी को उत्तरा-फाल्गुनि' नक्षत्र में अपने उच्चस्थानवाले सौम्य-ग्रह और शुभलग्न में जन्म दिया और चतुर्दशी को पूर्वाह्न में इन्द्रों में रत्नघटों से भगवान् का अभिषेक किया। - हरिवंशपुराण' में कुण्डपुर' की स्थिति को कुछ अधिक विस्तार के साथ दिया है। वह इसप्रकार है— “अथ देशोऽस्ति विस्तारी जम्बूद्वीपस्य भारते। विदेह इति विख्यात: स्वर्गखण्डसम श्रिया।। किं तत्र वर्ण्यते यत्र स्वयं क्षत्रियनायका: । इक्ष्वाकव: सुखक्षेत्रे संभवन्ति दिवश्च्युता: ।।। तत्राखण्डल-नेत्राली पद्मिनीखण्ड-मण्डनम् । सुखाम्भ:कुण्डमाभाति नाम्ना कुण्डपुरं पुरम् ।।" --(2/1, 4, 5) अर्थ :- इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में लक्ष्मी से स्वर्गखण्ड की तुलना करनेवाला 'विदेह' नाम से प्रसिद्ध एक विस्तृत देश है। उस देश का क्या वर्णन किया जाये, जहाँ के सुखदायी-क्षेत्र में क्षत्रियों के नायक स्वयं इक्ष्वाकुवंशी राजा स्वर्ग से च्युत हो उत्पन्न होते हैं। उस विदेह देश में 'कुण्डपुर' नाम का एक ऐसा सुन्दर नगर है, जो इन्द्र के नेत्रों की 00 58 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक प्राकृतावधान Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंक्तिरूपी कमलिनियों के समूह से सुशोभित है तथा सुखरूपी जल का मानो कुण्ड ही है। 'उत्तरपुराण' के कर्ता आचार्य गुणभद्र ने इस प्रसंग को इसी भाँति लिखा है “भरतेऽस्मिन् विदेहाख्ये विषये भवनांगणे। राज्ञ: कुण्डपुरेशस्य वसुधारापतत्पृथुः ।।" अर्थ :- भरतक्षेत्र के विदेह' नामक देश सम्बन्धी कुण्डपुर' नगर के राजा सिद्धार्थ के भवन के आँगन में प्रतिदिन रत्नवर्षा हुई। इन उल्लेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान् का जन्म उस 'कुण्डपुर' नामक नगर में हुआ था, जो 'विदह' देश में स्थित था। 'विदेह' जनपद और उसी सीमायें _ विदेह-जनपद की सीमायें इसप्रकार थीं गण्डकी-तीरमारभ्य चम्पारण्यान्तकं शिवे । विदेहभू: समाख्याता तीरभुक्ताभिधो मनुः ।। –(शक्तिसंगम-तन्त्र, पटल 7) अर्थात् 'गण्डकी' नदी से लेकर 'चम्पारण्य' तक का प्रदेश विदेह' अथवा 'तीरभुक्त' कहलाता है। (तीरभुक्त 'तिरहुत' को कहते हैं)। वृहद् विष्णुपुराण' के मिथिलाखण्ड में विदेह' की पहचान और सीमायें बताते हुए कहा “गंगा-हिमवतोर्मध्ये नदीपञ्चदशान्तरे । तैरभुक्तरिति ख्यातो देश: परमपावनः ।। कौशिकीत: समारभ्य गण्डकीमधिगम्य वै। योजनानि चतुर्विंशत् व्यायाम: परिकीर्तितः ।। गंगाप्रवाहमारभ्य यावद्धैमवतं वनम् । विस्तार: षोडश: प्रोक्तो देशस्य कुलनन्दनः" ।। अर्थ :- गंगा और हिमालय के मध्य में तीरभुक्त' देश है, जिसमें पन्द्रह नदियाँ बहती हैं। पूर्व में कौशिकी (आधुनिक कोसी), पश्चिम में गण्डकी, उत्तर में हिमालय और दक्षिण में गंगा नदी है। यह पूर्व से पश्चिम की ओर 24 योजन है और उत्तर से दक्षिण की ओर 16 योजन है। इसी ‘विदेह' या 'तीरभुक्ति प्रदेश में वैशाली, मिथिला आदि नगर थे। श्वेताम्बर-साहित्य में 'विदेह कुण्डपुर' ____ भगवान् महावीर को कहीं-कहीं वैदेह' भी कहा गया है। कुछ विद्वानों की राय में इसका कारण उनकी माता का कुल है। महावीर की माता त्रिशला विदेह कुल' की थीं। श्वेताम्बरग्रन्थों में इसके सम्बन्ध में अनेक स्थानों पर उल्लेख आये हैं। कल्पसूत्र' (5/11) में कहा ॐ सिन्ध्वाट्यविषये प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 40 59 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है—'विणीए णाए णायपुत्ते णायकुलचंदे विदेहे विदेहदिण्णे विदेहजच्चे विदेहसूमाले तीसे-वासाइं विदेहंसि कटु।' - इसीप्रकार ‘आचारांग सूत्र' में उपर्युक्त पाठ से मिलता-जुलता पाठ इसप्रकार मिलता है-“तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे णायपुत्ते णायकुलचदे णायकुल-णिव्वत्ते विदेहे विदेहदिण्णे विदेहजच्चे विदेहसुमाले तीसवासाई विदेहत्ति कटु आगारमज्झे वेसित्ता......" ___ इन अवतरणों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि महावीर ज्ञातृकुल में उत्पन्न हुए थे, वे विदेह के रहनेवाले थे, विदेह के दौहित्र थे और उनकी माता त्रिशला 'विदेहदत्ता' कहलाती थीं। श्वेताम्बर सूत्र-साहित्य में कुण्डग्राम, क्षत्रियकुण्ड, उत्तरक्षत्रियकुण्डपुर, सन्निवेश, कुण्डग्राम नगर, क्षत्रियकुण्डग्राम आदि अनेक नाम उनके जन्म-नगर के मिलते हैं; किन्तु वे सब एक ही नगर के नाम हैं। यहाँ तत्सम्बन्धी कुछ उद्धरण दिये आ रहे हैं। इनसे भगवान् महावीर के जन्म-स्थान के सम्बन्ध में अपना अभिमत निश्चित करने में सहायता मिलेगी :-- 'उत्तरखत्तियकुण्डपुरसंणिवेसंमि.......' –(आचारांग, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, भावनाख्य चतुर्विंशतितम अध्ययन) उत्तरखत्तियकुण्डग्गमे णयरे.......' -(कल्पसूत्र द्वितीय क्षण। संख्या 21, 26, 28, 30, 32) 'उत्तरखत्तियकुण्डपुरसंणिवेसंमि.......' - (आचारांग, 2/24/28) 'ज्ञातमस्तीह भरते महीमण्डलमण्डनम् । क्षत्रियकुण्डग्रामाख्यं पुरं मत्पुरसोदरम् ।।'-- (त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, 10) इन अवतरणों के प्रकाश में उत्तर क्षत्रिय कुण्डपुर' या 'कुण्डग्राम' ही भगवान् की जन्म-नगरी है —यह सुस्पष्ट हो जाता है। यह नगर विदेह में स्थित था, यह हम पहले सिद्ध कर चुके हैं। . इस नगर की विशेषता बताते हुए हेमचन्द्राचार्य ने जो बातें लिखी हैं, वे विशेष ध्यान देने योग्य हैं- “स्थानं विविधचैत्यानां धर्मस्यैकनिबन्धनम् । अन्यायैरपरिस्पृष्टं पवित्रं तच्च साधुभिः ।। मगया-मद्यपानादि-व्यसनास्पृष्टनागरम् । तदेव. भरतक्षेत्रं पावनं तीर्थवद् भुवि ।।" । –(त्रिषष्टिशलाकामहापुरुषचरित 103) अर्थ :- यह नगर नानाप्रकार के चैत्यों का स्थान था। धर्म का साधनभूत था। यहाँ अन्यायों का तो स्पर्श भी नहीं था। साधुओं से यह पवित्र था। यहाँ के निवासियों को शिकार, मद्यपान आदि व्यसनों का स्पर्श तक नहीं था। वह नगर वास्तव में भरतक्षेत्र को पवित्र करनेवाला पृथ्वी का मानो तीर्थक्षेत्र ही था। कुण्डपुर की यह स्तुति कोरी शिष्टाचारपरक सामान्य-प्रशंसा नहीं है। आचार्य ने इसमें 00 60 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक प्राकृताचा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगरव्यापी वास्तविकता पर ही प्रकाश डाला है। जिस नगर में लोकोत्तर महनीय-पुरुष तीर्थकर जन्म लेनेवाले हैं, वह नगर पवित्र होना चाहिए, धार्मिकजनों का केन्द्र होना चाहिए और वहाँ के जनों में आचार और विचार की शुद्धि होनी चाहिए। 'कुण्डपुर' उस काल में ऐसा ही पवित्र नगर था। वैशाली हिन्दू-पुराणों के अनुसार वैशाली' की स्थापना 'इक्ष्वाकु' और 'अलम्बुषा' के पुत्र 'विशाल' राजा ने की थी। बौद्धग्रन्थों में इस नगरी के नामकरण का कारण यह बताया गया है कि जनसंख्या बढ़ने से कई गाँवों को सम्मिलित करके तीन बार में इसे विशाल रूप दिया गया, इससे उसका नाम 'वैशाली' पड़ा। ___आजकल यह स्थान 'बसाढ़' नामक गाँव से पहचाना जाता है। इसके आसपास आज भी बसाढ़ के अतिरिक्त बनियागाँव, कूमल छपरागाछी, वासुकुण्ड और कोल्हुआ आदि गाँव आबाद हैं। समय के परिवर्तन के साथ यद्यपि प्राचीन नामों में थोड़ा-बहुत परिवर्तन अवश्य हो गया है; किन्तु इन नामों से प्राचीन नगरों की पहचान की जा सकती है, जैसे—वैशाली, वाणिज्यग्राम, कोल्लाग सन्निवेश, कर्मारग्राम और कुण्डपुर। बौद्ध-साहित्य के अनुसार वैशाली में प्राचीनकाल में 'कुण्डपुर' और 'वाणिज्यग्राम' भी मिले हुए थे । दक्षिण-पूर्व में 'वैशाली' थी, उत्तर-पूर्व में कुण्डपुर' था और पश्चिम में वाणिज्यग्राम' था। कुण्डपुर के आगे उत्तर-पूर्व में कोल्लाग' नामक एक सन्निवेश था, जिसमें प्रायः ज्ञातवंशीय क्षत्रिय रहते थे। इसी 'कोल्लाग सन्निवेश' के पास ज्ञातवंशीय क्षत्रियों का 'द्युतिपलाश' उद्यान और चैत्य था। इसीलिये इसे 'णायसंडवणे' अथवा 'णायसंडे उज्जाणे' कहा गया है। डॉ. होर्नले का मत है कि महावीर का जन्म वैशाली' के एक उपनगर कोल्लाग' में हुआ था, जहाँ द्युति-पलाश चैत्य' था। उनके मत से कोल्लाग सन्निवेश' में 'ज्ञात' या ‘णाय' क्षत्रियों का निवास था। राहुल सांकृत्यायन भगवान् महावीर को ज्ञातृवंशीय तथा वर्तमान जथरिया जाति को ज्ञातृवंश के वंशज बताते हैं। उनका मत है कि 'ज्ञात' शब्द का ही रूपान्तरित होकर 'जथरिया' बन गया है—ज्ञातृ (ज्ञातरजतरजथर) इका (इया)=जथरिया, जेथरिया। महावीर का गोत्र कश्यप' था तथा जथरियों का गोत्र भी काश्यप' है। 'रत्ती' परगना, जिसमें 'बसाढ़' (प्राचीन वैशाली) है, आजकल भी जथरियों का केन्द्र है। महावीर के काल में 'वज्जीदेश' में 'नादिक' नामक एक ग्राम था, जहाँ ज्ञातवंशी क्षत्रिय रहते थे। इस नादिका का ही संस्कृतरूप 'ज्ञात' का होता है। उसी 'नादिका' से 'रत्ती' शब्द बन गया--- रत्ती>लत्ती>नत्ती>नाती> नादि। (पाली) 'दीघ निकाय' की 'सुमंगल विलासिनी' टीका में एक स्थान पर इस नाम-भेद का स्पष्टीकरण किया गया है- 'नादिकाति एतं तलाकं निस्साय द्विण्णं चूल्लपितु महापितु पत्तानं द्वे गामा । नादिकेति एकस्सिं ज्ञातिगामे।' इसमें बताया है कि 'बातिक' (ज्ञातिक) और 'नादिक' दोनों नाम एक ही स्थान के हैं। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 1061 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रातिगाम (ज्ञातिगाम) होने से त्राति' नाम पड़ा और नादिक तड़ाग (तालाब) के निकट होने से 'नादिक' कहलाया। ___आगम-ग्रन्थों के अनुसार 'कुण्डपुर' के दो भाग थे—'दक्षिण कुण्डपुर सन्निवेश' और 'उत्तर कुण्डपुर सन्निवेश' । 'क्षत्रिय कुण्डग्राम' उत्तर में था, जिसमें मुख्यत: ज्ञातृवंशी क्षत्रिय रहते थे और 'ब्राह्मण कुण्डग्राम' दक्षिण में था, जिसमें मुख्यत: ब्राह्मण निवास करते थे। इन उल्लेखों से यह मालूम पड़ता है कि उत्तर क्षत्रियकुण्डपुर सन्निवेश' और 'दक्षिण ब्राह्मणकुण्डपुर सन्निवेश' अथवा 'क्षत्रिय कुण्डग्रामनगर' और 'ब्राह्मण कुण्डग्रामनगर' - दोनों प्राय: मिले हुए थे। वास्तव में कुण्डपुर सन्निवेश' के दो भाग थे, जिसमें उत्तरीभाग में क्षत्रियों (विशेषत: ज्ञातृवंशी) और दक्षिणीभाग में ब्राह्मणों की बस्ती थी। ब्राह्मणकुण्डग्राम' के ईशानकोण में प्रसिद्ध 'बहुशाल चैत्य' था। क्षत्रियकुण्डग्राम के ईशान कोण में कुछ आगे चलकर कोल्लाग' सन्निवेश था। यह सन्निवेश भी ज्ञातृवंशी क्षत्रियों का था। क्षत्रियकुण्डपुर के बाहर ही ज्ञातृखण्डवन' नामक एक उद्यान था, जो ज्ञातृवंशियों का था। वैशाली का तीसरा भाग वाणिज्यग्राम' नगर था। इसमें प्राय: व्यापारी-बनिये रहते थे। यह पश्चिम की ओर आबाद था। इसके ईशानकोण में प्रसिद्ध 'द्यतिपलाश चैत्य' और उद्यान था। चैत्य और उद्यान —दोनों ही ज्ञातृवंशी क्षत्रियों के थे। वस्तुत: वैशाली' तीन भागों या जिलों में विभक्त थी—वैशाली, कुण्डग्राम औरि वाणिज्यग्राम । ये तीनों ही नगर भिन्न-भिन्न थे। यह एक-दूसरे से कितनी दूर थे ---इसका तो कहीं उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु आगम-ग्रन्थों में तथा अन्यत्र ऐसे उल्लेख प्राय: मिलते हैं, जिनसे यह मालूम पड़ता है कि ये तीनों नगर अलग-अलग बसे हुए थे। वैशाली संघ वैशाली में महावीर से कुछ पूर्व से ही 'गणसंघ प्रणाली' प्रचलित थी। सम्भवत: इस 'गणसत्ताक राज्य' की स्थापना ईसवी सन् से लगभग सात शताब्दी पूर्व में गंगा के तट पर हुई थी। इससे लगे हुए विदेह राज्य का अन्त जनकवंशी निमि के पुत्र कलार के समय में हो चुका था। इसके बाद विदेह राज्य लिच्छवियों के गणसंघ में मिल गया। इतिहासकार इस महत्त्वपूर्ण घटना का अभी तक न तो कालनिर्धारण ही कर पाये हैं और न विस्तार से ही इसके सम्बन्ध में प्रकाश डाल सके हैं। जनकवंश के अन्तिम राजा कलार को प्रबुद्ध जनता ने उसके दुराचार कारण जान से मार डाला, तब जनता ने मिलकर यह निश्चय किया कि 'अब भविष्य में विदेह में राजतन्त्र की स्थापना नहीं की जायेगी, बल्कि जनता का अपना राज्य होगा, जिसका शासन जनता के लिए जनता द्वारा होगा। -इस निश्चय के परिणामस्वरूप विदेह में जनता ने 'विदेह गणसंघ' की स्थापना की। उस समय वैशाली में 'लिच्छवि संघ' भी मौजूद था। कुछ समय बाद दोनों गणसंघों के राजाओं ने परस्पर बैठकर सन्धि कर ली और विदेह गणराज्य' विशाल वैशाली 0062 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ' में मिला दिया गया। इस संघ का नया नाम 'वज्जीसंघ' निश्चित हुआ। इस गणसंघ की राजधानी 'वैशाली' बनायी गयी। विदेह के गणराज्य चेटक को 'वज्जीसंघ' का गणराज या राजप्रमुख निर्वाचित किया गया। ___इस गणराज्य की सीमायें इसप्रकार थीं— पूर्व में वन्यप्रदेश, पश्चिम में कोशलदेश और कुसीनारा-पावा, जो मल्लों के गणराज्य थे। दक्षिण में गंगा और गंगा के उस पार मगध साम्राज्य था। उत्तर में हिमालय की तलहटी का वन्यप्रदेश। बौद्ध ग्रन्थों के आधार पर इस गणराज्य का विस्तार 2300 वर्गमील में था। सातवीं शताब्दी में युवानच्चांग' नाम का एक चीनी बौद्धयात्री भारत आया था। उसने लिखा है कि इस राज्य का क्षेत्रफल पाँच हजार मील है।' शासन-व्यवस्था - 'वज्जीसंघ' में 9 राजा मुख्य थे और उनके ऊपर एक गणपति या राजप्रमुख होता था। इस संघ में आठ कुलों के नौ गण थे। गणपरिषद् में सम्मिलित भोगवंशी, इक्ष्वाकुवंशीय, ज्ञातवंशीय, कौरववंशीय, लिच्छिविवंशीय, उग्रवंशीय और विदेह कुलों का वर्णन जैनागमों में मिलता है। किन्तु आठ कुलों में इनके अतिरिक्त और कौन-सा कुल था, यह कुछ भी पता नहीं चलता है। सम्भवत: आठवाँ कुल राजकुल' के नाम से प्रसिद्ध था। इस संघ को 'लिच्छवि संघ' भी कहा जाता था। इन अष्टकुलों को वज्जियों का अष्टकुल' कहा जाता था। वास्तव में ये सभी कुल 'लिच्छवि' थे। इनमें ज्ञातृवंशी' सर्वप्रमुख थे। गण-शासन वस्तुत: शासन नहीं, एक व्यवस्था होती है। उसमें दायित्व उसके प्रत्येक सदस्य पर होता है। गण का स्वामी गणपति होता है, और गण-परिषद् उसकी प्रतिनिधि होती है। 'वैशाली संघ' में भी यही बात थी। वैशाली का वैभव वैशाली अत्यन्त समृद्ध नगरी थी। उस समय वैशाली में एक-एक गव्यूति (1 गव्यूति-2 मील) की दूरी पर तीन प्राकार बने हुये थे। तीनों प्राकारों में गोपुर थे, अट्टालिकायें थीं तथा कोठे बने हुए थे। ___ 'विनयपिटक' के अनुसार वैशाली अत्यन्त समृद्धिशाली और धन-जन से परिपूर्ण थी। उसमें 7777 प्रासाद, 7777 कूटागार, 7777 आराम और 7777 पुष्करिणियाँ थी। - तिब्बत से प्राप्त कुछ ग्रन्थों के अनुसार वैशाली में 7000 सोने के कलशवाले महल, 14000 चाँदी के कलशवाले महल तथा 21000 ताँबे के कलशवाले महल थे। इन तीन प्रकार के महलों में क्रमश: उत्तम, मध्यम और जघन्य कुलों के लोग रहते थे। ___ नगर के मध्य में एक 'मंगल पुष्करिणी' थी। इसका जल अत्यन्त निर्मल था। समय-समय पर इसका जल बदला जाता रहता था। इसमें लिच्छिवियों के अतिरिक्त किसी अन्य को–अलिच्छवि को स्नान-मज्जन करने का निषेध था। इस पुष्करिणी में पशु और पक्षी तक प्रवेश नहीं कर सकते थे। इसके ऊपर लोहे की जाली रहती थी। इसके चारों ओर प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक .0063 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्की प्राचीर बनी हुई थी। चारों दिशाओं में द्वार और सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। द्वारों पर सहस्र प्रहरी रहते थे। यदि कोई किसी प्रकार की चोरी से इस पुष्करिणी में अवगाहन या स्नान करने का साहस करता था, तो उसको मृत्यु-दण्ड दिया जाता था। जब राजाओं (सदस्यों) का चुनाव होता था, तो कभी-कभी गण-संघ किसी विशेष-व्यक्ति को भी इसमें स्नान करने की अनुमति प्रदान कर देता था। इस पुष्करिणी की ख्याति सुदूर देशों तक थी। कभी-कभी दूसरे देश के राजा लोग इसमें स्नान करने के लिए संघ से अनुमति देने की प्रार्थना करते थे; किन्तु गणसंघ ने कभी किसी बाहरी व्यक्ति की प्रार्थना स्वीकार नहीं की। वैशाली के लिच्छवि __ वैशाली में लिच्छवियों का गणशासन था। वैशाली के अष्टकुल लिच्छवी थे। किन्तु इतिहासकारों के समक्ष एक प्रश्न उठता रहा है कि “ये लिच्छवी कौन थे? क्या ये विदेह के मूल-निवासी थे अथवा कहीं बाहर से आकर बस गये थे?" ये और ऐसे ही कई प्रश्न हैं, जिनका समाधान होना अभी शेष है। डॉ. विन्सैण्ट ए. स्मिथ की मान्यता है कि लिच्छवी मूलत: तिब्बती थे। डॉ. विद्याभूषण मानते हैं कि लिच्छवि पर्शियन थे। वे अपने मूल निवास स्थान निसिबी' (Nisibi) से निकलकर भारत और तिब्बत में बस गये। डॉ. हौजसन (Hodgson) का मत है कि से सीथियन थे। 'वैजयन्ती कोष' में वर्णन मिलता है कि एक क्षत्रिय-कुमारी का विवाह व्रात्य के साथ हुआ, जो 'लिच्छवी' था। अमरसिंह, हलायुध, हेमचन्द्र आदि के अनुसार वे 'क्षत्रिय' और 'व्रात्य' थे। वोटलिंग (Bothlingk), रोथ (Roth) और मौनियर विलियम्स का अभिमत है कि ये लोग राजवंशी थे। मि. दुल्वा (Dulva) ने सिद्ध किया है कि लिच्छवी क्षत्रिय थे। उन्होंने बौद्ध-ग्रन्थों का एक अवतरण इसकी पुष्टि में दिया है जब मौग्गलायन भिक्षा के लिए वैशाली में प्रविष्ट हुए, उस समय लिच्छवी मगधसम्राट् अजातशत्रु का प्रतिरोध करने के लिए बाहर निकल रहे थे। लिच्छिवियों ने भक्तिपूर्वक उनसे पूछा- "भगवान् ! हमलोग अजातशत्रु के विरुद्ध इस युद्ध में विजयी होंगे या नहीं?" मौग्गलायन ने उत्तर दिया-“हे वशिष्ठगोत्रियो ! तुम्हारी विजय होगी।" इससे सिद्ध होता है कि लिच्छवी क्षत्रिय थे; क्योंकि वशिष्ठगोत्रीय क्षत्रिय होते थे। . दीघनिकाय' के महापरिनिव्वाणसुत्त में आया है कि बुद्ध के निर्वाण होने पर उनके अवशेष प्राप्ति के लिए लिच्छिवियों ने दावा किया और कहा कि हम भी भगवान् की जाति के हैं— . “भगवं पि खत्तिओ, मायं पि खत्तिया।" सम्पूर्ण जैन-दिगम्बर साहित्य में महावीर और उनके पिता तथा माता को क्षत्रिय बताया है। वे ज्ञातवंशी लिच्छवि क्षत्रिय थे। जैन-वाङ्मय के अनुशीलन से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि लिच्छिवी कहीं बाहर से आकर यहाँ नहीं बसे थे, अपितु यहीं के मूल-निवासी थे। 00 64 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिच्छवियों के स्वभाव, शील, रहन-सहन, उनके रीति-रिवाज आदि के सम्बन्ध में किसी एक ग्रन्थ में पूरा वर्णन नहीं मिलता है; बल्कि विभिन्न बौद्ध ग्रन्थों और जैनागमों में बिखरा हुआ विवरण प्राप्त होता है। उस सबको संकलित करने पर लिच्छवियों की कुछ स्पष्ट - तस्वीर बन सकती है । वैशाली के लिच्छवी युवक स्वतन्त्रताप्रिय, मनमौजी, सुन्दर और जीवनरस से लबालब भरे हुए थे । सुन्दर वस्त्र पहनते थे तथा अपने रथों को तेज चलाते थे । बुद्ध ने भी एक बार अपने भिक्षुओं से कहा था कि “जिन्होंने 'त्रायस्त्रिंश' के देवता न देखे हों, वे इन लिच्छवियों को देख लें। " लिच्छवियों की वेशभूषा के सम्बन्ध में बौद्धग्रन्थ 'ललितविस्तर' 'महावस्तु' में बड़ा रोचक - वर्णन मिलता है। उससे ज्ञात होता है कि लिच्छवी लोगों को नयनाभिराम और पंचरंगी वेशभूषा अधिक प्रिय थी। वे लोग अरुणाभ, पीताभ, श्वेताभ, हरिताभ और नीलाभ वस्त्र पहनकर जब बाहर निकलते थे, तो उनकी शान और शोभा देखते ही बनती थी । जो लोग अरुणाभ वस्त्र पहने थे, उनके घोड़े, लगाम, चाबुक, अलंकार, मुकुट, छत्र, तलवार की मूँठ पर लगी मणियाँ, पादुका और हाथ की पंखी तक लाल होती थीं। इससे लगता है कि लिच्छवी कितने शौकीन, रंगीन मिजाज़, फैशनपरस्त और अभिरुचि - सम्पन्न थे । उनका जीवन अत्यन्त सुरुचिपूर्ण और उल्लासमय था। लिच्छवी उत्सवप्रिय थे। उनके यहाँ सदा कोई न कोई उत्सव ही रहता था । 'शुभरात्रिका - उत्सव' में खूब गीत-नृत्य होते थे, वाद्य-यन्त्र बजाये जाते थे, पताकायें फहरायी जाती थीं । राजा, सेनापति, युवराज सभी इसमें सम्मिलित होते थे और सारी रात मनोरंजन करते थे। वे ललितकला के बड़े शौकीन थे । चैत्य और उद्यान बनवाने का उन्हें बहुत शौक था । लिच्छवियों में परस्पर बड़ा प्रेम और सहानुभूति थी । यदि एक लिच्छवी बीमार पड़ जाता था, तो दूसरे लिच्छवी उसे देखने आते थे । किसी लिच्छवी के घर में कोई उत्सव होता, तो सभी लिच्छवि उसमें सम्मिलित होते थे। अगर कोई विदेशी राजा लिच्छवीभूमि में आता, तो सारे लिच्छवी उसके स्वागत को जाते । युवक वृद्धजनों की विनय करते थे । स्त्रियों के साथ बलात्कार नहीं होता था । वे प्राचीन धार्मिक-परम्पराओं का निर्वाह करते थे। सभी लिच्छवियों की धार्मिक-निष्ठा निर्ग्रन्थ दिगम्बर जैनधर्म के प्रति थी और वे उसका बराबर पालन करते थे । एक बार स्वयं बुद्ध ने वज्जीसंघ के सेनापति से कहा था--' - सिंह ! तुम्हारा कुल दीर्घ-काल से निग्गंठो (निर्ग्रन्थों) के लिए प्याऊ की तरह रहा है।' किन्तु वे लोग इतने उदार भी थे कि वैशाली में बुद्ध, मक्खलीपुत्त गोशाल, संजय वेलट्ठपुत्त आदि जो भी तीर्थिक आते थे, उनके प्रति भी वे सम्मान प्रकट करते थे, उनके भोजन - निवास की व्यवस्था करते थे; किन्तु उनकी धार्मिक - श्रद्धा तो केवल णिग्गंठणायपुत्त महावीर के प्रति ही थी । प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक ☐☐ 65 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाली के राजकुमार -डॉ. देवेन्द्र 66 कुमार भगवान् महावीर के 2500 वें परिनिर्वाण - महोत्सव के सुअवसर पर भगवान् महावीर के सम्बन्ध में बहुआयामी दृष्टि से अनेकों विधाओं में साहित्य-सृजन किया गया था । उसी प्रसंग में कहानीपरक पुस्तकें भी प्राचीन आगम-ग्रन्थों के आधार पर जैनसमाज के प्रतिष्ठित विद्वानों ने तब लिखी थीं । ऐसे ही एक मनीषी की कथात्मकक- कृति से यह अंश यहाँ प्रस्तुत है, जिसमें भगवान् महावीर और उनकी जन्मभूमि के बारे में प्ररूपण किया गया है। - सम्पादक शास्त्री शासन उन दिनों भारत के पूर्वीय क्षेत्रों में 'तन्त्र' तथा 'विग्रह' की प्रयोग - भूमि बन रहे थे । कहीं गणतन्त्रों के रूप में राज्य विकसित हो रहे थे, तो कहीं अनेक एकतन्त्री राजवंश अपना-अपना मस्तक ऊँचा करने में लगे हुए थे। कहीं छोटे-छोटे राज्य हिंसा तथा विग्रह की अग्नि में झुलस रहे थे। वे एक-दूसरे को अपने-अपने अधिकार में लेने के लिए सतत सचेष्ट रहते थे। पराजय तथा अपमान की चिनगारियाँ प्राय: बरसने के लिए कोई-न-कोई अवसर की प्रतीक्षा में रहती थीं। इसलिये छोटी-छोटी बातों को लेकर प्राय: युद्ध भड़क जाया करते थे। एकतन्त्री-राजवंशों में तनाव बना रहता था । सामंजस्य की कोई भूमिका ही नहीं थी । वैशाली का गणतन्त्र अपने युग में सबसे अधिक प्रसिद्ध था। उसकी गौरव-गरिमा सागर के उस पार सुदूर पारस्य, मिस्र, चीन और यवन - देशों तक फैल चुकी थी । दूर - देशान्तरों के जलपोत 'ताम्रलिप्ति पत्तन' पर आकर रुकते थे, जिनमें विश्व के अनेक भागों के बहुमूल्य वस्तु-स् - सम्पदा वैशाली की पण्यय-वीथियों में बिकने के लिए आती थी । वैशाली की आपणों (दुकानों) पर संसार की प्रत्येक वस्तु बिक्री के लिए आती रहती थी। सभी प्रकार के पारखी और अभिरुचि के लोग वहाँ निवास करते थे । देश में उस समय छोटे-बड़े या 'संघराज्य' भी कहते थे। वैशाली मल्ल, लिच्छवी, वज्जी, एवं ज्ञातृ आदि आठ - गणतन्त्रों का एक संयुक्त संघ था, जिसे 'वज्जिसंघ' या 'लिच्छवी संघ' भी कहा गया है । वज्जिसंघ की राजधानी 'वैशाली' थी । भारतीय पूर्व-अंचल में एक ओर मल्ल, लिच्छवी तथा शाक्य एवं यौधेय आदि गणतन्त्र प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर-विशेषांक Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी समृद्धि पर थे; तो दूसरी ओर मगध, वत्स, कौशल, आदि राजतन्त्र भी अपनी यशस्विता के शिखर पर पहुँच रहे थे। वज्जिसंघ' की स्थापना कई गणराज्यों ने मिलकर की थी। वैशाली की संघीय-व्यवस्था बहुत कुछ प्रजातन्त्रात्मक थी। जनता अपना मत देने और मनवाने के लिए स्वतन्त्र होती थी। मत देने की एक पद्धति थी। शासक की सर्वोच्च-सत्ता केन्द्रीय समिति के अधीन रहती थी। विभिन्न-गणराज्यों में केन्द्रीय समिति की सदस्य-संख्या भिन्न-भिन्न थी। यौधेयों की समिति में पाँच सहस्र और लिच्छवि-संघ में सदस्यों की संख्या सात हजार सात सौ सात थी। समिति का संगठन 'संथागार' में किया जाता था। लिच्छवि राजाओं के संथागार में प्रवेश करते ही गगनभेदी नारों से वैशाली गुंजायमान हो उठती थी। सबके अपने अलग-अलग पद और अधिकार थे। सभी एक अनुशासन में आबद्ध थे। अपने नियत-स्थान और निश्चित-कार्य के प्रति सभी सजग तथा सावधान रहते थे। गणराज्य की शासन-व्यवस्था में मन्त्रियों की संख्या निश्चित नहीं थी। केन्द्रीय-समिति से निर्देशित एवं अनुमोदित मन्त्रियों की संख्या सामान्यत: चार से लेकर बीस तक होती थी। लिच्छवि-विदेह की राज्य-परिषद् में सदस्यों की संख्या अट्ठारह थी। मल्लों की मन्त्रि-परिषद् में केवल चार ही मन्त्री थे, जबकि लिच्छवियों की मन्त्रि-परिषद् में नौ सदस्य थे। गणराज्य में स्वायत्त-शासन को महत्त्व दिया जाता था। उसमें न्याय-व्यवस्था पर्याप्त संगठित थी। शासन-व्यवस्था को सुचारुरूप से संचालित करने के लिए प्राय: वैशाली के संथागार में संघ को आमन्त्रित किया जाता था, बैठक बुलाई जाती थी। संघ में विचार करने के लिए प्रस्तुत किए जाने वाले प्रस्तावों पर सदस्यों की स्वीकृति आवश्यक मानी जाती थी। सदस्यों की न्यूनतम उपस्थिति-संख्या निर्धारित थी। सदस्यों की गणना का कार्य गणपूरक देखता था। वह निश्चित संकेतों से सबको अवगत कराता था। सदस्यों की संख्या नियत से कम होने पर विषय-प्रस्ताव अगली बैठक तक के लिए स्थगित हो जाते थे। सदस्य प्राय: अपनी स्वीकृति मौन होकर प्रदान करते थे। विरोध प्रकट करने के लिए सदस्य को बोलना पड़ता था। यदि किसी कारणवश कोई सदस्य संघ की बैठक में उपस्थित नहीं हो पाता था, तो उसका मत प्राप्त करने की व्यवस्था थी। मत का संग्रह सामान्यरूप से शलाका के प्रयोग के रूप में किया जाता था। शलाका का ग्रहण तीन तरह से होता था—गुप्तरूप से, धीरे से कान में कहकर और छन्द (वोट) प्रदान कर। यदि समिति किसी निर्णय को लेने में असमर्थ रहती थी, तो उसका निर्णय संघ में किया जाता था। इसप्रकार एक सुन्दर संघ-प्रणाली वैशाली में प्रचलित थी।.. . एक बार रात्रि के अन्तिम प्रहर से ही वैशाली रत्नप्रभाओं से आलोकित हो रही थी। स्थान-स्थान पर प्रकाश की प्रभा विकीर्ण हो रही थी। सौन्दर्य के अपूर्व विग्रह में मानों कामदेव ने अवतार लिया हो। अग-जग के आनन में प्रफुल्लता और उत्साह लक्षित हो रहा प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 67 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था। वर्द्धमान के ऊषाकालीन अनुराग से रंजित दिनकर के समान दिव्य-सौन्दर्य के दर्शन के लिए आज भोर से ही धरती और आकाश संभी अपने वैभव के साथ वैशाली में उत्कंठित हो रहे थे। प्रकृति एक अद्वितीय पुलकन को भर रही थी। सभी ओर देव-दुन्दुभियाँ गुंजायमान हो रही थीं। अन्तरिक्ष में देव-देवांगनाओं की समकोण पंक्तियाँ दिव्य वाद्यों के मध्य जय-जयकार के साथ पुष्प-वृष्टि करती हुईं तुमुलनाद कर रही थीं। कहीं नृत्य-गान हो रहा था, तो कहीं अनन्त-रंगों की विभा चित्त को चमत्कृत करती हुई विभिन्न-रूपों में भास्वरित हो रही थी। ____ क्षत्रिय-कुण्डपुर' का 'नन्द्यावर्त' प्रासाद चारों ओर से सुवासित-पुष्पों से आवृत्त एक नई शोभा को धारण कर रहा था। प्रासाद की अमल धवलता अपने अन्तहीन-नयनों से झाँक रही थी। अनन्त-विराट की नीलिमा के आर-पार सौधर्म इन्द्र का विशाल-परिकर तथा शत-सहस्र, सुर-असुर निकरों का समवाय उमड़ता हुआ चला आ रहा था। गगनभेदी- स्वर मुखरित होने लगे थे। निश्चेष्ट प्रकृति अपनी अलस-तन्द्रा को भंग कर अंगड़ाई लेने लगी थी। उसके विस्तीर्ण-आनन पर उल्लास की एक विकस्वर-आभा लक्षित होने लगी थी। सौधर्मेन्द्र ऐरावत गजराज पर आसीन होकर हर्ष से उछलता हुआ वैशाली में अवतरण कर रहा था । गजराज किलकारी भरता हुआ महादेवी त्रिशला के प्रकोष्ठ पर प्रणिपात करता है। शची ने वातायन के पथ से कक्ष में प्रविष्ट हो माता को अवस्वापिनी-निद्रा में लीन कर ज्योतिर्मान-बालक को अपनी बाँहों में भरकर बाहर ले आयी है, मानो निद्रा के गर्भ में प्रसुप्त अनन्त-प्रकृति जागरण की किरणों को प्रकट कर दिग्दिगन्तों में व्याप्त कर रही हो । शची का अंग-अंग अपूर्व-पुलकन से रोमांचित हो जाता है। इन्द्र भी नतमस्तक हो उमंग से भर कर उस ज्योतिपुञ्ज को अपने अंक में भर लेता है। इन्द्र किसी आनन्द के पारावार में निमज्जित हो जाता है। अपने सहस्र-नयनों से भी वह उस त्रिलोकव्यापिनी दिव्य-आभा को नहीं बाँध पाता है। सुर, शक्रेन्द्र उसे ज्यों-ज्यों निहारते जाते हैं, त्यों-त्यों लावण्य की गतिशीलता प्रतिसमय चमत्कार उत्पन्न करती जाती है। उस समय अनन्त-प्रकृति भी उसे निहारती ही रह जाती है। सभी के नयन अतृप्त रूप-निधि के सागर में तिरते रह जाते हैं। सुवासित मन्द-समीर के प्रवाह से वातावरण में एक नवीन-चेतना का प्रसार होने लगता है। सौधर्मेन्द्र गजराज पर आरूढ हो शिशु को अपने अंत में विराजित कर सुरगिरि के लिए प्रस्थान करता है। एक विशाल उत्सव-यात्रा आरम्भ हो जाती है। गगन-पटलों से मंगल निनाद मुखरित होने लगता है। चारों ओर मंगल-गीत सुनाई पड़ने लगते हैं। विपुल वाद्य-निर्घोष और मंगल-रवों से संकुल आकाश-मार्ग प्रतिध्वनित हो उत्कण्ठित जान पड़ता है। ईशानेन्द्र विभु पर श्वेत आतपत्र की भाँति छत्र ताने हुए गर्व का अनुभव करते हैं। सनत्कुमार और माहेन्द्र अत्यन्त उज्ज्वल चँवर अपनी विस्तृत कर-शाखाओं में सम्हाले हुए 00 68 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक ___ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डुलाते हैं। असंख्य प्राणियों के नेत्र भगवान् को देखने के लिए उत्सुक हो जाते हैं। __'नन्दन-वन' की सान्द्र, सुरभित वीथियों से अलंकृत एवं शीतल अमृत-सरोवरों से आप्लावित पाण्डुक-वन' में प्रविष्ट हो देव-देवांगनाओं के रथ स्थिर हो जाते हैं। अन्तरिक्ष में भाँति-भाँति के नृत्य होने लगते हैं। विद्याधर, खेचर, नरदेव आदि प्रभु के यथाजातरूप देखने को लालायित हो उठते हैं। सौधर्मेन्द्र अत्यन्त सावधानी के साथ अपने सुकुमार-करों से शिशु को अर्द्धचन्द्राकार-शिला पर अवस्थित रत्नजटित सिंहासन पर विराजमान करता है। इतने में ही लौकान्तिक-देव क्षीरसमुद्र जाकर एक हजार आठ कलशों में निर्मल तथा पवित्र जल भर लाते हैं। सर्वप्रथम सौधर्मेन्द्र रत्नकाय स्वर्णाभ-कलश को थामकर शिशु पर जलधारा करने के लिए उद्यत होता है, किन्तु किसलय को भी तिरस्कृत करनेवाली सुकुमारता को लक्षित कर मन विचलित हो उठता है। परन्तु शिशु-प्रभु के अपरिमित बल को देखकर इन्द्र का संशय दूर हो जाता है। काल की अखण्ड-गति की भाँति एक हजार आठ सौ कलशों की जलधारा सतत प्रभु के ऊपर प्रवहमान रहती है। जय-जयकार के साथ शत-सहस्र इन्द्र-माहेन्द्र तथा लौकान्तिकदेव प्रभु का अभिषेक करते हैं। उस समय केवल पृथ्वीतल पर ही नहीं, गगन में और तिर्यक दिशाओं में भी जय-जय ध्वनि का निर्घोष अनुगंजित हो जाता है। जड़-चेतन सभी लोकाकाश में किसी अनोखी समाधि में लीन होने लगते हैं। केवल एक अव्यक्त सत्, चिदाकाश चेतना का सहज उल्लास अपार्थिवता का दिव्य सौन्दर्य लक्षित होने लगता है। इन्द्र-माहेन्द्र भी क्षणभर के लिए किसी गहन ध्यान-समाधि में लीन हो जाते हैं। कुछ क्षणों के पश्चात् सौधर्मेन्द्र शिशु-प्रभु की स्तुति करता है-“हे भगवन् ! आपकी आत्मा निर्मल है। आपका यह शरीर विशुद्ध शान्ति के परमाणुओं से निर्मित है। अतएव संसार के अशुद्ध-जल से हम लोग आपकी क्या शुद्धि कर सकते हैं? हे त्रिभुवन के सौन्दर्य सार ! आपके समान विशुद्ध लावण्य कहाँ है? आपकी इस काया से वीतरागता झाँक रही है। ____ शची प्रभु के पारदर्शी अंगों पर स्थित जल-बिन्दुओं को बार-बार पोंछती है। किन्तु वह ज्यों-ज्यों कपाल-स्थित जल-बिन्दुओं को पोंछने की चेष्टता करती है, त्यों-त्यों अपने को निराश पाती है। अन्त में वह जान जाती है कि उसके आभूषणों का प्रतिबिम्ब जल-बिन्दुओं की भ्रान्ति उत्पन्न कर रहा है। इतने में ही सौधर्मेन्द्र की दृष्टि शिशु के पग के दाहिने अंगुष्ठ पर पड़ती है। उसमें मृगेन्द्र का लांछन देखकर वह शिशु का नाम वर्द्धमान' और उनका परिचय-चिह्न 'सिंह' घोषित करता है। महोत्सव का विशाल-समूह एक बार पुनः जय-जयकार से तीनों लोकों को गुंजा देता है। शची सुरुचि के साथ यथायोग्य प्रसाधनों से तथा वस्त्र-भूषा से शिशु को अलंकृत कर माता को सौंपने के लिए ले जाती है। अपनी माया से महारानी को सचेत कर उनकी स्तुति करती है :- “हे जगन्माता ! तुम धन्य हो। तुम्हारा यह पुत्र विश्व का कल्याण करेगा। संसार में संख्यात मातायें बालक को जन्म देती हैं, किन्तु जिस प्रकार प्राची-दिशा ही 0069 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवन - भास्कर को जन्म देती है, उसीप्रकार से आपने इसे जन्म दिया है । अतएव आपके समान भाग्यशालिनी अन्य माता नहीं है ।” तदनन्तर सब देवों से परिवृत्त इन्द्र ने 'नन्द्यावर्त' के प्रासाद के अलिन्द में ही राजा सिद्धार्थ का बहुत सम्मान किया । रत्न- पन्नाजटित वस्त्राभूषणों को इन्द्र स्वयं उन्हें प्रदान करता है । पुन: एक उत्सव मनाया जाता है । इन्द्र उस उत्सव में एक नृत्य-नाटिका प्रस्तुत करता हुआ 'आनन्द' नामक अभिनय को प्रकट करता है । अन्त में वर्द्धमान को प्रणाम कर इन्द्र सभी देवताओं के साथ अपने निवास स्थान पर चला जाता है । प्राचीन 'वज्जि गणतन्त्र' की राजधानी 'वैशाली' में कई दिनों तक लगातार महोत्सव मनाये गये। प्रजा ने अत्यन्त हर्षोल्लास के साथ जन्मोत्सव मनाया। दूर-दूर से कई देशों के राजा इस उत्सव में सम्मिलित हुए थे, जिनमें प्रतापशाली कलिंगनरेश जितशत्रु भी थे । लिच्छवि की नौ उपजातियों ने मिलकर अत्यन्त प्रभावक - महोत्सव मनाकर मानो अपने गौरव-गान को ही प्रकाशित किया था । दिन-प्रतिदिन लोग हर्ष से वृद्धिंगत होते जा रहे थे । राज्य में विपुल, धन, ऐश्वर्य, सम्पदा तथा धान्य की वृद्धि होती जा रही थी । अतः सभी को यह विश्वास हो गया कि महाराजा सिद्धार्थ के तनय का 'वर्द्धमान' नाम सार्थक है । 'नाथकुल' के नाम राजा सिद्धार्थ भी अपने आपको गौरवशाली समझने लगे । 'वैजयन्त' प्रासाद में नगर की सौभाग्यवती ललनायें महिलाओं के परिकर से वृ मंगल-गीतों के साथ बधावा देने में रात-दिन तन्मय लक्षित हो रही थीं । एक विशिष्ट अनुभूति तथा वातावरण से वैशाली नगरी परिव्याप्त थी । वैशाली के जीवन में ऐसा स्वर्ण-महोत्सव इसके पूर्व कभी नहीं मनाया गया था । असंख्य नर-नारियों के आवागमन से पण्य-वीथियाँ संकुल दिखलाई पड़ रही थीं । घर-घर में प्रभु के जन्म की चर्चा एक नवीन हर्ष तथा उल्लास को विकीर्ण कर रही थी । वैशाली से भी दूर-दूर वन - प्रान्तरों में तथा देश-देशान्तरों में शिशु वर्द्धमान का जन्म और अलौकिक महिमाशाली महोत्सव अपनी-अपनी भाषा में चर्चा का विषय बन गया था । वैशाली के आनन्द - साम्राज्य का तो कोई पार ही नहीं - (साभार उद्धृत — तीर्थंकर महावीर; पृष्ठ 64-65 एवं पृष्ठ 40-43 प्रकाशक - श्री वीर निर्वाण महोत्सव समिति, इन्दौर) था । सम्यग्दर्शन की महिमा किं कुर्वन्तीह विषया मानस्यो वृत्तयस्तथा । आधयो व्याधयो वापि सम्यग्दर्शनसन्मतेः । । अर्थ :- जिसे सम्यग्दर्शनरूप सद्बुद्धि प्राप्त हो गई है, उसके लिए विषय तथा मानसिक वृत्तियाँ, आधियाँ और व्याधियाँ क्या कर सकती हैं ? ☐☐ 70 प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाली-गणतन्त्र - श्री राजमल जैन भगवान् महावीर का जन्म वैशाली का गणतन्त्रीय-व्यवस्था में हुआ था । वह व्यवस्था कैसी थी? उसके क्या नियम-उपनियम थे, वे कैसे व्यवहार में आते थे तथा उनका क्या महत्त्व था इन सबका संक्षिप्त, किंतु सशक्त परिचय इस आलेख में विद्वान् लेखक ने प्रभूतश्रम एवं गहन अनुसंधानपूर्वक दिया है। –सम्पादक वैशाली-गणतन्त्र के वर्णन के बिना जैन-राजशास्त्र का इतिहास अपूर्ण ही रहेगा। वैशाली-गणतन्त्र के निर्वाचित राष्ट्रपति ('राजा' शब्द से प्रसिद्ध) चेटक की पुत्री त्रिशला भगवान् महावीर की पूज्या माता थी। भगवान् महावीर के पिता सिद्धार्थ वैशाली के 'कुण्डग्राम' के शासक थे। अत: महावीर भी वैशालिक' अथवा वैशालिय' के नाम से प्रसिद्ध थे। भगवान् महावीर ने संसार-त्याग के पश्चात् 42 चातुर्मासों में से छ: चातुर्मास वैशाली में किये थे। महात्मा बुद्ध एवं वैशाली: इसका यह तात्पर्य नहीं कि केवल महावीर को ही वैशाली प्रिय थी। इस गणतन्त्र तथा नगर के प्रति महात्मा बुद्ध का भी अधिक स्नेह था। उन्होंने कई बार वैशाली में विहार किया था तथा चातुर्मास बिताए । निर्वाण से पूर्व जब बुद्ध इस नगर में से गुजरे, तो उन्होंने पीछे मुड़कर वैशाली पर दृष्टिपात किया और अपने शिष्य आनन्द से कहा, "आनन्द ! इस नगर में यह मेरी अन्तिम यात्रा होगी।" यहीं पर उन्होंने सर्वप्रथम भिक्षुणी-संघ की स्थापना की तथा आनन्द के अनुरोध पर गौतमी को अपने संघ में प्रविष्ट किया। एक अवसर पर जब बुद्ध को लिच्छिवियों द्वारा निमन्त्रण दिया गया, तो उन्होंने कहा—“हे भिक्षुओं ? देव-सभा के समान सुन्दर इस लिच्छवि-परिषद् को देखो। ___महात्मा बुद्ध ने वैशाली-गणतन्त्र के आदर्श पर भिक्षु-संघ की स्थापना की। भिक्षु-संघ के 'छन्द' (मतदान) तथा दूसरे प्रबन्ध के ढंगों में लिच्छवि (वैशाली) गणतंत्र का अनुकरण किया गया है।" – (द्र. राहुल सांकृत्यायन-पुरातत्व-निबन्धावली, पृष्ठ 12)। यद्यपि बुद्ध शाक्य-गणतन्त्र से सम्बद्ध थे, (जिसके अध्यक्ष बुद्ध के पिता शुद्धोदन थे), तथापि उन्होंने प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 71 • Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाली-गणतन्त्र की पद्धति को अपनाया। हिन्दू-राजशास्त्र के विशेषज्ञ श्री काशीप्रसाद जायसवाल के शब्दों में “बौद्ध-संघ ने राजनैतिक-संघों से अनेक बातें ग्रहण की। बुद्ध का जन्म गणतन्त्र में हुआ था। उनके पड़ोसी गणतन्त्र-संघ थे और वे उन्हीं लोगों में बड़े हुए। उन्होंने पर संघ का नामकरण 'भिक्षु-संघ' अर्थात् भिक्षुओं का गणतन्त्र किया। अपने समकालीन गुरुओं का अनुकरण करके उन्होंने अपने धर्म-संघ की स्थापना में गणतन्त्र संघों के नाम तथा संविधान को ग्रहण किया। पालि-सूत्रों में उद्धृत बुद्ध के शब्दों के द्वारा राजनैतिक तथा धार्मिक संघ-व्यवस्था का सम्बन्ध सिद्ध किया जा सकता है। बौद्ध ग्रन्थ एवं वैशाली : इसप्रकार यह स्पष्ट है कि वैशाली-गणतन्त्र के इतिहास तथा कार्य-प्रणाली के ज्ञान के लिए हम बौद्ध-ग्रन्थों के ऋणी हैं। विवरणों की उपलब्धि के विषय में ये विवरण निराले हैं। सम्भवत: इसीकारण श्री जायसवाल ने इस गणतंत्र को विवरणयुक्त गणराज्य' (Recorded Republic) शब्द से सम्बोधित किया है। क्योंकि अधिकांश गणराज्यों का अनुमान कुछ सिक्कों या मुद्राओं से या पाणिनीय व्याकरण के कुछ सूत्रों में अथवा कुछ ग्रन्थों में यत्र-तत्र उपलब्ध संकेतों से किया गया है। इसीकारण विद्वान् लेखक ने इसे 'प्राचीनतम गणतन्त्र' घोषित किया है, जिसके लिखित-साक्ष्य हमें प्राप्त हैं और जिसकी कार्य-प्रणाली की झाँकी हमें महात्मा बुद्ध के अनेक संवादों में मिलती है। __वैशाली-गणतन्त्र का अस्तित्व कम से कम 2600 वर्ष पूर्व रहा है। 2500 वर्ष पूर्व भगवान् महावीर ने 72 वर्ष की आयु में निर्वाण प्राप्त किया था। यह स्पष्ट ही है कि महावीर वैशाली के अध्यक्ष चेटक के दौहित्र थे। महात्मा बुद्ध महावीर के समकालीन थे। बुद्ध के निर्वाण के शीघ्र पश्चात् बुद्ध के उपदेशों को लेख-बद्ध कर लिया गया था। वैशाली में ही बौद्ध-भिक्षुओं की दूसरी संगीति का आयोजन (बुद्ध के उपदेशों के संग्रह के लिए) हुआ था। - वैशाली-गणतन्त्र से पूर्व (छठी शताब्दी ई०पू०) क्या कोई गणराज्य था? वस्तुत: इस विषय में हम अंधकार में हैं। विद्वानों ने ग्रंथों में यत्र-तत्र प्राप्त शब्दों से इसका अनुमान लगाने का प्रयत्न किया है। वैशाली से पूर्व किसी अन्य गणतन्त्र का विस्तृत-विवरण हमें उपलब्ध नहीं है। बौद्ध-ग्रंथ 'अंगुत्तर निकाय' से हमें ज्ञात होता है कि ईसापूर्व छठी शताब्दी से पहले निम्नलिखित सोलह महाजनपद' थे— 1. काशी, 2. कोसल, 3. अंग, 4. मगध, 5. वज्जि (वृजि), 6. मल्ल, 7. चेतिय (चेदि), 8. वंस (वत्स), 9. कुरु, 10. पंचाल, 11. मच्छ (मत्स्य), 12. शूरसेन, 13. अस्सक (अश्मक), 14. अवन्ति, 15. गन्धार, 16. कम्बोज । इनमें से 'वज्जि' का उदय विदेह-साम्राज्य के पतन के बाद हुआ। ___ जैन-ग्रंथ 'भगवती सूत्र' में इन जनपदों की सूची भिन्नरूप में है, जो निम्नलिखित है1. अंग, 2. वंग, 3. मगह (मगध), 4. मलय, 5. मालव (क), 6. अच्छ, 7. वच्छ (वत्स), 8. कोच्छ (कच्छ?), 9. पाढ (पाण्ड्य या पौड्र), 10. लाढ (लाट या राट), 11. वज्जि 00 72 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वज्जि), 12. मौलि (मल्ल), 13. काशी, 14. कोसल, 15. अवाह, 16. सम्मुत्तर (सुम्भोत्तर?)। अनेक विद्वान् इस सूची को उत्तरकालीन मानते हैं, परन्तु यह सत्य है कि उपर्युक्त सोलह जनपदों में काशी, कोशल मगध, अवन्ति तथा वज्जि सर्वाधिक शक्तिशाली थे। वैशाली गणतन्त्र की रचनाः ‘वज्जि' नाम है एक महासंघ का, जिसके मुख्य अंग थे—ज्ञातृक, लिच्छिवि एवं वृजि। ज्ञातृकों से महावीर के पिता सिद्धार्थ का सम्बन्ध था (राजधानी-कुण्डग्राम) लिच्छवियों की राजधानी वैशाली की पहचान बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में स्थित बसाढ़'-ग्राम से की गई है। वृजि' को एक कुल माना गया है, जिसका सम्बन्ध वैशाली से था। इस महासंघ की राजधानी भी वैशाली' थी। लिच्छवियों के अधिक शक्तिशाली होने के कारण इस महासंघ का नाम लिच्छवि-संघ' पड़ा। बाद में, राजधानी वैशाली की लोकप्रियता से इसका भी नाम वैशाली-गणतन्त्र' हो गया। वज्जि एवं लिच्छवि: बौद्ध-साहित्य से यह भी ज्ञात होता है कि वज्जि-महासंघ में अष्ट-कुल (विदेह, ज्ञातृक, लिच्छवि, वृजि, उग्र, भोग, कौरव तथा ऐक्ष्वाकु) थे। इनमें भी मुख्य थे—वृजि तथा लिच्छवि। बौद्धदर्शन तथा प्राचीन भारतीय भूगोल के अधिकारी विद्वान् श्री भरतसिंह उपाध्याय ने अपने ग्रंथ (बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 383-84 द्र. हिन्दी-साहित्य सम्मेलन प्रयाग, संवत् 2018) में निम्नलिखित मत प्रगट किया है— “वस्तुत: लिच्छवियों और वज्जियों में भेद करना कठिन है, क्योंकि वज्जि न केवल एक अलग जाति के थे, बल्कि लिच्छवि आदि गणतन्त्रों को मिलाकर उनका सामान्य-अभिधान वज्जि-संघ' की ही राजधानी वैशाली' थी; जो कि वज्जियों, लिच्छवियों तथा अन्य सदस्य-गणतन्त्रों की सामान्य-राजधानी भी थी। एक अलग- जाति के रूप में वज्जियों का उल्लेख पाणिनि ने किया है और कौटिल्य ने भी उन्हें लिच्छवियों से पृथक् बताया है। यूआन चूआइ ने भी वज्जि' (फु-लि-चिह) देश और वैशाली' (फी-शे-ली) के बीच भेद किया है, परन्तु पालि-त्रिपिटक के आधार पर ऐसा विभेद करना सम्भव नहीं है। 'महापरिनिर्वाण-सूत्र' में बुद्ध कहते हैं, “जब तक वज्जि लोग सात अपरिहाणीय धर्मों का पालन करते रहेंगे, उनका पतन नहीं होगा।" परन्तु संयुत्त निकाय' के 'कलिंगर सुत्त' में कहते हैं, “जब तक लिच्छिवि लोग लकड़ी के बने तख्तों पर सोयेंगे और उद्योगी बने रहेंगे; तब तक अजातशत्रु उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। “इससे प्रगट होता है कि महात्मा बुद्ध वज्जि' और 'लिच्छवि' शब्दों का प्रयोग पर्यायवाची-अर्थ में ही करते थे। इसीप्रकार विनय-पिटक' के 'प्रथम पाराजिक' में पहले तो वज्जि-प्रदेश में दुर्भिक्ष पड़ने की बात कही गई है। (पाराजिक पालि, पृष्ठ 19,श्री नालन्दा-संस्करण) और आगे चलकर वहीं (पृष्ठ 22 में) एक पुत्रहीन व्यक्ति को यह चिंता करते दिखाया गया है कि कहीं लिच्छवि उनके धन को न ले लें। इससे भी वज्जियों और लिच्छवियों की अभिन्नता प्रतीत होती है।" प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 1073 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वान् लेखक द्वारा प्रदर्शित इस अभिन्नता से मैं सहमत हूँ। इस प्रसंग में वज्जि' से बुद्ध का तात्पर्य लिच्छवियों से भी था और इसी आधार पर वज्जि-संबंधी बुद्ध-वचनों की व्याख्या होनी चाहिए। अन्य ग्रंथों में उल्लेख: पाणिनि (500 ई०पू०) और कौटिल्य (300 ई०पू०) के उल्लेखों से भी वज्जि (वैशाली, लिच्छवि) गणतन्त्र की महत्ता तथा ख्याति का अनुमान लगाया जा सकता है। पाणिनीय 'अष्टाध्यायी' में एक सूत्र है--- 'भद्रवृज्जयो: कन्' 4 12 131। इसीप्रकार, कौटिल्य ने 'अर्थशास्त्र' में दो प्रकार के संघों का अन्तर बताते हुए लिखा है-“काम्बोज, सुराष्ट्र आदि क्षत्रिय-श्रेणियाँ कृषि, व्यापार तथा शस्त्रों द्वारा जीवन-यापन करती हैं और लिच्छविक, वृजिक, मल्लक, मद्रक, कुकुर, कुरु, पञ्चाल आदि श्रेणियाँ राजा के समान जीवन बिताती ___'रामायण' तथा 'विष्णुपुराण' के अनुसार वैशाली नगरी' की स्थापना इक्ष्वाकु-पुत्र विशाल द्वारा की गई है। विशाल नगरी होने के कारण यह 'विशाला' नाम से भी प्रसिद्ध हुई। बुद्धकाल में इसका विस्तार नौ मील तक था। इसके अतिरिक्त, वैशाली, धन-धान्य-समृद्ध तथा जन-संकुल नगरी थी। इसमें बहुत से उच्च भवन, शिखरयुक्त प्रासाद, उपवन तथा कमल-सरोवर थे। (विनयपिटक एवं ललितविस्तर) बौद्ध एवं जैन दोनों धर्मों के प्रारम्भिक इतिहास से वैशाली का घनिष्ठ-सम्बन्ध रहा है। “ई०पू० पाँच सौ वर्ष पूर्व भारत के उत्तर पूर्व-भाग में दो महान् धर्मों के महापुरुषों' की पवित्र-स्मृतियाँ वैशाली में निहित हैं।" बढ़ती हुई जनसंख्या के दबाव से तीन बार इसका विस्तार हुआ। तीन दीवारें इसे घेरती थीं। तिब्बती-विवरण भी इसकी समृद्धि की पुष्टि करते हैं। तिब्बती-विवरण (सुल्व 3/80) के अनसार वैशाली में तीन जिले थे। पहले जिले में स्वर्ण-शिखरों से युक्त घर 7000 थे, दूसरे जिले में चाँदी के शिखरों से युक्त 14000 घर थे तथा तीसरे जिले में ताँबे के शिखरों से युक्त 21000 घर थे। इन जिले में उत्तम, मध्यम तथा निम्न वर्ग के लोग अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार रहते थे। (राकहिल लाइफ ऑफ बुद्ध, पृष्ठ 62)10 प्राप्त-विवरणों के अनुसार वैशाली की जनसंख्या 16800 थी। क्षेत्र एवं निवासी: जहाँ तक इसकी सीमा का सम्बन्ध है, गंगा नदी इसे मगध-साम्राज्य से पथक् करती थी। श्री रे चौधरी के शब्दों में, “उत्तर-दिशा में लिच्छवि-प्रदेश नेपाल तक विस्तृत था।" श्री राहुल सांकृत्यायन के अनुसार वज्जि-प्रदेश में आधुनिक चम्पारन तथा मुजफ्फरपुर जिलों के कुछ भाग, दरभंगा जिले का अधिकांश भाग, छपरा जिले के मिर्जापुर एवं परसा, सोनपुर पुलिस-क्षेत्र तथा कुछ अन्य-स्थान सम्मिलित थे।। वसाढ़ में हुए पुरातत्त्व-विभाग के उत्खनन से इस स्थानीय विश्वास की पुष्टि होती है 00 74 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि वहाँ राजा विशाल का गढ़ था । एक मुद्रा पर अंकित था – “वेशलि इनु... ... कारे सयानक।” जिसका अर्थ किया गया, "वैशाली का एक भ्रमणकारी-अधिकारी । ” इस खुदाई में जैन-तीर्थंकरों की मध्यकालीन - मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं । वैशाली की जनसंख्या के मुख्य अंग थे— क्षत्रिय । श्री रे चौधरी के शब्दों में "कट्टर हिन्दू-धर्म के प्रति उनका मैत्रीभाव प्रकट नहीं होता। इसके विपरीत, ये क्षत्रिय जैन, बौद्ध जैसे अब्राह्मणसम्प्रदायों के प्रबल पोषक थे । 'मनुस्मृति' के अनुसार, “झल्ल, मल्ल, द्रविड़, खस आदि के समान वे व्रात्य राजन्य थे । "" यह सुविदित है कि 'व्रात्य' का अर्थ यहाँ 'जैन' है, क्योंकि जैन साधु एवं श्रावक अहिंसा सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह – इन पाँच व्रतों का पालन करते हैं। 'मनुस्मृति' के उपर्युक्त श्लोकों में लिच्छवियों को 'निच्छवि' कहा गया है। कुछ विद्वानों ने लिच्छवियों को तिब्बती उद्गम' सिद्ध करने का प्रयत्न किया है; परन्तु यह मत स्वीकार्य नहीं है । अन्य विद्वान् के अनुसार लिच्छवि भारतीय क्षत्रिय हैं, यद्यपि यह एक तथ्य है कि लिच्छवि- गणतन्त्र के पतन के बाद वे नेपाल चले गये और वहाँ उन्होंने राजवंश स्थापित किया । 12 'लिच्छवि' शब्द की व्युत्पत्ति : जैनग्रंथों में लिच्छवियों को 'लिच्छई' अथवा 'लिच्छवि' कहा गया है। व्याकरण की दृष्टि से, 'लिच्छवि' शब्द की व्युत्पत्ति 'लिच्छु' शब्द से हुई है। यह किसी वेश का नाम रहा होगा । बौद्ध-ग्रंथ 'खुद्दकपाठ' (बुद्धघोषकृत) की 'अट्ठकथा' में निम्नलिखित रोचक कथा हैकाशी की रानी ने दो जुड़े हुए मांस - पिण्डों को जन्म दिया और उनको गंगा नदी में फिकवा दिया। किसी साधु ने उनको उठा लिया और उनका स्वयं पालन-पोषण किया । वे निच्छवि (त्वचा-रहित) थे। कालक्रम से उनके अंगों का विकसित हुआ और वे बालक-बालिका बन गये। बड़े होने पर वे दूसरे बच्चों को पीड़ित करने लगे, अत: उन्हें दूसरे बालकों से अलग कर दिया है। (वज्जितव्व- वर्जितव्य ) । इसप्रकार ये ' वज्जि' नाम से प्रसिद्ध हुए । साधु ने उन दोनों का परस्पर विवाह कर दिया और राजा से 300 योजन भूमि उनके लिए प्राप्त की। इसप्रकार उनके द्वारा शासित प्रदेश 'वज्जि - प्रदेश' कहलाया । " सात धर्म : मगधराज अजातशत्रु साम्राज्य विस्तार के लिए लिच्छवियों पर आक्रमण करना चाहता था। उनके अपने मंत्री वस्सकार ( वर्षकार ) को बुद्ध के पास भेजते हुए कहा—“हे ब्राह्मण ! महात्मा बुद्ध के पास जाओ और मेरी और से उनके चरणों में प्रणाम करो । मेरी ओर से उनके आरोग्य तथा कुशलता के विषय में पूछकर उनसे निवेदन करो कि वैदेही-पुत्र मगधराज अजातशत्रु ने वज्जियों पर आक्रमण का निश्चय किया है और मेरे ये शब्द कहो“वज्जि - गण चाहे कितने शक्तिशाली हों, मैं उनका उन्मूलन करके पूर्ण विनाश कर दूँगा।” इसके बाद सावधान होकर तथागत के वचन सुनो।" 13 और आकर मुझे बताओ । तथागत प्राकृतविद्या�जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक 00 75 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का वचन मिथ्या नहीं होता । अजातशत्रु के मंत्री के वचन सुनकर बुद्ध ने मंत्री को उत्तर नहीं दिया, बल्कि अपने शिष्य आनन्द से कुछ प्रश्न पूछे और तब निम्नलिखित 'सत्त अपरिहानि धम्मा' का वर्णन किया' 4__ अभिहं सन्निपाता सन्निपाता बहुला भविस्संति । हे आनन्द ! जब तक वज्जि पूर्णरूप से निरन्तर परिषदों के आयोजन करते अर्थ : रहेंगे । समग्गा सन्निपातिस्संति समग्गा वुट्ठ- हिस्संति समग्गा संघकरणीयानि करिस्संति । अर्थ :जब तक वज्जि संगठित होकर मिलते रहेंगे, संगठित होकर उन्नति करते रहेंगे तथा संगठित होकर कर्तव्य कर्म करते रहेंगें । अप्पज्ञंत न पज्जापेस्संति, पज्ञतं न समुच्छिन्दिस्संति - यथा, पज्ञतेषु सिक्खापदेसु समादाय वत्तस्संति । अर्थ : जब तक वे अप्रज्ञप्त (अस्थापित) विधाओं को स्थापित न करेंगे । स्थापित विधानों का उल्लंघन नहीं करेंगे तथा पूर्वकाल में स्थापित प्राचीन वज्जि-विधानों का अनुसरण करते रहेंगे । ये ते संघपितरो संघपरिणायका ते सक्करिस्संति गरु करिस्संति मानेस्संति पूजेस्संति सञ्च सोत्तब्नं मज्ञिस्संति । अर्थ :- जब तक वे वज्जि - पूर्वजों तथा नायकों का सत्कार, सम्मान, पूजा तथा समर्थन करते रहेंगे तथा उनके वचनों को ध्यान से सुनकर मानते रहेंगे । ये ते वज्जीनं वज्जिमहल्लका ते सक्करिस्संति, गुरु करिस्सन्ति मानेस्संति, पूजेस्संति, या ता कुलित्थियो कुलकुवारियों ता न आक्कस्स पसह्य वास्सेनित । अर्थ :• जब तक वे वज्जि - कुल की महिलाओं का सम्मान करते रहेंगे और कोई भी कुलस्त्री या कुल-कुमारी उनके द्वारा बलपूर्वक अपहृत या निरुद्ध नहीं की जायेंगी । वज्जि तियानि इमंतरानि चेव बाहिरानि च तानि सक्करिस्संति, गरु करिस्संति, मानेस्संति, पूजेस्संति, तेसञ्च दिन्नपुब्बं कतपुव्वं धाम्मिकं बलि नो परिहास्संति नो परिहापेस्संति । अर्थ जब तक वे नगर या नगर से बाहर स्थित - चैत्यों (पूजा-स्थलों) का आदर एवं सम्मान करते रहेंगे और पहले दी गई धार्मिक पूजा तथा पहले किये गये धार्मिक अनुष्ठानों की अवमानना न करेंगे। तथा वज्जीनं अरहंतेसु धम्मिका रक्खावरण-गुत्ति सुसंविहिता भविस्संति । जब तक वज्जियों द्वारा अरहन्तों को रक्षा, सुरक्षा एवं समर्थन प्रदान किया जायेगा; तब तक वज्जियों का पतन नहीं होगा, अपितु उत्थान होना रहेगा । " 076 प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर विशेषांक Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द को इसप्रकार बताने के बाद बुद्ध ने वस्सकार से कहा, "मैंने ये कल्याणकारी सात धर्म वज्जियों को वैशाली में बताये थे।" इस पर वस्सकार ने बुद्ध से कहा, हे गौतम ! इसप्रकार मगधराज वज्जियों को युद्ध में तब तक नहीं जीत सकते, जब तक कि वह कूटनीति द्वारा उनके संगठन को न तोड़ दें।" बुद्ध ने उत्तर दिया, “तुम्हारा विचार ठीक है।” इसके बाद वह मंत्री चला गया। - वस्सकार के जाने पर बुद्ध ने आनन्द से कहा- “राजगृह के निकट रहनेवाले सब भिक्षुओं को इकट्ठा करो।" तब उन्होंने भिक्षु-संघ के लिए निम्नलिखित सात धर्मों का विधान किया1. हे भिक्षुओं ! जब तक भिक्षु-गण पूर्ण रूप से निरन्तर परिषदों में मिलते रहेंगे। 2. जब तक वे संगठित होकर मिलते रहेंगे, उन्नति करते रहेंगे तथा संघ के कर्तव्यों का पालन करते हरेंगे। 3. जब तक वे किसी ऐसे विधान को स्थापित नहीं करेंगे, जिसकी स्थापना पहले न हई हो, स्थापित विधानों का उल्लंघन नहीं करेंगे तथा संघ के विधानों का अनुसरण करेंगे। 4. जब तक वे संघ के अनुभवी गुरुओं, पिता तथा नायकों का सम्मान तथा समर्थन करते रहेंगे तथा उनके वचनों को ध्यान से सुनकर मानते रहेंगे। 5. जब तक वे उस लोभ के वशीभूत न होंगे, जो उनमें उत्पन्न होकर दु:ख का करण बनता है। 6. जब तक वे संयमित जीवन में आनन्द का अनुभव करेंगे। 7. जब तक वे अपने मन को इसप्रकार संयमित करेंगे, जिससे पवित्र एवं उत्तम पुरुष उनके .. पास आयें और आकर सुख-शान्ति प्राप्त करें। ___ तब तक भिक्षु-संघ का पतन नहीं होगा, उत्थान ही होगा। जब तक भिक्षुओं में ये सात धर्म विद्यमान हैं, जब तक वे इन धर्मों में भली-भाँति दीक्षित हैं, तब तक उनकी उन्नति होती रहेगी। ___महापरिनिव्वान सुत्त' के उपर्युक्त उद्धरण से वैशाली-गणतन्त्र की उत्तम-व्यवस्था एवं अनुशासन की पुष्टि होती है। वैशाली के लिए विहित सात धर्मों को (कुछ परिवर्तित करके) बुद्ध ने अपने संघ के लिए भी अपनाया; इससे स्पष्ट है कि 2600 वर्ष पूर्व के प्राचीन गणतन्त्रों में वैशाली-गणतन्त्र श्रेष्ठ तथा योग्यतम था। लिच्छवियों के कुछ अन्य गुणों ने उन्हें महान् बनाया। उनके जीवन में आत्म-संयम की भावना थी। वे लकड़ी के तख्त पर सोते थे, वे सदैव कर्तव्यनिष्ठ रहते थे। जब तक उनमें ये गुण रहे, अजातशत्रु उनका बाल-बाँका भी न कर सका ।15 शासन-प्रणाली: लिच्छवियों के मुख्य अधिकारी थे राजा, उपराजा, सेनापति तथा भाण्डागारिक। इनमें प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 1077 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही संभवत: मन्त्रिमंडल की रचना होती थी। केन्द्रीय संसद का अधिवेशन नगर के मध्य स्थित ‘सन्थागार' (सभा-भवन) में होता था। शासन-शक्ति संसद के 7707 सदस्यों ('राजा' नाम से युक्त) में निहित थी। संभवत: इनमें से कुछ 'राजा' उग्र थे और एक-दूसरे की बात नहीं सुनते थे। इसीकारण ललितविस्तर'-काव्य में ऐसे राजाओं की मानो भर्त्सना की गई है—“इन वैशालिकों में उच्च, मध्य, वृद्ध एवं ज्येष्ठजनों के सम्मान के नियम का पालन नहीं होता। प्रत्येक स्वयं को 'राजा' समझता है। मैं राजा हूँ ! में राजा हूँ !' कोई किसी का अनुयायी नहीं बनता।17 इस उद्धरण से स्पष्ट है कि कुछ महत्त्वाकांक्षी-सदस्य गणराजा (अध्यक्ष) बनने के इच्छुक थे। संसत्सदस्यों की इतनी बड़ी संख्या से कुछ विद्वानों का अनुमान है कि वैशाली की सत्ता कुछ कुलों (7707) में निहित थी और इसे केवल 'कुल-तन्त्र' कहा जा सकता है। इस मान्यता का आधार यह तथ्य है कि 7707 राजाओं का अभिषेक एक विशेषतया सुरक्षित सरोवर (पुष्करिणी) में होता था।18 स्वर्गीय प्रो० आर०डी० भण्डारकर का निष्कर्ष था— “यह निश्चित है कि वैशाली-संघ के अंगीभूत कुछ कुलों का महासंघ ही यह गणराज्य था।” श्री जायसवाल तथा श्री अल्तेकर जैसे राजशास्त्रविदं इस निष्कर्ष से सहमत नहीं है। श्री जायसवाल ने 'हिन्दू राजशास्त्र' (पृष्ठ 44) में लिखा है— “इस साक्ष्य से उन्हें 'कुल' शब्द से सम्बोधित करना आवश्यक नहीं। छठी-शताब्दी ई०पू० के भारतीय-गणतन्त्र बहुत पहले समाज के जनजातीय स्तर से गुजर चुके थे। ये राज्य, गण और संघ थे, यद्यपि इनमें से कुछ का आधार राष्ट्र या जनजाति था; जैसाकि प्रत्येक राज्य-प्राचीन या आधुनिक का होता है। ___ डॉ० ए०एस० अल्तेकर का यह उद्धरण विशेषत: द्रष्टव्य है—यह स्वीकार्य है कि यौधेय, शाक्य, मालव तथा लिच्छवि गणराज्य आज के अर्थों में लोकतन्त्र नहीं थे। अधिकांश आधुनिक विकसित-लोकतन्त्रों के समान सर्वोच्च एवं सार्वभौम-शक्ति समस्त वयस्क-नागरिकों की संस्था में निहित नहीं थी। फिर भी इन राज्यों को हम 'गणराज्य' कह सकते हैं।... स्पार्टा ऐथेन्स, रोम, मध्ययुगीन वेनिस, संयुक्त नीदरलैण्ड और पोलैण्ड को 'गणराज्य' कहा जाता है; यद्यपि इनमें से किसी में पूर्ण-लोकतन्त्र नहीं था। इस सैद्धान्तिक-पृष्ठभूमि तथा ऐतिहासिक-साक्ष्य के आधार पर निश्चय ही प्राचीन भारतीय-गणराज्यों को उन्हीं अर्थों में गणराज्य कहा जा सकता है कि जिस अर्थ में यूनान तथा रोम के प्राचीन राज्यों को गणराज्य कहा जाता है। इन राज्यों में सार्वभौम-सत्ता किसी एक व्यक्ति या अल्पसंख्यक-वर्ग को न मिलकर बहुसंख्यक-वर्ग को प्राप्त थी।" 'महाभारत' में भी प्रत्येक घर में राजा' होने का वर्णन है।20 उपर्युक्त विद्वान् के मतानुसार, “इस वर्णन में छोटे गणराज्यों की तथा उन क्षत्रिय-कुलों की चर्चा है, जिन्होंने उपनिवेश स्थापित करके राजपद प्राप्त किया था। संयुक्त राज्य अमरीका में मूल उपनिवेश 00 78 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापकों को नवागन्तुकों की अपेक्षा कुछ विशेषाधिकार प्राप्त किये। - 'मलाबार गजटियर' के आधार पर श्री अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी ने 'नय्यरों के एक संघ' की ओर ध्यान आकर्षित किया है, जिसमें 6000 प्रतिनिधि थे। वे केरल की संसद के समान थे। बौद्ध-साहित्य से ज्ञात होता है कि राजा बिम्बिसार श्रेणिक के अस्सी हजार गामिक (ग्रामिक) थे। इसी सादृश्य पर अनुमान किया जा सकता है कि 7707 राजा विभिन्न-क्षेत्रों (या निर्वाचन-क्षेत्रों) के उसी रूप में स्वतन्त्र-संचालक थे, जिसप्रकार देशी-रियासतों के जागीरदार राजा के आधीन होकर भी अपने निजी-पुलिस की तथा अन्य-व्यवस्थायें करते थे। वैदेशिक सम्बन्ध लिच्छवियों के वैदेशिक-सम्बन्धों का नियन्त्रण नौ सदस्यों की परिषद् द्वारा होता था। इनका वर्णन बौद्ध एवं जैन-साहित्य में 'नव लिच्छवि' के रूप में किया गया है। अजातशत्र के आक्रमण के मुकाबले के लिए इन्हें पड़ोसी राज्यों नवमल्ल तथा अष्टादश काशी-कौशल के साथ मिलकर महासंघ बनाना पड़ा। उन्होंने अपने संदेश भेजने के लिए दूत नियुक्त किए (वैशालिकानां लिच्छिविनां वचनेन)। न्याय व्यवस्था : न्याय-व्यवस्था अष्टकुल-सभा के हाथ में थी। श्री जायसवाल ने हिन्दू राजशास्त्र' (पृष्ठ 43-47) में इनकी न्याय-प्रक्रिया का निम्नलिखित वर्णन किया है— “विभिन्न प्रकरणों (पवे-पट्ठकान) पर गणराजा के निर्णयों का विवरण सावधानीपूर्वक रखा जाता था, जिनमें अपराधी नागरिकों के अपराधों तथा उनके दिये गये दण्डों का विवरण अंकित होता था। विनिश्चय महामात्र (न्यायालयों) द्वारा प्रारम्भिक जाँच की जाती थी। (ये साधारण अपराधों तथा दीवानी प्रकरणों के लिए नियमित न्यायालय थे)। अपील-न्यायालयों के अध्यक्ष थे वोहारिक (व्यवहारिक)। उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 'सूत्रधार' कहलाते हैं। अन्तिम अपील के लिए 'अष्ट-कुलक' होते थे। इनमें से किसी भी न्यायालय द्वारा नागरिक को निरपराध घोषित करके मुक्त किया जा सकता था। यदि सभी न्यायालय किसी को अपराधी ठहराते, तो मन्त्रिमण्डल का निर्णय अन्तिम होता था। विधायिकाः ___ लिच्छवियों के संसदीय विचार-विमर्श का कोई प्रत्यक्ष-प्रमाण प्राप्त नहीं होता, परन्तु विद्वानों ने 'चुल्लवग्ग' एवं विनय-पिटक' के विवरणों से इस विषय में अनुमान लगाये हैं। जब कोसलराज ने शाक्य-राजधानी पर आक्रमण किया और उनसे आत्मसमर्पण के लिए कहा, तो शाक्यों द्वारा इस विषय पर मतदान किया गया। मत-पत्र को 'छन्दस्' एवं कोरम को 'गण-पूरक' तथा असनों के व्यवस्थापन को 'आसन-प्रज्ञापक' कहा जाता था। गण-पूरक के अभाव में अधिवेशन अनियमित समझा जाता था। विचारार्थ-प्रस्ताव की प्रस्तुति को 'ज्ञप्ति' प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 79 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा जाता था। संघ से तीन-चार बार पूछा जाता था कि क्या संघ प्रस्ताव से सहमत है। संघ के मौन का अर्थ सहमति या स्वीकृति समझा जाता था। बहुमत द्वारा स्वीकृत निर्णय को 'ये भुय्यसिकम्' (बहुमन की इच्छानुसार) कहा जाता था। मतपत्रों को 'शलाका' तथा मत-पत्र-गणक को शलाका-ग्राहक' कहा जाता था। अप्रासंगिक तथा अनर्थक-भाषणों की भी शिकायत की जाती थी। श्री जायसवाल के मतानुसार, “सुदूर अतीत (छठी शताब्दी ई०पू०) से गृहीत इस विचारधारा से 'एक उच्चत: विकसित-अवस्था की विशेषतायें दृष्टिगोचर होती हैं। इसमें भाषा की पारिभाषिकता एवं औपचारिकता विधि एवं संविधान की अन्तर्निहित धारणायें उच्च-स्तर को प्रतीत होती हैं। इसमें शताब्दियों से प्राप्त पूर्व-अनुभव भी सिद्ध होता है। ज्ञप्ति, प्रतिज्ञा, गण-पूरक, शलाका, बहुमत-प्रणाली आदि शब्दों का उल्लेख, किसी प्रकार की परिभाषा के बिना किया गया है, जिससे इनका पूर्व-प्रचलन सिद्ध होता है।" वैशाली-गणतन्त्र का अन्त : __मगधराज अजातशत्रु का आक्रमण वैशाली-गणतन्त्र पर घातक-प्रहार था। अजातशत्रु की माता चेलना वैशाली के गणराजा चेटक की पुत्री थी, तथापि साम्राज्य-विस्तार की उसकी आकांक्षा ने वैशाली का अन्त कर दिया। बुद्ध से भेंट के बाद मन्त्री वस्सकार को अजातशत्रु द्वारा वैशाली में भेजा गया। वह मन्त्री वैशाली के लोगों में मिलकर रहा और उसने उसमें फूट के बीज बो दिए। व्यक्तिगत-महत्त्वाकांक्षाओं तथा फूट से इतने महान् गणराज्य का विनाश हुआ। 'महाभारत' में भी गणतन्त्रों के विनाश के लिए ऐसे ही कारण बताये हैं। भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा, 'हे राजन् ! हे भरतर्षभ ! गणों एवं राजकुलों में शत्रुता की उत्पत्ति के मूलकारण हैं—लोभ एवं ईर्ष्या-द्वेष । कोई (गण या कुल) लोभ के वशीभूत होता है, तब ईर्ष्या का जन्म होता है और इन दोनों के मेल से पारस्परिक विनाश होता है।" वैशाली पर आक्रमण के अनेक कारण बताये गये हैं। एक जैन-कथानक के अनुसार, सेयागम (सेचानक) नामक हाथी द्वारा पहना गया 18 शृंखलाओं का हार इसका मूलकारण था। बिम्बसार ने इसे अपने एक पुत्र वेहल्ल को दिया था, परन्तु अजातशत्रु इसे हड़पना चाहता था। वेहल्ल हाथी और हार के साथ अपने नाना चेटक के पास भाग गया। कुछ लोगों के अनुसार, रत्नों की एक खान ने अजातशत्रु को आक्रमण के लिए ललचाया। यह भी कहा जाता है कि मगध-साम्राज्य तथा वैशाली-गणराज्य की सीमा गंगा-तट पर चुंगी के विभाजन के प्रश्न पर झगड़ा हो गया। अस्तु, जो भी कारण हो; इतना निश्चित है कि अजातशत्रु ने इसके लिए बहुत समय से बड़ी तैयारियाँ की थीं। सर्वप्रथम उसने गंगा-तट पर पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) की स्थापना की। जैन-विवरणों के अनुसार, यह युद्ध सोलह वर्षों तक चला, अन्त में वैशाली-गणतन्त्र मगध-साम्राज्य का अंग बन गया। 080 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या वैशाली-गणराज्य के पतन के बाद लिच्छवियों का प्रभाव समाप्त हो गया? इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक हो सकता है; परन्तु श्री सालेतोर (वही पृष्ठ 508) के अनुसार, “बौद्ध साहित्य में इनका सबसे अधिक उल्लेख हुआ है; क्योंकि इतिहास में एक हजार वर्षों से अधिक समय तक इनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण रही।" श्री रे चौधरी के अनुसार, "ये नैनपाल में 7वीं शताब्दी में क्रियाशील रहे। गुप्त-सम्राट् समुद्रगुप्त लिच्छवि-दौहित्र' कहलाने में गौरव का अनुभव करते थे।" ___ 2500 वर्ष पूर्व महावीर-निर्वाण के अनन्तर, नवमल्लों एवं लिच्छवियों ने प्रकाशोत्सव तथा दीपमालिका का आयोजन किया और तभी से शताब्दियों से जैन इस पुनीत पर्व को दीपावली' के रूप में मनाते हैं। 'कल्प-सूत्र' के शब्दों में, “जिस रात भगवान् महावीर ने मोक्ष प्राप्त किया, सभी प्राणी दु:खों से मुक्त हो गए। काशी-कौशल के अट्ठारह संघीय राजाओं, नव मल्लों तथा नव लिच्छवियों ने चन्द्रोदय (द्वितीया) के दिन प्रकाशोत्सव आयोजित किया; क्योंकि उन्होंने कहा—'ज्ञान की ज्योति बुझ गई है, हम भौतिक संसार को आलोकित करें।” ___2500 वें महावीर-निर्वाणोत्सव के सन्दर्भ में आधुनिक भारत वैशाली से प्रेरणा प्राप्त कर सकता है। अनेक सांस्कृतिक कार्य-कलाप वैशाली पर केन्द्रित हैं। इसी को दृष्टिगत करके राष्ट्र-कवि स्व० श्री रामधारी सिंह दिनकर ने वैशाली के प्रति श्रद्धांजलि निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत की है वैशाली 'जन' का प्रतिपालक, 'गण' का आदि विधाता। जिसे ढूंढ़ता देश आज, उस प्रजातन्त्र की माता।। रुको एक क्षण, पथिक ! यहाँ मिट्टी को सीस नवाओ । राज-सिद्धियों की समाधि पर, फूल चढ़ाते जाओ ।। सन्दर्भग्रंथ-सूची 1. मुनि नथमल, 'श्रमण महावीर', पृ0 303 । 2. इदं पच्छिमकं आनन्द ! तथागतस्स बेसालिदस्सनं भविस्यति। 3. उपाध्याय श्री मुनि विद्यानन्द-कृत तीर्थकर वर्धमान' से उद्धृत यं स भिक्खवे ! भिक्खनं देवा तावनिसा अदिट्ठा, अलोकेथ भिक्खवे ! लिच्छवनी परिसं, अपलोकेथ । भिक्खवे ! लिच्छवी परिसरं ! उपसंहरथ भिक्खवे। लिच्छवे ! लिच्छवी परिसरं तावनिसा सदसन्ति ।। 4. श्री काशीप्रसाद जायसवाल हिन्दू पोलिटी', पृष्ठ 40 (चतुर्थ संस्करण)। 5. पुरातत्व-निबन्धावली 20 ।। 6. रे चौधुरी, पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ ऐंशियेंट इण्डिया, कलकत्ता विश्वविद्यालय, छठा संस्करण प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 0081 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1953, पृष्ठ 951 7. काम्बोज सुराष्ट्र क्षत्रिय श्रेण्यादयो वार्ताशस्त्रोपजीविन: लिच्छिविक-वृजिक-मल्लक-कुकुर पाञ्चालादयो राजशब्दोपजीविनः । 8. बी०ए० सालेतोर-ऐंशियेंट इण्डियन पोलिटिकल थौट एण्ड इन्स्टीट्यूशंस (1963) पृष्ठ 509 । 9. बी०सी० ला-हिस्टोरिकल ज्योग्रैफी ऑफ ऐंशियेंट इण्डिया, फाइनेंस में प्रकाशित (1954), पृष्ठ 2661 10. वही, पृष्ठ 266-67। 11. झल्लो मल्लाश्च राजन्या: व्रात्यानि लिच्छिविरेवधो नटश्च करणश्च खसो द्रविण एव च। 12. भरतसिंह उपाध्याय, वही, पृष्ठ 33। 13. री डेबिड्स (अनुवाद), बुद्ध-सुत्त (सेक्रिड-बुक्स ऑफ ईस्ट-भाग 11, मोतीलाल बनारसीदास, देहली पृष्ठ 2-3-4)। 14. पालि-पाठ राधाकुमुद मुखर्जी के ग्रन्थ 'हिन्दू सभ्यता' (अनुवादक—डॉ० वासुदेव शरण ___ अग्रवाल), द्वितीय संस्करण 1958 पृष्ठ 199-200 से उद्धृत । नियम-संख्या मैंने दी है। 15. वही, पृष्ठ 6-7। 16. देखिए श्री भरतसिंह उपाध्याय-कृत 'बुद्धकालीन भारतीय भूगोल' (पृष्ठ 385-86) का निम्नलिखित उद्धरण ("संयुक्त निकाय पृष्ठ 308 से उद्धृत)। “भिक्षुओ ! लिच्छवि लकड़ी के बने तख्ते पर सोते हैं। अप्रमत्त हो, उत्साह के साथ अपने कर्तव्य को पूरा करते हैं। मगधराज वैदेही-पुत्र अजातशत्रु उनके विरुद्ध कोई दाव-पेंच नहीं पा रहा है। भिक्षुओ ! भविष्य में लिच्छवि लोग बड़े सुकुमार और कोमल हाथ-पैर वाले हो जायेंगे। वे गद्देदार बिछावन पर गुलगुले तकिए लगाकर दिन चढ़े तक सोये रहेंगे। तब मगधराज वैदेहि-पुत्र अजातशत्रु को उनके लिए दाँव-पेंच मिल जायेगा।" 17. तस्य निचकालं रज्जं कारेत्वा वसंमानं येव राजन सतसहस्सानि सतसतानि तत्र च। राजानो होंति तत्त का, ये व उपराजाओं तत्तका, सेनापतिनो तत्तका, तत्तका भंडागारिका। J.I.S.O.4. 18. नोच्च-मध्य-वृद्ध-ज्येष्ठानुपालिता, एकैक एव मन्यते अहं राजा, अहं राजेति, न च ___ कस्यच्छिष्यत्वमुपगच्छति। 19. वैशाली-नगरे गणराजकुलानां अभिषेकमंगलपोखरिणी-जातक 4/148 । 20. डॉ० ए०एस० अल्तेकर-प्राचीन भारत में राज्य एवं शासन (1958), पृष्ठ 112-113 । 21. गृहे-गृहे तु राजानः, महाभारत, 2/15/2। 22. वाजपेयी, अम्बिका प्रसाद, हिन्दू राज्यशास्त्र, पृष्ठ 104 । 23. “तेन रयो पन समयेन राजा मागधो सेनियो बिम्बसारो असीतिया नाम सहस्सेषु इस्सराधिपच्च राजं करोति ।" श्री भरतसिंह उपाध्याय द्वारा उद्धृत, वही, पृष्ठ 169। 24. वही, पृष्ठ 95-961 25. वही, पृष्ठ 106 पर उद्धृत । 00 82 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्द - वचनामृत सुत्तत्यं जिणभणिदं जीवाजीवादिबहुविहं अत्थं । हेयाहेयं च तहा जो जाणदि सो हु सद्दिट्ठी । । जो सर्वज्ञकथित, हे प्राणी ! कहलाती है वह जिनवाणी । नीर-क्षीर पृथक् कर लेता है मराल - सा जैसे प्राणी ।। बाह्य, आत्म दो पृथक्-तत्त्व है, निर्णय करती जिसकी दृष्टि । श्रुतज्ञान अनुसार मनुज वह, कहलाता है सम्यक् - दृष्टि । । जो संजमेसु सहिदो आरंभ-परिग्गहेसु विरदो वि । सो होदि वंदणीओ ससुरासुरमाणुसे लोए।। प्राणीमात्र के लिए हृदय में, लहराता करुणा का सागर । सर्व-परिग्रह-रहित जगत् में, वन्दनीय है संत दिगम्बर । । मनुज संग सुर और असुर भी करते है चरणों का वन्दन । उन चरणों की धूल शीश पर शोभित होती जैसे चन्दन ।। पंचमहव्वदजुत्तो तीहिं गुत्तीहि जो स संजदो होदि । णिग्गंथ मक्खमग्गो सो होदि हु वंदणिज्जो य । । पंच महाव्रत, तीन- गुप्तियाँ हैं श्रमणो ! मुक्ति की सीढ़ी । आदिकाल से आरोहण, करती आई श्रमणों की पीढ़ी । । संयम-सहित निर्ग्रन्थ-श्रमण ही, मोक्षमार्ग पर चल सकते हैं । मुक्तिमार्ग दुर्लभ, चंचल मन, क्षण में पाँव फिसल सकते हैं ।। गाहेण अप्पगाहा समुद्दसलिले सचेल अत्थेण । इच्छा जा हु यिता ताह णियत्ताइं सव्वदुक्खाई । । सागर में असीम जल किन्तु, ग्रहण किया जाता है उतना । वस्त्रादि स्वच्छ रखने को, आवश्यक होता है जितना । । अल्प-ग्रहण करते हैं साधु, अपरिग्रही और सुखी हैं । इच्छायें असीम होने से जग के मानव सदा दुःखी हैं ।। प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक - मिश्रीलाल जैन - (सुत्तपाहुड, 5 ) - ( सुत्तपाहुड, 11 ) - ( सुत्तपाहुड, 20 ) - ( सुत्तपाहुड, 27 ) 1083 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर की जन्मभूमि 'वैशाली' की महिमा -डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी भगवान् महावीर की जन्मस्थली वैशाली' का इतिहास भगवान् राम से भी प्राचीन है। उनके एक पूर्वज 'विशाल' नामक राजा के द्वारा यह बतायी गयी थी – ऐसा उल्लेख मिलता है । स्वयं राम ने भी वैशाली नगरी को देखा था – ऐसा उल्लेख 'वाल्मीकि रामायण' में है। यह महानगरियों में परिगणित थी। ऐसी सुप्रतिष्ठित वैशाली - महानगरी की महिमा का परिचय वर्तमान युग सुप्रतिष्ठित मनीषी की सारस्वती- लेखनी से प्रसूत इस आलेख में हुआ है। - - सम्पादक महान् है यह नगरी वैशाली, महान् है इसकी परम्परा ! जैसा कि आपने सुना है कि हिन्दू-धर्म के सर्वश्रेष्ठ पुरुष मर्यादापुरुषोत्तम राम ने इसको 'पवित्र' कहा है। महावीर जैनधर्म के प्रवर्तक आचार्य या प्रवर्तक तो नहीं; क्योंकि उनके पहले भी कई प्रवर्तक-आचार्य (तीर्थंकर) 'चुके हैं, महावीर की तो यह जन्मभूमि ही रही है । महात्मा बुद्धदेव के मन में जब वैराग्य का उदय हुआ, तब पहले योग और ज्ञान की शिक्षा उन्होंने इसी नगरी में प्राप्त की । बुद्धत्व - प्राप्ति के बाद भी वे कई बार यहाँ पधारे । यह वही नगरी है, जिसमें हमारी परम्परा के सर्वश्रेष्ठ - पुरुष बराबर आते रहे हैं। उनकी चरण-रज से पवित्र इस भूमि में आने पर आदमी थोड़ा भावुक हो जाता है। यहाँ का एक-एक धूलिकण, जिसमें भगवान् महावीर, महात्मा बुद्ध और विश्वामित्र जैसे महान् पुरुषों के चरण की धूल लगी हुई है, न जाने कहाँ से क्या सन्देश देता है । कुछ वर्ष पहले कुछ पढ़े-लिखे लोग ही जानते थे, कि 'वैशाली' नाम की कोई जगह है; लेकिन आज से सौ-सवा सौ वर्ष पहले लोग इतना भी नहीं जानते थे । आज से लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व सन् 1861 ई. में यहाँ कनिंघम - साहब पधारे थे। कनिंघम उन विदेशी-ज्ञानियों में हैं, उन ज्ञान-पिपासुओं में हैं, जिन्होंने हमारे देश की प्राचीन-सभ्यता के उद्धार में बड़ा काम किया है । इतनी लगन के साथ, इतने साहस के साथ, इतने दर्द के साथ किया, कि शायद ही किसी भारतीय ने वैसा किया हो । भारत के पुरातत्त्व के उद्धार करने में, उनकी प्रेरणा से भारत सरकार ने 'आर्कियोलॉजिकल सर्वे विभाग' का आरम्भ किया। जिस समय कनिंघम यहाँ आये थे, उन्हें यह भी पता नहीं था, कि उनके पहले और भी बहुत से विद्वान् आये थे, और उन्होंने यह अनुमान लगाया था कि यही स्थान 084 प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर-विशेषांक Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरानी वैशाली-नगरी होगी। लेकिन, कोई निश्चित-प्रमाण उन्हें नहीं मिला था। कनिंघम-साहब में बड़ी दिव्य-दृष्टि थी। उन्होंने एक दैवी-प्रेरणा से सत्य प्रमाणित किया, और यह सिद्ध कर दिया कि प्राचीन-वैशाली का स्थान यही होना चाहिये। आप कल्पना कीजिये कि उन दिनों यात्रा की कितनी असुविधा थी, सरकारी-सहायता प्राप्त नहीं थी, वे यहाँ की भाषा नहीं समझ सकते थे, लोग उन्हें अजनबी समझते थे; लेकिन फिर भी उन्होंने इस सुदूर-देहात में आकर अध्ययन किया, और सप्रमाण यह बतलाने का साहस किया कि वर्तमान 'बसाढ़' गाँव ही प्राचीन-वैशाली है। डॉ. कनिंघम सन् 1862 से 1884 ई. तक यहाँ कई बार आये। उनका यहाँ आना हमारे लिये बहुत महत्त्व की बात है। डॉ. कनिंघम से पूर्व सन् 1834 ई. में श्री एस्टीवेन्शन नामक एक दूसरे विदेशी विद्वान् यहाँ आये थे, और उन्होंने इस भूमि के सम्बन्ध में अनुमान किया था कि यहीं वैशाली' है। लेकिन कनिंघम-साहब ने बड़ी खोज के साथ यहाँ के गाँवों को, यहाँ के स्थानों को देखकर फाहियान, ह्येनत्सांग के यात्रा-विवरणों को पढ़कर पहले-पहल दृढ़ता के साथ यह कहा था, कि “वैशाली यही है।” परन्तु, फिर भी वैशाली है, यह सिद्ध नहीं हो सका। यह केवल कल्पना की बात रही, अनुमान की बात रही। कनिंघम-साहब के कुछ उद्योग करने पर भारत-सरकार ने 'आर्कियोलॉजिकल-विभाग' स्थापित किया, और सन् 1903-4 ई. में और सन् 1913-14 ई. में दो और विदेशी-विद्वानों का आगमन हुआ, जिनमें एक का नाम 'डॉ. बालू' और दूसरे का नाम 'डॉ. स्पूनर' था। उन्होंने यहाँ कई जगह खुदाइयाँ कीं। उस खुदाई में बहुत पुरानी वस्तुयें तो नहीं मिल सकीं; क्योंकि पानी आ जाने के कारण आगे बढ़ना सम्भव नहीं था; लेकिन खुदाई में प्राप्त मिट्टी की मुहरों पर उत्कीर्णित-लेखों से यह सिद्ध हो गया कि यही प्राचीन-वैशाली है। - वैशाली ज्ञान, कर्म और राजशक्ति की त्रिवेणी रही है। ब्राह्मण, बौद्ध और जैन-परम्परा की त्रिवेणी रही है। ज्ञानशक्ति, आत्मशक्ति और धनशक्ति की त्रिवेणी रही है। इसमें कोई शंका नहीं कि इस स्थान पर ज्ञान की बड़ी भारी-साधना थी। महात्मा बुद्ध ज्ञान की खोज में निकले, तो उन्हें और कोई स्थान नहीं दिखा, वैशाली में आकर ही उन्होंने शिक्षा ग्रहण की। ज्ञान की साधना के लिये यह बड़ी ही पवित्र-भूमि मानी जाती रही है। वीरता के लिये तो वज्जियों और लिच्छवियों की चर्चा करना बेकार है। यह तो इतिहास-प्रसिद्ध है कि लिच्छवि अजेय-शक्ति थे। यहाँ फूट डालकर अजातशत्रु ने उन्हें पराजित किया था। लिच्छवियों की शक्ति गुप्तकाल तक अक्षुण्ण रही, तभी समुद्रगुप्त जैसा महान् सम्राट अपने को 'लिच्छवि-दौहित्र' कहने में गर्व का अनुभव करता था। गुप्तकाल के राजा का इतना प्रभुत्व जमा, उसका एक बहुत बड़ा कारण लिच्छवियों के साथ उसका वैवाहिक सम्बन्ध था। ज्ञानशक्ति और राज्यशक्ति के अलावा एक तीसरी ताकत भी यहाँ पर थी, यह बड़ी जबरदस्त थी, जो खुदाई में प्राप्त सामग्री से मालूम होती है, पुराने ग्रन्थों से जिनका पता चलता है। यह स्थान व्यापार का एक बड़ा-केन्द्र था। बड़े-बड़े सेठ प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 1085 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ रहते थे। यहाँ के नाविक दूर-दूर से धनराशि संग्रह करके ले आते थे। कला का भी यह स्थान एक प्रमुख-केन्द्र था। ज्ञान और शक्ति का तो यह गढ़ ही माना जाता था। लिच्छवियों के भय से बड़े-बड़े राज्य काँपते थे। जहाँ तक व्यापार का सवाल है, यहाँ के जो निगम थे, जो कारपोरेशन थे, सेठों के काम करनेवाले जो संघ थे; उनकी इतनी शाखायें थीं कि सारे संसार में उनकी हुण्डियाँ चलती थीं। इन सेठों के जो निगम या कारपोरेशन.थे, सब अलग-अलग थे। शरीफों के अलग थे, श्रेणियों के अलग थे, श्रमिकों के अलग थे --इन सबका मिला हुआ संघ भी था। सन् 191314 ई. की खुदाई में तो अधिक गहराई तक नहीं जाया जा सका, इसलिये ज्यादा-से-ज्यादा आज से डेढ़-पौने दो हजार वर्ष तक की चीजें ही मिल पाईं। लेकिन, हमारे जिन ग्रन्थों में वैशाली की चर्चा मिलती है, वे उससे काफी प्राचीन हैं। पिछले वर्षों की खुदाई में उससे भी पुरानी चीजें प्राप्त हुई हैं। वे निश्चित-रूप से आज से ढाई हजार वर्ष-पूर्व की वैशाली के सम्बन्ध में गवाही देती हैं। लेकिन, यह नगरी उससे भी पुरानी है। वैशाली की परम्परा यहीं समाप्त नहीं होती है। मैं सोचता हैं कि क्या यह महिमामयी वैशाली है? आज जो मैं देख रहा हूँ, क्या यहीं उन लिच्छवियों और वज्जियों की सन्तानें है, यहीं वे मनुष्य थे? उनमें कौन-सी विशेषता थी कि सारी दुनिया में उनका सिक्का चलता था, उनकी ध्वजा फहराती थी। भारतवर्ष में ऐसा कोई महान् सम्राट भी हिम्मत नहीं कर सकता था कि लिच्छवि और वज्ज़ि उनके भीतर आया था। आदम तो वे भी थे। महात्मा बुद्ध ने खुद इसका विश्लेषण किया है। एक बार अजातशत्रु के महामन्त्री वर्षकार ने बुद्धदेव से पूछा था, कि वे उन पर चढ़ाई करें या न करें, उनको जीता जा सकता है, या नहीं? बुद्धदेव ने बड़ी चतुरता के साथ अपने शिष्य आनन्द, जिनके नाम पर तथाकथित आनन्दपुर गाँव है, प्रश्न किया, क्यों आनन्द ! क्या वज्जि-लोग एक साथ उठते-बैठते हैं? एक होकर काम करते हैं? क्या ऐसा तुमने सुना है?' आनन्द ने कहा- 'हाँ भन्ते ! सुना है, कि वैशाली के लोग एक साथ उठते हैं, एक साथ बैठते हैं, एक साथ सभा-पंचायत करते हैं।' बुद्धदेव ने फिर पूछा, 'क्या तुमने यह भी सुना है, कि एक बार जो अपनी पंचायत में तय कर लेते हैं, उसको सभी मानते हैं, ऐसा तो नहीं होता, कि बाद में कोई कहे कि हमने तो वोट नहीं दिया था? मैं क्यों मानने जाऊँ?' आनन्द ने कहा, 'हाँ ! ऐसा ही सुना है, कि इस वैशाली-नगर के रहनेवाले जो एक-बार निश्चय कर लेते हैं, उससे एक बच्चा भी नहीं हिलता, सब उसका पालन करते हैं।' फिर बुद्धदेव ने पूछा- 'अच्छा आनन्द ! तुमने यह भी सुना है, कि वैशाली के लोग अपने बूढों का सम्मान करते हैं, अपने बुजुर्गों की कद्र करते हैं, उनकी बातों को मानते हैं।' आनन्द ने कहा- 'हाँ भन्ते ! सुना है।' बुद्ध ने फिर कहा- 'आनन्द! तुमने सुना है, कि वैशाली के लोग अपने स्त्रियों का सम्मान करते हैं, अपनी कुल-कुमारियों का सम्मान करते हैं। उनके प्रति कोई जोर-जबरदस्ती तो नहीं करते?' आनन्द ने कहा— 'भन्ते ! सुना है, कि 00 86 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाली के लोग अपनी स्त्रियों की बड़ी कद्र करते हैं। उनका सम्मान करते हैं, उन पर कभी जोर-जबरदस्ती नहीं करते, उनपर अत्याचार नहीं करते हैं। भन्ते ! मैंने ऐसा सुना है।' फिर महात्मा बुद्ध ने पूछा- 'आनन्द ! सुना है, कि वहाँ जो पूजा का स्थान है, जो पूज्य हैं, जो मन्दिर है, उसमें बाधा-व्यवधान तो नहीं पड़ता?' आनन्द ने कहा— 'हाँ भन्ते ! ऐसा ही सुना है, कि वैशाली में जो उनके पूज्य-स्थान हैं, उनकी निरन्तर-पूजा करते हैं, और जो एक बार मन्दिर को दिया, उसमें किसीप्रकार कमी नहीं करते हैं।' अन्तिम-बार महात्मा बुद्ध ने कहा, 'आनन्द ! यह सुना है, कि वैशाली के लोगों के पास जो अर्हत्-लोग जाते हैं, जो ज्ञानी-लोग हैं, गुणी हैं, वे उनका सम्मान करते हैं।' आनंद ने कहा कि 'हाँ भन्ते ! मैंने सुना है कि वे अर्हतों का, ज्ञानियों का, जो बाहर से आते हैं, उनका सम्मान करते हैं, और सबको स्वच्छन्द-विचरण करने देते हैं। सबको स्वच्छन्द-रूप से विचार प्रकट करने का मौका देते हैं।' आनन्द ने कहा । बुद्धदेव ने कहा- 'आनन्द ! तुम्हें बताता हँ, कि जिनमें ये सात-गुण हैं, संसार की कोई शक्ति उन्हें पराजित नहीं कर सकती है।' इसप्रकार, उन्होंने वर्षकार से कहा, कि 'भाई वर्षकार !, तुम्हारा वैशाली पर दाँत गड़ाना सम्भव नहीं है। यहाँ के लोग एकसाथ बैठते हैं, उठते हैं, जो करते है, उसपर दृढ़ रहते हैं, और अपने बुजुर्गों की कद्र करते हैं, अपनी स्त्रियों का सम्मान करते हैं, अपने पूज्य-स्थानों की पूजा करते हैं, ज्ञानी-गुणियों का समादर करते हैं। बाहर से आये हुये लोगों को स्वतन्त्रतापूर्वक अपने विचार प्रकट करने का अवसर देते हैं। ऐसे गुणी-लोगों पर कोई राजा, कोई सम्राट कभी शासन नहीं कर सकता, उनका बाल-बाँका नहीं कर सकता।' __यह था वैशाली का गुण ! इन्हीं गुणों के कारण वैशाली अजेय रही। जैसा कि महात्मा बुद्ध ने कहा था, कि जितने दिनों तक ये गुण वैशाली में रहेंगे, उतने दिनों तक वैशाली का कोई बाल-बाँका नहीं कर सकता, और यह बात वर्षकार ने गाँठ बाँध ली, और लौट गया। वर्षकार ने वैशाली के नागरिकों में फूट पैदा कर दी, और फूट के कारण वैशाली का गौरव जाता रहा। परन्तु, बुद्धदेव के बाद भी वैशाली एकदम लुप्त हो गई हो, ऐसा नहीं हुआ। बुद्धदेव के कोई आठ-दस सौ वर्ष के बाद तक वैशाली का गौरव जैसा-का-तैसा बना रहा। संसार के इतिहास को इस भूमि ने प्रजातन्त्र दिया। पंचायती राज स्थापित किया। इस भूमि ने एकमत होकर रहना सिखलाया। इस भूमि ने स्त्रियों का सम्मान करना सिखाया। आपको मालूम होगा कि बुद्धदेव आजीवन इस बात पर अडिग रहे कि स्त्रियों का संघ में प्रवेश नहीं होना चाहिये। लेकिन वैशाली में आकर उन्होंने यह भी निश्चय किया कि स्त्रियों को भी इतना अधिकार मिलना चाहिये, जितना पुरुषों को है। निश्चय ही वैशाली की महिलाओं को देखकर उनके मन में यह बात आई होगी कि यह गलत बात है कि स्त्रियों को अधिकार नहीं दिया जाये। वैशाली के नागरिक स्त्रियों का आदर करते थे, सम्मान करते थे, वे चाहते तो उनके साथ जोर-जबरदस्ती भी कर सकते थे; किन्तु इतिहास इसका प्रमाण है कि ऐसा 0087 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक . Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने नहीं किया। ___आम्रपाली यहाँ की एक गणिका थी, बड़ी मशहूर गणिका थी, हमारे बेनीपुरीजी ने उसका बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। अगर आप लोगों ने नहीं पढ़ा हो, तो एक बार अवश्य पढ़ें। एक बार आम्रपाली ने महात्मा बुद्ध को निमन्त्रण दिया। महात्मा बुद्ध भोले थे, उन्होंने स्वीकार कर लिया निमन्त्रण । इसके बाद वैशाली के नागरिकों ने आम्रपाली से कहा कि देखो आम्रपाली! जिसको तुमने आमन्त्रित किया है, जिसने तुम्हारा निमन्त्रण स्वीकार किया है, उसे तुम मेरे हाथ बेच दो, मैं लुम्हें एक लाख मुद्रायें दूँगा।' आम्रपाली ने कहा---- 'मैं ऐसा नहीं चाहती।' कई लोगों में यह होड़ मच गई कि उससे किसीप्रकार इस अधिकार को ले लिया जाये। किसी ने एक लाख, सवा लाख किसी ने दो लाख रख दिया कि 'हमें तुम यह अधिकार दे दो, और महात्मा बुद्ध को हमारे घर भोजन करने दो।' आम्रपाली ने कहा - 'नहीं ! मैं क्यों बेचने जाऊँ? मैंने उस महात्मा को बुलाया है, मैं उन्हें अपने यहाँ भोजन कराऊँगी।' लेकिन, किसी ने उसको यह नहीं कहा, कि 'मैं तुमसे जबरदस्ती यह काम करवाऊँगा।' उसके बाद आम्रपाली महात्मा बुद्ध को अपने आम्रकुंज में ले गई, जहाँ वे कई बार आ चुके थे। एक और मशहूर-बाला थी, उसने भी अपने यहाँ महात्मा को आमन्त्रित किया था। इस नगरी की इतनी बड़ी महिमा है। वैशाली के इतिहास का पता लगाया बड़े-बड़े धुरन्धर-विद्वानों ने, कुछ विदेशी विद्वानों ने, कुछ भारतीय विद्वानों ने; मैं उनकी श्रद्धा और निष्ठा को देखकर लज्जित रह जाता हूँ। परन्तु, बड़ी कृतज्ञता के साथ उनका नाम लेता हूँ -- कितने प्रेम से, कितनी निष्ठा से, कितनी कठिनाई से काम करके उन्होंने इन चीजों का उद्धार किया है, उन विदेशी-विद्वानों के प्रति हमें हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिये। लेकिन सवाल यह है, कि वैशाली में तो पहले इतना उल्लास नहीं था, आज क्यों उल्लास है? पहले वे वैशाली की महिमा से अपरिचित थे, किन्तु अब उन्हें विदित हो गया है, कि वैशाली यहीं थी, यह वह भूमि है, जिसमें महात्मा बुद्ध और भगवान् महावीर की चरण-रज पड़ी है। पता नहीं, जहाँ आप बैठे हैं, वहाँ भी वे चरण-रज उड़ रही हो! यहाँ के आकाश में, वायुमण्डल में, उनके सन्देश गूंज रहे हैं। यह आनन्द पहले भी था, और आज भी है। . एक बार शान्तिनिकेतन में हमारे एक विदेशी-मित्र, जो संस्कृत के बड़े विद्वान् थे, संस्कृत-नाटकों में 'आम्रमंजरी' का नाम सुना था, ठहरे थे। संयोग से उनका स्वागत करने के लिये आम्रकुंज में ही आयोजन किया गया। जब वह आये, तब मैंने उन्हें बताया, कि ये आम के पेड़ हैं, और यह उनकी आम्रमंजरी है। उन्होंने बहुत सुना था, आम्रमंजरी को देखा भी था; लेकिन जब उनको मालूम हुआ, कि यह आम्रमंजरी है, तब उछल पड़े, और कहने लगे कि यही कालिदासवाली आम्रमंजरी है, यही वह आम्रमंजरी है, जैसा कि कालिदास ने कई बार कहा है? मैंने कहा कि हाँ, यही आम्रमंजरी है, तो वे बड़े उल्लसित हुये। मेरे मन 0088 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न उठा कि वे आम्र की मंजरी रोज़ देखते थे, और यहाँ आने से पहले उन्होंने बीसियों बार आम्रमंजरी का अध्ययन किया था, आज कौन-सी नई बात हो गई? नई बात यह हुई, कि उस दिन उस शब्द और अर्थ के साथ अन्तरात्मा का योग हुआ था । पद का अर्थ जान काफी नहीं है, पद और पदार्थ के भीतर के प्रत्यय होते हैं, भीतर की अन्तरात्मा का योग होता है, यह अन्तरात्मा का योग उस दिन हुआ । वैशाली वही है, जो आज से हजारों वर्ष पहले और आज से सौ-दो सौ वर्ष पहले वह थी । इतिहास के साथ हमारा सम्बन्ध थोड़े दिनों का है, इसलिये बहुत कम जानता हूँ। आपकी खुदाई में जो थोड़े-से खिलौने मिले हैं, थोड़ी-सी मूर्तियाँ मिली हैं, वह काफी नहीं हैं। लेकिन वे इंगित करती हैं, उस महिमा की ओर, कोई उनसे पूछे कि उनका घर कहाँ है ? अगर अंगुली दिखाई, तो अंगुली पकड़कर वे लटक जायेंगी। अंगुली जिस जगह को बता रही है, उसी जगह पर जाना चाहिये । किन्तु हमें यह नहीं समझना चाहिये कि ये जो भग्नावशेष हैं, वही वैशाली है। नहीं, यह वैशाली का वैभव है । वैशाली के वैभव बतानेवाली अंगुलियाँ हैं, जो बता रही हैं, कि ये चीजें जो संग्रहीत हुई हैं, बहुत थोड़ी हैं, पर बहुत बड़ी चीज की ओर इशारा करती हैं, किसी महिमा की ओर इंगित करती हैं, यह हमें समझना चाहिये । - ( साभार उद्धृत, वैशाली अभिनंदन - ग्रंथ, पृष्ठ 153-159) अशरण-भावना I इस जीव के कर्म की उदीरणा होते कर्म का नाश करनेकूं कारण दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप रक्षक - शरण होय है, और कोऊ शरण नहीं है । जातैं इस संसार में स्वर्गलोक के इन्द्र का नाश होइ औरनि की कहा कथा है? जो अणिमादिक ऋद्धीनि के धारक समस्त स्वर्गलोक के असंख्यात देव मिलि करिके अपना स्वामी इन्द्र कूं ही रक्षा नहीं सके, तदि अन्य अधम व्यंतरादिक देव-ग्रह-यक्ष-भूत - योगिनी - क्षेत्रपाल - चंडी - भवानी इत्यादिक असमर्थ देव जीव की रक्षा करने में कैसे समर्थ होयंगे? जो मनुष्यनि की रक्षा करने में कुलदेवी-मंत्र-तंत्र क्षेत्रपालादिक समर्थ होइ, तो जगत में मनुष्य अक्षय होइ जाय। तातैं जो अपनी रक्षा करने में शरण ग्रह - भूत-पिशाच- योगिनी - यक्षनिकूं माने है, सो दृढ़-मिथ्यात्वकरि मोहित है । जातैं आयु का क्षय करिके मरण होय है, अर आयु देने में कोऊ देव-दानव समर्थ नहीं, तातैं मरण की रक्षा करने में कोऊकूं सहायी माने है, सो मिथ्यादर्शन का प्रभाव है । जो देव ही मनुष्यनि की रक्षा करने में समर्थ होइ, तो आप ही देवलोक कं कैसे छांडै? तातैं परमश्रद्धान करिके ज्ञान-दर्शन - चारित्र - तप का परम शरण ग्रहण करो । संसार में भ्रमण करते के कोऊ शरण नहीं है । इस जगत में उत्तम क्षमादिकरूप आपके आत्माकूं परिणामावता आपही आपका रक्षक होय है । अर क्रोध, मान, माया, लोभरूप परिणमन करता आपकूं आप घाते है । तातैं अपना रक्षक अर नाशक अपना आप ही है । - ( मूलाराधना, गाथा 1755 की वचनिका) प्राकृतविद्या�जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक 0089 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर : वैशाली की दिव्य विभूति -महोपाध्याय पं. बलदेव उपाध्याय आज कई लोगों को वैशाली को भगवान् महावीर की जन्मभूमि मानने में आपत्ति हो रही है। यह भी मानने को तैयार नहीं हैं कि 'कुण्डग्राम' या 'क्षत्रिय कुण्डग्राम' विशाल वैशाली का ही अंग था। उन्हें वर्तमान-विवाद से परे एक सुप्रतिष्ठित गवेषी - लेखक के दशकों पूर्व लिखे इस आलेख को मननपूर्वक पढ़ना चाहिये, जिसमें उक्त दोनों तथ्यों की सुदृढ़ता साथ पुष्टि की गयी है । तथा सत्य को स्वीकार करने में वैयक्तिक- अहं को छोड़कर आगे आना चाहिये । - सम्पादक - वैशाली युगान्तकरकारिणी - नगरी है। इसकी गणना भारत की ही प्रधान नगरियों में नहीं की जाती, प्रत्युत् संसार की कतिपय-नगरियों में यह प्रमुख है— उन नगरियों में, जहाँ से धर्म की दिव्य-ज्योति ने दम्भ तथा कपट के घने काले अन्धकार को दूरकर विश्व के प्राणियों के सामने मंगलमय प्रभात का उदय प्रस्तुत किया; जहाँ से परस्पर-1 र-विवाद करनेवाले, कणमात्र के लिये अपने बन्धुजनों के प्रिय-प्राण हरण करनेवाले क्रूर - मानवों के सामने पवित्र भ्रातृभाव की शिक्षा दी गई, जहाँ से 'अहिंसा परमो धर्मः' का मन्त्र संसार के कल्याण के लिये उच्चारित किया गया । पाश्चात्य - इतिहास उन नगरों की गौरव-‍ व- गाथा गाने में तनिक भी श्रान्त नहीं होता, जिनमें प्राणियों के रक्त की धारा पानी के समान बही, और जिसे वह भाग्य फेरनेवाले युद्धों का रंगस्थल बतलाता है । परन्तु भारत के इस पवित्र देश में बे नगर हमारे हृदय-पट पर अपना प्रभाव जमाये हुये हैं, जिन्हें किसी धार्मिक - नेता ने अपने जन्म से पवित्र बनाया, तथा अपने उपदेशों का वैभवशाली - नगर प्रस्तुत किया । वैशाली ऐसी नगरियों में अन्यतम है । इसे सही जैनधर्म के संशोधक तथा प्रचारक महावीर वर्द्धमान की जन्मभूमि होने का विशेष गौरव प्राप्त है । बौद्धधर्मानुयायियों के हृदय में 'कपिलवस्तु' तथा 'रुम्मिनदेई' के नाम सुनकर जो श्रद्धा और आदर का भाव जन्मता है, जैनमतावलम्बियों हृदय में ठीक वही भाव 'वैशाली' या 'कुण्डग्राम' के नाम सुनने से उत्पन्न होता है । वैशाली के इतिहास में बड़े-बड़े परिवर्तन हुये । उसने बड़ी राजनीतिक उथल-पुथल देखी । कभी वहाँ की राजसभा में मन्त्रियों की परिषद् जुटती थी; तो कभी वहाँ के संस्थागार में प्रजावर्ग के प्रतिनिधि राज्यकार्य के संचालन के लिये जुटते थे। कभी वंशानुगत - राजा प्रजाओं पर शासन करता था, तो कभी बहुमत से चुना गया 'राजा' - नामधारी अध्यक्ष अपने I के 0090 - प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2002 वैशालिक महावीर - विशेषांक Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही भाइयों पर उन्हीं की राय से उन्हीं के मंगल-साधन में सचिन्त रहता था। तात्पर्य यह है कि प्राचीन-युग में वैशाली में राजतन्त्र की प्रधानता थी। 'वाल्मीकि रामायण' में वर्णित है कि जब राम-लक्ष्मण के साथ विश्वामित्र ने यहाँ पदार्पण किया था, तब यहाँ के राजा समति ने उनका विशेष-सत्कार किया था।। जैनसूत्रों तथा बौद्धपिटकों में वैशाली 'प्रजातन्त्र की क्रीड़ा-स्थली' के रूप में अंकित की गई है। महात्मा बुद्ध ने अपने अनेक चातुर्मास यहीं बिताये थे। इसमें चार प्रधान-चैत्य थे - पूर्व में उदेन', दक्षिण में गोतमक', पश्चिम में 'सप्ताम्रक' और उत्तर में 'बहुपुत्रक' ।2 'अम्बपाली' नामक गणिका जो धार्मिक श्रद्धा तथा वैराग्य के कारण बौद्धधर्म में विशेष प्रसिद्ध है, ठीक उसीप्रकार, जिसप्रकार वैष्णवधर्म में पिंगला, यहीं रहती थी। उसी का आम्रवन बुद्ध के उपदेश देने का प्रधान-स्थान था। बुद्ध के समय लिच्छवि-लोगों को यहाँ प्रजातन्त्र के रूप में हम शासन करते पाते हैं। इससे बहुत पहले हम यहाँ महावीर वर्धमान् को जन्मते, शिक्षा ग्रहण करते, तथा प्रव्रज्या लेते पाते हैं। वर्धमान् के समय में भी यहाँ गणतन्त्र-राज्य ही था। वैशाली के इतिहास में कोई महान्-परिवर्तन अवश्य हुआ होगा, जिससे यह विशाला तथा मिथिला - दोनों राज्यों की राजधानी बन गई, तथा उसका शासन राजतन्त्र' से 'गणतन्त्र' हो गया। इस परिवर्तन के कारणों की छानबीन करना इतिहास-प्रेमियों का कर्तव्य है। ___वैशाली में अनेक विभूतियाँ उत्पन्न हुईं। परन्तु उनमें सबसे सुन्दर विभूति हैं— भगवान् महावीर, जिनकी प्रभा आज भी भारत को चमत्कृत कर रही है। लौकिक-विभूतियाँ भूतलशायिनी बन गईं, परन्तु यह दिव्य-विभूति आज भी अमर है, और आनेवाली अनेक शताब्दियों में अपनी शोभा का इसीप्रकार विस्तार करती रहेगी। बौद्धधर्म से जैनधर्म बहुत पुराना है। इसका संस्थापन भगवान् ऋषभदेव ने किया था, जैनियों की यही मान्यता है। तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ वस्तुत: ऐतिहासिक-पुरुष हैं। वे महावीर से लगभग दो सौ वर्ष पहले हुये थे। वे काशी के रहनेवाले थे। महावीर ने उनके धर्म में परिवर्धन कर उसे नवीनरूप प्रदान किया। भारत का प्रत्येक प्रान्त जैनधर्म की विभूतियों से मण्डित है। महावीर गौतमबुद्ध के समसामयिक थे; परन्तु बुद्ध के निर्वाण से पहले ही उनका परिनिर्वाण हो गया था। इसप्रकार वैदिक-धर्म से पृथक् धर्मों के संस्थापकों में महावीर वर्द्धमान ही प्रथम माने जा सकते हैं, और इनकी जन्मभूमि होने से वैशाली की पर्याप्त-प्रतिष्ठा है। वैशाली का भौगोलिक-वर्णन वैशाली तथा उसके आसपास के प्रदेशों का प्रामाणिक-वर्णन जैनसूत्रों में विशेषरूप से दिया हुआ है। इनकी विशद-सूचना बौद्धग्रन्थों में भी उपलब्ध नहीं होती। इन प्रदेशों का संक्षिप्त-वर्णन नीचे दिया जाता है— वैशाली के पश्चिम में 'गण्डकी' नदी बहती थी। यह नगरी बड़ी समृद्धिशालिनी थी। इसका भौगोलिक-विस्तार भी न्यून न था। गण्डकी-नदी के पश्चिमी-तट पर अनेक ग्राम थे, जो वैशाली के 'शाखानगर' कहे जाते हैं। निम्नलिखत 1091 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रामों का परिचय मिलता है (1) कुण्डग्राम – इस नाम के दो ग्राम थे। एक का नाम 'ब्राह्मणकुण्डग्राम' या 'कृण्डपुर' था, जिसमें ब्राह्मणों की ही विशेषरूप से बस्ती थी। दूसरे का नाम 'क्षत्रियकुण्डग्राम' था, जिसमें क्षत्रियों का ही प्रधानतया निवास था। इनमें दोनों क्रमश: एक-दूसरे के पूर्व-पश्चिम में थे। ये दोनों पास ही पास थे। दोनों के बीच में एक बड़ा बगीचा था, जो 'बहुसाल-चैत्य' के नाम से विख्यात था। दोनों नगरों के दो-दो खण्ड थे। 'ब्राह्मणकण्डपुर' का दक्षिणभाग 'ब्रह्मपुरी' कहलाता था, क्योंकि यहाँ ब्राह्मणों का ही निवास था। दक्षिण 'ब्राह्मणकण्डपुर' के नायक ऋषभदत्त' नामक ब्राह्मण थे, जिनकी भार्या का नाम देवानन्द' था। ये दोनों पार्श्वनाथ के साथ स्थापित जैनधर्म के माननेवाले गृहस्थ थे। 'क्षत्रिय-कुण्डग्राम' के भी दो विभाग थे। इसमें करीब पाँच सौ घर 'ज्ञाति' नामक क्षत्रियों के थे, जो उत्तरी-भाग में जाकर बसे हुये थे। उत्तर- क्षत्रियकुण्डपुर के नायक का नाम 'सिद्धार्थ' था। ये काश्यपगोत्रीय ज्ञातिक्षत्रिय थे, तथा 'राजा' की उपाधिं से मण्डित थे। वैशाली के तत्कालीन राजा का नाम था 'चेटक', जिनकी बहन 'त्रिशला' का विवाह सिद्धार्थ से हुआ था। इन्हीं त्रिशला और सिद्धार्थ के वर्धमान' थे, जिनका जन्म इसी ग्राम में हुआ था। (2) कर्मारग्राम – प्राकृत कम्मार' कर्मकार का अपभ्रंश है। अत: 'कर्मार' का अर्थ है – मजदूरों का गाँव, अर्थात् लोहारों का गाँव । यह गाँव भी कुण्डग्राम के पास ही था। महावीर प्रव्रज्या लेकर पहली रात को यहीं ठहरे हुये थे। (3) कोल्लाक संनिवेया – यह स्थान पूर्वनिर्दिष्ट ग्राम के समीप ही था। यह नगर वाणिज्यग्राम (जिसका वर्णन नीचे है) के तथा उस बगीचे के बीच में पड़ता था। (4) वाणिज्यग्राम – यह जैनसूत्रों का वाणिज्यग्राम' बनियों का गाँव है। गण्डकी नदी के दाहिनी किनारे पर यह बड़ी भारी व्यापारी-मण्डी थी। जान पड़ता है, कि यहाँ बड़े-बड़े धनाढ्य-महाजनों की बस्ती थी। यहाँ के एक करोड़पति का नाम आनन्द-गाथापति' था, जो महावीर के बड़े भक्त-सेवक थे। आजकल की वैशाली (मुजफ्फरपुर जिले की बसाढ़पट्टी) के पास बनिया-ग्राम है। सम्भव है कि यह गाँव वाणिज्यग्राम' का ही प्रतिनिधि हो। ___ बौद्धग्रन्थों के विशेषतया दीघनिकाय' के अनुशीलन से पता चलता है कि बुद्ध के समय में वैशाली बड़ी समृद्धिशालिनी-नगरी थी। उसमें 7 हजार 7 सौ 77 महलों के होने का उल्लेख स्पष्टत: उसे विशाल तथा समृद्ध-नगर बतला रहा है। नगर के भीतर 'अम्बपाली' नामक बड़ी ही धनाढ्य और गुणवती गणिका रहती थी। 6 या 7 बड़े-बड़े चैत्यों के नाम मिलते हैं, जहाँ महात्मा बुद्ध ने अपना चातुर्मास बिताया। इसके पास ही वेणुग्राम' का उल्लेख मिलता है, जहाँ बुद्ध ने वर्षा में निवास किया था। इस वर्णन से स्पष्ट है कि वैशाली बड़ी नगरी थी, जिसके उपनगर अनेक थे, तथा उस समय खूब प्रसिद्ध थे। 0092 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ-सूची 1. तस्य पुत्रो महातेजा: सम्प्रत्येष पुरीमिमाम्। आवसत्परमप्रख्य: सुमति म दुर्जयः ।। 16 ।। सुमतिस्तु महातेजा विश्वामित्रमुपागतम्।। श्रुत्वा नरवरघे : प्रत्यगच्छन्महायशाः ।। 120 ।। -- (बालकाण्ड, 47 सर्ग) 2. द्रष्टव्य, दीघनिकाय - महापरिव्वाण-सुत्त – (नं. 13)। -(साभार उद्धृत, वैशाली अभिनंदन-ग्रंथ, पृष्ठ 237-242) ज्योतित्रयी "देहज्योतिषि यस्य मज्जति जगदुग्धाम्बुराशाविव । ज्ञानज्योतिषि च स्फुटव्यतितरामो भूर्भुव: स्वस्त्रयी।। शब्दज्योतिषि यस्य दर्पण इव स्वार्थाश्चकासन्त्यमी। स श्रीमानमरार्चितो जिनपति]तिस्त्रयायाऽस्तु न: ।।" –(आचार्य रामसेन, तत्त्वानुशासन, 259) - अर्थ :- जिसकी देह-ज्योति में जगत् ऐसे डूबा रहता है, जैसे कोई क्षीर-सागर में स्नान कर रहा हो; जिसकी ज्ञान-ज्योति में भू: (अधोलोक) भुवः (मध्यलोक) और स्व: (स्वर्गलोक) यह त्रिलोकीरूप ज्ञेय (ओं) अत्यन्त स्फुटित होता है और जिसकी शब्द श्री शब्द-ज्योति (दिव्य ध्वनि) दिव्य-अर्थों की ध्वननकी, प्रकाश में ये स्वात्मा और परपदार्थ दर्पण की तरह निर्मल प्रतिभासित होते हैं, वह देवों से पूजित श्रीमान् तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव महावीर तीनों ज्योतियों की प्राप्ति के लिये हमारे सहायक (निमित्त-कारण) होवें। दिहज्योतिषि यस्य शक्र सहिता: सर्वेऽपि मग्ना: सुराः । ज्ञानज्योतिषि पञ्चतत्त्वसहितं मग्नं नभश्चाखिलम् ।।' –(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, 64-55) __ अर्थ :-- एक देह-ज्योति, दूसरी ज्ञान-ज्योति और तीसरी शब्द-ज्योति में इन्द्रसहित सब देवताओं को निमग्न बतलाया है, जो उनके समवसरण आदि को प्राप्त हुए हैं, और ज्ञान-ज्योति पंचतत्त्व (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश) सहित सारे लोक को व्याप्त प्रकट किया है। तीसरी शब्द-ज्योति अनुषंगिकता से लेना है। 'यस्माच्छब्दात्मकं ज्योति: प्रसृतमतिनिर्मलम् । वाच्य-वाचक-सम्बन्धस्तेनेव परमेष्ठिन: ।।' - (आचार्य शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव-तन्त्र) | अर्थ :- इसमें शब्दात्मक-ज्योति और परमेष्ठी का परस्पर वाच्य-वाचक सम्बन्ध है. ऐसा उल्लेख किया है और यह बात 'अर्हमित्यक्षरब्रह्म वाचकं परमेष्ठिन:' तथा 'शब्दब्रह्म परब्रह्म के वाचक-वाच्य-नियोग' जैसे वाक्यों से भी जानी जाती है।.. प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 93 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाली ___ --आचार्य चतुरसेन शास्त्री हिन्दी-साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान् आचार्य चतुरसेन शास्त्री के यशस्वी-उपन्यास 'वैशाली की नगरवधू' के अंत में 'भूमि' शीर्षक के अंतर्गत उपन्यास में आये हुये नगरों एवं पात्रों के सम्बन्ध में जो विवरण दिया है, उसी में भगवान् महावीर की जन्मभूमि वैशाली के बारे में भी ऐतिहासिक जानकारी दी है। वह जानकारी इस आलेख के रूप में यहाँ दी जा रही है। इससे जैनतर-साहित्यकारों के मन में वैशाली' नगरी की जो छवि रही है, उसे जानने-समझने का एक अवसर मिल सकेगा। -सम्पादक वैशाली लिच्छवियों की राजधानी वैशाली अथवा त्रिशला अत्यन्त प्राचीनकाल में इक्ष्वाकु के पुत्र अथवा भाई नभाग के पुत्र 'विशाल राजा ने बसाई थी। ऐसा उल्लेख प्राचीन हिन्दू-ग्रन्थों में मिलता है। पुराणों के आधार पर विशाल के राजवंश को दशरथ के समकालीन प्रमति तक खींचा जा सकता है, परन्तु विशाल के राजवंश का अंत किसप्रकार हुआ और वह लिच्छवियों के गणतन्त्र की राजधानी किसप्रकार बनी? —इस सम्बन्ध में निश्चितरूप में कुछ नहीं कहा जा सकता। वैशाली और लिच्छवियों के सम्बन्ध में बुद्ध ने बहुत से प्रशंसात्मक-उद्गार प्रकट किए हैं, जो कि बौद्ध-पालि-ग्रन्थों में संग्रहीत हैं । यह नगरी महावीर की जन्मभूमि भी है। बौद्ध-ग्रन्थों में महावीर को 'अरहा नायपत्ते भगवा वेसालिए' कहा है। अन्य-ग्रन्थों में भी महावीर को 'वैशालिक' कहा गया है। ___ 'भगवतीसूत्र' की टीका में अभयदेव ने वैशालिक' का अर्थ ही महावीर किया है। इसप्रकार इस नगरी के नाम पर ही महावीर का नाम वैशालिक प्रसिद्ध हो गया। ऐसा मालूम होता है कि वैशाली नगरी में उस समय 'कुण्ड-ग्राम' और 'वाणिज्य-ग्राम' -इन दो नगरों का समावेश भी था। आज भी ये दोनों गाँव 'बानिया वसुकुण्ड' नाम से आबाद हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वैशाली का विस्तार धीरे-धीरे बढ़ता गया। बौद्ध-ग्रन्थों से पता चलता है कि जनसंख्या बढ़ने से तीन बार कई गाँवों को सम्मिलित करके इस नगरी को विशाल किया गया, जिससे उसका नाम 'वैशाली' पड़ा। 00 94 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसप्रकार तीन नगरों से मिलकर बने होने के कारण वैशाली' को प्रसंगानुसार उन तीनों में से चाहे जिस किसी के नाम से पुकारा जाता था। बौद्ध-परम्परा में भी वैशाली के जिलों का उल्लेख है। वैशाली दक्षिण-पूर्व में कुण्डलपुर (कुण्डग्राम), उत्तर-पूर्व में वाणिज्य-ग्राम तथा पश्चिम में कोल्लाग' नामक सन्निवेश था, उसमें अधिकतर ज्ञातृ-क्षत्रियों की बस्ती थी। इसीलिए उसे 'नाय-कुल अर्थात् ज्ञातृवंशीय क्षत्रियों का घर (कोल्लाए संनिवेसे नायकुलंसि) कहा जाता था। इसी कोल्लाग-संनिवेश के पास ज्ञातृवंशी क्षत्रियों का 'द्युतिपलाश' नामक एक उद्यान और चैत्य था। इसे ज्ञातृवंशियों का उद्यान कहते थे। ('नाय-सण्ड-वणे उज्जाणे' अथवा 'नाय-सण्डे उज्जाणे') 'आचारांग' में उत्तर-क्षत्रिय-कुण्डपुर सन्निवेश अथवा 'दक्षिण-ब्राह्मण-कुण्ड-सन्निवेश के दो भाग आये हैं; जिसमें उत्तरीभाग में क्षत्रिय (सम्भवत: ज्ञात) और दक्षिणी-भाग में ब्राह्मणों की बस्ती थी। कल्पसूत्र' में 'क्षत्रिय-कुण्ड-ग्राम-नगर' और 'ब्राह्मण-कुण्डग्राम-नगर' ऐसा उल्लेख है। इसका अभिप्राय भी हमें पूर्व-वर्णित कुण्ड-ग्राम' नगर का उत्तर का क्षत्रिय-विभाग और दक्षिण का ब्राह्मण-विभाग ध्वनित होता है। तिब्बत से प्राप्त ग्रन्थों में बुद्धकालीन वैशाली में सोने के कलशवाले सात हजार महल और चाँदी के कलशवाले चौदह हजार महल तथा तांबे के कलशवाले इक्कीस हजार घरों का उल्लेख है। इन तीन पृथक्-पृथक् महलों में अनुक्रम से उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ कुलों के लोग रहते थे। इसका आभास 'उपासक-दशांग सूत्र' में हमको मिलता है। ___ हमने पीछे बताया है कि बुद्ध को वैशाली बहुत प्रिय थी। ‘महापरिनिव्वाण सुत्त' में लिखा है कि बुद्ध जब अपने जीवन में अन्तिम बार वैशाली से चले, तो बारम्बार पीछे फिर-फिर कर नगर की ओर देखने लगे। (नागापलोकित वैसालीयं अपलोकेत्वा) उस समय उन्होंने आनन्द से कहा था कि “आनन्द, इस बार तथागत वैशाली को अन्तिम बार देख रहा है।" जब बुद्ध के दर्शन के लिए लिच्छवि सजधज कर वैशाली से निकलते थे, तब उन्हें देखकर एक बार बुद्ध ने कहा था “हे भिक्षुओ! तुमने देवताओं को तो अपनी नगरी से निकाल कर उद्यान में आते हुए कभी नहीं देखा। परन्तु इन वैशाली के लिच्छवियों को देखो, जो समृद्धि और ठाठ-बाठ में इन देवताओं के समान हैं—सोने के छत्र, स्वर्ण-मण्डित पालकी, स्वर्ण-जटित रथ और हाथियों सहित ये लिच्छवि देखो, आबाल रंगरंजित वस्त्र धारण किए हुए सुन्दर वाहनों पर चले आ रहे हैं।" एक बौद्ध-ग्रन्थ में लिखा है कि “यह वैशाली महानगरी अतिसमृद्ध सुरक्षित, सुभिक्ष, रमणीय, जनपूर्ण, सम्पन्न गृह और हर्यों से अलंकृत पुष्पवाटिकाओं ओर उद्यानों से प्रफुल्लित मानों देवताओं की नगरी से स्पर्धा करती है।” भगवान् महावीर का जन्म वैशाली में हुआ था, यह हम कह चुके हैं। तीर्थंकर होने के बाद उन्होंने बयालीस चातुर्मासों में से बारह वैशाली में व्यतीत किए थे। ___ यह 'वैशाली वर्तमान 'तिरहुत' में मुजफ्फरपुर से कुछ दूर, राजगृह से कोई 40 कोश के अन्तर पर थी। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 1095 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिच्छवि ईस्वी सन् से पूर्व सातवीं शताब्दी के लगभग गंगा के उत्तर-कूल पर लिच्छवियों का एक समर्थ-प्रदेश-सत्तात्मक-राज्य था, जिसके पूर्व में वन्य-प्रदेश, पश्चिम में कौशल-देश और कुसीनारा तथा पावा, जो मल्लों के गणराज्य थे। दक्षिण में गंगा के उस पार मगध-साम्राज्य था। उत्तर में हिमालय की तलहटी में आया हुआ वन्य-प्रदेश था। इस राज्य की राजधानी वैशाली' थी। लिच्छवियों की परम्परा के सम्बन्ध में अनेक मत हैं, कुछ लोग उन्हें इक्ष्वाकु सूर्यवंशियों का वंशज कहते हैं। बौद्ध-ग्रन्थों में लिच्छवियों को बुद्ध आदि ने 'वसिष्ठ' कह कर सम्बोधित किया है। वसिष्ठ सूर्यवंशी इक्ष्वाकुओं के कुल-गुरु थे। नेपाल की वंशावली में भी उन्हें सूर्यवंशी कहा है, किन्तु स्मृतियाँ उन्हें व्रात्य-संकर बताती है। ___ जैनग्रन्थों में लिच्छवियों के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट बात नहीं कही गई। यद्यपि जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर श्रमण लिच्छिविकुल में उत्पन्न हुए थे। जैनग्रन्थों के आधार पर महावीर श्रमण की माता वैशाली के गण-प्रमुख राजा की बहिन कही गई हैं, परन्तु महावीर श्रमण को जैनग्रन्थों में लिच्छवि न कह कर ज्ञातिपुत्र', 'विदेहदत्ता' का पुत्र', 'विदेह का राजकुमार', 'वैशालिक', 'ज्ञातृ-क्षत्रिय' आदि के नामों से पुकारा जाता है। यह बात विचारणीय है कि जैन-बौद्ध धर्मोदय के पूर्व अर्थात् जैन-बौद्ध धर्मोदय के पूर्व अर्थात् ईसामसीह से पूर्व 5वीं 6वीं शताब्दी से उधर के किसी प्राचीन हिन्दू-ग्रन्थ में लिच्छवियों का कोई उल्लेख नहीं है, परन्तु उनके पड़ौसी मल्लों का उल्लेख 'महाभारत' में पाण्डवों के समकालीन के रूप में आया है। यह कहा जाता है कि वैशाली का गणराज्य विदेह-राज्य के भंग होने पर संगठित हुआ। जैन और बौद्ध धर्मोदय से पूर्व के उपनिषद्-काल में विदेहराज जनक की कीर्ति और ठाट-बाट का खूब बढ़ा-चढ़ा वर्णन और भारी यशोगाथा है। _ 'मज्झिमनिकाय' के 'मखादेवसुत्त' के आधार पर निमि' के पुत्र 'कलार' के समय में विदेह-राजवंश का अन्त हुआ। कौटिल्य अर्थशास्त्र' के आधार पर विदेह के राजा कराल ने एक ब्राह्मण-कुमारी के ऊपर अत्याचार किया था, इसी से राजा और राज्य का नाश हो गया। विदेहराज की समृद्ध के विषय में कहा गया है कि इस राज्य का विस्तार था और उसमें सोलह हजार गाँव लगते थे। बुद्ध ने लिच्छवियों की प्रशंसा करते हुए कहा था “हे भिक्षुओ ! आज लिच्छवि प्रमादरहित और वीर्यवान् होकर व्यायाम करते हैं, इससे मगध का राजा उनके मर्म को समझकर उन पर चढ़ाई करते हुए डरता है। हे भिक्षुओ ! भविष्य में लिच्छवि सुकुमार हो जायेंगे और उनके हाथ पैर कोमल और सुकुमार बन जायेंगे। वे आज लकड़ी के तख्त पर सोते हैं, फिर वे रुई के गद्दों पर सूर्योदय होने तक 0096 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक ___ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोते रहेंगे; तब मगधराज उन पर चढ़ाई कर सकेगा।" ___हे आनन्द ! लिच्छवि बारम्बार सम्मेलन करते हैं और इन सम्मेलनों में सभी इकट्ठे होकर एक साथ बैठते हैं, एक साथ उठते हैं और एक साथ काम करते हैं, जो नियम-सम्मत है, उसका विच्छेद नहीं करते। अपने पूर्वजों के प्राचीन धर्म में चले आते हैं, वृद्धों का सत्कार करते हैं, उनकी प्रतिष्ठा करते हैं, उनको पूजते हैं और उनकी आज्ञा मानते हैं। कल-कमारियों और कुल-स्त्रियों का हरण नहीं करते, न उन पर बलात्कार करते हैं। अपने भीतरी और बाहरी चैत्यों को मन-सत्कार से पूजते हैं और पूर्व-परम्परा के अनुसार धार्मिक बलि देने में असावधानी नहीं करते। अर्हन्तों के रक्षण और आश्रयण के लिए वे व्यवस्था रखते हैं। हे आनन्द ! वे जब तक ऐसा करते रहेंगे उनकी उन्नति होगी, अवनति नहीं।" ___ इन उद्धरणों से लिच्छवियों के व्यक्तित्व और चरित्र एवं आचार-विचार पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ता है। बुद्ध को और बौद्ध-संघ को उन्होंने कितने ही चैत्य, आराम-शालायें और वन अर्पण किए थे, जिनमें कूटागार-शाला, चापाल-चैत्य, सप्ताम्र-चैत्य, बहुपुत्र-चैत्य, गौतम-चैत्य, कपिनैह-चैत्य, मरकट-हृद-तीर-चैत्य, आम्रपाली का आम्रवन और बालिकाआराम आदि प्रमुख हैं । बुद्ध वहाँ निरन्तर आते-जाते रहते थे। यद्यपि इस बात का कोई स्पष्ट उल्लेख हमें नहीं मिलता कि बुद्ध और महावीर से प्रथम अपने चैत्यों में लिच्छवियों का यह गण विदेहराज जनक से सम्बद्ध था, इसलिए इस राज्य में यज्ञयोग और वैदिक उपासना एवं उपनिषदों में प्रतिपादित ब्रह्मोपासना भी प्रचलित थी। महावीर और बुद्ध के प्रभाव से बहुत जैनोपासक और बौद्धोपासक गृहस्थ और भिक्षु हो गए थे। वज्जी-राजाओं के कुल में अंज-नवनीय, वज्जीपुत्त, सस्भूत, महालि, अभय, समन्दक, उग्र, साल्ह, नन्दक, भद्रिय अदि लिच्छवि नागरिक और जेत्ता, चासिट्टि आदि महिलाओं का उल्लेख है। आगे चलकर यद्यपि लिच्छवियों का गणराज्य नष्ट हो चुका था; परन्तु उनके कुल की प्रतिष्ठा एक हजार वर्ष तक कायम रही। ईस्वी सन् 4 में समुद्रगुप्त मौर्य ने अपने को बड़े गर्व से 'लिच्छवि-दौहित्र' कहा था। परन्तु यह बात विचारणीय है कि महावीर का जन्म वैशाली का कोई खास-वर्णन जैनग्रन्थों में नहीं दिखाई पड़ता। उत्तरकालीन मसीह की पाँचवीं शताब्दी में संकलित उपासकदशासूत्र' ग्रन्थ में वाणिज्य-ग्राम और वैशाली का राजा 'अजातशत्रु' कहा है, परन्तु 'सूर्यप्रज्ञप्ति ग्रन्थ' में उसे विदेह की राजधानी 'मिथिला' का राजा बताया गया है। गणराज्य-पद्धति लिच्छवियों के राज्य में गणसत्ता-पद्धति से राजव्यवस्था चलती थी, और इस राज्य में वंश-परम्परा से चला आता और कोई राजा न था। सब राजसत्ता नागरिकों के 'गण' अथवा 'सघ' राजसत्ता नागरिकों के 'गण' अथवा 'संघ' के हाथ में थी, परन्तु इस गण का प्रत्येक सभ्य अपने को 'राजा' कहता था। ये सब 'संथागार' नामक सार्वजनिक राजभवन में प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 0097 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रित होकर राज्य-व्यवस्था तथा सामाजिक और धार्मिक निर्णय करते थे। वयस्क होने पर प्रत्येक लिच्छविकुमार अपने पिता का पद गणराज्य-सत्ता में ग्रहण करता था और तब केवल एक बार 'अभिषेक-पुष्करिणी' के जल से उसका अभिषेक किया जाता था। कौटिल्य अर्थशास्त्र' में लिच्छवियों के संघ को 'राजशब्दोपजीवी' कहा है। 'महावस्तु' संग्रह-ग्रंथ में लिखा है, कि वैशाली में 1 लाख 68 हजार राजा रहते थे। विनयपिटक' के अनुसार वैशाली अत्यन्त समृद्धिशाली और धन से जन से परिपूर्ण थी, उसमें 7777 प्रासाद, 7777 कूटागार और 7777 आराम और 7777 पुष्करिणियां थीं। भिन्न-भिन्न राजकाज के छोटे-बड़े कामों के लिए भिन्न-भिन्न पदाधिकारी नियुक्त थे। जैसे अपराधी का न्याय करने के लिए अनुक्रम से राजगण विनिश्चय महामन्त्र, व्यावहारिक सूत्रधार, अष्टकुलक, सेनापति, उपराजा और राजा इतने अधिकारियों के मण्डलों के पास अपराधी को ले जाया जाता था। महत्त्वपूर्ण विषयों के निर्णय के लिए आठ या नौ व्यक्तियों की व्यवस्था-समिति भी चुनी जाती थीं। लिच्छवियों के संयुक्त राज्य में जिन आठ कुलों के गण थे, उनमें प्रत्येक कुल से एक-एक प्रतिनिधि लेकर आठ जनों की यह व्यवस्था-परिषद् नियुक्त की जाती थी, जो सम्पूर्ण शासन-व्यवस्था करती थी। जैनग्रन्थों में लिखा है कि युद्ध जैसे महत्त्वपूर्ण कार्यों के सम्बन्ध में नौ लिच्छवियों की व्यवस्थापिका-सभा बुलाई जाती थी। लिच्छवियों के नौ या आठ गणों में किन-किन संघों व वंशों का समावेश होता था, यह कहना कठिन है, परन्तु सूत्रकृतांग' के आधार पर राज्य की परिषद् में भोगवंशीय, ऐक्ष्वाकुवंशीय, ज्ञातृ-वंशीय, कौरव-वंशीय, लिच्छवि-वंशीय और उग्रवंशीय क्षत्रियों का उल्लेख है। इसप्रकार की गणसत्तात्मक-पद्धति, ऐसा मालूम होता है, प्राचीनकाल से प्रचलित थीं। 'ऋग्वेद' में ऐसा आभास मिलता है—जिसप्रकार राजा लोग समिति में एकत्रित होते हैं। इससे अनुमान होता है कि अत्यन्त प्राचीनकाल में ऐसी राज्य-पद्धति संगठित हो गई थी कि राष्ट्र राजवंश के अनेक सभ्यों के एकत्र अनुशासन में होते थे। कौटिल्य के काल में तो लगभग सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में ऐसे गणराज्य फैले हए थे। पूर्व की ओर मल्लों के गणराज्यों को यह गिनाता है, मध्य में कुरुओं और पांचालों के उत्तर-पश्चिम के भद्रकों के और दक्षिण-पश्चिम में कुकरों के सम्भवत: इन गणराज्यों को गिराकर ही उसने मौर्य-साम्राज्य की स्थापना की थी। यहाँ पर विचारणीय बात यह है कि बौद्ध-ग्रन्थों में 'लिच्छवि' और 'वज्जी' इन दोनों को एक ही माना है, परन्तु कौटिल्य ने इन दोनों को पृथक्-पृथक् बताया ___ ह्वेनसांग ने भी 'वज्जी देश' को 'वैशाली' से पृथक् माना है। सम्भव है कि सम्पूर्ण संघ वज्जी' कहलाता हो और 'लिच्छवि' इनमें से एक का नाम हो। - (जैन प्रचारक, दिसम्बर 2001, पृ० 9-12) 4098 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर के उपदेशों की वर्तमान-सन्दर्भ में उपयोगिता —प्रो. डॉ. राजाराम जैन भगवान् महावीर के जन्मकल्याणक का 2600वाँ पावन-दिवस उनके सद्गुणों के स्मरण का ही नहीं, अपितु उनके आदर्शों को जीवन में उतारने के लिये भी है; साथ ही, वह आत्मालोचन का भी पुण्य-पर्व है। इस प्रसंग में हमें यह निरीक्षण एवं परीक्षण करना चाहिये कि गत एक वर्ष में हमने कितने लोकहित-साधक कार्य किये हैं तथा कितने समाज-विरोधी कार्य किये हैं? __ भगवान् महावीर के जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे जिन बातों का उपदेश देना चाहते थे, उन बातों को सर्वप्रथम अपने जीवन में उतारते थे और जीवन की कसौटी पर जब वे खरे उतरते थे, तभी दूसरों को उनका उपदेश करते थे। यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि राजकुमार वर्धमान को राज-वैभव के त्याग की आवश्यकता क्यों पड़ी? मन्थन करने से विदित होता है कि तत्कालीन मानव-समाज में कुछ ऐसी विषमतायें थीं, जो सामाजिक-जीवन को खोखला किये जा रही थीं और जिनके कारण महावीर अत्यन्त विचलित हो उठे थे। जब वे आडम्बरवाले निरर्थक-क्रियाकाण्डों एवं रुढ़ियों में जकड़े हुए लोगों को देखते, तो छटपटा उठते, आर्थिक-विषमता तथा जाति एवं वर्ग-भेदों को देखते, तो उनका हृदय रुदन करने लगता। एक ही सूर्य एवं चन्द्र के नीचे एक ही पृथिवी पर रहनेवालों में यह मानव-भेद, प्राणिभेद एवं सम्प्रदाय-भेद उन्हें बहुत ही खला। यह दुर्निवार-भेदभाव, सुख-सिंहासन पर बैठकर तथा राजकीय-प्रशासकीय नियम-विधान का भय दिखाकर उन्हें मिटा पाना उनके लिये सम्भव न था, उसके लिये तो त्याग एवं साधना की प्रभावक-शक्ति का संचय तथा उसके आधार पर लोगों का हृदय-परिवर्तन करना आवश्यक था। ____ अत: महावीर ने लोकमंगल-हेतु अपने भौतिक-सुखों की आकांक्षाओं का सर्वथा त्याग कर सर्वप्रथम दीर्घ-तपस्या द्वारा आत्मशक्ति प्राप्त की। उन्होंने जन-सम्पर्क का माध्यम तत्कालीन लोक-प्रचलित जनभाषा-प्राकृत को चुना; क्योंकि भाषा ही विचारों की समर्थ संवाहिका होती है। उस सामन्ती-युग में तथाकथित कुछ नेताओं की अपनी एक विशिष्ट-भाषा प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 0099 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती थी, उसी का वे प्रयोग भी किया करते थे, जो कि जन-सामान्य की समझ से प्राय: परे रहती थी। मुगलों की 'फारसी' एवं अंग्रेजों की 'अंग्रेजी' के समान उनकी भी अपनी भाषा-नीति थी, जिसके चलते जन-सामान्य के बहुभाग पर वे शासन किया करते थे। महावीर ने इस भाषा-नीति के सर्वथा-विपरीत जन-समुदाय के बीच तत्कालीन जनभाषा-प्राकृत में अपने विचार व्यक्त किए, जिसका आशय था कि इने-गिने लोगों की विशिष्ट-भाषा कभी भी सम्पर्क-भाषा अथवा राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती। यह पद तो उसी सार्वजनीन-भाषा को दिया जा सकता है, जिसे राष्ट्र का बहुल-भाग प्रयोग करता हो, जिसे दलित से दलित और अपढ़ से अपढ़ व्यक्ति भी बोल और समझ सकता हो । क्योंकि व्यक्ति जो भी विचार करता है, उसकी सहज एवं स्पष्ट-अभिव्यक्ति वह अपनी स्थानीय-मातृभाषा में ही कर सकता है। तथा अन्तर्निहित-शक्ति का विश्वासपूर्वक पूर्ण-विकास भी कर सकता है। इसप्रकार महावीर ने जन-सामान्य का मनोबल ऊँचा करने हेतु समकालीन लोकप्रचलित-भाषा 'प्राकृत' में अपने उपदेशों का प्रसार कर सर्वोदय का मार्ग प्रशस्त किया। - महावीर का भाषा-सम्बन्धी यह सिद्धान्त इतना लोकप्रिय हुआ कि उनके परिनिर्वाण के बाद सैकड़ों वर्षों तक जन-सम्पर्क की भाषा वही प्राकृत बनी रही। प्रियदर्शी सम्राट अशोक एवं खारवेल आदि ने अपने-अपने शासनकालों में उसी को प्रमुखता प्रदान कर जनसामान्य का विश्वास प्राप्त किया तथा शान को सुदृढ़ बनाकर उन्होंने अपने-अपने राष्ट्रों को सुखी-सम्पन्न बनाया और देश-विदेश में भारतीय-आदर्शों का शंखनाद किया। बिहार एवं झारखण्ड-प्रान्त की आधुनिक संथाली, मुण्डारी, मगही, मैथिली, भोजपुरी, अंगिका एवं वज्जिमा आदि बोलियों का विकास उपर्युक्त जनभाषा-प्राकृत से ही हुआ। सुप्रसिद्ध भाषाविद् तथा आधुनिक-पाणिनि के नाम से प्रसिद्ध डॉ. जार्ज ग्रियर्सन तथा रिचर्ड पिशल एवं डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी आदि ने आधुनिक बिहार एवं झारखण्ड की बोलियों को उक्त प्राकृत की पुत्रियाँ अथवा पौत्रियाँ माना है। इस दृष्टि से इन प्रान्तों की बोलियों के उद्भव और विकास, तथा उनके व्युत्पत्तिमूलक तथा भाषावैज्ञानिक अध्ययन के लिये महावीरकालीन-प्राकृत का उच्चस्तरीय तुलनात्मक-अध्ययन अनिवार्य है। ___ भगवान् महावीर के सम्मुख दूसरी विषम-समस्या थी - असमान-वितरण एवं आर्थिक-विषमता की। उन्होंने इसका समाधान 'अपरिग्रहवाद' के माध्यम से किया। क्योंकि वे जानते थे कि आर्थिक-विषमता एवं असमान-वितरण मानव-समाज को तोड़-मरोड़कर चूर-चूर कर देता है। इससे समाज शोषक एवं शोषित —इन दो वर्गों में बँट जाता है। फलस्वरूप कटुता एवं घृणा की विनाशकारी-भावनायें जन्म लेने लगती हैं। महावीर ने बताया कि व्यक्ति को अपने पास उतनी ही सामग्री रखनी चाहिये, जो जीवन-धारण के लिये आवश्यक है। बाकी की सामग्री समाज के अभावग्रस्त लोगों को अर्पित कर देना चाहिए, यही वास्तविक अपरिग्रह है। 40 100 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अपरिग्रहवाद की व्याख्या करते हुए प्रथम शताब्दि के आचार्य उमास्वामी ने कहा कि क्षेत्र (खेत) वास्तु (भवन आदि) हिरण्य (आभूषणादि) स्वर्ण, धन-धान्य (अनाजादि) दासी-दास एवं कुप्य (अर्थात् बर्तन, वस्त्र आदि) की सीमाबन्दी समतावादी स्वस्थ-समाज एवं राष्ट-निर्माण के लिये अनिवार्य है। अथवा अनावश्यक-संग्रह राष्ट्रिय-विकास में घोर बाधक है। इसप्रकार महावीर ने परिग्रह-वृत्ति (Hoarding) का घोर-विरोध किया तथा अपरिग्रहवाद को स्वस्थ समाज एवं राष्ट्र-निर्माण का अनिवार्य-अंग घोषित किया। महात्मा गाँधी एवं विनोबा भावे ने महावीर के इस सिद्धान्त की जीवनभर सराहना की और उसका सर्वत्र प्रचार किया। महावीर के सम्मुख तीसरी विषम-समस्या थी—दलित-वर्ग के उत्थान की। महावीर चूँकि सच्चे साम्यवादी, सर्वोदयवादी अथवा अहिंसावादी थे, अत: उच्च-जाति या नीच-जाति (Upper and Lower Castes) जैसे शब्दों के प्रयोग के पक्षधर वे कभी नहीं रहे। जब-जब जातिवाद की आवाज उठी, उन्होंने स्पष्ट घोषित किया कि व्यक्ति जन्म से नहीं, कर्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र होता है। यथा कम्मुणा बंभणो होइ कम्मुणा होई खत्तिओ। बइस्सो कम्मुणा होई सुद्दो हवइ कम्मुणा।। -(उत्तरज्झयण, 25/31) इसीप्रकार __समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो। -(उत्तरज्झयण, 25/30) अर्थात् समभाव की साधना करने से 'श्रमण' होता है तथा ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने से 'ब्राह्मण' होता है। और भी—ण वि मुंडिएण समणो ण ओंकारेण बंभणो। ण मुणि रण्णवासेणं कुसचीरेण ण तावसो।। -(उत्तरज्झयण, 25/29) अर्थात्, सिर मुड़ा लेने से कोई 'श्रमण' नहीं हो जाता, 'ओम्-ओम्' का जाप कर लेने मात्र से कोई ‘ब्राह्मण' नहीं हो जाता, केवल वनवास कर लेने मात्र से कोई 'मुनि' नहीं हो जाता और चीवर (फटे वस्त्र धारण कर लेने मात्र से कोई 'तापस' नहीं हो जाता। प्राकृत के आगम-ग्रन्थों में कुछ ऐसे उदाहरण प्राप्त होते हैं, जिनसे पता चलता है कि महावीर ने ब्राह्मणों, क्षत्रियों एवं वैश्यों को तो अपने संघ में दीक्षित किया ही, साथ ही हरिजन, चाण्डाल, ग्वाले, बढ़ई, कुम्हार, लुहार, मजदूर तथा अशिक्षित स्त्री-पुरुषों का उद्धार कर उन्हें भी अपने संघ में प्रतिष्ठित-स्थान दिया। इसीलिए लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने एक बार कहा था कि “ब्राह्मण-धर्म में एक सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि उसमें ब्राह्मणादि चारों वर्गों को समानाधिकार नहीं दिये गये। यज्ञ-यागादि-कर्म ब्राह्मण ही कर सकते थे, क्षत्रिय अथवा वैश्य नहीं। शूद्र तो उसे देख भी न सकते थे। जैनधर्म ने इस त्रुटि को दूर कर मानव-समाज का बड़ा भारी उपकार किया है।" महावीर के सम्मुख चौथी-समस्या थी नारी के उत्थान की, क्योंकि वह मानाव के प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 101 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिवारिक - रथ की एक प्रमुख संवाहिका थी । समाज एवं परिवार की सुव्यवस्था एवं अनुशासन में उसका प्रारम्भ से ही प्रमुख हाथ रहा है। गृहस्थ एवं मुनिधर्म का निर्वाह उसके सक्रिय-सहयोग के बिना सम्भव नहीं हो सकता, अतः महावीर ने पूर्वागत जैन- परम्परानुसार ही 'चतुर्विध- संघ' में श्रावक के साथ श्राविका ( महिलाओं) तथा साधु के साथ साध्विय (महिलाओं) को गरिमापूर्ण स्थान देकरं उन्हें समाज में प्रतिष्ठित किया तथा समानाधिकार प्रदान किया। पारिवारिक जीवन में उन्हें पुत्र के साथ बराबरी से सम्पत्ति प्राप्त करने का भी समानाधिकार दिया गया, जैसा कि आचार्य जिनसेन ने लिखा है : पुत्र्यश्च संविभागार्हाः समं पुत्रैः समांशकै: । – (154) अर्थात् पुत्रों की भाँति पुत्रियाँ भी पिता की सम्पत्ति की बराबरी के भाग की अधिकारिणी होती हैं । महावीर - युग में वैदिक - शास्त्रों में महिलाओं को वेदादि के अध्ययन करने का अधिकार नहीं दिया गया था, जैसा कि उल्लेख मिलता है—“स्त्री - शूद्रौ नाधीयताम् "; किन्तु जैनसिद्धान्तानुसार महिलायें आगम-शास्त्रों का अध्ययन कर सकती थीं । इसीप्रकार क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र-कन्यायें जहाँ वैदिक - पूजायें नहीं रचा सकती थीं, वहीं पर उन्हें जैन-पू - पूजा करने का पूर्ण-स्वातन्त्र्य प्राप्त था । महावीर ने मगध से कौशाम्बी की यात्रा कर क्रीतदासी के रूप में उपस्थित बन्दिनी चन्दना का उद्धार ही नहीं किया, अपितु उसे दीक्षित कर अपने संघ में रहनेवाली 36,000 साध्वी - महिलाओं को प्रधान - नेत्री भी बनाया। इसप्रकार उन्होंने नारी को समाज में समानाधिकार दिलाने की जीवन भर वकालत की, उनके लिए आत्म-विकास का मार्ग सुझाया और इस रूप में स्वस्थ समाज एवं राष्ट्र-निर्माण की दिशा में अभूतपूर्व कार्य किया । सद्य: आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय महिला - वर्ष के क्रम में भगवान् महावीर का यह योगदान निश्चय ही स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य है । सामाजिक एवं राष्ट्रिय-उत्थान में अनुशासन का अपना विशेष महत्त्व होता है । उसके अभाव में विविध अन्याय, अत्याचार पनपने लगते हैं। महावीर ने इसके लिए तीन मकार अर्थात् मद्य (Drinks), मांस (Meat), एवं मधु (Honey) के सर्वथा त्याग तथा हिंसा ( Injury ), झूठ (False food), चोरी (Theft), कुशील (Unchastity) एवं परिग्रह रूप पाँच पापों के त्याग पर विशेष जोर दिया । गम्भीरता से विचार करने पर विदित होता है कि सुसंस्कृत समाज एवं समुन्नत राष्ट्र में जो भी अन्तर्बाह्य-विषमतायें आती हैं, उनके मूल में भी उक्त पाप अथवा अपराध-कर्म ही हैं। महावीर ने इन पापों का त्याग, प्रत्येक गृहस्थ - श्रावक के लिये अनिवार्य बतलाया तथा सच्ची - नागरिकता के लिये वह आवश्यक अंग घोषित किया। पाँच पापों के एकदेश-त्याग के लिए जैनधर्म में 'अणुव्रत' की संज्ञा प्रदान की गई। वस्तुत: ये अणुव्रत सच्चे नागरिक बनने के लिए ऐसे सर्वश्रेष्ठ अनुशासन - सूत्र (Code of Conduct) हैं, जिनके बिना कोई भी समाज प्रगति एवं प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर सकती है। OC 102 प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक महावीर विशेषांक Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व के सभी पापों अथवा अपराध-कर्मों का निषेध उक्त पाँच-अणुव्रतों से हो जाता है। किसी भी देश के पैनल-कोडों (Penal Codes) की धारायें मनोवैज्ञानिक एवं यथार्थ के विशाल धरातल पर विचारित उक्त अणुव्रतों से निश्चय ही पथ-निर्देश ले सकती है। ___महावीर ने स्वस्थ-समाज एवं राष्ट्र-निर्माण के लिए स्पष्ट घोषित किया कि प्रत्येक श्रावक अथवा सद्गृहस्थ या नागरिक को बन्धन, वध, छेदन, अतिभारारोपण, अन्न-पान-निरोध, मिथ्या-उपदेश, रहोभ्याख्यान (अर्थात् गोपनीय बातों का प्रचार), कूटलेख-क्रिया (किसी को उलझन में डालने के लिए जाली दस्तावेज तैयार करना), न्यासापहार (धरोहर को हड़प लेना), साकार मन्त्रभेद (अर्थात् शरीराकृति से किसी के मन का भाव समझकर उसके शत्रुओं पर उसका भाव प्रकट कर देना), स्तेनप्रयोग (अर्थात् चोरों के द्वारा लाई गई सामग्री को खरीदना), विरुद्धराज्यातिक्रम (अर्थात् न्यायमार्ग के विपरीत या स्मगलिंग की हुई वस्तुओं को खरीदना अथवा अल्पमूल्यवादी वस्तुओं को कीमती वस्तुओं में मिलाकर उन्हें ऊँची दरों पर बेचना), हीनाधिकमानोन्मान (खरीदने के लिए अधिक प्रमाणवाले तथा बेचने के लिये कम प्रमाणवाले माप-तौल के साधनों के प्रयोग), प्रतिरूपक-व्यवहार (अर्थात् बनावटी या आजकल की भाषा में नं. 2 का सामान बनाना एवं बेचना) तथा खेत, भवन, धन, धान्य आदि के अनावश्यक-संचय से सदैव बचते रहना चाहिये तथा राज्य-विरुद्ध कार्य किसी भी स्थिति में नहीं करना चाहिये। महावीर के उक्त उपदेश रामराज्य की छवि को प्रस्तुत करने में पूर्णतया सक्षम हैं। यदि इन उपदेशों का अक्षरश: पालन किया जाय, तो फिर न तो राष्ट्रों में परस्पर कभी युद्ध होंगे और न प्रशासनों में पुलिस की आवश्यकता रहेगी और न ही कारागारों की जरूरत रहेगी और घरों में भी ताले बन्द करने की आवश्यकता नहीं रहेगी। सामाजिक-जीवन में पारस्परिक स्नेह, सौहार्द एवं समन्वयवादी-वृत्ति जागृत करने हेतु महावीर ने अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद के सिद्धान्तों का प्रचार किया। सामाजिक-विषमताओं के हल करने के लिए उनकी यह एक बड़ी भारी वैज्ञानिक देन थी। विचार-वैषम्य के कारण भग्न-हृदयों के संयोजन के लिए 'अनेकान्तवाद' का यह एक अद्भुत नुस्खा था। वस्तुत: पारस्परिक कलह का मूलकारण है 'एकान्तदृष्टि' । व्यक्ति किसी वस्तु-विशेष के विषय में जो कुछ समझता है, उसकी वह समझदारी अन्तिम (Ultimate) नहीं मानी जा सकती। इस सिद्धान्त को न समझकर जब वह अपनी समझ को ही अन्तिम समझकर दूसरों को भी उसी रूप में समझने को बाध्य करने लगता है, तब विरोध एवं तनातनी की स्थिति आ जाती है। जैसे पाँच अन्धों ने हाथी का स्वरूप जानने का प्रयास किया। एक न उसकी पूँछ पकड़ी, दूसरे ने सूंड, तीसरे ने कान, चौथे ने पैर तथा पाँचवें ने पीठ। अब यदि पूँछ पकड़नेवाला उसे रस्से के समान, सूंड पकड़नेवाला उसे अजगर के समान, कान पकड़ने वाला उसे सूप के समान, पैर पकड़नेवाला उसे खम्भे के समान और पीठ पकड़नेवाला उसे दीवार के समान माने तथा अपने कथन को ही अन्तिम सत्य मानकर अपने विचार दूसरों पर आरोपित करता रहे, तो लट्ठ-जुत्तं' की स्थिति आ ही जायेगी। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 103 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस विषम-स्थिति में अनेकान्तवादी समझाकर कहता है कि यदि कथन-शैली में जरासा भी परिवर्तन कर दिया जाये, तो सभी का कथन ठीक है। हाथी 'रस्सी के समान ही है', इसके बदले में यदि यह कहा जाये कि हाथी रस्सी के समान भी है', तो जो अन्य अन्धे उसे अजगर, दीवार या सूप आदि के समान मानते हैं, उन्हें भी कोई विरोध न होगा; क्योंकि एकान्तदृष्टि से सभी का कथन उनकी अपनी-अपनी दृष्टि से ठीक है, किन्तु उससे वस्तु का एकांगी-स्वरूप ही प्रकट होता है। हाथी के सर्वांगीण-स्वरूप को जानने के लिए तो पाँचों अंधों के कथन का समन्वय करना होगा। ऐकान्तिक-दृष्टि के कथन से विश्व में जो धार्मिक दंगे हुए, उनसे सभी परिचित हैं। क्योंकि इसने धर्मोन्माद उत्पन्न कर हजारों परिवारों को नष्ट कर डाला, लाखों माँ-बहिनों का सिन्दूर पोंछ डाला तथा हजारों बच्चों को अनाथ कर डाला। यूथोपिया, कांगो, कोरिया, कुवैत, ईराक, अफगानिस्तान, बंगलादेश आदि इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। इस विषमता से बचने के लिए सबसे अच्छा उपाय अनेकान्तवाद ही है, जो वस्तु के यथार्थ एवं सर्वसम्मत-निर्णय के लिए निष्पक्ष सर्वोच्च-न्यायाधीश का कार्य करता है। ___ वस्तुत: अनेकान्तवाद वस्तु-विचार के विविध-दृष्टिकोणों के समन्वय का एक तर्कसंगत वाद है। विचारक 'ही' के स्थान पर यदि 'भी' का प्रयोग करना सीख जाये और यदि एसा ही है' के स्थान में एसा भी है' इसप्रकार की भाषा का प्रयोग करें, तो परस्पर में कलह का कोई अवसर ही नहीं रह जायेगा। महावीर ने अपने उपदेशों में जिस प्रकार जन-भाषा-प्राकृत को अपनाया, उसीप्रकार विचारों की अभिव्यक्ति में सरल-शैली को भी अपनाया। पाण्डित्य-प्रदर्शन का उन्होंने कभी भी प्रयास नहीं किया। उनकी इसप्रकार की उपदेश-शैली को चित्रशैली की संज्ञा प्रदान की जा सकती है। जैसे उनसे यदि कोई प्रश्न करता था कि क्रोध कितने प्रकार का होता है, तो वे लोक-प्रचलित उदाहरणों के साथ उसका कथन इसप्रकार किया करते थे—“सांसारिक सुखों में आसक्त प्राणियों का क्रोध पाषाण-रेखा के समान दीर्घकालीन (अनन्तानुबन्धी) होता है। सदाचारी व्रती पुरुष अथवा साधु का क्रोध बालू में अंकित रेखा के समान अल्पकालीन (प्रत्याख्यान क्रोध) के समान होता है। यह शैली कितनी सहजग्राह्य मार्मिक तथा हस्तामलकवत् है? श्रोता के लिए इस शैली से क्रोध का प्रत्येक पहलू स्वत: ही स्पष्ट हो जाता है। प्राणि-सेवा के प्रति अपने इन्हीं दायित्वबोधों एवं रचनात्मक-कार्यों के कारण ही वे ‘वर्धमान महावीर' के नाम से प्रसिद्ध हुए। ___वर्तमान-युग में नैतिकता का पतन जिस वेग से हो रहा है, उसकी कभी कल्पना भी नहीं की जा सकी थी। बहुमुखी अध:पतन की इस विभीषिका में भगवान् महावीर के अहिंसा, अनेकान्त एवं अपरिग्रह-सम्बन्धी सिद्धान्त निश्चय ही सर्वोदयी-सन्मार्ग का प्रदर्शन कर सकते हैं। उनके सर्वोदय एवं साम्यवादी आदर्श-सिद्धान्त स्वस्थ समाज, राष्ट्र एवं विश्व का नव-निर्माण कर सकते हैं, इसमें सन्देह नहीं। अत: 'सर्वजनहिताय सर्वजनसुखाय' भगवान् महावीर के आदर्श-सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार प्रत्येक मानव का पुनीत-कर्तव्य है। 00 104 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-साहित्य में महावीर का धर्म-दर्शन -डॉ. उदयचन्द्र जैन प्राकृतभाषा भारत की ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व की एक अतिप्राचीन और प्रतिष्ठित भाषा है, तथा इसका वाङ्मय बहुआयामी होने से विश्वभर के मनीषियों के लिये आदर का केन्द्र बना हुआ है। ऐसे ही बहुमानित प्राकृत-वाङ्मय में से भगवान् महावीर के धर्म-दर्शन के तत्त्वों को चुनकर विद्वान् लेखक ने इस आलेख में श्रमपूर्वक संजोया है। –सम्पादक भारतीय साहित्य-परम्परा में दो प्रकार के साहित्य का विशेष-उल्लेख किया जाता है(1) प्राकृत-साहित्य और (2) संस्कृत-साहित्य। इस साहित्य-परम्परा में प्राकृत-साहित्य को महावीर और बुद्ध के साथ जोड़ा जाता है, परन्तु भाषा की दृष्टि से प्राकृत-साहित्य अक्षुण्णरूप में अब तक लिखा जा रहा है, इसका विशाल-क्षेत्र है, इसकी व्यापकता है और इसकी भाषा में सभी को जोड़ने की कला है। यह हर क्षेत्र के जन-जीवन की भाषा है, साधारणजनों की भाषा है और प्रकृति से जुड़ी ही जन-जन की भाषा है। इस भाषा में भी सभी विधायें विद्यमान हैं, प्रबन्ध से लेकर मुक्तक, पुराण से लेकर इतिहास, भूगोल से लेकर गणित और स्तुति से लेकर विशाल चरित्र आदि हैं। प्रारंभिक-चरण में इस भाषा के साहित्य का निम्न आकार-प्रकार का था(1) आगम-साहित्य – (क) शौरसेनी प्राकृत का आगम-साहित्य । (ख) अर्धमागधी प्राकृत का आगम साहित्य- अंग, उपांग आदि। (II) आगम का - (क) शौरसेनी प्राकृत का आगम-व्याख्या-साहित्य। ___व्याख्या-साहित्य (ख) अर्धमागधी प्राकृत का आगम-व्याख्या-साहित्य । (III) सिद्धान्त-साहित्य। (IV) भूगोल-गणित एवं ज्योतिष-साहित्य । (V) स्तुति-साहित्य। साहित्यिक विधा का साहित्य (क) प्रबन्ध साहित्य - महाकाव्य, खण्डकाव्य, मुक्तक काव्य, छंद, व्याकरण, चम्पू, कथा, चरित्र, स्तुति, नाट्य आदि। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 105 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. व्हूलर ने जैन-साहित्य के विषय में लिखा है कि- व्याकरण, खगोलशास्त्र और साहित्य की विभिन्न-शाखाओं में जैनाचार्यों की इतनी सेवायें हैं कि उनके विरोधी भी उस ओर आकर्षित हुए। जैनाचार्यों की कुछ रचनायें तो आज यूरोपीय-विज्ञान के लिए भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।' ____भारतीय-साहित्य में जैनियों की सेवायें अपूर्व हैं, उन्होंने प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, तमिल, तेलगू, कन्नड़, गुजराती, हिन्दी आदि विभिन्न भाषाओं में सभी विधाओं पर लेखनी चलाई। महावीर के सिद्धान्त के प्रतिपादित करने के लिए तत्कालीन लोक प्रचलित जन-भाषा को आधार बताया गया। जिसे 'आर्ष' कहा पहले और पश्चात् जिसे 'प्राकृत' कहा गया। जिसमें आगम लिखे गये, कर्म ग्रन्थ प्रतिपादित किये गये और उनके आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना के लिये सिद्धान्त ग्रन्थों का प्रणयन हुआ। भास, कालिदास, शूद्रक, राजशेखर आदि ने अपने नाटकों में जिसे विशेष महत्त्व दिया। नाटकों के मूल्यांकन से यह भी ज्ञात हुआ कि राजा, मंत्री जैसे पात्रों को छोड़कर अन्य रानी, सखी, मित्र, विदूषक, बालक-बालिकायें आदि से लेकर जनक्षेत्र से जुड़े हुये आदिवासी बहुल शकरि, भील शबद भी इसी में अपना कथन करते हैं। ___ महावीर के सिद्धान्त पर आगम लिखे गयें, उन पर आचार्यों ने विविध टीकायें लिखीं, नियुक्ति, चूर्णी, भाष्य, टब्बा, हिन्दी, गुजराती एवं अंग्रेजी आदि में विस्तृत विवेचन भी प्रस्तुत किए। उनकी शिक्षाओं और सिद्धान्तों को जन-जन तक पहुँचाने के लिये छोटी-छोटी रचनायें की गईं। सिद्धसेन', हेमचन्द्र जैसे दार्शनिकों ने प्राकृत में दार्शनिक रचनायें दीं। माइल्ल धवल ने महावीर की नयदृष्टि को 'नयचक्र' में प्रस्तुत किया। ___आचार्य कुन्दकुन्द ने तो उनके अध्यात्म-रहस्य को इसतरह प्रतिपादित किया कि उनका चिन्तन जीवन का अंग बन गया। सच कहा जाये तो उनका चिन्तन आत्म-चिंतन है, आत्मानुप्रेक्षी बनाने का है और परमात्मा से सीधे सम्पर्क करने का विशुद्धमार्ग है। महावीर क्या हैं? यह प्रश्न सिमटकर नहीं रह जाता, अपितु व्यापक बन जाता है। वे इक्ष्वाकुवंश-केशरी हैं, काश्यपगोत्री हैं, लिच्छवि जाति के देदीप्यमान सूर्य हैं, नायपुत्र, ज्ञातृपुत्र, नाथकुल आदि के दिव्यमुकुट हैं। वे तो वर्धमान हैं, वर्धमान थे, वर्धमान ही रहेंगे और जन-जीवन को वर्धमान बनाते रहेंगे। वे यदि देवाधिदेव हैं, वीतरागी, सर्वज्ञ, तीर्थंकर, सिद्ध-बुद्ध, त्रैलोक्यनाथ, परमेश्वर आदि हैं, तो वे हैं सभी को शरण देनेवाले। __णाणं सरणं मे दंसणं च सरणं च चरिय-सरणं च। तव-संजमं च सरणं भगवं सरणं महावीरो।। यदि मेरे लिये ज्ञान शरण है, दर्शन शरण है, चरित्र शरण है, तप शरण है और संयम शरण है, तो भगवान् महावीर भी शरणभूत हैं। __ महावीर की जीवन-गाथा विशुद्धात्मा की है, महामना बनाने और परमात्म-अवस्था 00 106 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक ले जानेवाली है। जो तीर्थंकर ऋषभ के समय मरीचि' के भव में थे, जो ऋषभ के प्रौत्र रूप में रहे, जिन्होंने ऋषभदेव की देशना का पारायण किया और भव-भवान्तर के पश्चात् वैशाली-गणतन्त्र को सफल करने में समर्थ हुए। वैशाली' गणतन्त्र की शोभा कुण्डग्राम के नरेशसिद्धार्थ से थी। उन्होंने जहाँ इसकी समृद्धि में योगदान दिया, वहीं प्रियकारिणी त्रिशला को अपार-सम्पदा प्रदान की। लगभग 2600 सौ वर्ष पूर्व त्रिशला के गर्भ से जो बालक उत्पन्न हुआ, वह वैशाली' गणराज्य में गर्भ से लेकर जन्म तक सभी समृद्धियों में योगदान देता रहा, जिसे 'वर्धमान' कहने में किसी ने चूक नहीं की। तीर्थकर पार्श्व के 278 वर्ष पश्चात् ईसा पूर्व 599 आषाण शुक्ल षष्ठी शुक्रवार 17 जून 'हस्त' नक्षत्र में वैशाली के प्रमुख-शासक चेटक की पुत्री, जिसका नाम 'त्रिशला' था, वही सिद्धार्थ की सहचरी बनीं, जिससे ईसापूर्वक 599 के चैत्र'मास के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी के उत्तराफाल्गुनी' नक्षत्र में 27 मार्च, सोमवार के दिन 'अर्यमा' योग में सुन्दर बालक को जन्म दिया। इस आत्मज्ञानी की अद्भुत लीलायें थीं। जिसमें अपूर्व-साहस था, बुद्धि-विशालता, आत्मविश्वास, आत्मशक्ति आदि भी। वे वीर, अतिवीर, सन्मति और महावीर भी कहलाने लगे। इसे आत्मज्ञ ने आठ वर्ष में ही दर्शन के सूत्र को दे दिया था। तत्त्वविषयक-शंका का समाधान भी देखने मात्र से है। फिर वह कैसा होगा और उसका चिन्तन क्या कह रहा होगा? वर्धमान ‘णमो वड्ढमाण-बुद्ध-रिसिस्स" षट्खंडागम की 'धवला' टीका में जो सूत्र दिया है, उससे यह स्पष्ट है कि जो वर्धमान हैं, वे वर्धमान बुद्ध भी हैं और ऋषि भी हैं । गुणों की वृद्धि के कारण वर्धमान, पूर्णज्ञान की प्राप्ति से बुद्ध/केवलज्ञानी/सर्वज्ञ हैं और अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तबल के वैभव से 'ऋषि' हैं, उन वर्धमान बद्धर्षि के लिए नमन/इसके टीकाकार ने इस विषय में स्पष्ट कथन किया है कि वर्धमान बुद्ध हैं, वे धर्मपथ के नायक हैं, तीर्थकर हैं और समस्त लोक को देखने वाले सर्वज्ञ भी हैं। उन्हें 'वर्धमान भट्टारक' भी कहा है। वे तीर्थप्रवर्तक हैं, तीर्थकर्ता हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में कहा एस सुरासुर-मणुसिंद-वंदिदं, धोद धादि-कम्म-मलं। पणमामि वड्ढमाणं, तित्थं धम्मस्स कत्तारं ।। अर्थात् घातिया-कर्मरहित, देव-असुर-चक्रवर्तियों द्वारा वंदित, धर्मतीर्थ (श्रावक-श्राविका, साधु-साध्वी) के कर्ता वर्धमान को प्रणाम करता हूँ। 'धवला' टीका पुस्तक एक खण्ड चार में वर्धमान के जन्म से लेकर मुक्तिपथ तक का सम्पूर्ण-चित्रण है। यतिवृषभाचार्य ने तिलोयपण्णत्ति' नामक ग्रन्थराज में वर्धमान' को 'वीर' प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 107 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी कहा है। वे वर्धमान जिन" भी हैं, और वे वीरनाथ भी हैं ।" यद्यपि समस्त शौरसेनी आगम-साहित्य के आचार्यों ने वर्धमान को मात्र स्मरण ही नहीं किया, अपितु उनके सिद्धान्तों पर भी प्रकाश डाला है। ___ 'आचारांग' का 'उपधान सूत्र' दीक्षा के पश्चात् की चर्या, शय्या, आहार-विहार के बड़े ही रोचक एवं कष्टदायी विषय का व्याख्यान करता है— इसमें महावीर आत्म-विजय बनाम लोकविजय के पर्याय हैं 'हंता हंता बहबे कंदिस' के चिल्लाने पर ध्यान-मग्न हैं। जोगं च सव्वसो णच्चा' कहने से ज्ञानी है। पंथपेही चरे जयमाणे' में आत्मा का विशुद्ध-मार्ग है। 'अप्पमत्ते समाहिए झाई' में समाधि की उत्कृष्टता है। 'इत्थी एगइया पुरिया य' उपसर्ग आने पर स्थिरता की ओर ले जाता है। 'अह दुच्चर-लाढमचारी' वज्रभूमि या शुभ्रभूमि में सहिष्णु बनाती है। इसीतरह के अन्य प्रसंग भी महापथ का बोध कराते हैं। सूत्रकृतांग' गुणोत्कर्ष के साथ दार्शनिक दृष्टि ही दृष्टि दिखलाता है। इसमें वीरत्थुइ - महावीरत्थवो' नामक छठे अध्ययन में 'नातसुतस्स' के विषय में वे पूछा कि वे क्या है? तब कहा कि वे दक्ष हैं, कुशल हैं, आसुप्रज्ञ हैं, अनंतज्ञानी, सर्वदर्शी, भूतिप्रज्ञ आदि सभी कुछ हैं। सुदंसणस्सेस जसो गिरिस्स, पंकुच्चती महतो पव्वतस्स । एतोवमे समणे नायपुत्ते, जाति-जतो दंसण-णाणसीले।। 6/14।। वे वैशालिक, त्रिशलानंदन, ज्ञातपुत्र - "खत्तीण सेहे जह दंतवक्के, इसीण सेढे तह वड्ढमाणे" हैं। (6/22)। भगवती, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथांग, कल्पसूत्र आदि अर्धमागधी के सूत्र-ग्रन्थ महावीर के धर्म-दर्शन के रहस्य का उद्घाटन करते हैं। बुद्ध के विनयपिटक, मज्झि-निकाय, दीर्घनिकाय, महापरिनिव्वाण, पासादिक, सुत्तनिपात आदि में महावीर के जीवन का विवेचन है। ___ भारतीय सांस्कृतिक-मूल्यों की स्थापना में महावीर का अपूर्व-योगदान है। उनकी सूझ-बूझ के फलस्वरूप ही तत्कालीन समाज में व्याप्त हिंसक-प्रवृत्तियों को विराम दिया गया। उन्होंने सभी को एक-सूत्र में जोड़ने का कार्य किया। उनके समकालीन केशकंबली, मक्खली-गोशालक, पकुद्ध-कच्चायन, पूरण-कश्यप, संजय वेलट्ठिपुत्त और तथागत बुद्ध भी थे। जितने दिन उतने ही मत-मतान्तरों के बीच महावीर धर्म और दर्शन की स्वस्थ्य परम्परा को देने में समर्थ हुए। उन्हे सुव्यवस्थित करने के लिए आदर्श समन्वय की व्यवस्था दी। वे स्वयं प्रयोगवादी बने, जिससे अनुगमनशील को गति ही गति, प्रगति ही प्रगति और सामाजिक धरातल को उच्च-आदर्श की आध्यात्मिक-दृढ़ता भी प्राप्त हुई। जीवन-कला – जीवन जीने की कला भी महावीर के प्राकृत-साहित्य में इसके लिये विनय, वैराग्य, संयम, इंद्रिय-निग्रह, मनोनिग्रह, राग-द्वेष आदि की विजय भी आवश्यक है। 00 108 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'विणए ठवेज्ज अप्पाणं, इच्छंतो हियमप्पगो। – (उत्तराध्ययनसूत्र 1/6) हितेच्छुक विनय में स्थित हो, ताकि 'सीलं पडिलभेज्जओ' शील की ओर अग्रसर होते रहे। वैराग्य - 'माणुसत्ते असारम्मि, वाहिरोगाण आलए' आदि का बोध कराता है। संयम – ‘मवासंजमे वइसंजमे कायसंजमे उवगरणसंजमे।' – (स्था. 4/2) को निग्रह पर बल देता। यदि श्रमण हैं, तो 'सयणे अ जणे अ समो, समो अ माणावमाणेसु' - (अनु. 132) मान-अपमान आदि में समभाव रखें। 'उवसमसारं खु सामण्णं । - (वृहत्कल्प 1/35) श्रमणत्व का सार उपशम है। 'कालं अणवकंखमाणे विहरइ। - (उपासकदशांग 1/73) आत्मार्थी-साधक काले के आने पर अनपेक्ष बना रहता है। धर्म-दर्शन :- महावीर का धर्मदर्शन मानवीय-मूल्यों की स्थापना करता है, वह अभाव है, दुराग्रह, दु:ख, अशान्ति, अनाचार आदि से दूर, बहुत दूर ले जाता ही नहीं; अपितु उनसे पृथक ही कर देता है। वह 'जा जा वच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई अहम्म कुणमाणस्स, अफला 'जंति राइणो।' - (उत्त. 14/24) से पृथक् सफलता जंति राइणो' --- (उत्त. 14/25) का उद्घोष देता है। 'आयतुले पयासु' – जैसा 'सूत्रकृतांग' का सूत्र भी दे जाता है और इस बात की शिक्षा दे जाता है कि 'आत्म-तुल्य भाव' हो ताकि सभी प्राणी सुखी रह सकें। 'अप्पणा सच्चमेसिज्जा' — (उत्त. 6/2) यही अपने सत्य अर्थात् आत्मविशुद्ध-मार्ग की ओर ले जा सकता है। णाणस्स सव्वस्स पगासणाए अण्णाणमोहस्स विवज्जणाए। रागस्स दोसस्स य संखएणं एगंत सॉक्खं समुवेइ मोक्खं ।। -(उत्त. 32/2) सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाश से, अज्ञान और मोह के त्याग से, राग-द्वेष के क्षय से व्यक्ति अनंतसुख-रूप मोक्ष प्राप्त कर लेता है। शिक्षा और व्यवहार : --- मनुष्य को मनुष्य, मनुष्य जन्म की सार्थकता, भाषा विवेक, विषयभोग-विमुक्ति, अज्ञान, प्रमाद की समाप्ति आदि प्राकृत-साहित्य में है। इसमें है. कधं चरे कधं चिट्टे कधमासे कधं सए। कधं भुजेज्ज भासेज्ज कधं पावं ण बज्झदि।। 70।। अर्थ :- किस प्रकार चलना चाहिये या आचरण करना चाहिये, किस प्रकार ठहरना चाहिये, कैसे बैठना चाहिये, किस प्रकार सोना चाहिये, कैसे भोजन करना चाहिये और किस प्रकार भाषण करना चाहिये, जिससे कि पाप का बन्ध न हो? जदं चरे जदं चिट्टे जनमासे जदं सए। जदं भुंजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झदि ।। 71 ।। अर्थ :- यत्नपूर्वक चलना चाहिये, यत्नपूर्वक ठहरना चाहिये, यत्नपूर्वक बैठना चाहिये, यत्नपूर्वक सोना चाहिये, भोजन करना चाहिये और यत्नपूर्वक भाषण करना चाहिये, इसप्रकार पाप का बन्ध नहीं होता।। 71 ।। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 109 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर की अचेलक - परम्परा - श्रीमती मंजूषा सेठी यह एक व्यापक ऊहापोह का विषय बना हुआ है, कि भगवान् महावीर और उनकी परम्परा मूलत: 'सचेलक' थी या 'अचेलक' ? अपने-अपने सम्प्रदाय के लोग अपनी मान्यतानुसार प्ररूपण करते हैं, किन्तु सामान्यजन और आज के नई पीढ़ी के लोग सत्य और तथ्य को निष्पक्ष - रीति से प्रमाणों के आलोक में जानना चाहते हैं । प्रस्तुत आलेख में विदुषी - लेखिका ने यथासंभव श्रम और अनुसंधानपूर्वक तथ्यात्मक रीति से इस सम्बन्ध में प्रतिपादन किया है । आशा है प्राकृतविद्या के जिज्ञासु पाठकवृन्द इस आलेख को अपनी सूक्ष्मदृष्टि से परखकर उचित दिशाबोध प्राप्त कर सकेंगे । -सम्पादक “णग्गो हि मोंक्खमग्गो” अर्थात् नाग्न्य ही मोक्षमार्ग है। आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा कथित, परंतु पूर्वपरम्परा से चलते आए इस मार्ग पर अनेकों साधु अग्रसर थे, अग्रसर हैं, अग्रसर रहेंगे। केवल वस्त्रों का त्याग करने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है क्या? आचार्य कहते हैं जैसे 'ताल' शब्द से सभी वनस्पतियाँ कही जाती हैं। 'ताल का फल नहीं खाना चाहिए' -- ऐसा कहने पर 'सभी वनस्पतियों का फल नहीं खाऊँगा' – ऐसा जाना जाता है इसीतरह वस्त्र के त्याग से सभी तरह के परिग्रह का त्याग होता है । अन्तर्बाह्य से पूर्णदिगम्बर हु बिना निर्ग्रन्थत्व की पूर्णता कदापि संभव नहीं है । I अचेलक परम्परा :- महावीर से पहले तथा महावीर के बाद चली आ रही जो परम्परा आज तक खंडित नहीं हुई है, वह है अचेलकता । जिसे जैन धर्म के आदिप्रवर्त्तक ऋषभदेव भगवान् से लेकर महावीर - पर्यंत सभी तीर्थकरों ने इसी को मोक्षमार्ग का साधन मानकर अपनाया और मोक्ष की प्राप्ति की । महावीर के पश्चात् भी गौतम स्वामी, आचार्य भद्रबाहु, आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य पूज्यपाद, आचार्य उमास्वामी से लेकर आचार्य शांतिसागर, आचार्य देशभूषण, आचार्य विमलसागर, आचार्य विद्यानन्द, आचार्य वर्धमानसागर आदि अनेकों साधुओं ने इस परम्परा का गौरव बढ़ाया है। हमारे पूजनीय, आदर मुनि इस अचेलकत्व का कठोर पालन करते है । इनके आचरण से इनका तप में अटूट- - विश्वास प्रकट होता हैं । अध्यात्म का सहारा लेकर मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर होनेवाले ये साधु चलते-फिरते धर्म हैं, इनके रोम-रोम में धर्म है, इनकी प्रत्येक क्रिया में धर्म है । ☐☐ 110 प्राकृतविद्या + जनवरी - जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का शासन :- “संयम-मार्ग में प्रवृत्ति करनेवाले जिससे समर्थ बनते हैं, वह कल्प' कहलाता है।" भगवान् महावीर ने भेद-प्रभेद सहित दो प्रकार का कल्प' मुनियों के लिए बताया है- (1) जिनकल्प, (2) स्थविरकल्प। 1.जिनकल्प -- बाह्याभ्यंतर-परिग्रह से रहित, स्नेह-रहित, निस्पृही, जिन के समान (तीर्थंकर के समान) विचरण करते हैं, ऐसे ही श्रमण जिनकल्प' में स्थित कहलाते हैं, 'जिनकल्प' इस समय विच्छिन्न हो चुका है। 2. स्थविरकल्प- यह दो प्रकार का कहा गया है। स्थितकल्प और अस्थितकल्प। प्रथम और अन्तिम-तीर्थंकर का शासन स्थितकल्प' और शेष 22 तीर्थंकर का शासन 'अस्थितकल्प' है। इस समय अन्तिम तीर्थंकर महावीर का शासन है। इनके शासन में 'स्थितकल्प' कहा जाता है। यह दस प्रकार है “आचेलक्कुद्देसियसेंज्जाहररायपिंडकिरियम्मे। वदजेट्ठपडिक्कमणे मासं पज्जोसवणकप्पो।।" _-(भगवती आराधना, 423) अर्थ :- "आचेलक्य, औद्देशिक का त्याग, शय्यागृह का त्याग, राजपिण्ड का त्याग, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठता, मास और पर्युषणा —ये दस स्थितकल्प' हैं।" मुनियों की चारित्रशुद्धि के हेतुओं का कथन करते हुए आचार्य वट्टेकर-प्रणीत 'मूलाचार' में चार प्रकार के लिंग का विवेचन किया है। इसमें भी अचेलता को प्रथम-स्थान दिया है “अच्चेलक्कं लोचो वोसट्टसरीरदा य पडिलिहणं । एसो हु लिंगकप्पो चदुविधो होदि णादव्वो।।" - (मूलाचार 910) अर्थ :- नग्नत्व, लोच, शरीरसंस्कारहीनता और पिच्छिका यह चार प्रकार का लिंगभेद जानना चाहिए। ऐसे अनेक उदाहरण आगमशास्त्र में दिये गये हैं, जिससे अचेलता का महत्त्व प्रकट होता है। ... आचेलक्य— जिसके चेल' अर्थात् वस्त्र न हो, वह 'अचेल' कहलाता है। अचेल का भाव आचेलक्य या अचेलता है। सामान्यत: 'चेल' वस्त्र को कहते हैं; किन्तु यहाँ 'चेल' का ग्रहण परिग्रह' का उपलक्षण है, अत: समस्त परिग्रह के त्याग को 'आचेलक्य' कहते हैं। जब आचेलक्य का बात आती है, तो एक सवाल खड़ा हो जाता है - क्या श्वेतांबरपंथी महावीर के अनुयायी नहीं है। जैनधर्म के मुख्यत: दो संप्रदाय है— दिगम्बर और श्वेताम्बर। दोनों ही पंथों के साधु परिग्रहत्याग-महाव्रत के धारी कहे गये हैं। केवल अचेलता के कारण ही दोनों में मुख्य-भेद पैदा हुआ है। दिगम्बर-साधु तो नग्न रहते हैं। नग्नता उनके मूलगुणों में से एक है; किन्तु श्वेताम्बर-साधु वस्त्र धारण करते हैं और वस्त्र को संयम प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 10 111 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का साधन मानते हैं। यद्यपि 'आचारांग' में कहा है कि भगवान महावीर प्रव्रजित होने के तेरह महीने पश्चात नग्न हो गये। 'स्थानांग' में महावीर के मुख से कहलाया है—“मए समणाण अचेलते धम्मे पण्णत्ते।” अर्थात् मैंने श्रमणों के लिए अचेलता-धर्म कहा है। 'दशवैकालिक' में भी नग्नता का उल्लेख है। उत्तराध्ययन सूत्र' में नग्नता को 'छठा-परिषह' कहा है। किन्त उत्तरकालीन टीकाकारों ने अचेलता का अभिप्राय अल्पमूल्य के मलिन, जीर्ण और प्रमाणयुक्त वस्त्रों का धारण करे —ऐसा किया। ___ आचेलक्य के लाभ--- दिगम्बर-आम्नाय के आगम में तो आचेलक्य के अनेक लाभ गिनाये हैं, परंतु श्वेताम्बर आम्नाय के आगम स्थानांगसूत्र' में भी नग्नता के अनेक लाभ बताये हैं, जैसे अल्प-प्रतिलेखना, लाघव, विश्वास का रूप, जिनरूपता का पालन आदि। दोनों आम्नायों के आगम में उल्लिखित-लाभों के साथ-साथ अचेलता से संक्षेप से दसप्रकार के धर्मो का कथन होता है। वह किस प्रकार इसे देखते हैं (i) उत्तम क्षमा- अचेल के अदत्त का त्याग भी सम्पूर्ण होता है, क्योंकि परिग्रह की इच्छा होने पर बिना दी हुई वस्तु के ग्रहण करने में प्रवृत्ति होती है, अन्यथा नहीं होती। तथा राग आदि का त्याग होने पर भावों की विशुद्धि बनी रहती है। परिग्रह के निमित्त से क्रोध होता है। परिग्रह के अभाव में उत्तम क्षमा' रहती है। (ii) उत्तम मार्दव— 'मैं सुंदर हूँ, संपन्न हूँ' – इत्यादि मद अचेल के नहीं होते, अत: उसके 'मार्दव' भी होता है। (iii) उत्तम आर्जव— अचेल अपने भाव को बिना किसी छल-कपट को प्रकट करता है, अत: उसके 'आर्जव धर्म' भी होता है; क्योंकि माया के मल परिग्रह का उसने त्याग किया (iv) उत्तम सत्य- जो परिग्रह-रहित होता है, वह सत्यधर्म में भी सम्यक रूप से स्थित होता है। क्योंकि परिग्रह के निमित्त ही दूसरे से झूठ बोलना होता है। बाह्य-परिग्रह क्षेत्र आदि तथा अभ्यन्तर-परिग्रह रागादि के भाव में झूठ बोलने का कारण नहीं है। अत: बोलने पर अचेल-मुनि सत्य ही बोलता है। इससे ‘सत्य-धर्म' का पालन होता है। (v) उत्तम शौच धर्म- लोभ-कषाय के अभाव में होता है। लोभ सभी पापों को करानेवाला है। आशा, इच्छारूपी पाश भयानक-दुःखों को देनेवाला है, अत: संतोष को धारण करनेवाले जीव सुख को प्राप्त करते हैं। इस जीव की शुचिता (पवित्रता) शील, जप, तप, ज्ञान, ध्यान के प्रभाव से होती है। हमेशा गंगा, यमुना आदि नदियों में एवं समुद्र में भी स्थान करने से शुचिता अर्थात् पवित्रता नहीं होता, क्योंकि इस शरीर का स्वभाव ही अपवित्र है। यह ऊपर तो अत्यंत निर्मल दिखाता है, परंतु इसके अंदर मल भरा हुआ है —ऐसे शरीर को किसप्रकार पवित्र कहा जा सकता है? जिनका शरीर तो मलिन है, पर जो गुणों के भंडार 40 112 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है —ऐसे महाव्रती-साधु ही इस 'शौच-गुण' को प्राप्त करते हैं। (vi) संयम- अचेलकता में संयम की शुद्धि एक एक गुण है। अचेल का सम्पूर्ण आचरण ही संयमित होता है। हर क्रिया में संयम होता है। पसीना, धूलि और मैल से लिप्त वस्त्र में उसी योनिवाले और उसके आश्रय से रहनेवाले त्रस-जीव तथा सूक्ष्म और स्थूलजीव उत्पन्न होते है, उस वस्त्र धारण करने से उनको बाधा पहुँचती है। यदि कहोगे कि "ऐसे जीवों से संबद्ध वस्त्र को अलग कर देंगे”, तो भी उनकी हिंसा होगी, क्योंकि उन्हें अलग कर देने से वे वहाँ मर जायेंगे। जीवों से युक्त वस्त्र धारण करनेवाले के उठने, बैठने, सोने, वस्त्र को फाड़ने, काटने, बाँधने, वेष्टित करने, धोने, कूटने और धूप में डालने पर जीवों को बाधा होने से महान् असंयम होता है। जो अचेल होता है, उसके इसप्रकार का असंयम न होने से 'संयम' की विशुद्धि होती है। (vii) तप— हर प्रकार के भौगोलिक, प्राकृतिक वातावरण में साधु अपने आपको रखता है। सर्दी, गर्मी, वायु आदि के विषमतम-परिस्थिति का सामना करना ही अपने आप में बहुत बड़ा तप है। परिग्रह से मुक्त होने से शीत, उष्ण, डाँस, मच्छर आदि परिषहों को साधु सहता है। अत: वस्त्र-त्याग को स्वीकार करने से घोर तप' होता है। (viii) त्याग— दशधर्मों में 'त्याग' नामक एक धर्म है। समस्त परिग्रह से विरति को त्याग कहते है, वही अचेलता भी है। अत: हमारे साधु 'त्याग' नामक धर्म में प्रवृत्त होते हैं। क्योंकि माया के मूल 'परिग्रह' का उसने त्याग किया है। बाह्य वस्त्र आदि परिग्रह का त्याग अभ्यंतर-परिग्रह के त्याग का मूल है। (ix) आकिंचन्य— परिग्रह के 24 भेद हैं, उनका त्याग (व्यवहार आकिंचन्य) हमारे साधु करते हैं और तृष्णाभाव को नष्ट करते हैं (निश्चय आकिंचन्य)। परिग्रह चिन्ता, दु:ख के ही पर्याय है। जैसे छोटी-सी फाँस भी पूरे शरीर को दुःखी कर देती है, उसीप्रकार लंगोटी का आवरण या लंगोटी कि चाह दु:ख को देनेवाली होती है। और हमारे साधु अचेल रहकर समता और सुख को प्राप्त कर लेते हैं। (x) ब्रह्मचर्य— अचेलकता का महत्त्वपूर्ण गुण है 'इंद्रियों को जीतना' । साधु व्यवहारब्रह्मचर्य और निश्चय-ब्रह्मचर्य दोनों में ही तत्पर रहते हैं। राग आदि का त्याग होने पर भावों की विशुद्धिरूप ब्रह्मचर्य भी अत्यंत-विशुद्ध होता है। सर्पो से भरे जंगल में विद्या-मंत्र आदि से रहित पुरुष दृढ़-प्रयत्न से खूब सावधान रहता है। उसीप्रकार जो अचेल होता है, वह भी इंन्द्रियों को वश करने का पूरा प्रयत्न करता है। ऐसा न करने पर शरीर में विकार हुआ, तो लज्जित होना पड़ता है। • अचेलकता के उर्वरित-गुणों के अलावा भी अनेक गुण अचेल के होते हैं, जिनके कारण उनका व्यक्तित्त्व प्रभावशाली होता है, तथा लोगों का उनके प्रति आदर, विश्वास कई गुना बढ़ता है। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 113 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अचेलता में कषाय का अभाव है, चोरों के डर से वस्त्र को छिपाने से मायाचार होता है अथवा चोरों के डर से या धोखा देने के लिए कुमार्ग से जाना पड़ता है या झाड़-झंखाड़ में छिपना होता है। मेरे पास वस्त्र है' ऐसा अहंकार होता है। यदि कोई बलपूर्वक वस्त्र छीने, तो उसके साथ कलह होता है। वस्त्र-लाभ होने से लोभ होता है। इसप्रकार वस्त्र धारण करनेवालों के ये दोष है। वस्त्र त्यागकर अचेल होने पर इसप्रकार के दोष उत्पन्न नहीं हैं तथा ध्यान-स्वाध्याय में किसी प्रकार का विघ्न नहीं होता। __ अचेल के संबंध में बताते हुए आचार्य ने कहा है— “जैसे धान के छिलके को दूर करना उसके अभ्यंतर-मल को दूर करने का उपाय है। बिना छिलके का धान नियम से शुद्ध होता है; किन्तु जिस पर छिलका लगा है, उसकी शुद्धि नियम से नहीं होती है।” ____ अचेलता में राग-द्वेष का अभाव एक गुण है; जो वस्त्र धारण करता है, वह मन के प्रिय-वस्त्र से राग करता है और मन को अप्रिय-वस्त्र से द्वेष करता है। अचेलता में स्वाधीनता भी एक गुण है, क्योंकि देशान्तर आदि में सहायक की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। समस्त परिग्रह का त्यागी पिच्छी मात्र लेकर पक्षी की तरह चल देता है। अचेलता में निर्भयता गुण है। चोर आदि मेरा क्या हर लेंगे, क्यों वे मुझे मारेंगे या बाँधेगे? किन्तु सवस्त्र डरता है और जो डरता है, वह क्या नहीं करता? सर्वत्र विश्वास ही अचेलता का गुण है। जिसके पास कोई परिग्रह नहीं, वह किसी पर भी शंका नहीं करता। किन्तु जो सवस्त्र है, वह तो मार्ग में चलनेवाले प्रत्येक व्यक्ति पर अथवा अन्य किसी को देखकर उस पर विश्वास नहीं करता। __इसप्रकार वस्त्र में दोष और अचेलता में अपरिमित-गुण होने से अचेलता ही वह महत्त्वपूर्ण-सीढ़ी है, जो कि मोक्ष तक पहुँचा सकती है और जन्म-मरण के दु:ख-भरे चक्रव्यूह से बचा सकती है। तीर्थंकरों के मार्ग का आचरण करना भी अचेलकता का गुण है। संहनन और बल से पूर्ण तथा मुक्ति के मार्ग का उपदेश देने में तत्पर सभी तीर्थंकर अचेल थे तथा भविष्य में भी अचेल ही होंगे “णग्गस्स य मुंडस्स य दीहलोम-णखस्स य। मेहणादो विरत्तस्स किं विभूसा करिस्सदि।।" - (दशवैकालिक सूत्र) अर्थ :- नग्न, मुण्डित और दीर्घ नख और रोमवाले, मैथुन से विरक्त-साधु को आभूषणों से क्या प्रयोजन है? ऐसे सभी त्रिकालवर्ती अचेल साधुओं को शत-शत वंदन! कर्मनाश और ज्ञानप्रकाश 'ज्ञान दीप तप-तेल भरि, घर शोधैं भ्रम छोर। या विध बिन निकसैं नहीं, बैठे पूरव चोर।। 00 114 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी-जागरण के क्षेत्र में भगवान्महावीर कायोगदान —प्रो. डॉ. (श्रीमती) विद्यावती जैन आज हम सभी भूमण्डलीकरण के युग में जीवन-यापन कर रहे हैं। सूचना-तकनीकी (Information Technology) के कारण आज सारा विश्व एक छोटे-से दायरे में सिमटसा गया है। ऐसे समय में नारी-चेतना और नारी-विकास की दिशा में भी आमूल-चूल परिवर्तन हुआ है। कल तक घर की चार-दीवारी में बन्द रहनेवाली नारियाँ आज पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर कार्य कर रही है। चाहे यह प्रशासन का क्षेत्र हो, न्यायालयों का क्षेत्र हो, अथवा राजनीति या शिक्षण-प्रशिक्षण का या सामाजिक-सेवा का, कोई भी कार्य-क्षेत्र उनसे अछूता नहीं बचा है। असम्भव से असम्भव-कार्यों की बागडोर भी उन्होंने सम्भाल लेने का साहस बटोर लिया है। नारी-चेतना का यह रूप अनायास ही प्रस्फुटित नहीं हुआ है, बल्कि आज से 2600 वर्ष पूर्व भगवान् महावीर ने भगवान् ऋषभदेव की क्रमागत-परम्परा के अनुसार नारी-जागरण और नारी-स्वतन्त्रता की जो ज्योति जगाई थी, उसी का यह प्रस्फुटन है। जैन-संस्कृति में नारियों को निरन्तर ही गरिमापूर्ण-स्थान प्राप्त रहा है। उनकी स्वतन्त्रता मात्र सैद्धान्तिक न होकर व्यावहारिक भी रही है। यदि प्राचीन जैन-साहित्य पर दृष्टि डाली जाये, तो आद्य-तीर्थंकर ऋषभदेव ने अपने पुत्रों के साथ-साथ अपनी पुत्रियोंब्राह्मी एवं सुन्दरी को भी समानरूप से शिक्षा प्रदान की थी, जिसके आधार पर उन्होंने ज्ञान-विज्ञान और कला के क्षेत्र में प्रगति कर अपनी प्रतिभा से सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था। राजकुमारी ब्राह्मी के नाम पर ही विश्वप्रसिद्ध प्राचीन-लिपि का नामकरण भी ब्राह्मी-लिपि किया गया, जिसमें सम्राट अशोक, कलिंगाधिपति जैन-सम्राट् खारवेल तथा परवर्ती अनेक शासकों के धर्मलेख उपलब्ध हैं। पूर्वकाल में सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक क्षेत्रों में भी पुत्र और पुत्री में कोई भेदभाव नहीं था; किन्तु काल के दुष्प्रभाव से भगवान् महावीर का युग आते-आते पुरुषों की मनोदशा में बहुत-परिवर्तन आ गया उनके काल में नारी की दशा अत्यन्त-शोचनीय हो गई थी। उसे एक तुच्छ-दासी के समान समझा जाने लगा था। खुलेआम उसका क्रय-विक्रय किया जाने लगा था। उसके अधिकारों की अवहेलना की जा रही थी। उसे शिक्षा से भी वंचित प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 115 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर दिया गया था। वह लाचार और पराधीन हो गई थी। धार्मिक अनुष्ठानों में पुरुष की बराबरी से भाग लेना उसके लिये निषिद्ध था और सर्वत्र “स्त्री-शूद्रौ नाधीयताम्" का नियम कठोरता के साथ लागू किया जा रहा था। मानव-समाज के अर्धभाग का प्रतिनिधित्व करनेवाले नारी-समाज को भगवान् महावीर ने जब इसप्रकार प्रताड़ित और शोषित देखा, जो उन्होंने नारी-स्वतन्त्रता और उसके समत्व की घोषणा ही नहीं की, अपितु उसकी व्यावहारिक-क्षेत्र में अवतारणा भी की। जैसाकि पीछे कहा जा चुका है कि आदि-तीर्थंकर ऋषभदेव ने पुत्र एवं पुत्रियों को समान माना, उन्हें समानाधिकार दिये, समाज के प्रत्येक क्षेत्र में नारी को प्रतिष्ठित किया और इसप्रकार स्वस्थ-समाज का निर्माण किया। यही परम्परा आगे भी जारी रही। बल्कि उनके संघों में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की संख्या ही अधिक रही। हमारे प्राचीन आचार्यों ने इस परम्परा का वर्णन विस्तारपूर्वक किया है, जिसकी संक्षिप्त-झांकी निम्नलिखित मानचित्र से मिल सकती है तीर्थंकर साधुओं की साध्वियों की श्रावकों की श्राविकाओं नाम संख्या संख्या संख्या की संख्या 1. आदिनाथ 84000 350000 3 लाख 5 लाख अजितनाथ 100000 330000 3. सम्भवनाथ 200000 330000 4. अभिनन्दननाथ 300000 330600 5. सुमतिनाथ 320000 330000 6. पद्मप्रभु 330000 420000 7. सुपार्श्वनाथ 300000 330000 8. चन्द्रप्रभु 250000 380000 9. पुष्पदन्त 200000 390000 2 लाख 4 लाख 10. शीतलनाथ 100000 380000 11. श्रेयांसनाथ 84000 130000 12. वासुपूज्य 72000 106000 13. विमलनाथ । 68000 1030000 14. अनन्तनाथ 66000 108000 15. धर्मनाथ 64000 62400 16. शान्तिनाथ 62000 60300 17. कुन्थुनाथ 60000 60350 1 लाख 3 लाख 18. अरनाथ 50000 60000 19. मल्लिनाथ 40000 55000 20. मुनिसुव्रतनाथ 30000 50000 00 116 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक ___ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21. नमिनाथ 20000 45000 22. नेमिनाथ 18000 40000 23. पार्श्वनाथ 16000 38000 24. महावीर 14000 36000 वैशाली की महावीरकालीन राजकुमारी चन्दनबाला, जो बेड़ी में जकड़ी हुई एक क्रीतदासी का जीवन व्यतीत कर रही थी, उसे भगवान् महावीर ने दासता से ही मुक्त नहीं किया; अपितु उसे अपने चतुर्विध-संघ में दीक्षित कर साध्वियों की प्रधान भी बनाया। यह भगवान् महावीर की नारी के प्रति उच्च-सम्मान की भावना का ही प्रतिफल था कि उनके संघ में जहाँ साधुगण 14000 थे, वहीं साध्वियों की संख्या 36000 थी और श्रावकों की संख्या जहाँ 1 लाख थी, वहीं श्राविकाओं की संख्या 3 लाख थी। भगवान् महावीर ने नारियों के जीवन में जागरण की ऐसी क्रान्ति उत्पन्न की, जिसने तुच्छ, हीन एवं अबोध समझी जानेवाली अबलाओं में भी उच्च-भावनाओं को उबुद्ध कर दिया। कोशा, सुलसा, जयन्ती, शीलवती, अनन्तमती, रोहिणी और रेवती आदि ऐसी ही प्रबुद्ध महिलायें थीं, जो किसी भी महारथी विद्वान् से बिना किसी झिझक के शास्त्रार्थ कर सकती थीं और अपनी प्रतिभा-चातुर्य से वे उन्हें निरुत्तर कर सकती थीं। ___भगवान् महावीर के नारी-जागरण की यह परम्परा उनके बाद लगभग 1500 वर्षों तक अबाधगति से चलती रही। भारत में अनेक जैन महिलायें ऐसी भी हईं, जिन्होंने अपनी आध्यात्मिक उन्नति के साथ सामाजिक, धार्मिक एवं अपने देश की सुरक्षा एवं राजनैतिक उत्थान में पुरुषों के साथ सहभागिता का अनुपम परिचय दिया, जिसकी विस्तारपूर्वक चर्चा 9वींसदी से लेकर 16वीं सदी के शिलालेखों एंव ग्रन्थ-प्रशस्तियों में उपलब्ध है। अंग-चम्पा की महारानी पद्मावती, मयणसुंदरी, रयणमंजूषा, कमलश्री, सुभद्रा तथा दक्षिण भारत की महासती अत्तिभव्वे, सावियव्वे, जक्कियव्वे, कवि कन्ती आदि प्रमुख हैं। श्राविका अत्तिभव्वे (10वीं सदी) न केवल कर्नाटक की अपितु, समस्त महिला-जगत् के गौरव की प्रतीक हैं। यह वीरांगना महासेनापति मल्लप की पुत्री और महादण्डनायक वीर नागदेव की पत्नी थी। उसने अपने शील-सदाचार, अखण्ड-पातिव्रत्य धर्म और जिनेन्द्र-भक्ति में अडिग-आस्था के फलस्वरूप गोदावरी नदी में आई हुई प्रलयंकारी-बाढ़ के प्रकोप को भी शान्त कर दिया था और उसमें फंसे हुए अपने पति के साथ-साथ सैकड़ों वीर सैनिकों को वह सुरक्षित वापिस ले आई थी। उक्त अत्तिभव्वे स्वयं तो विदुषी थी ही, उसने आग्रहपूर्वक सुप्रसिद्ध महाकवि रन्न (रत्नाकर) से 'अजितनाथ पुराण' की रचना अपने ही आश्रय में रखकर करवाई थी। उसने उभयभाषाचक्रवर्ती' पोन्न-कृत शान्तिनाथ पुराण' की 1000 प्रतिलिपियाँ कराकर विभिन्न-शास्त्रभण्डारों में वितरित कर सुरक्षित कराई थीं। यही नहीं, उसने स्वर्ण, मणि-मणिक्य, हीरा आदि की 1500 भव्य मूर्तियाँ बनवाकर भी विभिन्न जिनालयों में प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 40 117 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठित करायीं थीं। अपने इन्हीं उदार एवं प्रेरक-सत्कार्यों के कारण वह सर्वत्र 'दानचिन्तामणि' के नाम से प्रसिद्ध थी । महान् कवियित्री कन्ती देवी ( 12वीं सदी) उन विदुषी - लेखिकाओं में से थी, जिसने साहित्य एवं समाज के क्षेत्र में बहुआयामी - कार्य किये थे । वह दोरसमुद्र के राजा बल्लाल (द्वितीय) की विद्वत्सभा की सम्मानित विदुषी कवियित्री थी । कन्नड़ महाकवि बाहुबलि ने मंगल- लक्ष्मी, शुभगुणचरिता, अभिनव - वाग्देवी आदि अनेक विरुद - प्रशस्तियों द्वारा उसे सम्मानित किया है । वीरांगना सावियव्वे श्रावक - शिरोमणि वीरमार्तण्ड महासेनापति चामुण्डराय (सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य के शिष्य) की समकालीन थी । उसके पति का नाम लोक-विद्याधर था। एक ओर तो वह अपने पति के साथ युद्ध - क्षेत्र में जाकर वीरतापूर्वक रण- जौहर दिखलाती थी और दूसरी ओर अतिरिक्त समयों में वह नैष्ठिक श्राविका - व्रताचार का पालन करती थी । श्रवणबेलगोल की बाहुबलि - वसति में पूर्व दिशा की ओर एक पाषाण में अं एक दृश्य में उसी सावियव्वे को हाथी पर सवार एक योद्धा पर असि - प्रहार करते हुए चित्रित किया गया है । उसी पाषाण में टंकित लेख में इस वीरांगना को रेवती रानी जैसी पक्की श्राविका, सीता जैसी पतिव्रता, देवकी जैसी रूपवती, अरुन्धती जैसी धर्मप्रिया और जिनेन्द्र-भक्त बतलाया गया है । पम्पादेवी (12वीं सदी) विक्रमादित्य - सान्तर की बड़ी बहिन थी । उसके द्वारा निर्मापित एवं चित्रित अनेक चैत्यालयों के कारण उसकी यशोगाथा का सर्वत्र गान होता था । कन्नड़ के महाकवियों ने उसके चरित्र-चित्रण के प्रसंग में प्रमुदित होकर कहा है कि 'आदिनाथचरित' का श्रवण की पम्पादेवी के कर्णफूल, चतुर्विधदान ही उसके हस्तकंकण तथा जिनस्तवन ही उसका कण्ठहार था। इस पुण्यचरित्रा पम्पा ने उर्वितिलक - जिनालय का निर्माण छने हुए प्रासुक-जल से केवल एक मास के भीतर ही कराकर उसे बड़ी ही धूमधाम के साथ प्रतिष्ठित कराया था। पम्पादेवी स्वयं पण्डिता भी थी । उसने कन्नड़ भाषा में 'अष्टविधार्चन - महाभिषेक' एवं 'चतुर्भक्ति' नामक ग्रन्थों की रचना की थी। बीसवीं सदी के स्वतन्त्रता आन्दोलन में भी जैन नारियों ने बढ़-चढ़कर अपनी सहभागिता दर्ज की थी। उन्होंने गोली की बौछारें भी सहीं और जेल की सलाखों के पीछे बन्द भी रहीं । भगवान् महावीर ने नारी - विकास को जिसप्रकार प्रतिष्ठित किया था, सदियों से उसीप्रकार उसने विपरीत परिस्थितियों के बीच भी अपनी साधना, लगन, निष्ठा और धार्मिक आचरण से उसे उत्तरोत्तर वृद्धिंगत किया है । यद्यपि भगवान् महावीर कोई राजनयिक - पुरुष नहीं थे, उनके हाथ में ऐसा शासन-तन्त्र भी नहीं था कि जिसके आधार पर कोई ओर्डिनेन्स ( ordinance) जारी करके महिलाओं ☐☐ 118 प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के उद्धार के विषय में कोई नियम-कानून गढ़ते। उनके पास तोप-तलवार भी नहीं थी, जिसका पुरुषों को भय दिखाकर वे नारियों का उद्धार करते। उनके हाथ में तो मात्र एक ही बल था – आत्मबल, दृढ़ इच्छाशक्ति तथा त्याग और तपस्या का चमत्कार, उसी से उन्होंने लोगों का हृदय-परिवर्तन किया और उसी से उन्होंने नारी का उद्धार किया। इसप्रकार मैंने भगवान् महावीर द्वारा ऊर्जस्वित एवं जागृत नारी-समाज के विषय में चर्चा की। जैन-संस्कृति एवं इतिहास के क्षेत्र में उनके बहुआयामी संरचनात्मक-योगदानों के कारण उन्होंने समाज एवं राष्ट्र को और गौरव प्रदान किया है, वह पिछली अढ़ाई सहस्राब्दियों का एक स्वर्णिम अध्याय है। आवश्यकता इस बात की है कि यदि कोई शोधार्थी छात्र या छात्रा इस धैर्यसाध्य-क्षेत्र में विश्वविद्यालय-स्तर का विस्ततं शोधकार्य करें, तो उससे अतीतकालीन जैन नारी-समाज के राष्ट्र के निर्माण में योगदान-सम्बन्धी विपुल-सामग्री प्रकाश में आ सकेगी, जो अगली पीढ़ी के लिये प्रकाशस्तम्भ का कार्य करेगी। ** जय जिनेन्द्र आज से लगभग 175 वर्ष पूर्व विक्रम संवत् 1884 में ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी मंगलवार को कविवर पं. वृन्दावनदासजी ने काशी से दीवान अमरचन्दजी को जयपुर पत्र लिखा था। इसमें उन्होंने पत्र के प्रारम्भ में दीवान साहब को 'जय जिनेन्द्र' कहकर सम्बोधित किया है “वृन्दावन तुमको कहत, श्रीमत जयति जिनन्द । काशीतें सो बांचियो, अमरचन्द सुखकन्द ।।" – (वन्दावन-विलास) __ और इतना ही नहीं, अन्त में उन्होंने पुन: ऋषभदास, घासीराम आदि समाज के अन्य प्रमुख पंच लोगों को भी 'जय जिनेन्द्र' कहकर ही अभिवादन किया है— "रिषभदास पुनि घासीराम। और पंच जे सुगुन-निधान ।। विगति विगति श्री जयति जिनंद । कहियौ सबसौं धरि आनन्द ।।" -(वही) इसस स्पष्ट होता है कि वर्तमान में जो पारस्परिक अभिनन्दन-अभिवादन-हेतु 'जयजिनेन्द्र' कहने का व्यवहार प्रचलित है, वह कोई एकदम नई-परिपाटी नहीं है, अपितु कम से कम दो सौ वर्ष प्राचीन अवश्य है। खोज करने पर और भी प्राचीन-प्रमाण प्राप्त हो सकते हैं। महावीर-वन्दना "संसारदावानलं मेघनीरं सम्मोहधूलीहरणे समीरम् । मायारसादारणसारसीरं नमामि वीरं गिरिराजधीरम् ।। 4 ।।" प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 119 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राद अशोक के शिलालेखों में उपलब्ध महावीर-परम्परा के पोषक तत्व ___-डॉ० शशि प्रभा जैन प्राचीन-अभिलेखों का महत्त्व मात्र ऐतिहासिक-दृष्टि से ही नहीं, वरन् राजनैतिक, भौगोलिक, सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक एवं नैतिक-दृष्टियों से भी होता है; क्योंकि उनमें तत्कालीन संस्कृति, समाज, धर्म, प्रशासन एवं नैतिक महत्त्व के प्रसंग आदि प्राय: वर्णित मिलते हैं। कई बार इनमें प्रयुक्त कोई शब्द-विशेष भी इतिहास, संस्कृति, दर्शन एवं धर्म की महत्त्वपूर्ण-गुत्थियों को सुलझाने में बेहद-उपयोगी होता है। साथ ही अभिलेख लिखनेवाले व्यक्ति-विशेष के इतिवृत्त एवं मानसिकता का तो वे स्पष्टरूप से प्रकाशन करते ही हैं। इन सन्दर्भो में यदि अशोक के शिलालेखों एवं स्तम्भ-लेखों का अध्ययन एवं विश्लेषण करें, तो इनमें हमें अशोक के समय के इतिहास एवं प्रशासन का तो ज्ञान होता ही है; पर मुख्यत: ये 'धम्मलिपि' या 'धम्मानुशासन' होने के कारण उसके 'धम्म'-सम्बन्धी विचारों एवं सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हैं। अशोक ने इन्हें 'धम्म-लिपि' इसीलिए कहा है; क्योंकि इन सबमें प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्षरूप से धम्म-सम्बन्धी विवरण प्राप्त होता है। प्राय: सभी अभिलेखों में उसने 'धम्म' शब्द की पुनरावृत्ति धम्मदान, धम्मघोष, धम्मभेरी, धम्ममंगल, धम्मसंविभाग, धम्मरति आदि रूपों में की है। परन्तु अशोक के अभिलेखों में वर्णित 'धम्म' शब्द तथा धम्म-संबंधी अशोक के विचारों को समझने से पूर्व हमें अशोक की पारिवारिक-पृष्ठभूमि को समझना आवश्यक होगा; क्योंकि यह एक सर्वविदित तथ्य है कि व्यक्ति के विचारों एवं आदर्शों पर उसके पारिवारिक-संस्कारों का बहुत प्रभाव होता है। यह एक ऐतिहासिक-तथ्य है कि अशोक के पितामह चन्द्रगुप्त मौर्य अपने जीवन के अन्तिम दिनों में राज्य त्यागकर जैन-मुनि बन गए थे तथा दक्षिण भारत के मैसूर-प्रान्त में 'श्रवणबेलगोला' में वह अपने गुरु भद्रबाहु के साथ रहकर तपस्या करते थे। अशोक के पिता बिन्दुसार भी जैनधर्म के प्रबल-समर्थक एवं प्रभावक-महापुरुष थे। चीनी यात्री युवाच्वाइ तथा दिव्यावदान' आदि ग्रन्थों के अनुसार अशोक का अनुज जीवन के अन्तिम-दिनों में 'अर्हत्' बन गया था। स्वयं अशोक के सम्बन्ध में भी यह मत है कि वह जैन' था।' विल्सन तथा थामस महोदय ने भी यह सिद्ध करने का प्रयास किया है 00 120 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि अशोक प्रारम्भिक जीवन में जैनधर्मावलम्बी था; परन्तु बाद में उसने बौद्धधर्म को स्वीकार कर लिया था। श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार के अनुसार “भारत के सीमान्त से विदेशी-सत्ता को सर्वथा पराजित करके भारतीयता की रक्षा करनेवाले सम्राट चन्द्रगुप्त ने जैनाचार्य श्री भद्रबाहु से दीक्षा-ग्रहण की थी। उनके पुत्र बिम्बसार थे। सम्राट अशोक उनके पौत्र थे जो कुछ दिन जैन रहकर पीछे बौद्ध हो गये थे।" जिन महात्मा बुद्ध के धर्म की प्रभावना की चेष्टा अशोक ने की, वे महात्मा बुद्ध भी मूलत: सर्वप्रथम जैनधर्म में दीक्षित हुए थे। पालि-त्रिपटकों के अनुसार वे नग्न दिगम्बर-जैन-साधु बने थे और कई वर्षों तक उन्होंने साधुचर्या को निभाया भी था। किन्तु बाद में इस कठिन-चर्या को नहीं निभा पाने के कारण उन्होंने सांसारिक-गृहस्थावस्था एवं कठोर-साधुचर्या के बीच के मध्यम-मार्ग को अपनाया तथा उन्हीं के अनुरूप धार्मिक-सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। ___अत: अशोक व्यक्तिगत-जीवन में भले ही बौद्ध-धर्मावलम्बी हो गया था; परन्तु धार्मिक दृष्टि से उसके संस्कार जैनत्व के ही थे। जैन और बौद्ध-धर्म के मध्य राजा अशोक इतना कम-भेद देखता था कि उसने सर्वसाधरण में अपना बौद्ध होना अपने राज्य के बारहवें वर्ष में (247 ई.पू.) कहा था। इसीलिए करीब-करीब उसके कई शिलालेख के जैन सम्राट् के रूप में है। उसने सर्वसामान्य के लिए जिस धर्म को उपदेशित किया, वह एक समन्वयवादी सार्वजनिक-धर्म होते हुए भी उसकी धर्म-प्रभावना मूलत: जैनधर्म से अनुप्राणित प्रतीत होती है। अत: इस आलेख में अशोक के अभिलेखों में उपलब्ध जैन-परम्परा के पोषक-तत्त्वों का परिचय देने का प्रयास किया गया है। धम्म अशोक के लेखों में जिस धर्म का उल्लेख है, वह कोई धर्मविशेष न होकर आचरण-संहिता मात्र है; जिसके दो रूप है (1) व्यावहारिक, (2) शास्त्रीय । व्यावहारिक-रूप में वह जीवन के विभिन्न-सम्बन्धों के प्रति सदाचार के विस्तृत-नियमों का विधान करता है। इस आचार-संहिता या व्यावहारिक-धर्म के बारे में वह स्वयं स्तम्भ-लेखों में लिखता है"धमे साधु, कियं चु धमेति? अपासिनवे, बहुकयाने, दया, दाने, सचे, सोचये।" -(स्तम्भ-लेख, 2) "एस हि धंमापदाने धंमपटीपति च यसा इयं दया दाने, सचे, सोचये, मदवे साधवे च लोकस हेवं वढिसति ति।" - (स्तम्भ-लेख, 7) __ जैनधर्म के प्रतिष्ठित प्रमुख-आचार्य कुन्दकुन्द न भी 'बारस-अणुक्खा ' में धर्म को उत्तमक्षमा आदि दस प्रकार मय माना है “उत्तम-खम-मद्दवज्जव-सच्च-सउच्चं च संजमं चेव । तव-तागाकिंचिण्हं बम्हा इदि दसविहं होदि।।" – (गाथा 10) वस्तुत: दस भेदोंवाला धर्म नहीं है; अपितु उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 121 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम, तप, त्याग, आकिंचन, ब्रह्मचर्य, दशलक्षणों से युक्त जो अखण्ड है, वही धर्म है। 'तत्त्वार्थसूत्र' में आचार्य उमास्वामी ने भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हुए कहा है कि "उत्तमक्षमा-मार्दवार्जाव-शौच-सत्य-संयम-तपस्त्यागाकिंचन्य-ब्रह्मचर्याणि धर्म: ।” इसमें उत्तमक्षमा आदि के अन्त में 'ब्रह्मचर्याणि' बहुवचनान्त-प्रयोग किया है तथा 'धर्म:' एकवचनान्त-प्रयोग है। इससे स्पष्ट है कि धर्म के लक्षण उत्तमक्षमा आदि दस हैं, किन्तु धर्म दसप्रकार का नहीं है, वह तो एक ही है। यह धर्म चर्चा का विषय न होकर 'चर्या' अर्थात् आचरण का विषय है; क्योंकि राजवार्तिककार के अनुसार “धारणसामर्थ्याद् धर्म इत्येषा संज्ञा अन्वर्थेति” – (राजवार्तिक, 9/6/24) ___ इसके अनुसार धारण करने की सामर्थ्य या विशेषता के कारण ही इनकी 'धर्म' संज्ञा सार्थक होती है। अहिंसा अशोक ने अपने अभिलेखों में जहाँ 'धम्म' की चर्चा की है, वहीं उसने अहिंसा-सम्बन्धी कुछ वाक्यों का प्रयोग किया है :-- (i) अनारम्भो पाणानं (शिलालेख 3, 4, 9, स्तम्भलेख 7) अर्थात् प्राणियों की हिंसा न करना। (ii) अविहिंसा भूतानां (शिलालेख 4, स्तम्भलेख 7) सभी जीवधारियों के प्रति अहिंसा। (iii) पाणानां संयमो (शिलालेख 9) प्राणियों की हिंसा में संयम। (iv) सर्वाभूतानं अक्षतिसंयम समचरिअं रभसिये। (शिलालेख 13) सभी जीवधारियों की रक्षा, संयम एवं समताचार प्रारंभ किया। इसमें व केवल मनुष्यों के प्रति अहिंसा अथवा हिंसा के प्रति संयम की बात न कहकर सम्पूर्ण जीवधारियों के अक्षति-संयम की बात करता है, तथा स्तम्भलेख-क्र. पाँच में ऐसे प्राणियों की एक लम्बी सूची दी गई है, जिनकी रक्षा का विधान है। __ अशोक का अहिंसा के प्रति यह दृष्टिकोण जैनधर्म के अहिंसा के विस्तृत-दृष्टिकोण का परिचायक है, जहाँ केवल प्राणियों की अहिंसा का ही नहीं, वरन् त्रस एवं स्थावर —दोनों के प्रति अहिंसा धारण करने को कहा गया है। त्रस एवं स्थावर-जीवों के सम्बन्ध में जैनों का विस्तृत-चिन्तन 'द्रव्यसंग्रह' में इसप्रकार वर्णित है “पुढवि-जल-तेऊ-वाऊ-वणप्फदी विविह थावरेइंदी। विग-तिग-चदु-पंचक्खा, तसजीवा होंति संखादी ।।" - (द्रव्यसंग्रह 11) पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति ये नानाप्रकार के स्थावरजीव हैं और ये एक-इन्द्रिय के धारक हैं। दो-तीन-चार और पाँच इन्द्रियों के धारक शंख आदि त्रस जीव' कहलाते इन त्रस एवं स्थावर ---दोनों प्रकार के जीवों के प्राणातिपात से विरमण को अहिंसाव्रत तथा इनकी रक्षा को ही 'अहिंसाधर्म' कहा गया है-- 00 122 प्राकृतविद्या जनवरी-जून "2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) “पढमं महव्वदं पाणादिवावादो विरमणं" – (यति-प्रतिक्रमणसूत्र) (2) “जीवाणं रक्खणो धम्मो।" - (कार्तिकेयानुप्रेक्षा) (3) “प्रमत्तयोगात्प्राण-व्यपरोपणं हिंसा।" - (तत्त्वार्थसूत्र, 13/7, आचार्य उमास्वामी) (4) “धर्ममहिंसारूपं संशृण्वन्तोऽपि ये परित्यक्तुम् । स्थावरहिंसामसहास्त्रसहिंसां तेऽपि मुञ्चन्तु ।। स्तौकैकेन्द्रियघाताद्गृहिणां सम्पन्नयोग्यविषयाणाम् । शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम् ।।" -(अमृतचन्द्राचार्य, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय 4/40, 4/76-77) (5) त्रसहिंसा को त्यागि वृथा थावर न संहारै। ___पर-वधकार कठोर निन्द्य नहिं वचन उचारै ।। -(छहढाला, 4.10.59) उपरोक्त श्लोकों में त्रस' एवं 'स्थावर' दोनोंप्रकार के जीवों के घात को त्यागने के लिए कहा है। अशोक प्राणियों की हिंसा नहीं करने से ही सन्तुष्ट नहीं होता। वह अमुक पशुओं को निर्लक्षित करने तथा जीव-सहित भूसे को जलाने का भी निषेध करता है। डॉ. भंडारकर के अनुसार अशोक ने अन्यत्र भी जैन-कल्पना ग्रहण की है। उसके लेखों में जीव, प्राण, भूत और जात शब्द आचारांग सूत्र' के पाणा-भूया, जीव-सत्ता के ही पर्याय हैं।" तिथियों का विचार अहिंसा-सम्बन्धी विचारों को और प्रभावक बनाने के लिए उसने तीन तिथियों चावुदसं, पनदस, पटिपादये, " (चतुर्दशी, पूर्णिमा, प्रतिपदा) को उपवास का दिन बताकर मछलियों को मारने व बेचने से मना किया है। इसीप्रकार प्रत्येक पक्ष की पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, तीन चातुर्मासों के शुक्लपक्ष में गौ को नहीं दागने का आदेश दिया है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जैन-परम्परा में भी तीनों चातुर्मासों शुक्लपक्ष, पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी एवं पूर्णिमा का विशेष महत्त्व है। वर्ष की तीनों अष्टाह्निका शुक्लपक्ष की अष्टमी से प्रारम्भ होकर पूर्णिमा को समाप्त होती है। तथा वर्ष का सर्वप्रमुख 'दसलक्षण पर्व' भाद्रपदमास की पंचमी से प्रारम्भ होकर चतुर्दशी तक चलता है। जैनों में इससे पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी एवं शुक्लपक्ष आदि का महत्त्व परिलक्षित होता है। जैन-परम्परा में ही पंचमी, अष्टमी तथा चतुर्दशी को व्रत रखने का विधान है। धरि उर समताभाव सदा सामायिक करिये। पर्व-चतुष्टय-माँहि पाप तजि पोषध धरिये ।। -(छहढाला, 4.14.63) मन में समताभाव धारण करके नित्य सामायिक करनी चाहिए। यह ‘सामायिक व्रत' है। चारों पर्यों में दो 'अष्टमी' और दो चतुर्दशी' को व्यापार आदि पाप-कार्यों को छोड़कर प्रोषधोपवास करना चाहिए। यह प्रोषधोपवास' व्रत है। अत: इन तिथियों को व्रत का दिन कहकर मछलियों के मारने व बेचने का निषेध कर तथा गौ को दागने की मनाही करना; प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 123 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक की विचारधाराओं पर जैनत्व के संस्कारों का स्पष्ट द्योतक है। आसव अशोक के दसवें चट्टानलेख में उल्लेख है "देवानंपियदसि राजा तं सवं पारत्रिकाय किंति सकले अपपरिस्रवे अस। एस तु परिसवे य अपुंजं।" __"देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा जो कुछ उद्योग करता है, वे सब परलोक के लिए है, जिससे प्रजा को कम से कम परिसव मिले। यह जो अपुण्य है, वही परिसव है।" ____ ध्यान देने की बात यह है कि जैनधर्म में 18 प्रकार के पापों और 42 प्रकार के आस्रवों का विधान है। 'परिसवे', 'अपरिसवे', 'आसिवने' आदि शब्द बौद्ध न होकर जैन-साहित्य से लिए गए लगते हैं।' निम्न परिभाषायें द्रष्टव्य हैं(1) कायवाङ्मन:कर्म योग: । स आम्रवः। -(तत्त्वार्थसूत्र 6/1-2) (2) आसवदि जेण कम्म, परिणामेणप्पणो स विण्णेयो। भावासवो जिणुत्तो, कम्मासवणं परो होदि।। -(द्रव्यसंग्रह 29) अर्थ :- आत्मा के जिस परिणाम से कर्म आते हैं, वह जिनेन्द्रदेव द्वारा कहा हुआ 'भावासव' है। (3) ज्यों सर-जल-आवत मोरी त्यों आस्रव कर्मन को। दर्वित जीव प्रदेश गहै, जब पुद्गल करमन को।। भावित आम्रवभाव शुभाशुभ, निशदिन चेतन को। पाप-पुण्य के दोनों करता, कारण बंधन को।। -(बारहभावना, कवि मंगतराय) (4) जो जोगनि की चपलाई, ताते वै आस्रव भाई। आस्रव दुःखकार घनेरे, बुधिवंत तिन्हें निरवेरे ।। -(छहढाला 5-7-73, कविवर दौलतराम) उक्त उद्धरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अशोक ने आम्रवों के सम्बन्ध में जैनों का मत माना है। क्रोध, मान, ईर्ष्या आदि अशोक ने धर्मपालन के लिए कुछ तत्त्वों को त्यागने के लिए कहा। (1) चंडिए (उग्रता), (2) निठूलिए (निष्ठुरता), (3) क्रोधे (क्रोध), (4) माने (मान), (5) इसिया (ईर्ष्या)। इनमें से तीन क्रोध, मान और ईर्ष्या या द्वेष का वर्णन अशोक ने आसिनवगामिनी के रूप में किया है। -- (स्तम्भलेख 3) जैनधर्म में भी क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कषायों को त्यागने को कहा गया है। प्रत्येक श्रावक के द्वारा नित्यप्रति की जानेवाली 'मेरी भावना' में आचार्य जुगलकिशोर जी कहते हैं 0 124 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक ___ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहंकार का भाव न रक्खू नहीं किसी पर क्रोध करूँ। देख दूसरों की बढ़ती को कभी न ईर्ष्याभाव धरूँ।। इसीप्रकार सामायिक पाठ' में जैन-श्रावक प्रभु से प्रार्थना करता है : सन्मुक्ति के सन्मार्ग से प्रतिकूल-पथ मैंने किया। पंचेन्द्रियों चारों कषायों में स्वमन मैंने किया।। इस हेतु शुद्ध-चारित्र का जो लोप मुझसे हो गया। दुष्कर्म वह मिथ्यात्व को हो प्राप्त प्रभु ! करिए दया।। जैनाचार्यों के अनुसार मिथ्यादृष्टि-जीवों में क्रोध, मान, माया, लोभ यह चारों कषाय विशेषरूप में होते हैं। प्रत्येक कषाय के अनन्तानुबंधी, प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान एवं संज्वलन ___-इन चार भेदों के कारण, चारों कषायों के 16 भेद किये गये हैं। 'कसायपाहुड' नामक ग्रन्थ में इनका विस्तार से उल्लेख है, जिस पर आचार्य वीरसेन ने जयधवला टीका लिखी है। आत्मानुशासनकार ने कहा है कि—“जिस सरोवर में मगरमच्छ होंगे, उस सरोवर में मछलियाँ शांति से निर्द्वन्द होकर विचरण नहीं कर सकती है। इसीप्रकार जब तक हमारी आत्मा में कषायरूपी मगरमच्छ रहेंगे, तब तक आत्मा के क्षमादि धर्म विचरण नहीं कर सकते।" हृदयसरसि यावन्निर्मलेऽप्यत्यगाधे वसति खलु कषायग्राहचक्रं समन्तात् । श्रयति गुणगणोऽयं तन्न तावद्विशंकं, संयम-शमविशेषैस्तान् विजेतुं यतस्व।। --(आत्मानुशासन) आत्म-परीक्षण ___ अशोक धर्म की वृद्धि के लिए आत्म-निरीक्षण को अत्यन्त आवश्यक बताता है; क्योंकि इससे धर्म की ओर जागरुकता बढ़ती है। -(स्तम्भलेख 7) अशोक के अनुसार 'आत्मपराक्रम का एक तरीका 'आत्म-निरीक्षण' है, जिसका अर्थ है अपने बुरे और अच्छे कार्यों का परीक्षण (स्तम्भलेख 2)। स्तम्भलेख क्र. 1 में धार्मिक जीवन के लिए गहन-आत्मपरीक्षा और उत्साह पर जोर देता हैं जैन-परम्परा में भी आत्म-परीक्षण का अत्यन्त महत्त्व है। आलोचना एवं प्रतिक्रमण करना प्रत्येक श्रावक एवं साधु के लिए आवश्यक है। यतियों की षड्आवश्यक-क्रियाओं में से प्रतिक्रमण एक है। समदा थओ य वंदण-पडिक्कमणं तहेव णादव्वं । पच्चक्खाण-विसग्गो करणीयावासया छप्पि।। प्रतिक्रमण की विधि शास्त्रज्ञों ने इसप्रकार निरूपित की है दव्वे खेत्ते काले भावे य कदावराह-सोहणयं । जिंदण-गरहण-जुतो, मण-वच-कायेण पडिक्कमणं ।। आहार, शरीर आदि द्रव्य में, वसतिका-मार्ग आदि क्षेत्र में, पूर्वाह्न, मध्याह्न, दिवस, .. प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 125 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रि आदिकाल में, संकल्प - विकल्प रूप आदि भावों में किये गये अपराधों की निन्दा व गर्हा से युक्त होकर शुद्ध, मन, वचन, कर्म से आलोचन करना 'प्रतिक्रमण' है 1 इसीप्रकार श्रावक भी 'आलोचना-पाठ' के माध्यम से अपने द्वारा किये गये दोषों की निर्वृत्ति करना चाहता है । सुनिये जिन अरज हमारी, हम दोष किए अति भारी । तिनकी अब निवृति काजा, तुम सरन लही जिनराजा ।। - ( आलोचना-पाठ ) इसप्रकार आलोचना एवं प्रतिक्रमण के द्वारा जैन- परम्परा में आत्मनिरीक्षण का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है, ताकि आत्मनिरीक्षण के द्वारा आत्म-पराक्रम को बढ़ा सके I अशोक द्वारा आत्म-परीक्षण एवं आत्म-पराक्रम की चर्चा करना उसके जैनत्व के संस्कारों का ही परिणाम हैं । वचोगुप्ति अशोक ने एक ऐसे देश में जहाँ अनेक धर्म प्रचलित हो, सहिष्णुता को परमकर्त्तव्य माना। सहिष्णुता का मूल उसके अनुसार वचोगुप्ति है । “तस्य तु इदं मूलं वचोगुप्ति ।” “ अपने ही धर्म की प्रशंसा और दूसरे धर्मों की निंदा करने से बचना । इस आधार पर सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता के भाव की वृद्धि होगी । " यहाँ ध्यान देने का बिन्दु यह है कि 'वचोगुप्ति' जैनधर्म का पारिभाषिक शब्द है । अलियादि - णियत्तिं वा मोणं वा होदि वदिगुत्ती । " – (णियमसार, 69 ) झूठ आदि से निवृत्ति या मौन वचनगुप्ति है । त्रिगुप्तियों में मनगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कागुप्ति का विशद-विवेचन हमें जैनग्रन्थों में मिलता है । सम्यग्दण्डो वपुषः सम्यग्दण्डतस्तथा च वचनस्य । मनसः सम्यग्दण्डो गुप्तीनां त्रितयमवगम्यम् ।। - (पुरुषार्थसिद्धिउपाय, 7/6-202) शरीर को भली प्रकार शास्त्रोक्त विधि से वश करना तथा वचन का भलीप्रकार अवरोधन करना और मन का सम्यक् रूप से निरोध करना - इसप्रकार तीन गुप्तियों को जानना चाहिये । त्रिगुप्तियों को कर्मों की निर्जरा का साधन माना गया है। 'छहढाला' में स्पष्ट कहा गया है— कोटि जनम तप तपे, ज्ञान बिन कर्म झरें जे। ज्ञानी के छिनमाहिं, त्रिगुप्तितैं सहज टरैं ते । । - (छहढाला ) अत: वचोगुप्ति जैसे पारिभाषिक शब्द का प्रयोग अशोक के जैनत्व के संस्कारों की पुष्टि करता है 1 भावशुद्धि इसीप्रकार अपने दोषों को दूर करने के लिए भावशुद्धि पर अशोक ने जो बल दिया है, वह भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है । 126 प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक सातवें शिलालेख में कहता है— “सवे ते संयमं च भावसुधिं च इछति ....विपुले तु पि दाने यस नास्ति संयमे, भावसुधिता व कतंत्रता व दढमतिता च निचा बाढं।" ___वे सभी संयम और भावशुद्धि चाहते हैं। जो बहुत दान नहीं कर सकता, उसके भी संयम, भावशुद्धि, कृतज्ञता, दृढभक्ति नित्य-आवश्यक है।” जैनों में भी त्रिगुप्ति में वर्णित मनोगुप्ति—भावों की शुद्धि से ही सम्बन्धित है तथा जैनों की यह दृढ़-धारणा है कि ___ “मन: एव मनुष्याणां कारणं बंध-मोक्षयोः ।" अपव्ययता और अपभाण्डता तृतीय-शिलालेख में अशोक कहता है—“अपव्ययता अपभाण्डता साधु" अल्पव्यय तथा अल्पबचत अच्छी है। यह सिद्धान्त जैनों के 'अपरिग्रहवाद' के सिद्धान्त से प्रेरित है; क्योंकि 'तत्त्वार्थसूत्र' में कहा गया है बहारम्भ-परिग्रहत्वं नारकस्यायुषः।-(तत्त्वार्थसूत्र, 6/15) अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य । ---(तत्त्वार्थसूत्र, 6/17) अर्थात् बहुत-आरम्भ और परिग्रह से नरक-आयु का आस्रव होता है तथा अल्पारंभपरिग्रह से मनुष्य-आयु का आसव होता है। इन सिद्धान्तों की उत्कृष्टता यह है कि यदि नहीं भी है और उसकी इच्छा ही है, तब भी परिग्रह है- “मूर्छा परिग्रहः।" – (तत्त्वार्थसूत्र, 7/17) इसीलिये जैनों में भोगोपभोग-परिमाणवत' लिये जाने की परम्परा है। उपरोक्त तत्त्वों के अतिरिक्त दया, दान, विनय, चिन्तन, तप, सहिष्णुता, समानता, मैत्री, सेवा, सुश्रूषा, कल्याण, इहलोक-परलोक, सच्ची विजय, सच्चा यश आदि अनेकों ऐसे तत्त्व है, जिनके बारे में अशोक की मान्यतायें जैनत्व के सिद्धान्तों से मिलती है। इन सभी पर विस्तार से विवेचन करना एक स्वतन्त्र शोध-प्रबन्ध का विषय है। इस संक्षिप्त-आलेख में सभी पर चर्चा करना सम्भव नहीं है। संक्षेप में अशोक के समान की प्राणीमात्र से मैत्री एवं भ्रातृत्व का संचार, नैतिक-भावों का जागरण, परस्पर प्रेम एवं सौहार्द की कामना प्रत्येक जैन-श्रावक नित्य करता है : सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ।। -(सामायिक-पाठ, आचार्य अमितगति) मैत्रीभाव जगत् में मेरा सब जीवों से नित्य रहे । दीन-दु:खी जीवों पर मेरे उर से करुणा-स्रोत बहे ।। दुर्जन-क्रूर-कुमार्गरतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवे। साम्यभाव रक्खू मैं उन पर ऐसी परिणति हो जावे ।। –(मेरी भावना, पं. जुगलकिशोर)* प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 127 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी रचियता—पं० जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' अखिल-जग-तारन को जलयान । प्रकटी, वीर ! तुम्हारी वाणी, जग में सुधा-समान ।। अखिल० ।। अनेकान्तमय, स्यात्पद-लांछित, नीति-न्याय की खान । सब कुवाद का मूल नाशकर, फैलाती सत्-ज्ञान ।। नित्य-अनित्य अनेक-एक इत्यादि कुवादि महान। नतमस्तक हो जाते संमुख, छोड़ सकल अभिमान।। जीव-अजीव-तत्त्व निर्णय कर, करती संशय-हान । साम्यभाव-रस चखते हैं , जो करते इसका पान ।। ऊँच-नीच औ' लघु-सुदीर्घ का, भेद न कर भगवान् । सबके हित की चिन्ता करती, सब पर दृष्टि समान ।। अन्धी श्रद्धा का विरोध कर, हरती सब अज्ञान। भुक्ति-वाद का विरोध कर, हरती सब अज्ञान ।। ईश न जग-कर्ता, फल-दाता, स्वयं सृष्टि-निर्माण। निज-उत्थान-पतन निज-कर में, करती यों सुविधान ।। हृदय बनाती उच्च, सिखाकर धर्म सुदया-प्रधान। जो नित समझ आदरें इसको, वे 'युग-वीर' महान् ।। अखिल-जग-तारन को जलयान । 00 128 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर के अहिंसक - दर्शन में 'करुणा' -अजय कुमार झा जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित पञ्च - महाव्रतों में ‘अहिंसा का महत्त्वपूर्ण-स‍ - स्थान है। तदनुसार क्रोध, मान, माया तथा लोभादि से रहित पवित्रविचार और संकल्प ही अहिंसा है। इसके विपरीत वे समस्त चिंतन, विचार, इच्छायें अथवा क्रियायें जिनसे दूसरों को कष्ट हो, हिंसा है। इसी आधार पर जैनाचार्यों ने हिंसा को 'भावहिंसा' तथा 'द्रव्य-हिंसा' कहा है। किसी भी जीव को पीड़ा पहुँचाने या उसके अहित का विचार करना 'भाव - हिंसा' है । तथा प्राणियों को प्रत्यक्षतः अहित करना 'द्रव्य - हिंसा' है I इन दोनों प्रकार की हिंसाओं से मुक्त होना ही 'अहिंसा' है । अहिंसा निषेधात्मक-आचरण नहीं है, बल्कि यह विधिरूप है भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित यह अहिंसा जैनधर्म और दर्शन की आधारशिला है । इतना ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व में मानवता की रक्षा और विकास के लिए यह अनिवार्य - मानदण्ड है । भगवान् महावीर द्वारा पल्लवित इस अहिंसारूपी चन्दनवृक्ष की सुगन्धि से सम्पूर्ण भारतीय-संस्कृति सुवासित है । महामुनि व्यास ने अहिंसा को परमधर्म, कठोर तप, महान् सत्य, सर्वोत्कृष्ट धर्म, अद्वितीय संयम, सर्वोत्तम दान, सर्वश्रेष्ठ ज्ञान, परम मित्र तथा अनन्य सुख कहा है 1 अहिंसा परमो धर्मस्तथाऽहिंसा परं तपः । अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते । । अहिंसा परमो धर्मस्तथाऽहिंसा परो दमः । अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः । । अहिंसा परमो यज्ञस्तथाऽहिंसा परं फलम् । अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम् ।।' 'महाभारत' में ही अन्यत्र कहा गया है कि अहिंसाव्रत के पालन में अनन्त-गुण हैं। सैकड़ों वर्षों तक के परिश्रम से भी अहिंसा के गुणों का बखान नहीं किया जा सकता है । प्राकृतविद्या + जनवरी - जून 2002 वैशालिक महावीर विशेषांक 129 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वयज्ञेषु वा दानं सर्वतीर्थेषु वा प्लुतम् । सर्वदानफलं वापि नैतन्तुल्यमहिंसया।। अहिंस्रस्य तपोऽक्षय्यमहिंस्रो यजते सदा। अहिंस्रः सर्वभूतानां यथा माता तथा पिता।। एतत् फलमहिंसाया: भूयश्च कुरु पुंगव । न हि शक्त्या गुणा: वक्तुमपि वर्षशतैरपि।।' 'मत्स्यपुराण' में भी अहिंसा को सर्वश्रेष्ठ धर्म' बतलाया गया है। वहाँ कहा गया है कि वेदों के अध्ययन से या सत्य बोलने से जितना पुण्य प्राप्त होता है, उससे कहीं अधिक पुण्य अहिंसा के पालन से प्राप्त होता है' चतुर्वेदेषु यत्पुण्यं सत्यवादिषु । अहिंसायां तु यो धर्मो गमनादेव तत्फलम् ।।' 'नारदपुराण' में अहिंसा को समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करनेवाली तथा पापों से छुड़ानेवाली बतलाया है __ अहिंसा सा नृप प्रोक्ता सर्वकामप्रदायिनी। कर्म-कार्य-सहायत्वमकार्यं परिपन्थता।।' भगवान् महावीर की यह अहिंसा केवल जैनधर्म अथवा भारतीय संस्कृति तक सीमित नहीं रही। यह विश्व के समस्त धर्मों में एक अनिवार्य-अंग के रूप में अंगीकृत हो गई। वस्तुत: अहिंसा का व्यापक-परिक्षेत्र है। यह करुणा से उत्पन्न होती तथा करुणा में परिव्याप्त रहती है। जब तक मानव-मन में करुणा का साम्राज्य होता है, तब तक वह हिंसक नहीं हो सकता। जब तक मानव-मन करुणा से आप्लावित रहता है, तब तक वह हिंसा का लेश मात्र भी नहीं सह पाता है; तथा हिंसा के दर्शन मात्र से उसकी करुणा घनीभूत होकर अश्रुरूप में प्रवाहित होने लगती है। तभी तो व्याध के द्वारा क्रौञ्च (पक्षी)-युग्म में से एक के मारे जाने पर महर्षि बाल्मीकि के मुख से वेदना का घनीभूत-स्वर निकला और आदिकाव्य की रचना हुई। मा निषाद! प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:। यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमवधी: काममोहितम् ।। जैनधर्म के प्रमुख आचार्य अमितगति ने भी अहिंसा के मूल में करुणा को स्वीकार किया है- सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधात् देव ।। भगवान् महावीर के अहिंसा सिद्धान्त का कारुणिक-निदर्शन महाकवि भवभूति का उत्तररामचरित' है, जहाँ रावण के द्वारा सीता का अपहरण किये जाने पर राम के कारुणिक क्रन्दन से जड़-पदार्थ ग्रावा भी रोने लगती है, तथा पत्थर का भी हृदय विदीर्ण होने लगता 00 130 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनस्थाने शून्ये । विकलकरणैरार्यचरितै रपि ग्रावा रोदित्यपि दलति वज्रस्य हृदयम् ।' 'उत्तररामचरित' का प्रत्येक पात्र अहिंसा का पुजारी है। वे अपने समस्त कार्यों में अहिंसा को सर्वोपरि-स्थान देते हैं। महाकवि भवभूति अहिंसा के सम्यक-परिपाक के लिए करुणा की भावभूमि में प्रवेश करते हैं तथा दु:खान्त वाल्मीकि रामायण' को सुखान्त 'उत्तररामचरित' के रूप में प्रस्तुत करते हैं। 'उत्तररामचरित' में सभी रसों का सम्यक्-परिपाक हुआ है; परन्तु उन सभी रसों के अन्त:स्थल में करुणा की धारा प्रवाहित हो रही है। चाहे राम और सीता के शृंगारिक वर्णन में श्रृंगार-रस हो अथवा चन्द्रकेतु और लव का युद्ध में वीररस या राम के प्रति जनक के क्रोध में रौद्र-रस हो, सर्वत्र करुणा का ही वातावरण है। अर्थात् ये समस्त रस करुणा से ही नि:सृत हो रहे हैं और इस करुणा में अहिंसा का मानवतावादी दर्शन समाहित है। तभी तो भवभूति करुणा को समस्त रसों की जननी मानते हैं एको रस: करुण एव निमित्तभेदाद् भिन्न: पृथक्पृथगिव श्रयते विवर्तान् । आवर्तबुद्बुदतरंगमयान्विकारा नम्भो यथा सलिलमेव हि तत्समस्तम् ।। प्रथम अंक में राम के राज्याभिषेकोपरान्त राज्यकुल के वरिष्ठ-सदस्य ऋष्यश्रृंग के यज्ञ में चले जाते हैं। राजगुरु वशिष्ठ वहाँ से राम के लिए संदेश भेजते हैं जमातृ-यज्ञेन वयं निरुद्धास्त्वं बाल एवासि नवं च राज्यम् । युक्त: प्रजानामनुरजने स्या स्तस्माद्यशो यत् परमं धनं वः।। यहाँ संदेश भेजा गया है कि राम नवाभिषिक्त-राजा हैं, तथा राज्य-संचालन में अनुभवहीन हैं। उनके मार्ग-निर्देशन के लिए वहाँ गुरुजन भी नहीं हैं। वे किसी भी तरह प्रजा की हितसाधना करें, यही रघुवंशी-राजाओं का परम धन है। प्रजानुरञ्जन के इस संदेश में भाव हिंसा' और 'द्रव्य हिंसा' का त्याग समाहित है। कोई भी राजा कर्मणा-मनसा-वाचा 'भाव हिंसा' और 'द्रव्य हिंसा' का परित्याग करके ही अपनी प्रजा का सम्पूर्ण अनुरञ्जन कर सकता है। __महर्षि वशिष्ठ के इस उपदेश को सुनकर राम अपने समस्त सुखों को त्याग कर लोकानुरञ्जन की प्रतिज्ञा करते हैं। स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि। आराधनाय लोकस्य मुञ्चतो नास्ति मे व्यथा ।।" प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 131 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ स्नेह, दया, सौख्य और आवश्यकता पड़ने पर अर्धागिनी सीता का भी परित्याग करके प्रजानुरञ्जन की प्रतिज्ञा में अहिंसा का अप्रत्यक्ष, परन्तु प्राणपद निदर्शन होता है। अपने सुख-दुःख की चिन्ता किये बिना दूसरों को प्रसन्न रखना ही अहिंसा है। इस दृष्टि से राम की प्रजानुरञ्जन की प्रतिज्ञा वस्तुत: अहिंसाव्रत के पालन की प्रतिज्ञा है। वे लोकानुरञ्जन के लिए लेशमात्र भी अपनी चिंता नहीं करते हैं। वे अपने समस्त सौख्यों के साथ प्राणप्रिया सीता का भी परित्याग करने की प्रतिज्ञा करते हैं। इससे बड़ी अहिंसा क्या हो सकती है? राम अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार सीता का परित्याग भी कर देते हैं। परन्तु एक बड़े साम्राज्य की प्रजा के अनुरञ्जनार्थ एक व्यक्ति अर्थात् सीता का परित्याग राजसिद्धान्त के अनुसार भले ही उचित हो, परन्तु भगवान् महावीर के अहिंसा-दर्शन के अनुसार यह भी हिंसा है। राम का कारुणिक हृदय भी इसे हिंसा मानता है। वे अपने इस कार्य को 'अति-बीभत्सकर्म' कहते हैं तथा स्वयं को 'अपूर्वकर्म-चण्डाल' कहते हैं। वे इसे एक गम्भीर हिंसा मानते हैं तथा इस हिंसा के पश्चात्ताप में उनका हृदय अन्दर ही अन्दर दग्ध होने लगता है। वे अन्दर ही अन्दर जलकर पुटपाक के समान दग्ध हो जाते हैं, परन्तु अपनी मर्यादा के कारण उसको प्रस्फुटित नहीं होने देते हैं.... अनिर्भिन्नो गभीरत्वादन्तर्गुढघनव्यथः । पुटपाकप्रतीकाशो रामस्य करुणो रस:।।" द्वितीय अंक में साम्राज्य के धर्मविप्लव को रोकने के लिए एक व्यक्ति अर्थात् शम्बूक की हत्या की गई है। यह हत्या तत्कालीन राज्य-व्यवस्था के अनुसार भले ही अनुकूल हो, परन्तु भगवान् महावीर के अहिंसा-दर्शन के परिप्रेक्ष्य में यह हिंसा ही है। राम की दृष्टि में भी यह अनर्थ है, हिंसा है। तभी तो उनकी भुजायें शम्बूक की हत्या करने के लिए तैयार नहीं है रे हस्त ! दक्षिण मतस्य शिशोर्द्विजस्य । जीवातवे विसृज शूद्रमनौ कृपाणम् ।। रामस्य गात्रमसि निर्भरगर्भखिन्न सीताविषासनपटो: करुणो कृतस्ते।। इसप्रकार महाकवि भवभूति ने शम्बूक-प्रसंग के माध्यम से अहिंसा का पाठ पढ़ाया है, जो अद्वितीय है। तृतीय अंक में अकारण परित्यक्त सीता पञ्चवटी में शोक के कारण साक्षात् करुणा के समान हो जाती हैं करुणस्य मूर्तिरथवा शरीरिणी। विरहव्यथेव वनमेति जानकी।। 00 132 . प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक ___ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथापि पञ्चवटी में राम (अकारण परित्याग करनेवाले) को देखकर उनका हृदय करुणाद्रित हो जाता है। वह राम से प्रतिशोध लेता तो दूर उनकी उलाहना भी सुनना नहीं चाहती हैं तथा राम के मूर्छित होने पर अपने कर स्पर्श से उन्हें संचेतना प्रदान करती है। जब वासन्ती राम को उलाहना देती है, तब वह कहती है त्वमेव सखि वासन्ति, दारुणा कठोरा च........। ___ इसप्रकार सीता के इस कारुणिक व्यवहार में अहिंसा ही वह परम-तत्त्व है, जो उन्हें अपने अपकारी से प्रतिकार लेने के लिए उद्वेलित होने से बचाता है तथा अपकारी के प्रति उपकारी-दृष्टि अपनाने के लिए प्रेरित करता है। 'वाल्मीकि रामायण' का समापन राम और सीता के वियोग से होता है, परन्तु इस वियोग को भवभूति हिंसा समझते हैं तथा 'वाल्मीकि रामायण' की कथा में परिवर्तन पर अपने 'उत्तररामचरित' का समापन राम और सीता के संयोग से करते हैं। भवभूति का सम्पूर्ण उत्तररामचरित' करुणा से ओत-प्रोत है। इस करुणा के मूल में उनका अहिंसक-चिन्तन काम कर रहा है। इसप्रकार भगवान् महावीर ने जिस अहिंसा-वृक्ष का पल्लवन किया उसकी शीतल-छाया दिदिगन्तर में व्याप्त है। परवर्ती सभी रचनाओं में अहिंसा-दर्शन का प्रभाव साफ-साफ दिखता है। संदर्भग्रंथ-सूची 1. महाभारत, पं. रामचंद्रशास्त्री किंजवडेकर, अनुशासन पर्व, 115/25,116/38-391 2. वही, 116/40-42 1 3. मत्स्यपुराण, सं.-डॉ. पुष्पेन्द्र, 106/48। 4. नारदपुराण, सं.-डॉ. चारुदेव शास्त्री, नाग प्रकाशन, 16/26 1 5. वाल्मीकि रामायण, निर्णय सागर प्रेस, वालकाण्ड, 2/15 1 6. आचार्य अमितगति, भावनाद्वात्रिंशका। 7. उत्तररामचरित, डॉ. कपिलदेव द्विवेदी, 1/28। 8. वही, 3/47। 9. वही, 1/11 | 10. वही, 1/12। 11. वही, 3/1 । 12. वही, पृ. 1191 13. वही, 2/8 1 14. वही, 2/101 15. वही, 3/4। 16. वही, पृ. 216। जैनधर्म का प्रवर्तन आचार्य धर्मकीर्ति ने न्यायबिन्दु पृ. 126, पं. 18 तथा पृ. पं. 128, पं. 19 में जैनियों के तीर्थंकर ऋषभ का उल्लेख दोनों स्थल पर तथा वर्धमान का उल्लेख प्रथम-स्थल पर किया है। इससे प्रगट होता है कि उनके समय आठवीं शताब्दी में भी जैनेतर-विद्वान् जैनधर्म का प्रथम-उपदेश देनेवाला भगवान् ऋषभदेव को ही समझते थे, न कि भगवान् वर्धमान को। जैनधर्म का प्रथम-उपदेष्टा भगवान् महावीर या पार्श्वनाथ को कहने की धारणा पाश्चात्य-ऐतिहासिकों के ही मस्तिष्क की उपज विदित होती है। __-(न्यायबिन्दु', प्रकाशक-चौखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, पृ. 32) प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 133 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की परम्परा और तीर्थंकर ऋषभदेव - मधुसूदन नरहर देशपाण्डे - जैनधर्म की गणना भारत के प्राचीनतम धर्मों में है। जैन-परम्परा के अनुसार धर्म शाश्वत है और चौबीस तीर्थंकरों द्वारा अपने-अपने युग में प्रतिपादित होता रहा है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे और अन्तिम थे वर्धमान महावीर । महावीर के निर्वाण अर्थात् 527 ई. पूर्व लगभग 250 वर्ष पहले तीर्थंकर पार्श्वनाथ के काल का निर्धारण किया जाता है । जहाँ व्यवस्थित रूप से पुरातात्त्विक उत्खनन हुआ है, उन वाराणसी, अहिच्छत्र, हस्तिनापुर और कौशाम्बी नगरों का इतिहास, वहाँ से प्राप्त मृत्तिमा-भाण्डों तथा भूरे रंग के चित्रित मिट्टी के बड़े बर्तनों के आधार पर छठी शती ई. पूर्व से कुछ शती पूर्व तक निश्चितरूप से जा पहुँचता है। इसलिए यह सम्भावना बन पड़ती है कि यह स्थान पार्श्वनाथ के क्रियाकलापो से सम्बद्ध रहा है। तथापि जब हम पार्श्वनाथ से पहले के समय की बात करते हैं, तब एक-एक तीर्थकर के समयान्तराल और उनके चरित्र-वर्णन के सम्बन्ध में आख्यानों के एक साम्राज्य में ही पहुँच जाते हैं। प्रथम-तीर्थंकर के सम्बन्ध में परम्पराओं पर विचार करते हुए डॉ. हीरालाल जैन ने 'भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान' में वैदिक और पौराणिक दोनों सन्दर्भो का उल्लेख किया है। वैदिक परम्परा का सर्वप्रथम उल्लेख 'ऋग्वेद' संहिता के दसवें मण्डल (2-3) में मिलता है, जिसमें वातरशन मुनियों को मलिन (पिशंग) बताया गया है। वेद और 'भागवत पुराण' में वर्णित इन मुनियों का विवरण जैन मुनिचर्या की विशिष्ट प्रकृति और प्राचीनता को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है। भारतीय रहस्यवाद के विकास की रूपरेखा देते हुए आर.डी. रानाडे' ने 'भागवत पुराण' (स्कंद 5, श्लोक 5-6) से एक अन्य प्रकार के योगी का मनोरंजक-प्रसंग उद्धृत किया है, जिसकी परम विदेहता ही उसकी आत्मानुभूति का स्पष्टतम-प्रमाण था। उद्धरण यह है : 'हम पढ़ते हैं कि अपने पुत्र भरत को पृथ्वी का राज्य सौंपकर किसप्रकार उन्होंने संसार से निर्लिप्त और एकांत जीवन बिताने का निश्चय किया; कैसे उन्होंने एक अन्धे, बहरे या गूंगे मनुष्य का जीवन बिताना आरम्भ किया; किस प्रकार वे नगरों और ग्रामों में, खानों 00 134 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और उद्यानों में, वनों और पर्वतों में समान मनोभाव से रहने लगे; किस प्रकार उन्होंने उन लोगों से घोर अपमानित होकर भी मन में विकार न आने दिया। यह विवरण वस्तुत: जैन-परम्परा के अनुरूप है, जिसमें उनके आरम्भिक जीवन के अन्य-विवरण भी विद्यमान हैं। कहा गया है कि उनकी दो पत्नियाँ थीं'—सुमंगला और सुनन्दा; पहली ने भरत और ब्राह्मी को जन्म दिया और दूसरी ने बाहुबली और सुन्दरी को। भरत के और भी अट्ठानवें सगे भाई थे। इस परम्परा से हमें यह भी ज्ञात होता है कि ऋषभदेव बचपन में जब एक बार पिता की गोद में बैठे थे, तभी हाथ में इक्षु (गन्ना) लिये वहाँ इन्द्र आया। गन्ने को देखते ही ऋषभदेव ने उसे लेने के लिए अपना मांगलिक लक्षणों से युक्त हाथ फैला दिया। बालक की इक्षु के प्रति अभिरुचि देखकर इन्द्र ने उस परिवार का नाम 'इक्ष्वाकु' रख दिया। इस परम्परा से यह भी ज्ञात होता है कि विवाह-संस्था का आरम्भ सर्वप्रथम ऋषभदेव ने किया था। कहा गया है 'असि' और 'मसि' का प्रचलन भी उन्होंने किया। कृषि के प्रथम जनक भी वही बताये गये हैं। ब्राह्मी लिपि' और मसि (स्याही) से लेखन की कला भी उन्हीं के द्वारा प्रचलित की गयी। एक बात पूर्णतया निश्चित है कि भारत में साधुवृत्ति अत्यन्त पुरातन-काल से चली आ रही है और जैन-मुनिचर्या के जो आदर्श ऋषभदेव ने प्रस्तुत किये वे ब्राह्मण-परम्परा से अत्यधिक भिन्न हैं। यह भिन्नता उपनिषद्काल में और भी मुखर हो उठती है, यद्यपि साधुवृत्ति की विभिन्न शाखाओं के विकास का तर्कसंगत प्रस्तुतीकरण सरल बात नहीं है। रानाडे का कथन है कि इस मान्यता के प्रमाण हैं कि उपनिषद्कालीन दार्शनिक विचारधारा पर इस विलक्षण और रहस्यवादी आचार का पालन करनेवाले भ्रमणशील-साधुओं और उपदेशकों का व्यापक प्रभाव था। जैसाकि कहा जा चुका है, उपनिषदों की मूल-भावना की संतोषजनक-व्याख्या केवल तभी सम्भव है, जब इसप्रकार सांसारिक बन्धनों के परित्याग और गृहविरत भ्रमणशील-जीवन को अपनानेवाली मुनिचर्या के अतिरिक्त-प्रभाव को स्वीकार कर लिया जाये।' रिस डेविड्स का अनुमान है कि जिन वैदिक अध्येताओं या ब्रह्मचारियों ने भ्रमणशील-साधु का जीवन बिताने के लिए गृहस्थ-जीवन का परित्याग किया, उनके द्वारा साधुचर्या उतने उदार मानदण्डों पर गठित नहीं की जा सकी होगी, जो मानदण्ड जैन-मुनिचर्या के थे। ड्यूसन के मतानुसार, परम्परा का विकास इससे भी कम स्तर पर इसप्रकार के प्रयत्न द्वारा हुआ होगा, जिसमें कि व्यावहारिक परिधान को आत्मज्ञान जैसे आध्यात्मिक-सिद्धान्त से जोड़ा गया हो और जिसका उद्देश्य था— (1) सभी वासनाओं और उनके फलस्वरूप सबप्रकार के नीतिवरुद्ध-आचार का सम्भावित निराकरण, जिसके लिए सन्यास या परित्याग ही सर्वाधिक उपयोगी साधन था, और (2) प्राणायाम और ध्यान-योग के यथाविधि परिपालन से उत्पन्न निरोध-शक्ति के द्वारा द्वैत की भावना का निराकरण । नियमित आश्रम या जीवन के सर्वमान्य-व्यवहार के रूप में जो प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 135 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रव्रज्या (गृहविरत भ्रमण) और साधुत्व का विधान है, उसके परिपालन के लिए एक साधक द्वारी अपनाये गये अभ्यासों और आदर्शों में सर्वथा-परिवर्तन केवल तत्कालीन आध्यात्मिक-उपदेश के फलस्वरूप या अनिवार्य तर्कसंगत-परिमाण के कारण नहीं आ सकता। इसके साथ-ही-साथ'संबहुला नानातिट्ठिया नानादिट्ठका नानाखंतिका नानारुचिका नानाट्ठि-निस्सयनिस्सिता'-(बड़े गणों में चलने वाले, विभिन्न उपदेष्टाओं का अनुगमन करनेवाले विभिन्न मान्यतायें रखनेवाले, विभिन्न आचारों का पालन करनेवाले, विभिन्न रुचियोंवाले और विभिन्न आध्यात्मिक मान्यताओं पर दृढ़ विश्वास रखनेवाले) साधुगणों के तत्कालीनसाहित्य में जो बहत-से निश्चित और निरन्तर उल्लेख आये हैं, उन्हें देखते हुए यह सोचना उचित होगा कि इस विशेषता के अकस्मात् सामने आने के कुछ जाने-पहचाने बहिरंग-कारण भी हैं। इनमें से एक यह है कि आर्य-संस्कृति के मार्गदर्शक सामूहिकरूप से जब पूर्व-दिशा में बढे, तब वे किन्हीं ऐसी जातियों के सम्पर्क में आये, जो किसी दूसरे ही सोपान पर खड़ी थीं। इस दूसरे माध्यम से प्राप्त की गयी भ्रमणशील-साधुओं की संस्था में, स्वभावत:, इसकारण से कुछ परिवर्तन आया होगा कि वह आर्यों की आचार-संहिता और अनुशासन के शेष-भाग में घुल-मिल सके, किन्तु इस नवोदित-संस्था की उत्तराधिकार में प्राप्त-प्रवृत्ति कालान्तर में प्रतिष्ठापित-मानदण्डों को नकारने के लिए विवश हुई। यहाँ तक कि ऐसे समय जब यह संस्था समाज से अलग-अलग वन-प्रान्तरों या पर्वत-कन्दराओं में रह रही थी, उसने दर्शन का उपदेश घर-घर जाकर देना आरम्भ कर दिया और परम्परा से परिचित शिक्षित- वर्ग से अपना सम्पर्क न्यूनतर कर लिया, जिसके फलस्वरूप विभिन्न मान्यताओं और रुचियोंवाले बुद्धिजीवियों में निश्चितरूप से अभीष्ट-परिवर्तन आया। उपनिषदुत्तरकाल के अध्ययन के स्रोत के रूप में मान्य-ग्रन्थों अर्थात् जैन और बौद्ध-आगमों तथा आंशिकरूप से 'महाभारत' में ऐसे विभिन्न चैत्यवासियों, साध्वियों और श्रमणों के विशद-प्रसंग भरे पड़े हैं, जो सब प्रकार के विषयों पर बौद्धिक विचार-विमर्श तथा आत्मिक अनुसन्धान में संलग्न रहते थे, प्रत्येक मुख्य-उपदेष्टा या गणाचार्य अधिकतम गणों या शिष्यों को आकृष्ट करने के लिए प्रयत्नशील रहता था; क्योंकि उनकी संख्या उस उपदेष्टा की योग्यता की सूचक मानी जाती थी।' ब्राह्मण-साधुवृत्ति से सर्वथा भिन्न जैन-मुनिसंघ की स्वतन्त्र-प्रकृति और उद्भव को भली-भाँति समझने में इस लम्बे कथानक से पर्याप्त-सहायता मिलती है। श्रमणों का यह मार्ग सम्पूर्ण-निवृत्ति (सांसारिक जीवन से पूर्णतया पराङ्मुखता) और समस्त अनगारत्व (गृहत्यागी की अवस्था) तथा अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य का समन्वितरूप है। मन (मनस्), शरीर (काय), और वाणी (वाक्) के सबप्रकार से निरोध अर्थात् त्रिगुप्ति की धारणा से साधुत्व का आदर्श इस सीमा तक अधिक निखर उठता है कि वह निरन्तर उपवास (सल्लेखना) में प्रतिफलित हो जाता है, जिसका विधान इस धर्म के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म में नहीं है। जैन-साधुत्व के ऐसे ही अद्वितीय-आचारों में आलोचना अर्थात् अपने पापों की 00 136 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक ___ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वीकारोक्ति और प्रतिक्रमण अर्थात् पापों के परिशोधन का नित्यकर्म उल्लेखनीय हैं। जैन-साधुत्व का एक और अद्वितीय-आचार है, कायोत्सर्ग-मुद्रा में तपश्चरण—जिसमें साधु इसप्रकार खड़ा रहता है कि उसके हाथ या भुजायें शारीरिक अनुभूति से असंपृक्त हो जाते हैं। यह मुद्रा, कुछ विद्वानों के अनुसार, हड़प्पा से प्राप्त एक मुद्रा पर अंकित है, जिस पर ऊपर की पंक्ति में एक साधु वन में कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़ा है औरएक बैल के पास बैठा एक गृहस्थ-श्रावक उनकी पूजा कर रहा है, और नीचे की पंक्ति में सात आकतियाँ, तथोक्त कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़ी है। इस समीकरण से हड़प्पाकाल में जैनधर्म के अस्तित्व का संकेत मिलता है। अन्य विद्वानों ने तथाकथित पशुपतिवाली प्रसिद्ध मुद्रा का एक तीर्थंकर (कदाचित् ऋषभनाथ) से समीकरण होने का संकेत किया है। - (साभार उद्धृत – महाभिषेक स्मरणिका, पृष्ठ 11-13, प्रकाशक—भारतीय ज्ञानपीठ)** जैनत्व का प्रभाव अब प्रश्न यह है कि जैनधर्म की देशना क्या है? अथवा श्रवणबेल्गोल और अन्य स्थानों की बाहुबली की विशाल मूर्तियाँ एवं अन्य चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमायें संसार को क्या सन्देश देती हैं? 'जिन' शब्द का अर्थ 'विकारों को जीतना' है। जैनधर्म के प्रवर्तकों ने मनुष्य को सम्यक श्रद्धा, सम्यक बोध, सम्यक ज्ञान और निर्दोष चारित्र के द्वारा परमात्मा बनने का आदर्श उपस्थित किया है। जैनधर्म का ईश्वर में पूर्ण विश्वास है। जैनधर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के धर्म का 2500 वर्षों का एक लम्बा इतिहास है। यह धर्म भारत में एक कोने से दूसरे कोने तक रहा है। आज भी गुजरात, मथुरा, राजस्थान, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, दक्षिण मैसूर और दक्षिण भारत इसके प्रचार के केन्द्र हैं। इस धर्म के साधु और विद्वानों ने इस धर्म को समुज्ज्वल किया और जैन-व्यापारियों ने भारत में सर्वत्र सहस्रों मंदिर बनवाये, जो आज भारत की धार्मिक पुरातत्त्व एवं कला की अनुपम शोभा हैं। भगवान् महावीर और उनसे पूर्व के तीर्थंकरों ने बुद्ध की तरह भारत में बताया कि मोक्ष का मार्ग कोरे क्रियाकाण्ड में नहीं है, बल्कि वह प्रेम और विवेक पर निर्धारित है। महावीर और बुद्ध का अवतार एक ऐसे समय में हुआ है, जब भारत में भारी राजनैतिक उथल-पुथल हो रही थी। महावीर ने एक ऐसी साधु-संस्था का निर्माण किया, जिसकी भित्ति पूर्ण-अहिंसा पर निर्धारित थी। उनका ‘अहिंसा परमो धर्म:' का सिद्धान्त सारे संसार में 2500 वर्षों तक अग्नि की तरह व्याप्त हो गया। अन्त में इसने नवभारत के पिता महात्मा गांधी को अपनी ओर आकर्षित किया। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है कि अहिंसा के सिद्धांत पर ही महात्मा गांधी ने नवीन भारत का निर्माण किया। -(श्रवणबेल्गोल और दक्षिण के अन्य जैनतीर्थ', टी.एन. रामचन्द्रन्, डाइरेक्टर-जनरल, पुरातत्त्व विभाग, पृष्ठ 24-25).. प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 137 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म का प्रसार -शान्ताराम भालचन्द्र देव जैनधर्म और संस्कृति भारत की प्राचीनतम संस्कृति है, और पं. जवाहरलाल नेहरू जैसे स्पष्ट विचारधारा वाले सभी मनीषियों ने जैनों को भारत का मूलनिवासी माना है। भारत में उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर जैनधर्म का प्रचार-प्रसार किस क्षेत्र में कब हुआ? और उसके सूत्रधार कौन थे?- इस विषय में सुप्रसिद्ध इतिहासवेत्ता एवं भारतीय संस्कृति के निष्पक्ष प्रस्तोता श्री शान्ताराम भालचन्द्र देव का यह आलेख सभी पाठकों को उदार मन से पठनीय, मननीय एवं संग्रहणीय है। -सम्पादक तीर्थकर पार्श्वनाथ और महावीर के निर्वाण के मध्य ढाई सौ वर्ष लम्बे अन्तराल मे जैनधर्म के प्रसार अथवा उसकी स्थिति के विषय में प्राय: कोई विवरण उपलब्ध नहीं है। 'सूत्रकृतांग' से यह प्रतीत होता है कि इस अवधि में 363 मत-मतांतरों का उदय हुआ था; परन्तु यह स्पष्ट नहीं है कि इन विचारधाराओं का जैनधर्म के साथ कितना और क्या सम्बन्ध था। ऐसा प्रतीत होता है कि पार्श्वनाथ के निर्वाणोपरान्त उस काल में ऐसा कोई उल्लेखनीय व्यक्तित्व सामने नहीं आया, जो जैनधर्म को पुन:संगठित कर उसका प्रसार कर पाता। किन्तु महावीर ने इस परिस्थिति में परिवर्तन ला दिया और अपने चरित्र, दूरदर्शिता एवं क्रियाशीलता के बल पर जैनधर्म को संगठित कर उन्होंने उसका प्रसार किया। महावीर का जन्म वैशाली' के एक उपनगर कुण्डग्राम में हुआ था, जो अब 'बसुकुण्ड' कहलाता है। उनकी माता प्रसिद्ध वैशाली नगर (उत्तर बिहार के वैशाली जिले में आधुनिक बसाढ़) में जन्मी थीं। महावीर का निर्वाण पावा में हुआ, जिसकी पहिचान वर्तमान पटना-जिलान्तर्गत पावापुरी के साथ ही जाती है। इससे प्रतीत होता है कि महावीर बिहार से घनिष्ठतम रूप से सम्बद्ध रहे। ____ महावीर का जीवनवृत्त सुविदित है। उन्होंने तीस वर्ष की अवस्था में गृहत्याग किया था। उसके उपरान्त बारह वर्ष तक तपस्या की और तत्पश्चात् तीस वर्ष पर्यन्त विहार करके धर्म-प्रचार किया। उनके निर्वाण की परम्परामान्य तिथि ईसा-पूर्व 527 है। महावीर के कतिपय प्रतिद्वन्द्वी भी रहे प्रतीत होते हैं, जिनमें से एक प्रबल प्रतिद्वन्द्वी 00 138 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजीवक-सम्प्रदाय का संस्थापक गोसाल मक्खलिपुत्त' था। वह 'श्रावस्ती' का निवासी था। परन्तु उसके सुनिश्चित प्रभाव-क्षेत्र का निर्णय करना दुष्कर है। यह तो सुविदित है कि आजीवकों का अस्तित्व अशोक के समय में और उसके भी उपरान्त रहा। महावीर के ग्याह मुख्य-शिष्य गणधर थे, जिन्होंने जैनसंघ को उपयुक्त रूप में अनुशासित रखा था। ये सभी गणधर ब्राह्मण थे, जो बिहार की छोटी-छोटी बस्तियों से आये प्रतीत होते हैं। उनमें मात्र दो गणधर राजगृह' और 'मिथिला' जैसे नगरों से आये थे। महावीर के संगठन-कौशल तथा उनके गणधरों की निष्ठा ने जैन-संघ को सुव्यवस्थित बनाये रखा; किन्तु महावीर के जीवनकाल में ही 'बहुरय' तथा 'जीवपएसिय' नामक दो पृथक् संघ गठित हुए बताये जाते हैं। यद्यपि उन्हें कोई विशेष-समर्थन प्राप्त हुआ नहीं लगता । अन्त में दिगम्बर-श्वेताम्बर नामक संघ-भेद ही ऐसा हुआ, जिसने जैनधर्म के विकास-क्रम, प्रसार-क्षेत्र, मुनिचर्या और प्रतिमा-विज्ञान को प्रभावित किया। महावीरोपरान्त का सहस्राब्द दिगम्बर-श्वेताम्बर संघभेद के प्रसंग में ईसा-पूर्व चौथी शताब्दी में दक्षिण-भारत में जैनधर्म के प्रसार का उल्लेख मिलता है। परन्तु इस पर चर्चा करने के पूर्व हम महावीर के निर्वाणोपरान्त तथा मौर्यों से पूर्व के युग में उत्तर-भारत में जैनधर्म के प्रसार का लेखा-जोखा ले लें। ईसा-पूर्व की चौथी शताब्दी में हुए नन्दों के कतिपय पूर्वजों का महावीर के साथ कुछ सम्बन्ध रहा प्रतीत होता है। अनुश्रुति है कि महाराज सेणिय बम्भसार (श्रेणिक बिम्बिसार) और उसका पुत्र कूणिय (कुणिक) या अजातसत्तु (अजातशत्रु) महावीर के भक्त थे। अजातशत्रु के शासनकाल में ही गौतम बुद्ध और महावीर के निर्वाण हुए। किन्तु यदि महावीर का निर्वाण ईसापूर्व 527 और बुद्ध का 487 या 483 में हुआ मानें, तो इस कथन को सिद्ध करने में कठिनाई आती है। बौद्ध-ग्रन्थों में इस नरेश के प्रति की गयी निन्दा से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इसका झुकाव जैनधर्म की ओर था। यही बात उसके उत्तराधिकारी 'उदायी' के विषय में कही जा सकती है, जिसके द्वारा पाटलिपुत्र में एक जैन-मन्दिर का निर्माण कराया गया बताया जाता है, तथा जिसके राजमहल में जैन-साधुओं का निर्बाधरूप से आना-जाना था। यद्यपि पाटलिपुत्र में उक्त-मन्दिर के अस्तित्व का कोई पुरातात्त्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है; तथापि यह सम्भावना है कि इस नरेश के समय में यह प्रसिद्ध राजधानी जैनधर्म का केन्द्र बन गयी थी। उसके उत्तराधिकारी नन्द-राजाओं ने भी जैनधर्म को अल्पाधिक-संरक्षण प्रदान किया प्रतीत होता है। एक अनुश्रुति के अनुसार नवम् नन्द का जैन-मंत्री ‘सगडाल' सुप्रसिद्ध जैनाचार्य स्थूलभद्र का पिता था। 'मुद्राराक्षस' नाटक में वर्णन मिलता है कि जैन-साधुओं को राजा नन्द का विश्वास प्राप्त था। सम्भवत: इसीलिए चाणक्य ने नन्द को राजपद से प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 139 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हटाने के लिए एक जैन-साधु की सेवाओं का उपयोग किया था। साहित्यिक-साक्ष्यों से कहीं अधिक विश्वसनीय ईसा-पूर्व प्रथम शताब्दी (कुछ विद्वानों के अनुसार द्वितीय शताब्दी) में हुए कलिंग के शासक चेतिवंशीय महाराजा खारवेल के शिलालेख का साक्ष्य उपलब्ध है। इस अभिलेख के अनुसार यह नरेश अपने शासन के बारहवें वर्ष में कलिंग की तीर्थंकर प्रतिमा को, जिसे मगध का नन्दराज लूटकर ले गया था, वापस कलिंग ले आया था। इससे स्पष्ट है कि नन्दों के समय तक जैनधर्म का प्रसार कलिंग देश पर्यन्त हो चुका था। 'व्यवहारभाष्य' में भी राजा 'तोसलिग' का उल्लेख प्राप्त होता है, जो तोसलिनगर में विराजमान एक तीर्थंकर-प्रतिमा की मनोयोगपूर्वक रक्षा में दत्तचित्त था। नन्दों के उत्तराधिकारी मौर्यवंशीय राजाओं में से कई जैनधर्म के प्रश्रयदाता रहे प्रतीत होते हैं। उदाहरणार्थ, एक अविच्छिन्न जैन अनुश्रुति के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य का जैनधर्म की ओर दृढ़-झुकाव था। अनुश्रुति है कि 'भद्रबाहु' नामक सुप्रसिद्ध जैनाचार्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में मगध में द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष की भविष्यवाणी की थी और वह अपने परम-शिष्य चन्द्रगुप्त के साथ दक्षिण-भारत की ओर विहार कर गये थे तथा यह भी कि सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य ने सल्लेखना-व्रतपूर्वक समाधिमरण किया था। यह कहा जा सकता है कि इस प्रसंग से सम्बन्धित शिलालेखीय-साक्ष्य सन् 650 जितना प्राचीन है। चन्द्रगुप्त के समय में जैन-मुनियों की उपस्थिति के समर्थन में कुछ विद्वान् चन्द्रगुप्त की राजसभा में आये यूनानी राजदूत मैगस्थनीज द्वारा किये गये श्रमणों के उल्लेख को प्रस्तुत करते हैं। यदि हम शिलालेख में उल्लिखित अनुश्रुति को इतनी परवर्ती होने पर भी स्वीकार करते हैं, तो उससे यह सिद्ध होता है कि दक्षिण-भारत में चौथी शताब्दी ईसा-पूर्व में ही जैनधर्म का प्रसार हो चुका था। चन्द्रगुप्त के उत्तराधिकारी बिन्दुसार के विषय में जैन-स्रोत मौन हैं। बिन्दुसार के उत्तराधिकारी अशोक के विषय में तो यह सुविदित ही है कि वह बौद्धधर्म का प्रबल पक्षधर. था। कदाचित् इसीलिए जैन-स्रोत अशोक के विषय में पूर्णतया मौन हैं। कुछ विद्वान् अशोक की अहिंसापालन-विषयक विज्ञप्तियों और सर्वधर्म-समभाव की घोषणा में आवश्यकता से अधिक अर्थ निकालने की चेष्टा करते हैं। ये तो मात्र अशोक की नैतिक उदारता और सहिष्णुता की भावना के परिचायक हैं, क्योंकि उसने ये आदेश प्रसारित किये थे कि ब्राह्मणों, श्रमणों, निर्ग्रन्थों और आजीविकों को उचित सम्मान और सुरक्षा प्रदान की जाये। किन्तु जैन-ग्रन्थ अशोक के पुत्र कुणाल' के विषय में, जो ‘उज्जयिनी' प्रदेश का राज्यपाल था, अधिक विशद-विवरण देते हैं। बाद के वर्षों में उसने अपने पिता अशोक को प्रसन्न करके उनसे यह प्रार्थना की थी कि 'राज्य उसे दे दिया जाये।' कहा जाता है कि अशोक ने कुणाल के पुत्र 'सम्प्रति' को मध्य-भारत स्थित उज्जैन' में अपने प्रतिनिधि के रूप में राजा नियुक्त किया था और कुणाल ने कालान्तर में समूचे दक्षिणापथ को विजित कर लिया था। अशोक की मृत्यु के उपरान्त 'सम्प्रति' उज्जैन पर और 'दशरथ' पाटलिपुत्र 00 140 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर शासनारूढ़ रहे प्रतीत होते हैं। सम्प्रति ने जैनधर्म के प्रसार में प्रभूत-योग दिया। साहित्यिक-साक्ष्यों के अनुसार वह आर्य सुहस्ति का शिष्य था और जैन-साधुओं को भोजन एवं वस्त्र प्रदान करता था। यदि यह सत्य है, तो इसका अर्थ है कि ईसा-पूर्व तीसरी शताब्दी के अन्त तक जैनधर्म मध्य-प्रदेश में प्रसार पा चुका था। सम्प्रति को उज्जैन प्रान्त में जैन-पर्वो के मानने तथा जिन-प्रतिमा-पूजोत्सव करने का श्रेय दिया जाता है। बृहत्-कल्पसूत्र-भाष्य, के अनुसार उसने अन्द (आंध्र), दमिल (द्रविड़), महरट्ट (महाराष्ट्र) और कुडुक्क (कोड़गु) प्रदेशों को जैन-साधुओं के विहार के लिए सुरक्षित बना दिया था। __मौर्यकाल में जैनधर्म का जन-साधारण पर प्रभाव था, इसका समर्थन पटना के निकटवर्ती लोहानीपुर से प्राप्त जिनबिम्ब के धड़ से भी होता है । यद्यपि सम्प्रति को अनेक जैन-मन्दिरों के निर्माण कराने का श्रेय दिया जाता है; परन्तु आज इन मन्दिरों का कोई भी अवशेष प्राप्त नहीं है, जो इस तथ्य की पुष्टि कर सके। प्रथम शताब्दी ईसा-पूर्व के कलिंग-नरेश चेतिवंशीय खारवेल का उल्लेख हम पहले कर चुके हैं, जो उस कलिंग-जिनबिम्ब को पुन: अपनी राजधानी (कलिंग) में ले आया था, जिसे लूटकर नन्दराज मगध ले गया था। उड़ीसा में भुवनेश्वर की निकटवर्ती पहाड़ियों में स्थित हाथीगुम्फा में प्राप्त खारवेल का शिलालेख जैनधर्म के विषय में भी प्रसंगत: रोचक-विवरण प्रस्तुत करता है। यह शिलालेख अर्हतों एवं सिद्धों की वन्दना से प्रारम्भ होता है और यह भी सूचित करता है कि खारवेल ने चौंसठ-अक्षरी सप्तांगों (वास्तव में यह द्वादशांगी जिनवाणी या द्वादशांगी श्रुत है, इसका मूलवाक्य है—“चो-यठि-अंग-संतिकं तुरियं उपादयति।" - संपादक) को संकलित कराया था, जो मौर्यकाल में नष्ट हो गये थे। इससे स्पष्ट है कि खारवेल जैनधर्म के साथ सक्रियरूप से सम्बद्ध था। __ जैसा कि पहले कहा जा चुका है जैनधर्म के समस्त निनवों (भिन्न मत-सम्प्रदाय) में दिगम्बर-श्वेताम्बर मतभेद ही गम्भीरतम था; क्योंकि इसी के कारण जैनधर्म स्थायीरूप से दो आम्नायों में विभक्त हो गया। उक्त मतभेद के जन्म के विषय में दिगम्बर एवं श्वेताम्बरों द्वारा दिये गये कथानकों के विस्तार में जाना यहाँ अधिक समीचीन नहीं है, मात्र इतना कहना पर्याप्त होगा कि दिगम्बर-आम्नाय के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में द्वादशवर्षीय-दुर्भिक्ष ने जैन-मुनिसंघ के एक भाग को आचार्य भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण-भारत की ओर विहार कर जाने के लिए विवश किया और जो मुनि मगध में ही रह गये थे, उन्हें खण्डवस्त्र धारण करने की छूट दे दी गयी। ये अर्द्धफालक मुनि ही श्वेताम्बरों के पूर्वरूप थे। इनके विपरीत श्वेताम्बरों का कहना है कि 'शिवभूति' नामक साधु ने क्रोध के आवेश में नग्नत्व स्वीकार किया था। अतएव इन साम्प्रदायिक-कथनों को स्वीकार करने की अपेक्षा यह कहना अधिक निरापद होगा कि उस काल में ऐसे दो वर्गों का अस्तित्व था, प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 141 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनमें से एक स्थितिपालक या शुद्धाचारी था, जो नग्नता पर बल देता था और दूसरा शारीरिक रूप से वृद्ध तथा अक्षम जैन-साधुओं का वर्ग था, जो पहले वर्ग के दिगम्बरत्व का समर्थक नहीं था। कालान्तर में यही शुद्धाचारी (जिनकल्पी) और शिथिलाचारी (स्थविरकल्पी) साधु क्रमश: 'दिगम्बर' और 'श्वेताम्बर' सम्प्रदायों के रूप में प्रतिफलित हो गये होंगे। जो भी हो, यह बात युक्तियुक्त प्रतीत होती है कि इन दोनों सम्प्रदायों के मध्य मतभेद धीरे-धीरे बढ़ते गये, जो ईसा की दूसरी शताब्दी के लगभग अंत तक रूढ़ हो गये। उज्जैन से आगे के भारत के पश्चिमी भाग ईसापूर्व दूसरी शताब्दी में ही जैनधर्म के प्रभाव में आ गये प्रतीत होते हैं। साहित्यिक अनुश्रुतियों के अनुसार संम्प्रति मौर्य के भाई सालिशुक ने सौराष्ट्र में जैनधर्म के प्रसार में योग दिया। गुजरात-काठियावाड़ के साथ जैनधर्म का परम्परागत सम्बन्ध बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ के समय तक पहुँचता है, जिन्होंने 'काठियावाड़' में मुनिदीक्षा ली थी। इसप्रकार प्राय: ईसापूर्व दूसरी शताब्दी तक कलिंग, अवन्ती और सौराष्ट्र जैनधर्म के प्रभाव में आ गये प्रतीत होते हैं। उत्तरकालीन जैन साहित्य में प्रतिष्ठान उत्तरी दक्षिणापथ में स्थित वर्तमान पैठन' में शासन करने वाले सातवाहनवंशी नरेश सालाहण या शालिवाहन से सम्बन्धित कथानक प्रचुर मात्रा में प्राप्त होते हैं। कालकाचार्य ने, जिनका पौराणिक-सम्बन्ध पश्चिमी-भारत के शक-शासक के साथ रहा था, शालिवाहन से भी सम्पर्क किया बताया जाता है। हाल ही में प्रो. सांकलिया ईसा-पूर्व दूसरी शताब्दी के लगभग के एक शिलालेख को प्रकाश में लाये हैं, जिसका प्रारम्भ उनके अनुसार एक जैनमन्त्र के साथ होता है। तथापि, सातवाहनों के साथ जैनों के व्यापक-सम्बन्धों के प्रमाण अत्यल्प ही हैं। सुदूर दक्षिण में सिंहनन्दि द्वारा ईसा की दूसरी शताब्दी के लगभग गंग-राज्य की स्थापना के साथ-साथ जैनधर्म ने वस्तुत: 'राष्ट्रधर्म' का रूप प्राप्त कर लिया था। कोंगुणिवर्मन, अविनीत तथा शिवमार जैसे राजा तथा उनके उत्तराधिकारी भी जैनधर्म के परम- उपासक थे, जिन्होंने जैन-मन्दिरों, मठों तथा अन्य प्रतिष्ठानों के लिए अनुदान दिये थे। गंग-राजाओं की भाँति, कदम्ब-राजा (चौथी शती ई. से) भी जैनधर्म के संरक्षक थे। काकुत्स्यवर्मन, मृगेशवर्मन, रविवर्मन एवं देववर्मन के शासनकालों के शिलालेख कदम्बराज्य में जैनधर्म की लोकप्रियता के साक्षी हैं। इन अभिलेखों में श्वेतपटों, निर्ग्रन्थों तथा कूर्चकों (नग्न तपस्वियों) के उल्लेख हैं, जो कि विभिन्न-साधुसंघों में संगठित रहे प्रतीत होते हैं। ये अभिलेख देवप्रतिमाओं की घृत-पूजा जैसी कतिपय प्रथाओं का भी उल्लेख करते हैं। __ ऐसे भी कुछ साक्ष्य मिले हैं, जिनसे विदित होता है कि सुदूर दक्षिण के कतिपय चेरवंशीय नरेश भी जैन-आचार्यों के संरक्षक रहे थे। गुएरिनॉट ने चोल-शासनकाल के कुछ शिलालेखों का विवरण दिया है, जिनमें जैन-संस्थाओं के लिए भूमि प्रदान किये जाने का उल्लेख मिलता है। 00 142 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब हम पुनः मध्य एवं उत्तर भारत में जैनधर्म के प्रसार की स्थिति पर विचार करेंगे । ऐसी अनुश्रुति है कि ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के लगभग 'उज्जैन' में सुप्रसिद्ध विक्रमादित्य का उदय हुआ था, जिसे प्रसिद्ध जैनाचार्य सिद्धसेन ने जैनधर्म में दीक्षित किया था । प्रसिद्ध कालकाचार्य कथानक से विदित होता है कि किस प्रकार उक्त आचार्य ने पश्चिम और मध्य-भारत में शकराज का प्रवेश कराया था । इसप्रकार यह प्रतीत होता है कि मध्य भारत और दक्षिणापथ में, जहाँ जैन धर्म का प्रथम सम्पर्क सम्भवत: चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में हुआ था, जैनधर्म की प्रवृत्ति किन्हीं अंशों में बनी रही । इसका समर्थन हाल ही में पूना जिले में प्राप्त ईसापूर्व द्वितीय शताब्दी के एक जैन गुफा - शिलालेख से होता है । उत्तर-भारत में ‘मथुरा' जैनधर्म का महान् केन्द्र था । जैनस्तूप के अवशेष तथा हाल में ही प्राप्त शिलालेख, जिनमें से कुछ ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी तक के हैं, मथुरा क्षेत्र में जैनधर्म की सम्पन्न- स्थिति की सूचना देते हैं | मथुरा- स्थित 'कंकाली' टीले के उत्खनन से ईंट-निर्मित स्तूप के अवशेष, तीर्थंकरों की प्रतिमायें, उनके जीवन की घटनाओं के अंकन से युक्त मूर्तिखण्ड, आयागपट, तोरण तथा वेदिका - स्तम्भ आदि प्रकाश में आये हैं, जो अधिकांशतः कुषाणकालीन हैं । 'व्यवहारभाष्य' (5,27) के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि मथुरा में एक रत्नजटित स्तूप था, तथा मथुरानिवासी जैनधर्म के अनुयायी थे और वे तीर्थंकर-प्रतिमाओं की पूजा करते थे 1 मथुरा से प्राप्त ये साक्ष्य जैनधर्म के विकास के इतिहास में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। अनेकानेक शिलालेख यह तथ्य प्रकट करते हैं कि तत्कालीन समाज के व्यापारी तथा निम्नवर्ग के व्यक्ति बहुत बड़ी संख्या में जैनधर्मानुयायी थे, क्योंकि दान देनेवालों में कोषाध्यक्ष, गन्धी, धातुकर्मी (लुहार, ठठेरे आदि), गोष्ठियों के सदस्य, ग्राम - प्रमुख, सार्थवाहों की पत्नियाँ, व्यापारी, नर्तकों की पत्नियाँ, स्वर्णकार तथा गणिका जैसे वर्गों के व्यक्ति सम्मिलित थे । इन शिलालेखों में विभिन्न गणों, कुलों, शाखाओं तथा सम्भागों का भी उल्लेख है, जिनसे ज्ञात होता है कि जैनसंघ सुगठित एवं सुव्यवस्थित था । तीर्थंकरों की अनेक प्रतिमाओं की प्राप्ति से यह भी सिद्ध होता है कि इस काल तक मूर्तिपूजा पूर्णरूपेण स्थापित एवं प्रचलित हो चुकी थी। ईसा सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में सौराष्ट्र में जैनधर्म की प्रवृत्ति का अनुमान, कुछ विद्वानों के अनुसार 'जूनागढ़' के निकट 'बाबा- प्यारा मठ' में पाये गये जैन प्रतीकों से लगाया जा सकता है; किन्तु यह साक्ष्य पूर्णतया विश्वासप्रद नहीं है । क्षत्रप - शासक जयदामन के पौत्र के जूनागढ़वाले शिलालेख में 'केवलज्ञान' शब्द का प्रयोग हुआ है, जो वस्तुत: एक जैन - पारिभाषिक शब्द है । इससे विदित होता है कि काठियावाड़ में जैनधर्म का अस्तित्व कम से कम ईसा सन् की प्राथमिक शताब्दियों से रहा है। प्रोफेसर सांकलिया ने इस समबन्ध में वर्तमान राजकोट जिलान्तर्गत गोंडल से प्राप्त तीर्थंकर प्रतिमाओं का उल्लेख किया है; जिनका समय वह सन् 300 के लगभग निर्धारित करते हैं । इससे आगे की शताब्दियों में गुजरात में प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक 00143 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म का प्रबल प्रभाव रहा, यह इस बात से स्पष्ट है कि वलभी' में दो सम्मेलन (संगीतियाँ) आयोजित हुए थे, जिनमें से प्रथम चौथी शताब्दी में तथा द्वितीय पाँचवीं शताब्दी में हुए बताये जाते हैं, किन्तु इन सम्मेलनों की तिथियों के विषय में मतैक्य नहीं है। इसप्रकार यह प्रतीत होता हे कि ईसा सन् के आरम्भ होने तक तथा उसकी प्रारम्भिक शताब्दियों में जैनधर्म का कार्यक्षेत्र पूर्वी-भारत से मध्य-भारत एवं पश्चिम-भारत की ओर स्थानान्तरित हो गया था। उत्तर-भारत में कुषाणों के पतनोपरान्त गुप्तशासकों ने ब्राह्मणधर्म को पुनरुज्जीवित एवं संगठित करने में सहायता दी। तथापि यह मानना सदोष होगा कि उस काल में जैनधर्म का गत्यवरोध हुआ। यद्यपि गुप्त-शासक मूलत: वैष्णव थे, तथापि उन्होंने उल्लेखनीय धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया। अब यह विदित है कि प्रारम्भिक गुप्त-शासक रामगुप्त के समय में तीर्थकर-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा हुई थी। कुमारगुप्त के शासनकाल में उत्कीर्ण उदयगिरि गुफा' के शिलालेख में पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठापना का उल्लेख मिलता है। मथुरा के एक शिलालेख में एक श्राविका द्वारा कोट्टियगण' के अपने गुरु के उपदेश से एक प्रतिमा की स्थापना करायें जाने का उल्लेख है। कुमारगुप्त के उत्तराधिकारी स्कन्दगुप्त के शासनकाल से भी सम्बन्धित इसप्रकार की सामग्री प्राप्त हुई है। कहाऊँ-स्तम्भ' के लेख में, जो कि सन् 460-61 का है, 'मद्र' नामक व्यक्ति द्वारा पाँच तीर्थंकर मूर्तियों की प्रतिष्ठापना का वर्णन है। इन यत्र-तत्र बिखरे साक्ष्यों में उस विवरण को भी सम्मिलित किया जा सकता है, जो कि बाँग्लादेश में 'पहाड़पुर' से प्राप्त ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण है और बुधगुप्त के शासनकाल का है। उसमें एक ब्राह्मण-दम्पत्ति द्वारा एक जैन-विहार की आवश्यकताओं की सम्पूर्ति के लिए भूमिदान का उल्लेखन है। इस संदर्भ में हैवेल का यह कथन उद्धरणीय है कि : 'गुप्त-सम्राटों की राजधानी ब्राह्मण-संस्कृति का केन्द्र बन गयी थी, किन्तु जन-सामान्य अपने पूर्वजों की धार्मिकपरम्पराओं का ही पालन करता था, और भारत के अधिकांश-भागों में बौद्ध एवं जैन-विहार सार्वजनिक-विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों के रूप में कार्य कर रहे थे। परवर्ती इतिहास उत्तर-भारत में गुप्त साम्राज्य के पतनोपरान्त हर्षवर्धन के राज्यारम्भ तक का इतिहास धूमिल-सा है। यद्यपि हर्ष का बौद्ध धर्म से घनिष्ठ-सम्बन्ध था, तथापि जैसा कि जैन-गृहस्थों द्वारा बिहार के जैन-संस्थानों को दिये गये दानों से ज्ञात होता है, जैनधर्म ने इस काल में अपना अस्तित्व बनाये रखा। यों उसकी स्थिति दुर्बल ही रही। हर्ष के परवर्तीकाल में जैनधर्म ने राजपूताना, गुजरात और मध्य-भारत में प्रसार पाया। दिवगढ़' से प्राप्त प्रतीहारकालीन कतिपय शिलालेख सन् 862 के लगभग वहाँ एक स्तम्भ के स्थापित किये जाने का उल्लेख करते हैं। देवगढ़ में जैन-मन्दिरों के एक समूह के अवशेष 00 144 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक ___ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा बड़ी संख्या में तीर्थंकरों की प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। जोधपुर' के निकट 'ओसिया' से प्राप्त वत्सराज (778-812) के शासनकाल के एक अन्य शिलालेख में एक जैन- मन्दिर के निर्माण का विवरण है। इससे ज्ञात होता है कि प्रतीहारों के शासनकाल मे जैनधर्म सक्रिय रहा, यद्यपि उसके वैभव के दिन बीत चुके थे। नौवीं शताब्दी से बुन्देलखण्ड-क्षेत्र के शासक चन्देल-राजाओं के समय में जैनधर्म अपने लुप्त-वैभव को पुन: प्राप्त करता हुआ प्रतीत होता है। खजुराहों में आदिनाथ और पार्श्वनाथ के भव्य-मन्दिर तथा घंटाई-मन्दिर के अवशेष इस तथ्य के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि इस क्षेत्र मे जैनधर्म के अनुयायी विशाल-संख्या में थे। धंगराज मदनवर्मन और परमार्दिन के शासनकालों के भी जैन-धार्मिक-शिलालेख उपलब्ध हैं। वास्तु-स्मारकों तथा मूर्तियों के अवशेष तथा शिलालेख यह सिद्ध करते हैं कि नौवीं से बारहवीं शताब्दी के मध्य महोबा, खजुराहो तथा अन्य स्थान जैनधर्म के महान्-केन्द्र थे। हैहयों (नौवीं से तेरहवीं शताब्दी), परमारों (लगभग दसवीं से तेरहवीं शताब्दी), कच्छपघातों, (लगभग सन् 950 से 1125) ओर गाहड़वाल राजाओं (लगभग 1075 से 1200 सन्) के शासनकालों में मालवा, गुजरात, राजस्थान तथा उत्तरप्रदेश के भागों में जैनधर्म का व्यापक प्रभाव रहा, जैसाकि इन क्षेत्रों में स्थान-स्थान पर पाये गये अनेकानेक शिलालेखों, प्रतिमाओं और भग्न-मन्दिरों से समर्थित होता है। दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दियों में मालवा के कुछ परमार राजाओं, यथा सिंधुराज, मुञ्ज, भोज और जयसिंह ने अनेकानेक प्रसिद्ध जैन-विद्वानों एवं साहित्यकारों को प्रश्रय प्रदान किया था। पं. आशाधर जैसे कुछ अन्य लब्धप्रतिष्ठ जैन-विद्वान् इसी वंश के नरेश अर्जुनवर्मन के प्रश्रय में पल्लवित हुए। परमारों के राज्य में कई जैन उच्च-पदों पर भी आसीन थे। मध्यकालीन गुजरात में राष्ट्रकूटों (सन् 733-795) के शासनकालों में जैनधर्म को प्रभूत-उत्कर्ष प्राप्त हुआ। राष्ट्रकूट-कालीन कुछ ताम्र-पत्रों में जैन-संघ के कई समुदायों के अस्तित्व का उल्लेख है; उदाहरणार्थ, कर्कराज सुवर्णवर्ष के सन् 821 के एक ताम्र-पत्र-लेख में सेनसंघ' और 'मूलसंघ' की विद्यमानता का तथा 'नागसारिका' (वर्तमान नवसारी) में स्थित एक जैन-मन्दिर एवं जैन-विहार का उल्लेख है। ... चौलुक्य-नरेशों के शासनकाल में श्वेताम्बर-जैन-सम्प्रदाय ने गुजरात में अपना दृढ़प्रभाव स्थापित कर लिया था। इस वंश का शासक भीमदेव उनका सर्वाधिक उल्लेखनीय प्रश्रयदाता था। यद्यपि वह शैव-मतावलम्बी था, तथापि उसने मन्त्री विमल को आबू पर्वत पर प्रसिद्ध विमलवसही' मन्दिर के निर्माण कराने की अनुमति प्रदान की थी। विश्वास किया जाता है कि राजा जयसिंह की सुप्रसिद्ध जैन-आचार्य हेमचन्द्र से घनिष्ठ-मैत्री थी। इस काल में श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों के मध्य शास्त्रार्थ भी होते थे। जयसिंह के उत्तराधिकारी कुमारपाल ने पालिताना, गिरनार और तारंगा में जैन-मन्दिरों प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 145 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का निर्माण कराया था तथा विशेष दिनों में पशु-वध पर भी प्रतिबन्ध लगाया था। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि कुमारपाल के प्रयास के फलस्वरूप गुजरात के निवासी आज तक भी शाकाहारी हैं। कुमारपाल के उपरान्त जैनधर्म के प्रति तीव्र-प्रतिक्रिया हुई और कहा जाता है कि उसके उत्तराधिकारी ने कुछ जैन-मन्दिरों को भी ध्वस्त करा दिया था। किन्तु राजकीय-संरक्षण के समाप्त हो जाने पर भी प्रतीत होता है कि जैनधर्म को जैन मन्त्रियों, व्यापारियों एवं जन-साधारण का बहुत संपोषण और समर्थन मिलता रहा। आबू, गिरनार और शQजयपर्वतों के मन्दिरों का निर्माण बघेले-राजाओं के मन्त्रियों द्वारा कराया गया था। इस काल के अनेक अभिलेख साक्षी हैं कि इस समय जैनधर्म को व्यापक लोकप्रिय समर्थन प्राप्त था। मध्यकालीन राजपूताने के शासक-वंशों द्वारा जैनधर्म को प्रदत्त राज्याश्रय का साक्ष्य इस काल के जैनों की दान-प्रशस्तियों से प्राप्त होता है। मध्यकाल में पश्चिम-भारत में जैनधर्म को जो प्रोत्साहन प्राप्त हुआ उसने एक स्थायी-प्रभाव छोड़ा, जिसके परिणामस्वरूप गुजरात और राजस्थान में आज भी पर्याप्त संख्या में जैनधर्मानुयायी विद्यमान हैं। पूर्ववर्ती शताब्दियों में दक्षिणापथ में जैनधर्म के प्रसार का जो अल्प एवं अस्पष्ट साक्ष्य प्राप्त है, उसकी अपेक्षा बादामी के चालुक्यों (सन् 535-757) के काल में जैनधर्म की स्थिति में व्यापक-परिवर्तन हुआ। सातवीं शताब्दी में यहाँ जैनधर्म की समृद्ध-स्थिति का परिचय अनेक शिलालेखीय-साक्ष्यों से प्राप्त होता है। कोल्हापुर' से प्राप्त ताम्र-पत्रों और बीजापुर जिलान्तर्गत एहोले', धारवाड़ जिलान्तर्गत 'लक्ष्मेश्वर' और 'अदूर' से प्राप्त शिलालेखों में जैन-मन्दिरों के निर्माण तथा उनकी व्यवस्था के लिए भूमि के अनुदान दिये जाने के उल्लेख मिलते हैं। इसके अतिरिक्त इस अवधि में बादामी, ऐहोले एवं धाराशिव की गुफाओं में पायी गयी जैन-प्रतिमायें और प्रतीक दक्षिणापथ में जैनधर्म की उपस्थिति की सूचक हैं। ‘मान्यखेट' के राष्ट्रकूटों (सन् 733-975) के शासनकाल में जैनधर्म को राज्याश्रय भी प्राप्त रहा प्रतीत होता है। इस वंश के कई राजाओं का जैनधर्म के प्रति अत्यन्त-झुकाव रहा। यह भी कहा जाता है कि जिनसेन, अमोघवर्ष (सन् 814-78) के गुरु थे। उसके उत्तराधिकारियों कृष्ण द्वितीय (सन् 878-914), इन्द्र-तृतीय (लगभग सन् 914-22) तथा इन्द्र-चतुर्थ (लगभग सन् 973-82) ने जैनधर्म को अपना प्रश्रय दिया तथा जैन-मन्दिरों के लिए अनुदान दिये थे। यह भी प्रतीत होता है कि राष्ट्रकूटों के सामन्त, यथा सौंदत्ति के रट्ट, भी जैनधर्म के प्रश्रयदाता थे। एलोरा की जैन गुफायें, जिनके निर्माण का समय राष्ट्रकूट-काल निर्धारित किया जा सकता है, दक्षिणापथ में जैनधर्म की सम्पन्न-स्थिति के साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं। आगे चलकर जैनधर्म को कल्याणी के चालुक्यों (सन् 973-1200), देवगिरि के यादवों (सन् 1187-1318) तथा शिलाहारों (सन् 810-1260) के शासनकालों में और अधिक 00 146 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोत्साहन प्राप्त हुआ प्रतीत होता है। इस तथ्य का समर्थन महाराष्ट्र के दक्षिणवर्ती जिलो तथा कर्नाटक के विभिन्न भागों से प्राप्त अनेक अभिलेखों से होता है । कल्याणी के चालुक्यो के बीस से अधिक अभिलेख उपलब्ध हैं, जो दसवीं से लेकर बारहवीं शताब्दी तक के हैं और अधिकांशत: बेलगाँव, धारवाड़ और बीजापुर जिलों में पाये गये हैं। ये अभिलेख इस क्षेत्र मे जैनधर्म के अस्तित्व का साक्ष्य प्रस्तुत करने के अतिरिक्त कुछ अन्य रोचक - विवरण भी प्रस्तु करते हैं। उदाहरण के लिए ये अभिलेख सिद्ध करते हैं कि इस क्षेत्र में दिगम्बर जैनधर्म क उत्कर्ष था; केवल शासकवर्ग ही नहीं, अपितु जनसाधारण भी जैन धर्म के प्रति उदार थे; और विभिन्न संस्थानों को दिये गये विपुल भूमि - अनुदानों ने मठपतियों की परम्परा को जन्म देने की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी । कलचुरियों के शासनकाल में (ग्यारहवी से तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक ), विशेषकर बिज्जल (सन् 1156-1168) के समय में, जैनधर्म को दुर्दिनों का सामना करना पड़ा तथापि कतिपय शिलालेखों से ज्ञात होता है कि शैवों द्वारा किये गये उत्पीड़न के होते हुए भ जैनधर्म किसी प्रकार अपने को जीवित बनाये रख सका और यादवों के शासनकाल (सन् 11871318) में अपने अस्तित्व की समुचित रक्षा में सफल रहा । 'कोल्हापुर' से प्राप्त कुछ शिलालेखे से ज्ञात होता है कि जैनधर्म की ऐसी ही स्थिति शिलाहारों के शासनकाल में भी रही । जैन - आचार्यों को दिये गये दानों का उल्लेख करनेवाले कतिपय राज्यादेशों से यह प्रमाणित होता है कि पूर्वी चालुक्यों (सन् 624-1271) के राज्य में जैनधर्म प्रचलित था वेंकटरमनय्या का कथन है कि जैन साधु अत्यन्त सक्रिय थे। देश भर की ध्वस्त बस्तिये में प्राप्त परित्यक्त-प्रतिमायें सूचित करती हैं कि वहाँ कभी अनगिनत जैन- संस्थान रहे थे पूर्वी चालुक्य राजाओं और उनके प्रजाजनों के अनेक अभिलेखों में बसदियों एवं मन्दिरों के निर्माण कराये जाने तथा उनके परिपालन के लिए भूमि एवं धन-दान के विवरण प्राप्त हैं - यही स्थिति होयसलों (सन् 1106-1343) के शासनकाल में थी। इस राज्यवंश क स्थापना का श्रेय ही एक जैन मुनि को दिया जाता है। बताया जाता है कि जैनधर्म एक लम्बी अवधि तक निष्क्रिय रहा था, उसे आचार्य गोपीनन्दि ने उसीप्रकार सम्पन्न एक प्रतिष्ठित बना दिया था, जैसा वह गंगों के शासनकाल में था । यह माना जाता है कि इस वंश के वीर बल्लाल-प्रथम (सन् 1101-06 ) तथा नरसिंह तृतीय (सन् 1263-91 ) जैसे क राजाओं के जैनधर्म के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध थे । सुदूर दक्षिण में कुमारिल, शंकराचार्य तथा माणिक्क वाचकार जैसे ब्राह्मण-धर्म वे नेताओं का उदय होने पर भी 'कांची' और 'मदुरा' जैनों के सुदृढ़ गढ़ बने रहे उत्थान-पतन की इस परिवर्तनशील - प्रक्रिया में भी सुदूर दक्षिण और दक्षिणापथ सदैव दिगम्बर जैनधर्म के गढ़ रहे । परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि शैवधर्म के प्रबल विरोध क सामना करने के कारण आठवीं शताब्दी के लगभग जैनधर्म का प्रभाव शिथिल हो गय प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक 00147 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अप्पर' और 'संवन्दार' नामक शैव-सन्तों के प्रभावाधीन पल्लव (चौथी से दसवीं शताब्दी), तथा पाण्ड्य (लगभग तीसरी शताब्दी से 920 ईसवी) राजाओं ने जैनों का उत्पीडन किया। दीर्घकालोपरान्त विजयनगर' और 'नायक' शासकों के काल में जैनों का शैवों एवं वैष्णवों के साथ समझौता हुआ, उदाहरणार्थ, 'बैलूर' के बेंकटाद्रि नायक के शासनकाल के सन् 1633ई. के एक शिलालेख में हलेबिडु' में एक जैन द्वारा शिवलिंग का उच्छेद करने का उल्लेख है। परिणामस्वरूप एक सांप्रदायिक-उपद्रव हुआ, जिसका निपटारा इसप्रकार हुआ कि वहाँ पहले शैवविधि से पूजा होगी, तदनन्तर जैनविधि से। मुसलमानों के आगमन के फलस्वरूप भारत के सभी धर्मों को आघात सहना पड़ा। इसमें जैनधर्म अपवाद नहीं था। उदाहरणार्थ यह कहा जाता है कि मुहम्मद गौरी ने एक दिगम्बर-मुनि का सम्मान किया था। यह भी कहा जाता है अलाउद्दीन खिलजी जैसे प्रबल प्रतापी शासक ने जैन-आचार्यों के प्रति सम्मान व्यक्त किया था। मुगल सम्राट अकबर को आचार्य हीराविजय ने प्रभावित किया था और उन्हीं के उपदेश से उसने कई जैन-तीर्थों के निकट पशु-वध पर प्रतिबन्ध लगा दिया था तथा उन तीर्थों को कर से भी मुक्त कर दिया था। कुछ ऐसे भी साक्ष्य उपलब्ध हैं जिनसे ज्ञात होता है कि जहाँगीर ने भी कुछ जैन आचार्यों को प्रश्रय दिया था, यद्यपि उसके द्वारा एक जैन-अधिकारी को दंडित भी होना पड़ा था। भारत में मुस्लिम-शासन के सम्भावित परिणामस्वरूप पन्द्रहवीं शताब्दी के लगभग गुजरात के श्वेताम्बर जैनों में स्थानकवासी-सम्प्रदाय' का उदय हुआ था। उसी अवधि में दिगम्बर जैनों में तेरापन्थ' नाम का वैसा ही सम्प्रदाय अस्तित्व में आया। वर्तमान में भारत के अन्य-भागों की अपेक्षा पश्चिम भारत, दक्षिणापथ और कर्नाटक में जैन-धर्मानुयायियों की संख्या सर्वाधिक है। जहाँ दक्षिणी महाराष्ट्र और कर्नाटक में दिगम्बर जैनों की बहुलता है, वहाँ गुजरात में श्वेताम्बर मूर्ति-पूजक और पंजाब में स्थानकवासियों का प्राबल्य है। जैन धर्मानुयायियों में अधिकांशत: व्यापारी एवं व्यवसायी हैं, अत: यह समाज आर्थिक दृष्टि से सुसम्पन्न है। इस समाज की आर्थिक सम्पन्नता उसके पर्व एवं पूजा-उत्सवों तथा मन्दिरों के निर्माणों में प्रतिबिम्बित होती है। ये प्रवृत्तियाँ आज भी विशाल-स्तर पर चलती हैं। जैनधर्म प्रसार के उपरोक्त-विवरण से यह ज्ञात होता है कि जैनधर्म अपने जन्मस्थान बिहार से बाहर की ओर फैलता तो गया; किन्तु एक अविच्छिन्न-गति के साथ नहीं, विविधकारणों से उसका प्रतिफलन धाराओं या तरंगों के रूप में हुआ। जैनधर्म ने राज्याश्रय तथा व्यापारी-वर्ग के संरक्षण पर मुख्यतया निर्भर रहने के कारण अपने पीछे मन्दिरों, मन्दिर-बहुल-नगरों, सचित्र पाण्डुलिपियों, अनगिनत मूर्तियों, तथा सांस्कृतिक-क्षेत्र में सर्वाधिक उल्लेखनीय अहिंसा के सिद्धान्त की अद्भुत धरोहर छोड़ी है।। --(साभार उद्धृत -- महाभिषेक स्मरणिका, पृष्ठ 14-22, प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ)* 00 148 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'नीराजन' : स्वरूप एवं परम्परा --प्रभात कुमार दास भक्ति की प्रक्रिया में भारतीय-परम्परा में अनेकविध-क्रियायें की जाती हैं। इनके औचित्य एवं वैशिष्ट्य का विवेचन भी भारतीय-मनीषियों ने सविस्तार किया है। इसी क्रम में एक शब्द-विशेष का प्रयोग मिलता है— 'नीराजन'। यह एक भक्तिपरक प्रक्रिया-विशेष है। भारतीय-परम्परा में इसका जो परिचय मिलता है, उसका संक्षिप्त-विवरण निम्नानुसार ___ कोशकारों ने 'नीराजन' शब्द को स्त्रीलिंग एवं नपुंसकलिंग —दोनों लिंगों में स्वीकार किया है। स्त्रीलिंग में इसका रूप बनता है 'नीराजना' और नपुंसकलिंग में इसका रूप 'नीराजनम्' बनता है। पद-परिचय की दृष्टि से निर्' उपसर्गपूर्वक ‘राज्' धातु से 'ल्युट' प्रत्यय का विधान करने पर 'नीराजन' शब्द निष्पन्न होता है। स्त्रीत्व की विवक्षा होने पर इसी में स्त्रीत्ववाची 'टाप्' प्रत्यय का विधान करके 'नीराजना' रूप बनता है। जबकि नपुंसकलिंग में “सोरम् नपुंसके” सूत्र से प्रथमा एकवचन के 'सु' 'अम्' आदेश होकर 'नीराजनम्' रूप बन जाता है। इसकी व्युत्पत्ति इसप्रकार मानी गयी है "नि:शेषेण राजनं यत्र सा नीराजना" अर्थात् सम्पूर्णरूप से शोभा जिसमें हो, वह नीराजना है। अथवा "नीरस्य शान्त्युदकस्य अजनं क्षेपो यत्र सा नीराजना" अर्थात् 'नीर' या 'शांतिजल' का क्षेपण जिसमें किया जाये, वह 'नीराजना है।' इसके अर्थ में 'दीपदान' या 'आरती' शब्दों का प्रयोग कोशग्रन्थों में प्राप्त होता है।' श्री वामन शिवराम आप्टे जी ने अपने संस्कृत-हिन्दी-कोश' में इस शब्द का अर्थ 'अर्चना के रूप में देवमूर्ति के सामने प्रज्वलित दीपक घुमाना' किया गया है। जैन-परम्परा में देवोपनीत रत्नमय-दीपों से नीराजन करने का उल्लेख मिलता है, क्योंकि उनमें अग्नि-प्रज्वालन-सम्बन्धी जीवदया का पालन होता है। वैदिक-परम्परा के अनुसार नीराजन के पाँच प्रकार बताये गये हैं “पञ्च-नीराजनं कुर्यात् प्रथमं दीपमालया। द्वितीयं सोदकाब्जेन तृतीयं धौतवाससा ।। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 149 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूताश्वत्थादिपत्रैश्च चतुर्थं परिकीर्तितम् । पञ्चमं प्रणिपातेन साष्टांगं यथाविधिः ।।" अर्थ :-- दीपमाला द्वारा आरती करना पहिला-नीराजन है, कमलयुक्त जल से आरती करना दूसरा-नीराजन है, धुले हुए (श्वेत) वस्त्र से आरती करना तीसरा-नीराजन है, आम्र आदि के पत्रों से आरती करना चौथा-नीराजन है तथा साष्टांग-प्रणाम करना पाँचवाँ-नीराजन ___ इसमें प्रथम-नीराजन में आरात्रिक-प्रदीप (रात भर जलनेवाले दीपक) के द्वारा नीराजन करना चाहिये। इस प्रदीप में पाँच या सात बत्तियाँ जलायी जाती हैं। जैसाकि कहा है- "कुंकुमागुरु-कर्पूर-घृत-चन्दन-निर्मिता:। वर्तिका: सप्त वा पञ्च कृत्त्वा वन्दापनीयकम् ।।" 'हरिभक्ति विलास' में लिखा है कि आरती करने से पहिले मूलमन्त्र से तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिए और महावाद्य की ध्वनि एवं 'जय शब्दोच्चारणपूर्वक शुभपात्र में घृत या कर्पूर द्वारा विषम-संख्या में अथवा अनेक वर्तिकायें (बातियाँ) जलाकर नीराजन करना चाहिये। वैदिक-परम्परा के अनुसार तो देवता की आरती की वंदना दोनों हाथों से करनी चाहिए, एक हाथ से नहीं। तथा जो ऐसा नहीं भी कर सकें, तो आरती के अवलोकनमात्र से ही उन्हें तत्सम्बन्धी अशेष-पुण्य की प्राप्ति होना प्ररूपित किया गया है। इतना ही नहीं, नीराजन की दिशा का भी महत्त्व वैदिक-परम्परा में बताया गया है। तदनुसार उत्तरपूर्वकोण या ईशान-दिशा में खड़े होकर दीप से नीराजन करना चाहिये। जबकि भारतीय-परम्परा में अग्नि की दिशा दक्षिणपूर्व या आग्नेय-दिशा मानी गयी है। उत्तरपूर्व दिशा के पूज्य होने के कारण ही संभवत: ऐसा विधान किया गया है। ___ वैदिक-परम्परा के अनुसार यदि पूजा आदि में मन्त्रादि से हीनता रह गयी हो, तो 'नीराजन' करने से पूजा की विधि निर्दोष व परिपूर्ण मानी जाती है। जैसाकि 'स्कन्दपुराण' में लिखा है— “मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत्कृतं पूजनं हरेः।। सर्वं सम्पूर्णतामेति कृते नीराजने शिवे ।।" जैन-परम्परा की पूजाविधि में भी इससे कुछ साम्य रखनेवाला एक पद्य प्राप्त होता है— “मन्त्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च। तत्सर्वं क्षम्यतां देव ! रक्ष-रक्ष जिनेश्वर ।।" यह पद्य जिनेन्द्र-पूजन के अन्त में पढ़े जानेवाले 'क्षमापना-पाठ' का अंग है। संभव है कि जैनों के किसी वर्ग में यह पाठ 'नीराजन'-प्रक्रिया के साथ ही पढ़ा जाता होगा। आज भी ऐसा कहीं-कहीं दृष्टिगोचर होता है। किन्तु अग्निमय दीप जलाकर नीराजन करना जैनों की अहिंसक-संस्कृति के अनुरूप प्रतीत नहीं होता है। प्रतीत होता है कि वैदिक-परम्परा 00 150 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के प्रभाववश जैनों के कुछ लोगों ने यह पद्धति अपना ली होगी। ___जैन-संस्कृति में आरती या नीराजन के पात्र की आकृति-विशेष प्राप्त होती है। तदनुसार पात्र की आकृति पानी में चलनेवाली नाव के समान होती है, जो कि कुछ-कुछ अर्ध-चन्द्राकार-जैसी होती है। इस पर पालवाली नाव के समान ही ऐसी आकृति बनी होती इसमें ऊपर बने चार चार खानों का भी अभिप्राय-विशेष बताया गया है। तदनुसार जिनेन्द्रभक्ति-पूजन का प्रशस्त-परिणाम परम्परया मोक्ष का कारण है अत: नाव की आकृति भवसागर से पार होने की सूचक है तथा चार खाने चार घातिया कर्मों या चतुर्गति-संसारपरिभ्रमण से मुक्त होने के प्रतीक हैं। इसप्रकार हम देखते हैं कि भारतीय-संस्कृति की दोनों प्रमुखधाराओं श्रमण (जैन)परम्परा एवं वैदिक-परम्परा – में 'नीराजन' या 'नीराजना' की विधि प्राप्त होती है। जैन- परम्परा के 'पुरुदेव-स्तवन' में भी 'नीराजन' शब्द का प्रयोग मिलता है— ____ "नीराजनाकार-रागहरते ! पुरुदेव ते !!" इसके अनुसार पुरुदेव (आदिनाथ-वृषभदेव) का नीराजन राग-द्वेष के विकारी-परिणामों को दूर करके वीतरागी' बनने का संकेत करता है। भक्ति के प्रकर्ष में यहाँ यह कहा गया है कि हे पुरुदेव ! आप नीराजन करनेवाले का राग दूर कर देते हैं या आपकी नीराजना करने से उसका राग दूर हो जाता है। इन्द्र भी 'नीराजन' करता है— इसका उल्लेख जैन-परम्परा में है "नीराजन करता ले दीप" । यह इस दिशा में लेखन का मेरा प्रथम प्रयास है; किन्तु एतद्विषयक-अध्ययन से यह बोध मुझे अवश्य हो गया कि यदि कोई गम्भीरतापूर्वक अनुसन्धान करे, तो इस विषय पर एक शोधप्रबन्ध अवश्य निर्मित हो सकता है। सन्दर्भग्रन्थ-सूची 1. द्रष्टव्य, हिन्दी विश्वकोश, भाग 12, पृष्ठ 141 । 2. शब्दकल्पद्रुम, भाग 2, पृष्ठ 912।। 3. हिन्दी विश्वकोश, भाग 12, पृष्ठ 141 । 4. आप्टेकृत संस्कृत-हिन्दी कोश, पृष्ठ 5511 5. हिन्दी विश्वकोश, भाग 12, पृष्ठ 141 । 6. द्रष्टव्य, वही। 7. द्रष्टव्य, वही। 8. द्रष्टव्य, वही। 9. ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि, पृष्ठ 111 । प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 10 151 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांरव्य दर्शन : परम्परा और प्रभाव - श्रीमती रंजना जैन भारतीय दर्शनों में सांख्य-दर्शन को सर्वाधिक प्राचीन और ज्ञानात्मक विवेचन की दृष्टि से सर्वाधिक प्रतिष्ठित भी माना जाता है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि आदि-तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र ‘कपिल' ने ही इसका प्रवर्तन किया था। यह इतना प्राचीन था या नहीं? यह भले ही विवाद का विषय हो, किन्तु यह सत्य है कि तीर्थंकर ऋषभदेव के समय में ही उनके पौत्र मारीच कुमार ने मिथ्यामतों का प्रवर्तन करना प्रारंभ कर दिया था। यह भी एक अद्भुत-संयोग है, कि चाचा (कपिल), भतीजे (मारीच) का शिष्य बनकर उनका गणधर बना। सांख्य दर्शन की विचारधारा का भारतीय दार्शनिक चिंतन और जैन-दार्शनिक चिंतन पर क्या प्रभाव पड़ा, और ये परस्पर कैसे सम्बन्धों के साथ आगे बढ़े?— यह विषय दार्शनिक क्षेत्र में जिज्ञासा रखनेवाले पाठकों को अवश्य रोचक एवं ज्ञानवर्धक सिद्ध होगा। –सम्पादक भारतीय-दर्शनों में 'सांख्य' दर्शन एक ऐसा अवैदिक-दर्शन है, जिसकी प्राचीनता एवं गरिमा सभी ने मुक्तकंठ से स्वीकार की है। इस दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कपिल माने गये हैं- 'सांख्यस्य वक्ता कपिल: परमर्षिः स उच्यते ।' अर्थ:- सांख्य के वक्ता परम-ऋषि कपिल' कहे जाते हैं। इनके बारे में निम्नानुसार उल्लेख मिलते हैं - ‘दशानामेकं कपिलं'।' अर्थात् महर्षि कपिल दश-अंगिराओं में से एक हैं। वे स्वायम्भु मनु के दौहित्ररूप में 'आदि विद्वान्' के नाम से विख्यात हैं, तथा वे कपिल-मुनि सृष्टि-प्रवृत्ति के प्रथमयुग में अवतीर्ण हुए थे -ऐसी अनुश्रुति है। __ जैन-परम्परा में इनका परिचय इसप्रकार बताया गया है 'विधाय दर्शनं सांख्यं, कुमारेण मरीचिना। व्याख्यातं निजशिष्यस्य, कपिलस्य पटीयसा।। भगवान् वृषभदेव के पौत्र और चक्रवर्ती भरत के पुत्र अतिशय-चतुर मरीचिकुमार ने सांख्यदर्शन की रचना कर उसका व्याख्यान अपने शिष्य कपिल गणधर के लिए किया। कूटस्थ-नित्य एकान्तमत का प्रवर्तक होने के कारण इन्हें जैन-परम्परा के अनुसार अप्रमाण माना गया है तथा इनके द्वारा प्रतिपादित तत्त्वज्ञान को 'मिथ्या' एवं दुःखदायी भी 00 152 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा गया है- “कपिलादि-रचित श्रुत को अभ्यास। सो है कुबोध बहु-देन त्रास।।* अस्तु, प्रथमत: इस दर्शन के बारे में कुछ परिचय यहाँ प्रस्तुत है। कोशकारों ने ‘सांख्य' का परिचय निम्नानुसार दिया है सांख्य (वि.) {संख्या+अणु} 1. संख्या-संबंधी, 2. आकलनकर्ता, 3. विवेचक, 4. विचारक, तार्किक, तर्ककर्ता, छ: हिन्दू दर्शनों में से एक, जिसके प्रणेता कपिल-मुनि माने जाते हैं। इस शास्त्र का नाम सांख्य दर्शन' इसलिए पड़ा कि इसमें पच्चीस तत्त्व या सत्य सिद्धांतों का वर्णन किया गया है, इस शास्त्र का मुख्य उद्देश्य पच्चीसवें तत्त्व अर्थात् पुरुष या आत्माको अन्य चौबीस तत्त्वों के शुद्ध- ज्ञान द्वारा तथा आत्मा की उनसे समुचित-भिन्नता सांख्य-शास्त्र समस्त विश्व को निर्जीव 'प्रधान' या 'प्रकृति' का विकास मानता है, जबकि 'पुरुष' (आत्मा) सर्वथा निर्लिप्त, एक, निष्क्रिय-दर्शक है। संश्लेषणात्मक होने के कारण वेदान्त से इसकी समानता, तथा विश्लेषणपरक न्याय' और वैशेषिक' से भिन्नता कही जाती है। परन्तु वेदान्त से भिन्नता की सबसे बड़ी बात यह है कि सांख्यशास्त्र द्वैतवाद का समर्थक है, जिनको वेदान्त नहीं मानता। इसके अतिरिक्त सांख्यशास्त्र परमात्मा को विश्व के स्रष्टा और नियन्त्रक के रूप में नहीं मानता, जिनकी कि वेदान्त पुष्टि करता है। 'शब्दकल्पद्रुम' में 'सांख्य' का परिचय इसप्रकार मिलता हैसांख्य:, पुं, कपिलमुनिकृतदर्शनशास्त्रविशेषः । तत्पर्य्याय: कापिल: इति हेमचन्द्रः । तथा च “सांख्यं कपिलमुनिना प्रोक्तं संसारविमुक्तिकारणं हि। यत्रता: सप्ततिरार्या भाष्यं चात्र गौडपादकृतम् ।। एतत् पवित्रमग्रां मुनिरासुरयेऽनुकम्पया प्रददौ । आसुरिरपि पञ्चशिखाय तेन च बहुधा कृतं तन्त्रम् ।। शिष्यपरम्परयागतमीश्वरकृष्णेन चैतदा-भिः । संक्षिप्तमार्यमतिना सम्यग्विज्ञाय सिद्धान्तम् ।। सप्तत्यां किल येऽस्तेिऽर्थाः कृत्स्नस्य षष्टितन्त्रस्य । आख्यायिका-विरहिता: । परवादविवर्जिताश्चापि ।।" इति सांख्यप्रवचनभाष्यम्।। सांख्ययोग:, पुं, (योगः ।) ज्ञानयोगः । सांख्योक्तो स च ब्रह्मविद्या। यथा-- “द्वौतीये शोकसन्तप्तमर्जुनं ब्रह्मविद्यया। प्रतिबोध्य हरिश्चक्रे स्थितप्रज्ञस्य लक्षणम् ।।" इति गीताटीकायां श्रीधरस्वामी।। 2 ।।।। सांख्य पुं०। संख्यानं संख्या विवेकस्तां वेत्तीति सांख्यः। कपिलशिष्ये । अशुद्धद्रव्यास्तिक-मतावलम्बि-सांख्यदर्शन-परिकल्पित- पदार्थसिद्धिरिति पर्यायास्तिकमतम्।' प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 153 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य - परिचय आत्मा के तत्त्वज्ञान को अथवा यथार्थ - दर्शन के प्रतिपादक शास्त्र को 'सांख्य' कहते हैं । इनको ही प्रधानता देने के कारण इस मत का नाम 'सांख्य' है । अथवा 25 तत्त्वों का वर्णन करने के कारण 'सांख्य' कहा जाता है । सांख्य-दर्शन मूलत: निरीश्वरवादी दर्शन रहा है । परवर्तीकाल में सांख्य के कुछ आचार्य. ईश्वर की सत्ता मानने लगे थे, अत: 'सेश्वर - सांख्य' का वर्ग भी सांख्य दर्शन में जाना जाने लगा। ‘सांख्य-सूत्र' के प्रणेता ईश्वर के अभाव के बारे में लिखते हैंईश्वरासिद्धेः – (सांख्यसूत्र, 1/ 93 ) अर्थात् ईश्वर की सत्ता किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होती । प्रवर्तक - साहित्य व समय (1) इसके मूल-प्रणेता महर्षि कपिल थे, जिन्हें 'क्षत्रियपुत्र' बताया जाता है और उपनिषदों आदि में जिन्हें 'अवतार' माना गया है। इनकी कृतियाँ हैं— सांख्यप्रवचनसूत्र, तथा तत्त्वसमास । इनका समय भगवान् वीर व महात्मा बुद्ध से पूर्व माना गया है । (2) कपिल के साक्षात् शिष्य आसुरि ई.पू. 600 हुए। (3) आसुरि के शिष्य पंचशिख थे । इन्होंने इस मत का बहुत विस्तार किया, कृतियाँ — तत्त्वसमास पर व्याख्या, समय — गार्वे के अनुसार ईसा की प्रथम शती । (4) वार्धगण्य भी इसी गुरु-परम्परा में हुए, समय ई. 230-300 । वार्षगण्य शिष्य विन्ध्यवासी थे, जिनका असली नाम रुद्रिल था, समय - ई. 250-320 (5) ईश्वर कृष्ण बड़े प्रसिद्ध टीकाकार हुए हैं, कृतियाँ - पष्टितन्त्र के आधार पर रचित 'सांख्यकारिका' या ‘सांख्यसप्तति’ । समय — एक मान्यता के अनुसार ई. श. 2 तथा दूसरी मान्यता से ई. 340380 । (6) 'सांख्यकारिका' पर माठर और गौड़पाद ने टीकायें लिखी हैं । (7) वाचस्पति मिश्र (ई. 840) ने न्याय - - वैशेषिक दर्शनों की तरह 'सांख्यकारिका' पर 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' और व्यासभाष्य पर 'तत्त्ववैशारदी' नामक टीकायें लिखीं। (8) विज्ञानभिक्षु एक प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। इन्होंने पूर्व के विस्मृत ईश्वरवाद का पुन: उद्धार किया । कृतियाँ - सांख्यसूत्रों पर ‘सांख्य-प्रवचन-भाष्य' तथा 'सांख्यसार', 'पातञ्जलभाष्य - वार्तिक', 'ब्रह्मसूत्र' के ऊपर 'विज्ञानामृत-भाष्य' आदि ग्रन्थों की रचना की । ( 9 ) इनके अतिरिक्त भी— भार्गव, वाल्मीकि, हारीति, देवल, सनक, नन्द, सनातन, सनत्कुमार, अंगिरा आदि सांख्य- विचारक हुये । तत्त्व-विचार - 1. मूल - पदार्थ दो हैं – पुरुष व प्रकृति । 2. पुरुष चेतन तत्त्व है । वह एक निष्क्रिय, निर्गुण, निर्लिप्त, सूक्ष्म व इन्द्रियातीत है । 3. प्रकृति जड़ है । वह दो प्रकार की है— 'परा' व ‘अपरा’। परा-प्रकृति को 'प्रधान', 'मूला' या 'अव्यक्त' तथा अपरा - प्रकृति को 'व्यक्त’ कहते हैं। अव्यक्त-प्रकृति जिन गुणों की साम्यावस्था - स्वरूप है, तथा वह एक है । व्यक्तप्रकृति अनित्य, अव्यापक, क्रियाशील तथा सगुण है । यह सूक्ष्म से स्थूल - पर्यन्त क्रम से 23 भेद-रूप ☐☐ 154 प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं महत् या बुद्धि, अहंकार, मन, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्रायें व पाँच भूत । 4. सत्त्व, रज: व तम: तीन गुण हैं। सत्त्व, प्रकाशस्वरूप 'रज:' क्रियाशील. और तम:' अन्धकार व अवरोधक-स्वरूप है। यह तीनों गुण अपनी साम्यावस्था में सदृश-परिणामी होने से अव्यक्त रहते हैं और वैसादृश्य होने पर व्यक्त हैं, क्योंकि तब कभी तो सत्त्वगुण-प्रधान हो जाता है और कभी रज या तमोगुण। उस समय अन्यगुणों की शक्तिहीन रहने से वे अप्रधान होते हैं। 5. रजोगुण के कारण व्यक्त व अव्यक्त—दोनों ही प्रकृति नित्य परिणमन करती रहती हैं। वह परिणमन तीन प्रकार का है—धर्म, लक्षण व अवस्था। धर्मों का आविर्भाव व तिरोभाव होना 'धर्मपरिणाम' है, जैसे मनुष्य से देव होना। प्रतिक्षण होनेवाली सूक्ष्म-विलक्षणता-लक्षण परिणाम' है और एक ही रूप से टिके हुए अवस्था बदलना 'अवस्था-परिणाम' है, जैसे बच्चे से बूढ़ा होना। इन तीन गुणों की प्रधानता होने से बुद्धि आदि 33 तत्त्व भी तीन प्रकार हो जाते हैं—सात्त्विक, राजसिक व तामसिक । जैसेज्ञान-वैराग्य-पूर्ण बुद्धि सात्त्विक है, विषय-विलासी राजसिक है और अधर्म (हिंसा आदि) में प्रवृत्त तामसिक है—इत्यादि। 6. चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। हाथ, पाँव, वचन, गुदा व जननेन्द्रिय कर्मेन्द्रियाँ हैं, ज्ञानेन्द्रियों के विषयभूतरूप आदि पाँच तन्मात्रायें है और उनके स्थूल-विषयभूत पृथ्वी आदि 'भूत' कहलाते हैं।' ईश्वर व सुख-दुःख-विचार 1.ये लोग ईश्वर तथा यज्ञ-ज्ञान आदि क्रियाकाण्ड को स्वीकार नहीं करते। 2. इनके अनुसार सत्त्वादि गुणों की विषमता के कारण ही सुख-दु:ख उत्पन्न होते हैं। वे तीन प्रकार के हैं—आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक । आध्यात्मिक दो प्रकार के हैं—कायिक व मानसिक। मनुष्य, पशु आदि-कृत 'आधिभौतिक' और यक्ष, राक्षस आदि-कृत या अतिवृष्टि आदि ‘आधिदैविक' हैं। सृष्टि, प्रलय व मोक्ष-विचार ___ 1. यद्यपि पुरुष-तत्त्व रूप से एक है। प्रकृति की विकृति से चेतन-प्रतिबिम्ब रूप जो बुद्धियाँ उत्पन्न होती हैं—वे अनेक हैं। जड़ होते हुए भी यह बुद्धि चेतनवत् दीखती है। इसे ही 'बद्ध-पुरुष' या 'जीवात्मा' कहते हैं । त्रिगुणधारी होने के कारण यह परिणामी है। 2. महत्, अहंकार, ग्यारह इन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्रायें, प्राण व अपान —इन सत्रह तत्त्वों से मिलकर सूक्ष्म-शरीर बनता है, जिसे 'लिंग-शरीर' भी कहते हैं। वह इस स्थूल-शरीर के भीतर रहता है, सूक्ष्म है और इसका मूलकारण है। यह स्वयं निरूपण-योग्य है, पर नट की भाँति नाना शरीरों को धारण करता है। 3. जीवात्मा अपने अदृष्ट के साथ परा-प्रकृति में लय रहता है। जब उसका अदृष्ट पाकोन्मुख होता है, तब तमोगुण का प्रभाव हट जाता है। पुरुष का प्रतिबिम्ब उस प्रकृति पर पड़ता है, जिससे उसमें क्षोभ या चंचलता उत्पन्न होती है और स्वत: परिणमन करती हुई महत् आदि 23 विकारों को उत्पन्न करती है। उससे प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 155 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I सूक्ष्म-शरीर और उससे स्थूल शरीर बनता है, यही सृष्टि है। 4. अदृष्ट के विषय समाप्त हो जाने पर ये सब पुन: उलटे-क्रम से पूर्वोक्त में लय होकर साम्यावस्था में स्थित हो जाते हैं । यही प्रलय है। 5. अनादिकाल से इस जीवात्मा को अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं है। 25 तत्त्वों के ज्ञान से उसे अपने स्वरूप का भान होता है, तब उसके राजसिक व तामसिक गुणों का अभाव हो जाता है। एक ज्ञानमात्र रह जाता है, वही कैवल्यरूप की प्राप्ति है । इसे ही 'मोक्ष' कहते हैं । 6. वह मुक्तात्मा जब तक शरीर में रहता है, तब तक 'जीवन्मुक्त' कहलाता है, और शरीर छूट जाने पर 'विदेहमुक्त' कहलाता है। 7. पुरुष व मुक्त जीव में यह अन्तर है कि पुरुष तो एक है और मुक्तात्मायें अपने-अपने सत्त्व - गुणों की पृथक्ता के कारण अनेक हैं । 'पुरुष' अनादि व नित्य है और 'मुक्तात्मा' सादि व नित्य । कारण-कार्य-विचार I सांख्य ‘सत्कार्यवादी’ हैं। अर्थात् इनके अनुसार कार्य सदा अपने कारणभूत पदार्थ में विद्यमान रहता है। कार्य की उत्पत्ति-क्षण से पूर्व वह अव्यक्त रहता है । उसकी व्यक्ति ही कार्य है। वस्तुतः न कुछ उत्पन्न होता है, न नष्ट । 1 प्रमाण - विचार सांख्य प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम – ये तीन प्रमाण मानता है । अनुमान व आगम नैयायिकवत् है। 'बुद्धि' अहंकार व मन को साथ लेकर बाहर निकल जाती है । और इन्द्रिय-विशेष के द्वारा उसके प्रतिनियत विषय को ग्रहण करके तदाकार हो जाती है । बुद्धि का विषयाकार होना ही प्रत्यक्ष है 1 जैन-बौद्ध व सांख्यदर्शन की तुलना श्री जिनेन्द्र वर्णी जी जैनदर्शन एवं सांख्य दर्शन की तुलना करते हुए लिखते हैं1. जैन व बौद्ध की तरह सांख्य भी वेद, ईश्वर, याज्ञिक क्रियाकाण्ड व जाति-भेद को स्वीकार नहीं करता। जैनों की भाँति ही बहु-आत्मवाद तथा जीव का मोक्ष होना मानता है। जैन व बौद्ध की भाँति परिणामवाद को स्वीकार करता है । अपने तीर्थंकर कपिल को क्षत्रियों में उत्पन्न हुआ मानता है । वैदिक देवी-देवताओं पर विश्वास नहीं करता और वैदिक ऋचाओं पर कटाक्ष करता है । तत्त्वज्ञान, संन्यास व तपश्चरण को प्रधानता देता है। ब्रह्मचर्य को यथार्थ - यज्ञ मानता है। गृहस्थ-धर्म की अपेक्षा सन्यास-धर्म को अधिक महत्त्व देता है । 2. सांख्यों की भाँति जैन भी किसी न किसी रूप में 25 तत्त्वों को स्वीकार करते हैं । तथा 'परमभावग्राही द्रव्यार्थिक नय' से स्वीकार किया गया एक व्यापक, नित्य, चैतन्यमात्र, जीवतत्त्व ही 'पुरुष' है। 'संग्रहनय' से स्वीकार किया गया एक, व्यापक, नित्य, अजीवतत्त्व ही 'अव्यक्त - प्रकृति' है । द्रव्य व भावकर्म 'व्यक्त - प्रकृति' है। शुद्ध निश्चयनय से जिसे उपरोक्त प्रकृति का कार्य, विकार तथा जड़माया कहा गया है, ऐसा ज्ञान का क्षयोपशम सामान्य महत् या बुद्धि-तत्त्व है, मोहजनित सर्व भाव - अहंकार तत्त्व ☐☐ 156 प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2002 वैशालिक - महावीर विशेषांक Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, संकल्प-विकल्प रूप भावमन मनतत्त्व है, पाँचों भावेन्द्रियाँ ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। व्यवहारनय से भेद करके देखा जाये, तो शरीर के अवयवभूत वाक्, पाणि, पाद आदि पाँच कर्मेन्द्रियाँ भी पृथक् तत्त्व हैं। शुद्ध निश्चयनय से ये सभी तत्त्व चिदाभास हैं, यही प्रकृति पर पुरुष का प्रतिबिम्ब है। यह तो चेतन-जगत् का विश्लेषण हुआ। जड़-जगत् की तरफ भी इसीप्रकार शुद्ध-कारण-परमाणु व्यक्त-प्रकृति है। शुद्ध-ऋजुसूत्र या पर्यायार्थिक-दृष्टि से भिन्न माने गये स्पर्श, रस आदि उस परमाणु के गुणों के स्वलक्षणभूत अविभाग-प्रतिच्छेद ही तन्मात्रायें हैं। 'नैगम' व 'व्यवहारनय' से अविभाग-प्रतिच्छेदों से युक्त परमाणु और परमाणुओं के बन्ध से पृथिवी आदि पाँच भूतों की उत्पत्ति होती है। 'असद्भूत-व्यवहारनय' से द्रव्यकर्मरूप कार्मण-शरीर और 'अशुद्ध-निश्चयनय' औदारिक व क्षायोपशमिक-भावरूप कार्मण-शरीर ही जीव का सूक्ष्म-शरीर है, जिसके कारण उसके स्थूल-शरीर का निर्माण होता है और जिसके विनाश से उसका मोक्ष होता है। सृष्टि-मोक्ष की यही प्रक्रिया सांख्य-मत को मान्य है। शुद्ध-पारिणामिक-भावरूप पुरुष' व 'अव्यक्त प्रकृति' को ही तत्त्वरूप से देखते हुए अन्य सब भेदों की उसी में लय कर देना शुद्ध द्रव्यार्थिक-दृष्टि है। वही 'परमार्थ-ज्ञान' या विवेक-ख्याति' है। तथा वही एकमात्र साक्षात् मोक्ष का कारण है। इसप्रकार सांख्य व जैन तुल्य हैं। 3. परन्तु दूसरी ओर जैन तो उपरोक्त सर्व नयों के विरोधी भी नयों के विषयों को स्वीकार करते हुए अनेकान्तवादी हैं और सांख्य उन्हें न स्वीकार करते हुए एकान्तवादी हैं। यथा- संग्रहनय' से जो पुरुष व प्रकृति तत्त्व एक-एक व सर्व व्यापक हैं, वही 'व्यवहारनय' से अनेक व अव्यापक भी हैं। 'शुद्ध निश्चयनय' से जो पुरुष नित्य है, 'अशुद्ध निश्चयनय' से अनित्य भी है। 'शुद्ध निश्चयनय' से जो बुद्धि, अहंकार, मन व ज्ञानेन्द्रियाँ प्रकृति के विकार हैं, 'अशुद्ध-निश्चयनय' से वही जीव की स्वभावभूत-पर्यायें हैं, इत्यादि। इसप्रकार दोनों दर्शनों में भेद है।' सांख्य' की उन्नत-भूमि में पदार्पण हो जाने पर जड़' तथा चेतन' —ऐसे दो तत्त्व ही शेष रह जाते हैं। धर्म धर्मी में भेद करने की इसे आवश्यकता नहीं रह जाती है। - जिस अद्वैत-शुद्धतत्त्व का परिचय देने के लिए वेद-कर्ताओं को पाँच या सात दर्शनों की स्थापना करनी पड़ी, उसी का परिचय देने के लिए जैनदर्शन नयों का आश्रय लेता है। तथा वैशेषिक व नैयायिक दर्शनों के स्थान पर 'असद्भूत' व 'सद्भूत' व्यवहारनय है। सांख्य व योगदर्शन के अनुसार स्थान पर 'शुद्ध' व 'अशुद्ध' द्रव्यार्थिकनय हैं।" जैनेतर दार्शनिक-ग्रन्थों में सांख्यदर्शन के बारे में निम्नानुसार उल्लेख प्राप्त होते हैं 'नास्ति सांख्य समं ज्ञानं नास्ति योगसमं बलम् । तावुभावेकचों तु उभावनिधनौ स्मृतौ ।।" सांख्यज्ञान और योगबल —दोनों की चर्या एक है। दोनों अनिधन-अमृतपद प्राप्त करानेवाले हैं : अत: सांख्य के समान ज्ञान नहीं है और योग के समान बल नहीं है। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 157 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सम्यग्ज्ञानावबोधेन नित्यमेक समाधिना। संख्ययैवावबुद्धा ये ते स्मता: सांख्ययोगिनः ।।12 सांख्यमत बुद्धियोग का विषय माना गया हैं। महर्षि बाल्मीकि कहते हैं— सांख्य-योगी वे हैं, जिन्हें सम्यग्ज्ञान से अवबोध प्राप्त हुआ है और जो नित्य समाधि में अवस्थित हैं, उनका ज्ञान अपने विचार-मन्थन का परिणाम है। वे ही सांख्य-योगी हैं। “कपिल-प्रभृतीनामार्षं ज्ञानमप्रतिहतं श्रूयते । श्रुतिश्च भवति–ऋषिप्रसूतं कपिलं यस्तमग्रे ज्ञानैर्विभर्ति जायमानं च पश्येत् ।"13 . ...... या तु श्रुति: कपिलस्य ज्ञानातिशयं प्रदर्शयन्ती प्रदर्शिता न तया श्रुतिविरुद्धमपि कापिलं मतं श्रद्धातुं शक्यम् । कपिलमिति श्रुतिसामान्यमात्रत्वात् । ........... भवति चान्या मनोर्माहात्म्यं प्रख्यापयन्ती श्रुति:- 'यद् वै किं च मनुरवदत्तद्भेषजम् ।14 "मनुना च सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि सम्पश्यन्नात्मया जीवै स्वराज्यमधिगच्छति ।। इति सर्वात्मत्वदर्शनं प्रशंसता कांपिलं मतं निन्द्यते इति गम्यते। कपिलो हि न सर्वात्मत्वदर्शनं मन्यते, आत्मभेदाभ्युपगमात् ।"16 कपिल आदि ऋषियों का आर्षज्ञान अप्रतिहत (अबाधित) सुना जाता है। इस विषय में श्रुति है कि जो परमात्मा कपिल-ऋषि को ज्ञान से पूर्ण करता है तथा उसे देखता है । यहाँ 'श्वेताश्वतर उपनिषद्' के श्रुति-वाक्य से कपिल को विशिष्टज्ञानी बताया गया है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि कपिल-प्रतिपादित मत श्रद्धान-योग्य है। 'सांख्य-सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्त्व-विचार-निपुन भगवाना।। तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब विधि प्रतिपाला।।" इसके प्रवर्तक महर्षि कपिल ने इसकी उत्पत्ति क्यों की? - इसका वर्णन भागवतकार मार्मिक शब्दों में करते हैं 'विदित्वार्थं कपिलो मनुरित्थं जातस्नेहो यत्र तन्वाभिजाना। तत्त्वाम्नायं यत्प्रवदन्ति सांख्यं प्रोवाच वै भक्तिवित्तानयोगा।। जिसके शरीर से उन्होंने स्वयं जन्म लिया था, उसे अपनी माता का ऐसा अभिप्राय जानकर कपिल जी के हृदय में स्नेह उमड़ आया और उन्होंने प्रकृति आदि तत्त्व-निरूपण करनेवाले शास्ता, जिसे 'सांख्य' कहते हैं, का उपदेश किया। साथ ही भक्ति-विस्तार एवं योग का भी वर्णन किया। तत्त्वज्ञान के प्ररूपण में सांख्य की तुलना अन्य किसी से नहीं की जा सकती। इसीलिए 'नास्ति सांख्यसमं ज्ञानं' जैसी उक्तियाँ प्रचलित हुईं। फिर भी धर्माचरण के क्षेत्र में व्यावहारिक-उपादेयता सिद्ध न हो सकने के कारण सांख्य की उपयोगिता किसी ने भी स्वीकार 00 158 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं की है। आद्य शंकराचार्य लिखते हैं 'न योगेन न सांख्येन कर्मणा नो न विद्यया। ब्रह्मात्मैकत्वबोधेन मोक्ष: सिद्धयति नान्यथा ।।" __ अर्थ :- मोक्ष न योग से सिद्ध होता है और न सांख्य से, न कर्म से और न विद्या से। वह केवल ब्रह्मात्मैक्य-बोध (ब्रह्म और आत्मा की एकता के ज्ञान) से ही होता है, और किसी प्रकार नहीं। 'शारीरक-भाष्य' के प्रणेता इनकी समीपता आर्हतदर्शन से संकेतित करते हैं ‘एवमार्हतादीनि संति भूयास्यात्मानमधिकृत्य दर्शनानि प्रवृत्तानि । तेषु केषाञ्चित् युक्तिगाढतया सांख्यादीनां च शिष्टैरपि केनचिदंशेन परिगृहीततया। 20 ___ अर्थ :- इसप्रकार आहेत (जैन) दर्शन आदि बहुत से दर्शन हैं, जो आत्मा को लेकर प्रवृत्त हुए हैं। उनमें से कुछ सांख्य आदि का युक्ति की प्रगाढ़ता के कारण शिष्टजनों ने भी कुछ अंशों में परिग्रहण किया है। फिर भी वैदिक पद्मपुराण' के प्रणेता सांख्यदर्शन की निरर्थकता प्रतिपादित करते हुए लिखते हैं 'दमेन हीनं न पुनन्ति यद्यप्यधीता सह षड्भिरंगैः । सांख्यं च योगश्च कुलं च जन्म-तीर्थाभिषेकश्च निरर्थकानि।।। अर्थ :- भले ही षडंग-सहित वेद पढ़ लिये जायें, किन्तु जिसने इन्द्रियों का दमन नहीं किया उसको वेद पवित्र नहीं कर सकते और उसके लिये सांख्य, योग, कुल, जाति और तीर्थ-अभिषेक आदि सब निरर्थक हैं। लगभग यही अभिप्राय भागवतकर्ता व्यक्त करते हैं 'किं वा योगेन सांख्येन न्यासस्वाध्याययोरपि । किं वा श्रेयोभिरन्यैश्च न यत्रात्मप्रदो हरिः।।22 अर्थ :- इस लोक में योग से सांख्य से, सन्यास और वेदाध्ययनों तथा व्रतवैराग्यादि अन्य कल्याण-साधनों से भी पुरुष को क्या लाभ है? । जैन-परम्परा में सांख्यदर्शन के बारे में अनेकत्र समीक्षायें मिलती हैं। न्यायपरक-ग्रन्थों में तो विस्तृत-समीक्षाओं की परम्परा है, अत: वह सामग्री यहाँ विस्तारभय से नहीं दे रही हूँ; किन्तु आध्यात्मिक आचार्यों ने अपने ग्रंथों में जो सांख्यदर्शन के विचारों की समीक्षा की है, वह अवश्य अंशत: यहाँ अवलोकनीय है। सर्वप्रथम मैं आचार्यप्रवर कुन्दकुन्द-विरचित 'समयसार' के एतद्विषयक-कथन प्रस्तुत करना चाहती हूँ ‘एवं संखुवदेसं जे दु परूविंति एरिसं समणा। तेसिं पयडी कुव्वदि अप्पा य अकारगा सव्वे ।। टीका :- एवं संखुवदेसं जे दु परूविंति एरिसं समणा एवं पूर्वोक्तं सांख्योपदेशमी प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 159 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृशमेकांतरूपं ये केचन परमागमोक्तं नयविभागमजानंत: समणा श्रमणाभासा: द्रव्यलिंगिन: प्ररूपयंति कथयति । तेसिं पयडी कुवदि अप्पाय अकारया सव्वे तेषां मतेनैकांतेन प्रकृति: की भवति। आत्मानश्च पुनरकारका: सर्वे । ततश्च कर्तृत्वाभावे कर्माभाव: कर्माभावे संसाराभाव: । ततो मोक्षप्रसंग: । स च प्रत्यक्षविरोध इति । जैनमते पुन: परस्परसापेक्षनिश्चयव्यवहारनयद्वयेन सर्वं घटत इति नास्ति दोषः। एवं सांख्यमतसंवादं दर्शयित्वा जीवस्यैकांतेनाकर्तृत्वदूषणद्वारेण सूत्रपंचकं गतं ।। आचार्य सिद्धसेन इनके विषय में लिखते हैं 'जं काविलं दरीसणं एवं दव्वट्ठियस्स वत्तव्वं । सुद्धोअण-तणअस्स उ परिसुद्धो पज्जवविअप्पो।।24 अर्थ :- जो कापिल (सांख्य) दर्शन है, वह 'द्रव्यार्थिकनय' का वक्तव्य है। शुद्धोदन के पुत्र—बुद्ध का दर्शन तो परिशुद्ध पर्यायार्थिकनय' का विषय है। ___ 'समयसार' के व्याख्याकार आचार्य जयसेन ने एकान्त-अकर्तृत्व के सांख्य-सिद्धान्त की समीक्षा इसप्रकार प्रस्तुत की है 'तत: स्थितमेतत् । एकान्तेन सांख्यमतवदकर्ता न भवति । किं तर्हि रागादिविकल्परहितसमाधिलक्षणभेदज्ञानकाले कर्ता न भवति, शेषकाले कर्तेति ।25 अर्थ :- अत: यह सिद्ध हुआ कि आत्मा सांख्यमतानुसार एकान्तदृष्टि से (सर्वथा) अकर्ता नहीं है। अपितु रागादिविकल्पों से मुक्त समाधि-लक्षण भेदविज्ञान के समय वह कर्ता नहीं है, शेष सविकल्प, सराग-अवस्था में कर्ता होता है। 'समयसार' के अमृतभाष्य (आत्मख्याति-टीका) के प्रणेता महान् अध्यात्मवादी आचार्य अमृतचन्द्र सूरि इसी विषय को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं 'माऽकर्तारममी स्पृशन्तु पुरुषं सांख्या इवाप्यार्हता: । कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादयः ।। ऊर्ध्वं तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेव स्वयं । पश्यन्तु च्युतकर्मभावमचलं ज्ञातारमेकं परम् ।।26 अर्थ :---- सांख्यों के समान आत्मा को सर्वथा अकर्ता मानना अहँत-मतावलम्बियों को उचित नहीं है। उन्हें सदा ही यह विचार रखना चाहिए कि भेदज्ञान से पूर्व आत्मा कथंचित्-कर्ता है। भेदज्ञान के पश्चात् तो उदग्रबोध का नियत-स्थान यह आत्मा स्पष्ट ही कर्मभावरहित, अचल और ज्ञातारूप में स्वयं प्रत्यक्ष-अनुभूति से अकर्ता दिखायी देने लगेगा। निरीश्वर-सांख्यभिमत जीव का स्वरूप समीक्षित करते हुए आचार्य वामदेव ने लिखा है- 'ज्ञाता दृष्टा पदार्थानां त्रैलोक्योदरवर्तिनाम् । तस्याज्ञानस्वभावत्वं ब्रूते सांख्यो निरीश्वरः ।।27 अर्थ :- जो वीतराग सर्वज्ञ तीनों लोक मध्यवर्ती समस्त पदार्थों के ज्ञाता-दृष्टा हैं, 00 160 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनको निरीश्वरवादी-सांख्य अज्ञान (जड़) स्वभावी मानते हैं? (यह आश्चर्य है)। इसप्रकार हम पाते हैं कि सांख्यदर्शन के प्राचीनतम-उल्लेख जैनग्रंथों में मिलते हैं तथा इसकी मान्यताओं की समुचित-समीक्षा भी वहाँ उपलब्ध है। सन्दर्भग्रन्थ-सूची 1. महाभारत, शान्तिपर्व 350/65 । 2. ऋग्वेद 10-27-161 3. आचार्य अमितगति, धर्मपरीक्षा 18/56 । 4. छहढाला 2/13। 5. द्र. संस्कृत हिन्दी कोश, वामन शिवराम आप्टे, न्यू भारतीय बुक कार्पोरेशन, नई दिल्ली, पृ. 1093। 6. 'शब्दकल्पद्रुमः' भाग 5, राजा राधाकान्त देव, नाग प्रकाशंक, दिल्ली, पृ० 324। 7. 'अभिधानराजेन्द्रः', पृ० 41 और 46। 8. द्र. षड्दर्शनसमुच्चय, 32-42/32-37। 9. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश', चतुर्थ भाग, क्षु. जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृ. 398-4001 10. 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' भाग-2, जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृ० 403 404। 11. महाभारत, शान्तिपर्व, 304/2। 12. योगवाशिष्ठ, 6/69/18। 13. श्वेताश्वरोपनिषद् 5/2। 14. तैत्तरीय संहिता 2/2/10/2 । 15. मनुस्मृति: 12/911 16. ब्रह्मसूत्र-शांकरभाष्य, 2/1/1। 17. तुलसी, रामचरितमानस, बालकाण्ड 141/4 । 18. भागवत, 3/25/31 । 19. आचार्य शंकर, विवेक-चूड़ामणि 58 । 20. शारीरक मीमांसाभाष्य, अ. 2 । 21. वैदिक पद्मपुराण, 5/19/340। 22. भागवत 4/31/121 23. समयसार गाथा 340 और उसकी तात्पर्यवृत्ति टीका। 24. सन्मतिसूत्र, 3/48। 25. समयसार, जयसेनाचार्य टीका, पृ. 426 । 26. समयसार कलश, 2051 27. वामदेव, भावसंग्रह 174 । प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 161 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह द्वादशांग का चिन्तन है -विद्यावारिधि डॉ० महेन्द्र सागर प्रचंडिया जीवन में जिनधर्म मुखर हो। उपजे नित्य स्वभाव सुघर हो।। नहीं सतायें किसी जीव को, यह देव-शास्त्र-गुरु-वंदन है। यह द्वादशांग का चिंतन है।। 1 ।। संयम से समता जगती है। समता से ममता नसती है।। और सफल हो सिद्ध-साधना, होता पूरन तभी नमन है।। यह द्वादशांग का चिंतन है।। 2 ।। जो है नहीं हमारा, छूटे। त्याग-धर्म के अंकुर फूटे।। नर-भव तभी सार्थक होता, तप से मँजता अन्तर्मन है।। यह द्वादशांग का चिंतन है।। 3 ।। निर्मल मन ही धर्म हमारा। अंतकाल में यही सहारा।। अपना दीपक स्वयं जले तब, आलोकित होता तन-मन है। यह द्वादशांग का चिंतन है।। 4 ।। दर्शन-मोह मिटे जीवन से। मिले मुक्ति भव-भव-भटकन से।। खुलते द्वार मोक्ष-धाम के, होय आखिरी जनम-मरन है। यह द्वादशांग का चिंतन है।। 5 ।। 00 162 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय आस्था के स्वर 'जन-गण-मन..... . -डॉ. सुदीप जैन ___ आज देश के उच्चतम न्यायालय में जैनों को 'अल्पसंख्यक-दर्जा' देने का प्रकरण विचाराधीन है। जबकि संवैधानिक रूप से जैनों को हिन्दुओं से अलग जाति और धर्म-दर्शन के रूप में प्रारंभ से मान्यता मिली हुई है। भारत के राष्ट्रगान के पूरे मूलपाठ में भी जैनों को स्वतन्त्र-समुदाय के रूप में उल्लिखित किया गया है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इस गीत की रचना की थी तथा सन् 1911ई. में कलकत्ता में प्रथम बार उन्होंने इसका गायन किया था। इस गान के मूलपाठ को अविकलरूप से अभी बैठी उच्चतम न्यायालय की पूर्ण पीठ (ग्यारह सदस्यीय फुलबैंच) ने भी मनोयोगपूर्ण सुना और इसमें कथित जैनों के स्वतंत्र-समुदायरूप उल्लेख से पूर्णपीठ आश्वस्त प्रतीत हुई। इस गान के बारे में अनेकों प्रकार के भ्रम फैलाये गये हैं, अत: उनके निराकरणपूर्वक इस गान की तथ्यातमक रीति से आलेखरूप में प्रस्तुति 'प्राकृतविद्या' ने पहिले भी की थी, उसी आलेख को सामयिकता के अनुरूप यहाँ पुनः प्रस्तुत किया जा रहा है। –सम्पादक भारत की स्वाधीनता के लिये राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के नेतृत्व में जिस अद्भुत अहिंसक-क्रान्ति का सूत्रपात हो रहा था, और जिसके फलस्वरूप लगभग आधे विश्व में एकछत्र-शासन करनेवाले अंग्रेजों की सत्ता डाँवाडोल हो उठी थी; लगभग उसी समय राष्ट्रीय चेतना के स्वरों को मुखरित करने तथा अखंड भारत-गणराज्य की कल्पना को जन-जन के हृदय में भर देने के लिए कविवर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर जी ने सन् 1911 ई. में “जन-गण-मन.......” की रचना की थी। इसका सर्वप्रथम सार्वजनिक-प्रयोग समूहगान के रूप में 27 दिसम्बर 1911 ई. को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में किया गया था। ___ यह सत्य है कि उस समय आजादी के मतवालों का सर्वाधिक प्रिय-गीत वन्दे मातरम्' ही था, किन्तु विभिन्न राजतन्त्रों, क्षेत्रीयता एवं प्रांतीयता के खंडों में विभाजित इस महान् देश को इन संकुचित दायरों से मुक्त कर एक अखण्ड भारत-गणराज्य की कल्पना को कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर जी ने सूक्ष्मप्रज्ञा से इस गीत के माध्यम से साकाररूप दिया था। यही नहीं, उन्होंने विभिन्न धर्मो, सम्प्रदायों एवं जातियों की संकीर्ण मानसिकता से समस्त भारतवासियों को एक अखण्ड राष्ट्रीय-चेतना के सूत्र में पिरोने की प्रबल-कामना इस गीत में प्रस्तुत की थी। क्योंकि वे अच्छी तरह जानते थे कि जब तक क्षेत्रवाद, जातिवाद, प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 163 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजतंत्रीय विद्वेषवाद के कारण भारत की जनशक्ति विखंडित रहेगी; तब तक अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज्य करो' (डिवाईड एंड रूल) की नीति सफल होती रहेगी । इसके साथ ही भारतीय आस्तिकता (परमात्मा में अनन्य - श्रद्धा) की मूलभावना रक्षा/अभिशंसा करते हुए उन्होंने प्रत्येक भारतवासी को अपने कर्णकुहरों में वैसी ही शंखध्वनि गुंजायमान करने का संकेत भी दिया, जैसी कि नारायण श्रीकृष्ण ने 'महाभारत' युद्ध के समय दुविधाग्रस्त मानसिकता से युक्त अर्जुन एवं सम्पूर्ण पाण्डव - सेना को ‘पाञ्चजन्य शंख' का दिव्यघोष करके गुंजायमान की थी; जिसके फलस्वरूप अर्जुन एवं पाण्डव-सेना में कर्तव्यबोध एवं अद्भुत पुरुषार्थ - भावना का संचार हुआ था । वैसी ही पुरुषार्थ - भावना एवं कर्त्तव्यपरायणता की भावना, व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठकर राष्ट्रहित की उदात्त भावना वे इस गीत के माध्यम से जन-जन के हृदय में उमगाना चाहते थे । के उन्होंने इस गीत में भारत को उगते हुए बालसूर्य की भाँति देखा था, जो अपने प्रकाश और प्रताप से दिग्दिगन्त को आलोकित एवं प्रभावित कर देगा, न कि अस्ताचलगामी सूर्य के रूप में; जो मोह, अज्ञान एवं अकर्मण्यता की काली - निशा का सूचक होता है । आजादी के मतवालों के स्वरों को उन्होंने के स्वरों को उन्होंने प्रातः कालीन पक्षियों के कलरवरूपी मंगलगीत माना था। ऐसी उदात्त भावनाओं से पूरित कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के उस पाँच - स्तबकवाले मूलगीत का मात्र एक ही स्तबक आज 'राष्ट्रगान' के रूप में गाया जाता है। जबकि यह सम्पूर्ण गीत ही अत्यन्त-प्रेरक है। इसका मूलपाठ निम्नानुसार है जनगणमन अधिनायक..... “ जनगणमन - अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता ! पंजाब - सिंधु - गुजरात-मराठा- द्राविड़ उत्कल बंग । विन्ध्य-हिमाचल यमुना- - गंगा उच्छल जलधितरंग ।। तव शुभ नामे जागे, तव शुभ आशिष मांगे, गाहे तव जय गाथा । 0164 जन-गण-मंगलदायक जय हे भारत भाग्य विधाता ! जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे ।। 1 अहरह तव आह्वान प्रचारित, सुनि उदार तव वाणी । हिन्दू-बौद्ध-सिख-जैन- पारसिक-मुसलमान- खुष्टानी ।। पूरब-पश्चिम आसे, तव सिंहासन-पासे, प्रेमहार हय गाथा ।। जन-गण- ऐक्य - विधायक जय हे भारत भाग्य विधाता ! जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे ।। 2 ।। प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतन-अभ्युदय-बंधुर पंथा, युग-युग धावित यात्री । हे चिर सारथि ! तव रथचक्रे मुखरित पथ दिन - रात्रि । दारुण विप्लव- माझे तव शंख-ध्वनि बाजे, संकट-दुःख-त्राता । । जन-गण- पथ- परिचायक जय हे भारत भाग्य विधाता ! जन-गण-मंगलदायक जय हे भारत भाग्य विधाता ! जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे ।। 3 ।। घोर- तिमिर-घन-निविड़ निशीथे पीड़ित मूर्छित देशे । जाग्रत छल तव अविचल मंगल नतनयने अनिमेषे ।। दुःस्वप्ने आतंके रक्षा करिले अंके, स्नेहमयी तुमि माता ।। जन-गण-दुःख- त्रायक जय हे भारत भाग्य विधाता ! जन-गण-मंगलदायक जय हे भारत भाग्य विधाता ! जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे ।। 4 ।। रात्रि प्रभातिल, उदिल रविच्छवि पूर्व-उदयगिरिभालेगाहे विहंगम, पुण्य-समीरण नव-जीवनरस ढाले । तव करुणारुण - रागे निद्रित भारत जागे, तव चरणे नत माथा । । जय जय जय हे, जय राजेश्वर भारत भाग्य विधाता ! जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे ।। 5 ।। - -- - ( रवीन्द्र रचनावली, पृष्ठ 194, प्रकाशन - पश्चिम बंगाल सरकार, प्रकाशन तिथि 25 वैशाख 1368 बंगला वर्ष ) कतिपय पूर्वाग्रहीजनों ने जार्ज पंचम के भारत आगमन पर उनके 'स्वागत' - हेतु रचित 'विरुद-गान' के रूप में कल्पित कर लांछित करने की चेष्टा की, तो अत्यन्त व्यथित-हृदय से कविवर ने अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए उत्तर दिया “यह सुनकर (कि 'मैंने सम्राट् जार्ज पंचम के स्वागतगान के रूप में इस गीत की रचना की है' ) मुझे आश्चर्य तो हुआ ही, मन में रोष का भी संचार हुआ । 'शाश्वत मानव- इतिहास के युग-युग-धावित पथिकों के चिरसारथी' कहकर मैं किसी चतुर्थ या पंचम जार्ज की स्तुति कर सकता हूँ. — इसप्रकार की निकृष्टमूढ़ता मेरे मन में होने का जिन्हें सन्देह भी हो सकता है, वैसे लोगों को उत्तर देने में भी मैं अपना अपमान मानता हूँ ।" कविवर टैगोर जी के इस बेवाक स्पष्टीकरण के बाद उक्त अनर्गल - कल्पना का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता है। तथा यह तथ्य भी ध्यातव्य है कि सन् 1911 ई. में यह गीत रचा गया था, तथा उसके अगले वर्ष 1912 ई. में जार्ज पंचम भारत आये थे । उनके आगमन प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक 165 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के पूर्व ही यह गीत भारतीय स्वतंत्रता के दीवानों के सर्वाधिक बड़े संगठन 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' का प्रिय-गीत बनकर गाया जा चुका था। इसीलिए स्पष्ट है कि उक्त आरोप पूर्वाग्रह-प्रेरित ईर्ष्या से उत्पन्न था, उसमें रंचमात्र भी सत्य या तथ्य नहीं है । वस्तुत: वह ऐसा युग था कि सम्पूर्ण भारतवासी राष्ट्रीयता एवं स्वाधीन - भारत की भावना से ओतप्रोत थे। उसमें अनन्य - राष्ट्रवादी कविवर टैगोर जी, जिनसे मिलने स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जाते हों, एवं 'गुरुदेव' के संबोधन से ससम्मान उन्हें संबोधित करते हों; उन पर लांछन लगाना सूर्य पर धूल फेंकने समान है, जो वस्तुतः फेंकने वालों के मुख को ही मलिन करता है। यह 'राष्ट्रगान' सम्पूर्ण भारतवासियों के हृदय के भावों को भाषा के माध्यम से दिया गया मूर्तरूप था । यह किसी एक भाषा में लिखा जाकर भी सम्पूर्ण भाषाओं एवं सम्पूर्ण- भारतवासियों के हृदय की प्रतिध्वनि थी। राष्ट्रीयता यह भावना धर्म में अतिप्राचीनकाल से पायी गयी है । इसीलिये कविवर ने इसमें धार्मिक महापुरुषों के संकेत भी प्रदान किये हैं उनके प्रति आदर एवं आस्था के स्वर देकर भारतीय जनमानस की आस्तिकता के राष्ट्रवाद की मूलधारा के साथ अभिन्न स्वीकार किया है। महान् राष्ट्रवादी जैन संत-आचार्य सोमदेव सूरि लिखते हैं “समस्त-पक्षपातेषु स्वदेशपक्षपातो महान् ” – ( यशस्तिलकचम्पू' काव्य) अर्थात् यह सत्य है कि मनुष्य का हृदय अपने अभीष्ट एवं प्रिय विषय / वस्तु/व्यक्ति का पक्ष लेता है; किन्तु मनुष्य अपने जीवन में जितने भी पक्ष लेता है, उनमें अपने देश एवं अपने राष्ट्र का पक्षपाती होना ही सबसे महान् है, सर्वाधिक श्रेयस्कर है। उक्त वचन हमारे संतों की धर्ममय त्यागपरक जीवन जीते हुये भी अनन्य - राष्ट्रवादी होने का परिचायक है । इससे सिद्ध है कि धार्मिकता या आस्तिकता का राष्ट्रवादी होने से अविरोध है। ये दोनों भावनायें परस्पर पूरक हैं। संभवत: इसी भावना को मूर्तरूप में अभिव्यक्त करने के लिए जैन श्रावकगण नित्य देवपूजन के उपरान्त यह भावना भाते हैं। कि- “सम्पूजकानां प्रतिपालकानां यतीन्द्र - सामान्य- - तपोधनानाम् । देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शांतिं भगवान् जिनेन्द्रः । । ” इसमें ‘प्रतिपालकों' का अर्थ राष्ट्र की सीमा पर तैनात सुरक्षा - प्रहरियों, सैन्य कर्मियों आदि से है 1 इसप्रकार राष्ट्रीयता की भावना जातिभेद, वर्गभेद, सम्प्रदायभेद, भाषाभेद, प्रान्तवेद आदि भेदभावों को मिटाकर एकता का सूत्रपात करनेवाली अनन्य भावना है तथा इसका धर्मभावना के साथ अनन्य- अविरोध है । इसी तथ्य को 'जन-गण-मन...' इस राष्ट्रगान में भारतीय आस्था के स्वरों के साथ अभिन्न रखते हुए कविवर टैगोर जी ने मूर्तरूप में प्रस्तुत किया था । किन्तु हमारे राष्ट्रगान के पूर्ण रूप को, उसके परिप्रेक्ष्य को, मूल अभिप्राय एवं उद्देश्य को आज भारतवासी कितना जानते हैं - यह बिन्दु गंभीरतापूर्वक मननीय है । 166 समस्त प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक महावीर - विशेषांक Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'राष्ट्रपति-द्विसहस्राब्दी-पुरस्कार' मेरा सम्मान नहीं, बल्कि प्राकृत, जैन-विधा तथा जैन-पाण्डुलिपियों का सम्मान है __-प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन (राष्ट्रपति सहस्राब्दी सम्मान पुरस्कार द्वारा सम्मानित) 30 अगस्त सन् 2000 की वह तिथि मेरे जीवन की सर्वाधिक सुखद घड़ी थी, जब भारत सरकार के 'मानव संसाधन विभाग' के संयुक्त शिक्षा-सलाहकार डॉ. पी.एच. सेथुमाधवराव का मुझे हार्दिक बधाइयों से भरा हुआ पत्र मिला, जिसमें मुझे यह सूचना दी गई थी कि भारत सरकार की प्रवर-समिति की अनुशंसा पर भारत के माननीय राष्ट्रपति जी ने मुझे द्विसहस्राब्दी-सम्मान से पुरस्कृत एवं सम्मानित करने का निर्णय लिया है। इसकी सूचना यद्यपि सभी दैनिक समाचारपत्रों एवं समाचार-मीडिया से प्रसारित हो चुकी थी, किन्तु मैं उन्हें पढ़/सुन नहीं सका था और यदि जयपुर से हमारे स्नेही-मित्र डॉ. सुदीप जी जैन दिल्ली. प्रो. डॉ. प्रेमचन्द्र जी जैन (राजस्थान विश्वविद्यालय) एवं बनारस के मेरे अनन्य-मित्र डॉ. फूलचन्द्र जी प्रेमी ने टेलीफोन द्वारा तदर्थ मुझे तत्काल बधाई न दी होती, तो सम्भवत: मैं इस सुखद-समाचार से अगले कुछ सप्ताहों तक अनभिज्ञ ही बना रहता। भारत सरकार राष्ट्रपति-पुरस्कार-हेतु चयनित प्राच्य-विद्याविद् विद्वानों (संस्कृत, प्राकृत/पालि, अरबी एवं फारसी) के नामों की घोषणा प्रतिवर्ष स्वतन्त्रता-दिवस (15 अगस्त) के दिन करती है और चयनित विद्वानों को बधाई-पत्र प्रेषित करते हुए उन विद्वानों के कृतित्व एवं व्यक्तित्व को उजागर करनेवाले तथ्यमूलक सचित्र जीवन-वृत्त (हिन्दी व अंग्रेजी में) भेजने का अनुरोध करती है, जिससे कि उन्हें सचित्र पुस्तकाकार प्रकाशित कर राष्ट्रपति भवन के 'अशोक सभागार' में पुरस्कार-सम्मान प्रदान करने के अवसर पर पुरस्कृतविद्वानों के साथ-साथ उपस्थित केन्द्रीय मन्त्रियों, शिक्षाविदों एवं प्रतिष्ठित नागरिकों को उक्त पुस्तिका का वितरण किया जा सके। ___ राष्ट्रपति-पुरस्कार प्रदान करने सम्बन्धी भारत सरकार की एक उच्चस्तरीय प्रवरसमिति' होती है, जो 'यू.जी.सी.' तथा 'युनिवर्सिटीज ऑफ इण्डिया' की 'ईयर-बुक्स' (Year प्राकृतविद्या+जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 167 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Books) में प्रकाशित भारत के सभी शिक्षकों के शोध-कार्यों आदि की मौलिकता तथा विशेषताओं का अध्ययन करती है। पुन: सम्बन्धित विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों से सम्बन्धित शिक्षकों की कार्य-प्रणालियों, शिक्षण-पद्धति, संस्था के संचालन में सहयोग, छात्रों एवं शोधार्थियों के मध्य उनकी छवि आदि की जानकारी प्राप्त करती है। पुन: खुफिया-विभाग तथा पुलिस-विभाग से भी उनके चरित्र की गोपनीय-रिपोर्ट प्राप्त की जाती है। सर्वांगीण जाँच-परख के बाद स्वयं सन्तुष्ट होकर यह प्रवर-समिति सर्वसम्मति से पुरस्कार-हेतु राष्ट्रपति जी के लिए उनके नामों की अनुशंसा करती है। कभी-कभी व्यक्ति सोचता है कि उसके कार्य-कलापों को कोई देखता नहीं; किन्तु बात ऐसी नहीं, शिक्षक किस-किस संस्था से जुड़ा है, किस राजनीति से जुड़ा है, जिस संस्था का वह पदाधिकारी है, उसके मूल-उद्देश्य क्या हैं? उससे उसका व्यक्तित्व विवादास्पद बना है अथवा विवाद-विहीन, — इन सबका लेखा-जोखा व्यक्ति के अनजाने में ही होता रहता है और जब किसी विशिष्ट सम्मान-पुरस्कार प्रदान करने के लिये सूची तैयार होने लगती है, तब उसकी यही छवि निर्णायक-मण्डल के सम्मुख पूर्ण-विवरण के साथ प्रस्तुत की जाती है। मेरा भी यही व्यक्तिगत अनुभव है। लगभग 30-35 वर्ष पूर्व की एक घटना है। मेरा एक छात्र खुफिया-विभाग में नौकरी पा गया। हजारों की जमात में कौन-सा गुरु अपने हजारों शिष्यों को याद रख सकता है? मैं भी उसे भूल ही गया था। एक दिन वह मुझे कहीं रास्ते में मिल गया। उसने आदरपूर्वक मेरे पैर छुए। फिर उसने अपना परिचय दिया और कहा कि “मैं आपका गरीब शिष्य था। जीवन भर आपका अत्यन्त आभारी रहूँगा। आपने एक दिन किसी प्रसंग में अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन और वहाँ के एक नीग्रो जाति के महान् उद्धारक नेता बुकर टेलिफेरो वाशिंगटन तथा बंगाल के ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की अत्यन्त गरीबी का उदाहरण देते हुए उनकी आसमानी प्रगति की मार्मिक कहानी अपनी प्राकृत की एक कक्षा में सुनाई थी, और कहा था कि गरीब छात्रों को अपनी गरीबी को कभी भी अभिशाप नहीं मानना चाहिए, वरन् वरदान मानकर दृढ़-संकल्पी बनना चाहिये। आपका यह उपदेश इतना मार्मिक था कि आज भी मैं उसे नहीं भूला और आज आपकी कृपा से मैं अच्छी सर्विस पा सका हूँ। मैं खुफिया-विभाग में हूँ।" __उसका भावभरित कथन सुनकर मैं आश्चर्यचकित रह गया। मैंने उससे पूछा कि "खुफिया-विभाग में हो अवश्य, किन्तु मैं क्या-क्या करता हूँ, उसकी भी तुम्हें कोई जानकारी है? कुछ बता सकते हो कि मैं कब-कब, क्या-क्या करता हूँ?" और मैं उस समय विस्मित हो उठा, जब उसने कहा कि “अन्य लोगों के साथ-साथ वह मेरे विषय में भी सभी जानकारियाँ रखता है।" तात्पर्य यह, कि व्यक्ति स्वयं ही अपने कार्य-कलापों को तो भूल जाता है, किन्तु खुफिया-तन्त्र के खाते में सभी के कार्य-कलाप अंकित होते रहते हैं। ___ अत: किसी भी व्यक्ति को यह नहीं सोचना चाहये कि उनके विवादग्रस्त या विवादविहीन 00 168 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्यों को कोई देखने-परखनेवाला नहीं। किन्हीं विशिष्ट-अवसरों पर उनका पूरा लेखा-जोखा अवश्य ही प्रकट हो जाता है, जो पुरस्कृत अथवा दण्डित करने के लिये पर्याप्त होता है। राष्ट्रपति सहस्राब्दी पुरस्कार राष्ट्रपति जी की अस्वस्थता के कारण मुझे एक वर्ष बाद मिला। यह समारोह इन्वेस्टीट्यूर सेरेमोनी (Investiture Ceremony) कहलाती है। यह आयोजन 6 फरवरी 2002 को सम्पन्न किया गया। पुरस्कृत-विद्वानों को उनकी अपनी-अपनी धर्मपत्नियों के साथ भारत सरकार हवाई उड़ान से आने-जाने का अनुरोध करती है तथा उन्हें 'थ्री स्टार होटल' में 4 दिनों तक अपने सम्मान्य राजकीय-अतिथि के रूप में नि:शुल्करूप से रहने की पूर्ण-व्यवस्था करती है। पुरस्कार-सम्मान भी पूर्ण राजकीय शान-शौकत के साथ प्रदान किया जाता है। पुरस्कृतों को सभागार में अग्रश्रेणी में तथा दर्शकों की दीर्घा उसके बगल में तथा सम्मुख होती है। राष्ट्रपति के सभागार में आने के पूर्व पुरस्कृतों को रिहर्सल की प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। उसमें उन्हें राष्ट्रपति जी के सम्मुख कहाँ-कहाँ से, कैसे-कैसे अनुशासनपूर्वक जाना चाहिये, कैसे पुरस्कार ग्रहण करना चाहिये तथा पुरस्कार ग्रहण कर कहाँ-कहाँ से कैसे-कैसे लौटकर अपना सुनिश्चित स्थान ग्रहण करना चाहिये, यही बताया जाता है। उक्त प्रक्रियाओं से गुजरते समय मुझे 'मूलाचार' की उस गाथा का स्मरण हो आया, जिसमें बताया गया है कि श्रावक एवं साधु को किस प्रकार चलना, फिरना, उठना अथवा बैठना चाहिये— “कंध चरे कधं चिट्ठे कंध बए” आदि आदि। रिहर्सल के समय राजकीय उद्घोषिका पुरस्कृत-विद्वानों का पूर्ण-परिचय प्रस्तुत करती है। तत्पश्चात् विशिष्ट पोशाक में लम्बे-चौड़े कद वाले 20-25 हट्टे-कट्ठे नौजवान अंगरक्षक आते हैं, जो राष्ट्रपति जी के मंच को चारों ओर से घेरकर अपना-अपना स्थान ग्रहण करते हैं। तत्पश्चात् बिगुल बजने के साथ ही सुनिश्चित समय पर राष्ट्रपति जी मंच पर पधारते हैं और 'राष्ट्रिय गान' के बाद कार्यक्रम प्रारम्भ हो जाता है। आयोजन के बाद पुरस्कृतों को राष्ट्रपति जी की ओर से भोज दिया जाता है। वे सभी से सौहार्दपूर्वक मिलते, हाथ मिलाते और वार्तालाप करते हैं। उनके बच्चों के साथ भी झुककर प्यार से हाथ मिलाते एवं मनोरंजक वार्तालाप करते हैं। अगले दिन पुरस्कृतों को भारत सरकार की ओर से दिल्ली के विशिष्ट-स्थलों का भ्रमण कराया जाता है और स्नेहिल-वातावरण में सभी को विदाई दी जाती है। ___ राष्ट्रपति सहस्राब्दी-पुरस्कार के उपलक्ष्य में मुझे अपने स्नेही मित्रों, गुरुजनों, शिष्यों, श्रीमन्तों, धीमन्तों एवं नेताओं के इतने अधिक बधाई-सम्बन्धी टेलीफोन, तार एवं पत्र मिले कि मैंने उतने की आशा न की थी। कुछ संस्थानों ने मेरे इस सम्मान के उपलक्ष्य में आयोजन भी किये। जैन सिद्धांत भवन, आरा के कुलपति श्री बाबू सुबोधकुमार जी जैन ने विशिष्ट आयोजन कर नगर के प्राध्यापकों एवं समाज के नर-नारियों के मध्य 'सिद्धान्ताचार्य' की उपाधि प्रदान कर मुझे स्वर्णसूत्र-ग्रथित विशिष्ट शाल उढ़ाकर अपना प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 169 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्ष व्यक्त किया । कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली ने इस सम्मान को स्वयं अपना तथा प्राकृत एवं जैनविद्या का सम्मान माना। प्राकृत-जगत् ने इसे दुर्लभ प्राकृत-अपभ्रंश पाण्डुलिपियों का सम्मान माना। सम्मान-प्राप्ति हेतु मेरे तथा हमारी धर्मपत्नी के दिल्ली पहुँचने पर श्री कुन्दकुन्द भारती ने हवाई अड्डे पर अपने प्रतिनिधियों - डॉ. सुदीप जैन, डॉ. वीरसागर जैन आदि को भेजकर वहीं पर हमारे स्वागत की व्यवस्था की। मेरे अनेक मित्रों ने इसे समग्र जैनसमाज का सम्मान माना और मैंने स्वयं इसे अपनी जन्मभूमि मालऑन (सागर) तथा कर्मभूमि आरा (बिहार), दिल्ली, तथा श्री गणेशवर्णी दिगम्बर जैन संस्थान, वाराणसी और जैन सन्देश (मथुरा) का सम्मान माना। ___ यह मेरा महान् सौभाग्य है कि राष्ट्रसंत परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज ने मेरे सिर एवं पीठ पर पिच्छी का स्पर्श कराकर मुझे आगे भी विवादग्रस्त झंझटों से दूर रहकर प्राकृत एवं जैनविद्या तथा दुर्लभ अप्रकाशित जैन पाण्डुलिपियों पर एकाग्र मन से पूर्ववत् ही शोध-सम्पादन-कार्य करते रहने का शुभाशीर्वाद दिया और डॉ. ए.एन. उपाध्ये तथा डॉ. हीरालाल जी के मार्ग पर चलते रहने का मंगल-आशीर्वाद दिया। पुरस्कार ग्रहण करते समय मैं अपनी उन शिक्षा संस्थाओं - पपौरा (टीकमगढ़) गुरुकुल, स्याद्वाद महाविद्यालय बनारस तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय तथा वहाँ के अपने गुरुजनों का भी स्मरण करता रहा, जिनके द्वारा प्रदत्त-संस्कारों से मैं कुछ बन सका। मुझे अपने बचपन के वे दिन भी याद आते रहे, जब मेरी माता जी प्रात:काल में ही मुझे नहलाकर तथा स्वयं राजस्थानी-पोशाक धारण कर मुझे जिन-मन्दिर ले जाती थीं और देवदर्शन कर किसी हस्तलिखित-पोथी का मनोयोगपूर्वक स्वाध्याय करती थीं और मैं कभी उनकी श्रद्धाभरित एकाग्र मुखमुद्रा देखता रहता और कभी हस्तलिखित-ग्रन्थ का वह पत्र, जिसका कि वे स्वाध्याय किया करती थीं। उनके द्वारा प्रदत्त वही प्रच्छन्न-संस्कार मुखर हुआ सन् 1956 में, जब डॉ. उपाध्ये जी एवं डॉ. हीरालाल जी के आदेश से मैंने महाकवि रइधू, विबुध श्रीधर, महाकवि सिंह तथा महाकवि पदम आदि की दुर्लभ हस्तलिखित प्राचीन-पाण्डुलिपियों की खोज एवं उनके अध्ययन एवं सम्पादन का दृढव्रत लिया। यह कार्य मुझे ऐसा रुचिकर लगा कि प्रतिदिन कॉलेज-सर्विस के साथ-साथ प्रतिदिन 14-14, 15-15 घण्टे कार्य करके भी थकावट का अनुभव नहीं करता था। वर्तमान में भी मेरा ऐसा ही अनथक-अभ्यास चल रहा है। उच्चकोटि के पुरस्कारों का अपना भौतिक-महत्त्व तो है ही, किन्तु उनका मनोवैज्ञानिक महत्त्व उससे भी अधिक है। वह स्वस्थ दीर्घायुष्यकारी होता है; क्योंकि उससे बुद्धिजीवियों को विनम्रता के साथ-साथ नई ऊर्जा-शक्ति मिलती है, नया उत्साह एवं विविध प्रेरणायें मिलती हैं, विशेष उत्तरदायित्वों के निर्वाह की भावना भी प्रबल होती है और यह भी अनुभव होने लगता है कि वृद्धावस्था की गणना उलटी अर्थात् युवावस्था की ओर चलने लगी है और 00 170 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह बिना किसी थकावट के ही प्रतिदिन 14-15 घण्टे निर्द्वन्द्वभाव से सार्थक एवं रचनात्मक कार्य करने की स्थिति में आने लगा है। ___ मैंने तो व्यक्तिगत रूप से यही अनुभव किया है और मुझे पूर्ण विश्वास है कि मेरी यही कार्य-क्षमता अगले कई वर्षों तक बनी रहेगी। मेरी सद्भावना है कि प्राकृत एवं जैनविद्या की सेवा के क्षेत्र में जो भी एकान्त-मन से कार्यरत हैं, वे यदि निर्विवाद रहकर मौलिक अवदान देते रहेंगे, तो वे भी राष्ट्रपति के सर्वोच्च पुरस्कार-सम्मान को प्राप्त करने के अधिकारी बन सकेंगे, इसमें सन्देह नहीं। निर्विवाद मंगलाचरण यस्य ज्ञानदयासिन्धोरगाधस्यानघा गुणा:। सेव्यतामक्षयो धीरा: स श्रिये चामृताय च।। -(अमरकोश 1/1) अर्थ :- जिस अनन्तज्ञान और अनन्त दयानिधि परमात्मा अनघ - निष्पाप गुण हैं, हे धीर पुरुषो ! वह परमात्मा श्री और अमृत्व की प्राप्ति के लिए सेवनीय है। यत: सर्वाणि भूतानि प्रतिभान्ति स्थितानि च। यत्रैवोपशमं यान्ति तस्मै सत्यात्मने नमः।। -(योगवासिष्ठ) अर्थ :- जिससे सारे भूतसर्ग (पर्याय) प्रतिभात (प्रतीत) होते हैं, स्थित हैं तथा जिसमें लीन हो जाते हैं उस सत्य (सत्स्वरूप) परमात्मा को नमस्कार है। सर्वव्याप्यैकचिद्रूप स्वरूपाय परात्मने । स्वोपलब्धिप्रसिद्धाय ज्ञानानन्दात्मने नमः ।। –(अमृतचन्द्रसूरि, प्रवचनसार टीका) अर्थ :- जो सर्वव्यापी (ज्ञानरूपी प्रकाश से व्याप्त), एक मात्र चैतन्यस्वरूप है, परमात्मा है तथा स्व की उपलब्धि से प्रसिद्ध है, उस ज्ञानानन्दात्मा को नमस्कार है। दिक्कालाद्यनवच्छिन्नान्तचिन्मात्रमूर्तये । स्वानुभूत्येकमानाय नम: शान्ताय तेजसे ।। -(भर्तृहरि, नीतिशतक 1) अर्थ :- जो दिक्, काल आदि से अनवच्छिन्न (अव्याप्य, अस्पृष्ट, अबाध) है, अनन्त है, चिन्मात्र स्वरूप हैं तथा स्वानुभवसंवेद्य है, (जिसे स्वानुभूति से ही जाना जा सकता है, प्रवचन से नहीं) उस शान्त तेज:स्वरूप को नमस्कार है। ज्ञाता ज्ञानं तथा ज्ञेयं द्रष्टा दर्शन-दृश्यभूः। कर्ता हेतु: क्रिया यस्मात्तस्मै ज्ञप्त्यात्मने नमः।। -(योगवासिष्ठ) अर्थ :- ज्ञाता, ज्ञान तथा ज्ञेय; द्रष्टा, दर्शन तथा दृश्य; कर्ता, हेतु और क्रिया जिससे प्रसूत हैं; उस ज्ञप्ति-आत्मा (स्व-पर को जाननेवाला ज्ञप्ति आत्मा है) के लिए नमस्कार है। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 171 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक-समीक्षा (1) पुस्तक का नाम: आनंदधारा ( आचार्य विद्यानन्द जी मुनिराज के मंगल प्रवचनों का संकलन ) : आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज समय-प्रमुख प्रकाशक : गांधी नाथा रंगजी दिगम्बर जैन जनमंगल प्रतिष्ठान, सोलापुर (महा.) : प्रथम, 2001 ई० संस्करण मूल्य : 50/- (डिमाई साईज़, पेपरबैक, लगभग 225 पृष्ठ ) हैं दिगम्बर जैनाचार्य अपनी तप:साधना एवं ज्ञानाराधना की विशेषता के लिये जाने जाते हैं। उनके मंगल-प्रवचनों में भी आत्महित और लोकहित के उत्कृष्ट प्रतिमान समाहित होते । पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज के जयपुर - चातुर्मास के समय प्रदत्त मंगल-प्रवचनों का संकलन सुश्री प्रीति जैन ने किया था, जिसका डॉ. मयूरा शहा ने मराठी भाषा में अनुवाद किया, और गांधी नाथा रंगजी दिगम्बर जैन जनमंगल प्रतिष्ठान, सोलापुर (महाराष्ट्र) ने इसका गरिमापूर्ण प्रकाशन कराया है I मराठी-साहित्य की समृद्धि भी इस प्रकाशन से बढ़ी है। वर्तमान में मराठी - भाषा का साहित्य उच्चस्तरीय प्रतिमानों के अनुरूप प्रकाशित हो रहा है – यह हर्ष और गौरव का विषय है। प्रस्तुत - संस्करण से अधिकाधिक मराठीभाषी लोग लाभान्वित होंगे - ऐसा विश्वास 1 -सम्पादक ** (2) पुस्तक का नाम: अभिषेक (मराठी जैन-कथा-संग्रह) सम्पादक श्रेणिक अन्नदाते प्रकाशक संस्करण मूल्य 1. : सुमेरु प्रकाशन, डी- 6, राजहंस सोसायटी, तिलकनगर, डोंबिवली (पूर्व), 421201 : प्रथम, 2001 ई० : 150/- (डिमाई साईज़, पेपरबैक, लगभग 223 पृष्ठ) भारतीय परम्परा में कथा - साहित्य का अति महत्त्वपूर्ण स्थान है । विद्वानों ने ऐसा भी स्वीकार किया है कि जैनकथा लेखकों ने जो साहित्य-सृजन किया है, सम्पूर्ण विश्व का कथा साहित्य उससे अनुप्राणित है । 172 प्राकृतविद्या← जनवरी-जून 2002 वैशालिक महावीर - विशेषांक Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराठी-भाषा में कथा-लेखन और प्राचीन कथाओं का आधुनिक रीति से सम्पादन होना इस भाषा के साहित्य की समृद्धि को तो बताता ही है, साथ ही सम्पूर्ण भारतीय कथा - साहित्य में मराठी - साहित्य के योगदान को भी रेखांकित करता है । इस महत्त्वपूर्ण प्रकाशन के लिये यशस्वी सम्पादक श्रीमान् श्रेणिक अन्नदाते जी भूरिशः बधाई के पात्र हैं । उन्होंने सुमेरु प्रकाशन के द्वारा मराठी - साहित्य के प्रकाशन की एक यशस्विनी-परम्परा प्रवर्तित की है, तथा वे मराठी के इतिहासकारों को भी एक मंच पर लाने का नैष्ठिक प्रयत्न कर रहे हैं । मराठी - साहित्य - जगत् में अन्नदाते जी का यह सारस्वतअवदान चिरस्मरणीय रहेगा । -सम्पादक ** (3) पुस्तक का नाम: माझं सासर..... माझं माहेर शब्दांकन 1: श्रेणिक अन्नदाते प्रकाशक संस्करण मूल्य 4. श्रीमती शरयू दफ्तरी, 5-ए, वुडलैंड, डॉ. जी. देशमुख मार्ग, मुम्बई - 400026 : प्रथम, 2001 ई० : 60/- (डिमाई साईज़, पेपरबैक, लगभग 110 पृष्ठ) प्रायः व्यक्तियों का जीवन परिचय पर साहित्य आत्मश्लाघा या कुलपरम्परा के यशोगीतियों की दृष्टि से लिखा जाता है । और इसीकारण से लोकजीवन में उसकी प्रतिष्ठा साहित्य-गरिमा के अनुरूप नहीं हो पाती है । किन्तु प्रस्तुत पुस्तक इस दिशा में एक अपवाद कही जायेगी, क्योंकि इसके केन्द्रीय - व्यक्तित्व न केवल परिवार एवं समाज के लिये अतिविशिष्ट थे; अपितु सम्पूर्ण राष्ट्र के विकास में उनका योगदान अतुलनीय था । ऐसे महान् व्यक्तित्वों का जीवन, उनकी प्रमुख घटनायें, उनके आदर्श और सामाजिक एवं राष्ट्रीय विकास में उनके योगदान का पुस्तकाकार रूप में संकलन और रूपांकन अपने आप में एक प्रेरक-साहित्य के रूप में जाना जायेगा । श्रेष्ठिवर्य्य लालचंद जी हीराचंद जी दोशी के परिवार ने इस देश में उद्योग - जगत् की आधारशिला रखी। पहला वायुयान, पहला जलयान एवं मोटरगाड़ी इस देश में इसी परिवार के औद्योगिक प्रतिष्ठानों में बनी। इसके साथ ही राष्ट्रीय विकास के लिये अपने उद्योग-धन्धों के द्वारा इस परिवार ने जो योगदान दिया, वह इस देश के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित रहेगा । स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिये भी इस परिवार के योगदानों का उल्लेख स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने किया है। तथा जैनसमाज के अधिकांश विकासोन्मुखी - कार्य इसी परिवार के सदस्यों के योगदान से संभव हुये हैं । इन सबका मराठी भाषा में लेखा-जोखा प्रस्तुत करनेवाली यह कृति एक सद्गृहिणी के द्वारा सीधे-सादे शब्दों में, किन्तु प्रभावी शैली में निर्मित होने के कारण साहित्यकारों, समाजसेवियों एवं राष्ट्रप्रेमियों - सभी के लिये उपयोगी सिद्ध होगी। -सम्पादक ** - प्राकृतविद्या + जनवरी - जून 2002 वैशालिक - महावीर-विशेषांक 00173 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक मूल्य पुस्तक का नाम : क्षत्रचूडामणि (जीवंधर-चरित्र) रचयिता : आचार्य वादीभ सिंह सम्पादक : ब्र० यशपाल जैन प्रस्तावना : पण्डित रतनचन्द भारिल्ल : श्री अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् ट्रस्ट, 129, जादौन नगर 'बी', स्टेशनरोड, दुर्गापुरा, जयपुर-302018 (राजस्थान) संस्करण : प्रथम, 2001 ई० : 30/- (डिमाई साईज़, पक्की ज़िल्द, लगभग 560 पृष्ठ) ____ दिगम्बर-जैनाचार्य वादीभसिंह सूरि द्वारा विरचित 'क्षत्रचूड़ामणि' अपरनाम जीवंधर-चरित्र' नामक यह काव्यग्रन्थ न केवल नीतिशास्त्र का अपितु भारतीय संस्कृति, सभ्यता एवं ज्ञान- विज्ञान का अभूतपूर्व कोश है। इसका प्रमुख वैशिष्ट्य यह है कि इसमें कहीं भी कोई बात बोझ रूप में नहीं लगती। सीधे-सादे कथासूत्र और घटनाक्रम में सम्पूर्ण नीतिज्ञान एवं सांस्कृतिक ज्ञान-विज्ञान के तत्त्व मर्मस्पर्शी शैली में पिराये गये हैं। - विद्वद्वरेण्य पं. रतनचन्द भारिल्ल की प्रस्तावना एवं ब्र. यशपाल जी का सम्पादन भी इसका श्रीवर्धन करते हैं। श्री अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् ट्रस्ट द्वारा इसका गरिमापूर्ण-रीति से प्रकाशन हुआ है —यह भी उल्लेखनीय है। प्रत्येक सामाजिक कार्यकर्ता, श्रावक-श्राविका एवं साहित्यिक-रुचि सम्पन्न व्यक्ति के लिये यह कृति अवश्य अपने निजी-संग्रह में रखने योग्य एवं बारंबार स्वाध्याय करने योग्य है। -सम्पादक ** (5) पुस्तक का नाम : प्राकृत भाषाओं का तुलनात्मक व्याकरण लेखक : डॉ० के.आर. चन्द्र प्रकाशक : दलसुख मालवणिया प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, 12, भगतबाग सोसायटी, शारदा मंदिर रोड, अहमदाबाद-380007 संस्करण : द्वितीय, 2001 ई० : 40/- डिमाई साईज़, पेपरबैक, लगभग 130 पृष्ठ) इस पुस्तक का प्रथम-संस्करण 1982 में प्रकाशित हुआ था, उसके विषय में प्राकृतभाषा के तलस्पर्शी मनीषी प्रो. हरिवल्लभ चुन्नीलाल भायाणी ने लिखा था कि “अध्यापनकार्य की दृष्टि से प्रस्तुत प्रयास सराहनीय है। इसकी उपयुक्तता का निर्णय तो अभ्यास के वर्गों में ही किया जा सकता है। प्रशिष्ट-भाषाओं के अध्ययन-अध्यापन को बनाये रखने के लिए छोटे प्रयास भी बड़े मूल्यवान् होते हैं।" इस संस्करण में प्रथम संस्करण का नौवां अध्याय 'प्राकृतभाषाओं में प्राक्-संस्कृत तत्त्व' मूल्य 00 174 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को हटाकर उसकी जगह अर्धमागधी से संबंधित जानकारी जोड़ी गयी है। क्या ही अच्छा होता कि प्रथम-संस्करण के उस अध्याय को हटाये बिना यह सामग्री और जोड़कर इसे संवर्धित किया जाता। इस पुस्तक में महाराष्ट्री प्राकृत को आधार रखकर शेष प्राकृतों के विशेष-नियमों का परिचय दिया गया है तथा ध्वनि-परिवर्तन, रूप-परिवर्तन आदि को छात्रोपयोगी ढंग से समझाया गया है। प्राचीन वैयाकरणों व भाषाविदों ने जिस अर्धमागधी प्राकृत की विशेषताओं का कहीं भी वर्गीकृत परिचय नहीं दिया है, उसकी पूर्ति का प्रयास इसके परिशिष्ट' में किया गया है। ___ कतिपय प्रूफ के संशोधन छूट जाने से विद्यार्थियों में भ्रम की स्थिति बन सकती है यथा-'अपभ्रंश 'ह'कारबहुल भाषा मानी जाती है।' यहाँ वस्तुत: अपभ्रंश के उकारबहुल होने का लेखक संकेतित करना चाहता है। फिर भी पुस्तक अवश्य पठनीय एवं विचारणीय -सम्पादक ** पुस्तक का नाम : Indra in Jaina Iconography लेखक : डॉ० नागराजय्या हम्पा प्रकाशक : श्री सिद्धान्तकीर्त्ति ग्रन्थमाला, जैनमठ, हुम्बज-577436 (कर्नाटक) संस्करण : प्रथम, 2002 ई० मूल्य : 200/- (डिमाई साईज़, पेपरबैक, रंगीन चित्रों सहित, 112 पृष्ठ) जैन-परम्परा में इन्द्र-सम्बन्धी अवधारणा वैदिक-परम्परा के अवधारणा से कितनी भिन्न है, तथा उसका क्या महत्त्व है? —इसका अनुसंधानपूर्वक विवेचन प्रसिद्ध विद्वान डॉ. नागराजय्या हम्पा ने इस कृति में किया है। यद्यपि इसमें श्वेताम्बर-परम्परा के चित्रों एवं ग्रन्थों को ही अधिकतम आधार बनाया गया है। अत: इसका प्रस्तुतिकरण उतना अधिक सर्वांगीण नहीं हो पाया, जितना की सम्पूर्ण दिगम्बर जैन-पाण्डुलिपियों के अध्ययन, अनुसंधान एवं सामग्री-संकलन से इसका स्वरूप संतुलित और महत्त्वपूर्ण रहता। फिर भी यह कृति अपने स्तरीय प्रकाशन के लिये प्रशंसनीय है । तथा अंग्रेजी भाषा के जिज्ञासुओं में इसको अधिक समादर प्राप्त होगा। –सम्पादक ** (8) पुस्तक का नाम : अनेकान्त भवन ग्रन्थरत्नावली-3 सम्पादक : ब्र. संदीप सरल प्रकाशक : अनेकान्त ज्ञानमंदिर शोधसंस्थान, बीना, (सागर)-470113 (म.प्र.) संस्करण : प्रथम, 2001 ई०, (शास्त्राकार, पक्की जिल्द, लगभग 240 पृष्ठ) . दिगम्बर-जैनाचार्यों एवं मनीषियों ने जिन ग्रन्थों का प्रणयन अपनी सारस्वत-प्रतिभा प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 175 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं गहन निष्ठा के साथ किया, उसका प्रमाण विपुल-परिमाण में मिलनेवाली जैन पाण्डुलिपियाँ हैं। जैनसमाज में प्राय: इनको प्रणाम करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली जाती थी, किन्तु विदेशी विद्वानों ने सर्वप्रथम भारतीय लोगों को और जैनसमाज को अपनी इस बहुमूल्य-विरासत के प्रति सावधान किया, और उसीके परिणामस्वरूप हमारे कुछ ग्रन्थ आज पाण्डुलिपियों के रूप में सुरक्षित रह पाये हैं। प्राचीन श्रेष्ठियों एवं धर्मानुरागियों ने अतीव निष्ठापूर्वक जैनग्रन्थों की पाण्डुलिपियाँ बनवाई थीं, किन्तु पिछले दो-तीन सौ सालों में जैनसमाज के पूर्णत: व्यापार-केन्द्रित हो जाने के कारण उसके द्वारा अपनी इस अमूल्य विरासत की व्यापक उपेक्षा हुई, और इसीकारण अनेकों महत्त्वपूर्ण पाण्डुलिपियाँ नष्ट भी हो गयीं। ____सामाजिक जनजागृति के इस युग में 'अनेकांत ज्ञान-मंदिर शोध संस्थान', बीना (म.प्र.) के ब्र. संदीप सरल जी के द्वारा जैन पाण्डुलिपियों के संरक्षण एवं अनुसंधान के लिये जो यह नैष्ठिक प्रयत्न किया जा रहा है, वह प्रशंसनीय है। उनके द्वारा प्रकाशित यह कृति जैन-साहित्य पर अनुसंधान करनेवाले शोधार्थियों को व्यापक उपयोगी सिद्ध होगी --ऐसा विश्वास है। ___–सम्पादक ** लोकभाषा और शब्द-प्रकृति 'शब्दप्रकृतिरपभ्रंश, इति संग्रहकार:।' -(वाक्यपदीय 1/148, हरिवृत्ति, पृ० 134) अर्थ :- अपभ्रंश शब्दप्रकृतिवाला है, अर्थात् साधारण-जनता की भाषा से ही अपभ्रंश-भाषा का निर्माण हुआ है। - व्याकरण केवल उन्हीं भाषाओं का होता है, जिनका रूप कुछ स्थिर हो चुका है, तथा जो शिष्टसम्मत हैं। किन्तु भाषाविज्ञान संसार की समस्त भाषाओं एवं बोलियों से यहाँ तक कि बहुत शीघ्र परिवर्तित होने वाली जंगली या असभ्य-जातियों की बोलियों से भी न केवल संबंध रखता है, बल्कि इन बोलियों एवं जनता में प्रचलित भाषाओं से ही भाषा के जीवन्त-स्वरूप का पता, साहित्यिक भाषा की अपेक्षा, कहीं अधिक चलता है। उदाहरणार्थ- हिन्दी प्रदेश में 'थम्भ' और 'खम्भ' (या खंभा) दोनों शब्द चलते हैं। पहले विद्वान् समझते थे कि दोनों शब्दों का विकास संस्कृत' के स्तम्भ शब्द से हुआ है, किन्तु 'खंभ' शब्द का विकास स्तम्भ' से होना बड़ा असंगत लगता था। अस्तु, खोज करने से पता चला कि वैदिक भाषा में एक शब्द 'स्कम्भ' (ऋक् 4/2/14/5, सायण स्तम्भ) भी है, और 'खंभा' शब्द इसी से विकसित हुआ है। इसप्रकार जनता में प्रचलित भाषा के सहारे हम मूल तक पहुँच सके, भाषाविज्ञान इसलिए जनता की बोलियों को विशेष महत्त्व देता है, जबकि व्याकरण इनकी ओर दृष्टि उठाकर भी नहीं देखता। 00 176 प्राकृतविद्या+जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत © 'प्राकृतविद्या', जुलाई-सितम्बर 2001 अंक प्राप्त हुआ था, अंक सभी दृष्टि से अच्छा, सुन्दर और पठनीय सामग्री से पूर्ण है। अंक का आवरण-पृष्ठ ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक —दोनों दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। मैं इतिहास का विद्यार्थी रहा हूँ, और चन्द्रगुप्त मौर्य का शासनकाल वास्तव में महत्त्वपूर्ण रहा है, विशेषकर कौटिल्य की उपस्थिति के कारण। सरकार का प्रयास तो सराहनीय है ही कि वह यदा-कदा कुछ अच्छा कर दिखाती है, जैसे चन्द्रगुप्त मौर्य पर डाक-टिकिट निकालने का कार्य। परन्तु आप जैसे सम्पादक जनसाधारण के लिए उसका महत्त्व किस तरह आंककर संकेत करते हैं, यह वास्तव में एक गंभीर-सोच का परिणाम है। - अंक में श्रवणबेल्गोल, सम्मेदशिखर, विदिशा के जैन-मंदिरों-संबंधी विवरण यत्र-तत्र दिखता है। सम्पादकीय सदैव कुछ न कुछ नवीनता लिए होती है, और इस अंक में भी आदिग्रंथ 'छक्खंडागमसुत्त' के मंगलाचरण-अंश का विवरण प्रस्तुत कर परम्परा का निर्वाह हुआ है। 'समयपाहुड'-संबंधी लेख प्रमाणों के आधार पर अच्छा तन पड़ा है, लेखक की विद्वत्ता पर गर्व किया जाना चाहिये। 'दक्षिणभारत में सम्राट चन्द्रगुप्त से पूर्व भी जैनधर्म का प्रचार-प्रसार था' आलेख में कौशलपूर्वक रखी गई दृष्टि ध्यान आकृष्ट करती है। डॉ. उदयचन्द्र जैन की 'छक्खंडागमसुत्त' पर लेख सम्पादकीय के साथ निश्चय ही ज्ञानवृद्धि में सहायक है। 'आत्मजयी महावीर एवं ऋषभदेव की देन' आलेख भी संक्षिप्त होने पर भी अच्छी जानकारी देते हैं। मांसाहार : एक समीक्षा', एक खोजपूर्ण आलेख है। बहुत कुछ सीखने, सोचने और समझने की आवश्यकता महसूस होती है। शाकाहारी के प्रति ब्रिटेन की बीमा कम्पनी का रुख बड़ा विचित्र व सत्यता को लिए है। मैंने राजस्व-अधिकारी के नाते दोनों स्वादों को चखा है और यह सत्यता के साथ कहता हूँ, मुझे 'मांसाहारी' होना कभी अच्छा नहीं लगा। शाकाहारी में जो मजा, स्वाद और आत्मिक-बल है, वह मांसाहारी में नहीं। इसीलिए कुछ समय में ही मांसभक्षण की स्थिति को त्यागना पड़ा। आत्मा ने स्वीकार नहीं किया। ___ 'शब्दस्वरूप एवं ध्वनि-विज्ञान' तथा 'श्रमणों के मूलगुण' आलेख भी शोधपूर्ण एवं ज्ञानवर्धक है। अंक की अन्य सामग्री भी अच्छी है। जहाँ पुस्तक-समीक्षा पुस्तकें देखने की प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 0 177 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललक जगाती हैं, वही 'समाचारदर्शन' नई जानकारी देता है। 'प्राकृतविद्या' में यत्र-तत्र जो दृष्टांत, सूझबूझ के अंश टीपरूप में दिए जाते है, वे बड़े बहुमूल्य होते हैं; उदाहरणार्थ व्यवहारनय, अभूतार्थ, कलियुग नेता के लक्षण आदि। सुरेशचन्द्र सिन्हा का लेख 'रावण नहीं फूंका जायेगा अब दशहरे पर', आधुनिक वास्तविकता का दिग्दर्शन कराता है। मैं बताऊँ कि मध्य प्रदेश के विदिशा जिले की तहसील 'नटेरन' से 4 कि०मी० पर बसे ग्राम का नाम ही 'रावण' पड़ गया है। शादी-विवाह का अवसर हो या अन्य मांगलिक कार्य, हर शुभ काम से पहले रावण बाबा की पूजा की जाती है। यहाँ पर स्थित रावण की प्रतिमा 8-9 फुट लम्बी सड़क के किनारे लेटी है। इन सबसे सराबोर अंक आकर्षित करता है। बधाई स्वीकार करें। -मदन मोहन वर्मा, ग्वालियर (म०प्र०) ** © 'प्राकृतविद्या', जुलाई-सितम्बर 2001 अंक प्राप्त हुआ। आद्योपांत पढ़ा। पूर्ववत् मननीय, संग्रहणीय है। डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री का आलेख 'समयपाहुड बदलने का दुःसाहसपूर्ण उपक्रम' जैनदर्शन और संस्कृति में योजनाबद्ध सुप्त-परिवर्तन के खतरे का संकेत दे रहा है। जून 1993 में खुरई में 'अ०भा०दि० जैन विद्वत्परिषद' ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया था कि सम्पादक-गण ग्रंथ की मूल-गाथाओं में परिवर्तन नहीं करेंगे। यदि कहीं विचार-भिन्नता है, तो उसे टिप्पणी में लिखेंगे। यह प्रस्ताव श्री पं० पद्मचंद जी के सान्निध्य/प्रेरणा से पारित हुआ था। यदि सम्मानीय विद्वान् पं० जी एवं विद्वत्-वर्ग इस प्रस्ताव का पालन करता, तो जैनागम कम से कम जैनों से सुरक्षित बना रहता। विश्वास है कि आगम-अध्येता इस पर विचार करेंगे। रहा प्रश्न प्रतिपाद्य-विषय का, इस पर तो आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचन्द जैसे निष्पही, निष्णात, नि:ग्रंथ ही अनुभवजन्य-शुद्धि कर सकते हैं; क्योंकि उन्होंने ही गाथा 144 में समयसार रूप आत्मा की प्राप्ति/अनुभव नयपक्षविहीन को दर्शायी सर्वश्री आचार्य बलदेव उपाध्याय, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल, श्री राजकुमार जैन आदि के आलेख मननीय एवं दिशाबोधक हैं। आपका सम्पादकीय एवं दक्षिण भारत में चन्द्रगुप्त से पूर्व भी जैनधर्म था' श्रमसाध्य एवं तथ्यात्मक है। गवेषणा-हेतु बधाई। अन्य आलेख शोधपरक, स्तरीय एवं ज्ञानवर्द्धक हैं। ___आचार्यश्री के अनुभवप्राप्त आलेख का अभाव हमेशा खटका है। आपकी श्रमसाधना का प्रणाम। -डॉ० राजेन्द्र कुमार बंसल, अमवाई (म०प्र०) ** 6 'प्राकृतविद्या', जुलाई-सितम्बर 2001 अंक का अवलोकन का सुअवसर प्राप्त हुआ। पढ़कर जैनधर्म की इस सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक-चेतना की संवाहक पत्रिका से अवगत हुआ। 'भारतीय दर्शन' की सूक्ष्मता में उच्चकोटि का अध्यात्म तथा 00 178 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विराट स्वरूप में श्री महावीर का दर्शन होता है। इसी मार्ग पर चलकर जीव-जगत् अपना कल्याण कर सकता है। 'प्राकृतविद्या' का इसे सही दिशा प्रदान करने का प्रयास सराहनीय -चन्द्रकान्त यादव, चन्दौली (उ०प्र०) ** ● 'प्राकृतविद्या' हमारे हृदय में बसी है। प्राकृतविद्या' में आये हुये हर लेख की मैंने समीक्षा की। लेख, मुद्रण, जानकारी मुझे सराहनीय एवं प्रशंसनीय लगी। आप जो यह धर्म-जागृति का कार्य कर रहे हैं, वह अभिनंदनीय है। ___ --जगदीश चन्द्र कुलकर्णी, दामिनी नगर, सोलापुर (महाराष्ट्र) ** ® 'प्राकृतविद्या', जुलाई-सितम्बर 2001 का अंक मुझे प्राप्त हुआ। हम दोनों आपके और 'प्राकृतविद्या परिवार' के ऋणी हैं। प्राकृतविद्या मुझे समय पर मिलती रहती है। इस अंक में दक्षिण भारत में सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य से भी पूर्व' की बातें एवं 'आत्मजयी महावीर' इसमें मन, वचन, कर्म पर संयम तथा अहिंसा, अद्रोह और मैत्री इसे अच्छे ढंग से जीने की प्रेरणा देता है। साधुओं का निवास और विहार....' में काफी जानकारी प्राप्त हुई। ब्राह्मी लिपि की सतह तक ले जाने का धन्यवाद । हमारे म्यूजियम में सिक्कों का Documentation करते हैं, तथा कॉलेज में History पड़ने वाले विद्यार्थियों को Coins के बरे में Lecture भी देते हैं। इस संदर्भ में जो 'बैंकिग प्रणाली' की जानकारी प्राप्त हुई, जैसे धन का दाम, ब्याज की प्रतिशतता, जमा-राशि पर ब्याज, जो आज हमारे जीवन में कितनी सरलता से विश्व में कार्य करते हैं। आत्मा और कर्म, आत्मा संयम और आचार मूलकधर्म तथा नाव और मल्लाह का किस्सा तथा कलियुग का किस्सा जो सब चल रहा है। जानवर (जीवदया) पर बनाया कानून दिल को छू लेनी वाली बात है। इस कलयुग में बेजुबान जानवरों के लिये कानून बनाया। आत्मा और कर्म, आत्म संयम और आचारमूलक धर्म तथा और कुछ बातें हम प्रदर्शन के वक्त उसकी Xerox निकलवाकर प्रदर्शन में Display करते हैं, ताकि आनेवाली पीढ़ी पढ़कर कम से कम थोड़ा-सा अपने दिमाग में ग्रहण करे या थोड़ा-सा बदलाव लाये। डॉ० रमेशचन्द्र जी के खण्डहरों का वैभव में जो नेमिनाथ जी, शान्ति जी, कुन्थ और अरनाथ जी की मूर्ति के बारे में दिया है, जो हमारे Museum में जैन-मूर्तियों के वर्णन करने में काफी सहायक हुआ है। हम प्राकृतविद्या-परिवार के ऋणी हैं। -अफरोज सुलताना एवं शफका सुलताना, अहमदाबाद (गुजरात) ** ● 'प्राकृतविद्या', का वर्ष 13 का अंक प्राप्त हुआ। आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज का संयम-विषयक विश्लेषण प्रत्येक मानव-हृदय को स्पर्श करनेवाला है। 'पिच्छी-कमण्डलु' भी मुनिधर्म की महत्ता के लिए मननीय है। पूज्यश्री का अध्ययन और जीवन ऐसा है कि वे जो बोलते हैं, वह उनका पचाया हुआ होता है। ___पंडितप्रवर टोडरमल जी की आगम तथा साहित्य-सेवा साहित्य के इतिहास में अमर-अविस्मरणीय है और रहेगी, पर मैंने यह भी देखा कि हमारे कतिपय स्वनामधन्य प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 0 179 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वान् मतभेद के कारण उतना महत्त्व नहीं देते, जैसे खंडेलवाल जाति का इतिहास' नामक पुस्तक के लेखक स्व. डॉ. कस्तूरचंद जी कासलीवाल ने पंडित जी का परिचय अत्यन्त-संक्षेप में दिया है। सब जानते हैं कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। स्व. डॉ. ज्योतिप्रसाद जी का 'प्राचीन जैन विश्वविद्यालय'-विषयक शोधपूर्ण लेख देकर आपने मनीषियों के लिए प्रेरणादायी सेवा की है। इसीतरह भारतवर्ष के नाम के विषय में वैदिक पुराणग्रन्थों के प्रमाण महत्त्वपूर्ण हैं। आपका सम्पादकीयं 'ध्वज से दिशाबोध' भी समाज के लिए अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इसकी तो छोटी-सी पुस्तिका प्रत्येक गाँव और घरों में पहुंचनी चाहिये । शोध तथा सामाजिक विकास की दृष्टि से 'प्राकृतविद्या' एक संग्रहणीय-दस्तावेज जैसी पत्रिका है। पूज्य आचार्य विद्यानन्द जी मुनिराज के पावन आशीर्वाद से इसकी प्राणवायु जन-जन तक पहुंचेगी, इसमें संदेह नहीं। -जमना लाल जैन, अभय कुटीर, सारनाथ, वाराणसी ** ० 'प्राकृतविद्या', (अक्तूबर-दिसम्बर '01) का अंक 3 मिला। शोध की दिशा में यह त्रैमासिकी 'मील का पत्थर' है। -पं. निहालचन्द जैन, बीना (म.प्र.) ** ● 'प्राकृतविद्या', (अक्तूबर-दिसम्बर '01) का अंक स्वाध्याय करने का अवसर मिला। आवरण-पृष्ठ पर मुद्रित 'पंचवर्णी ध्वज' बहुत सुन्दर है, तथा 'ध्वज से दिशाबोध' पंचवर्णी ध्वज का महत्त्व की मुझे भी नहीं, सारे जैनों को सिखाया है। इसतरह महत्त्वपूर्ण विषयों को बार-बार देने की कष्ट करें। -वी. विमलनाथन जैन, तमिलनाडु ** ० आपका प्रयत्न प्राकृत-पन्नों पर अंकित शौरसेनी की महिमा गाने में पीछे नहीं रहता। इसके प्रत्येक अंक गौरवान्वित करनेवाले विविध-सन्दर्भ की सूचना दे रहे हैं। साहित्यिक-क्षेत्र में दृष्टि सर्वोपरि है और सर्वोपरि बनी रहेगी, जिसने संवर्धन को दिशा दी और साहित्यकारों को नए-नए सूत्र दिए। __ आशा है 'प्राकृतविद्या' प्राकृत-जगत् अर्थात् जन-साधारण में जिस रूप में प्रचलित हो रही है, वह मात्र मेहनत का फल नहीं, अपितु सफल-संपादन की कला का है। -डॉ० उदयचंद जैन, उदयपुर (राज.) ** ० 'प्राकृतविद्या' का नवीनतम अंक मिला। आद्योपान्त पढ़ गई हूँ। सदा की तरह उत्कृष्ट संपादन है। कुछ लेखों का विशेषरूप से उल्लेख करना चाहूँगी। आचार्य विद्यानन्द मुनिराज जी के दोनों लेख बहुत सूचनापरक तथा प्रेरणास्पद है। 'पिच्छि और कमण्डलु' में दोनों के विषय में विस्तार से सूचनायें तथा उनकी जैन-मुनियों के लिए उपयोगितायें बताई गई हैं। 'उत्तम संयम. महाव्रत' लेख श्रेष्ठ है तथा सर्वसाधारण के लिए भी 'संयम' की आवश्यकता पर बल देता है। श्री प्रकाशचंद शास्त्री 'हितैषी' के प्रस्तुत भाषण (जो आपने प्रकाशित किया है) में सच्चे विद्वान् की परिभाषा, निर्मल चरित्र तथा विश्वमैत्रीभाव के आदर्श सुन्दर रूप में प्रस्तुत हुए हैं तथा आज के युग में उनकी प्रासंगिकता भी कम नहीं। आनन्द 00 180 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाश जैन की कहानी देवताओं की चिता' रुचिकर है तथा डॉ. प्रचंडिया का आध्यात्मिक गीत प्रेरणास्पद है। डॉ. सूर्यकान्त बाली के लेख में भगवान् ऋषभदेव तथा उनके ज्येष्ठ-पुत्र भरत का उल्लेख भारतीय संस्कृति की विशेषताओं का उल्लेख करता है, जहाँ विचार भिन्न होते हुए भी मनोमालिन्य नहीं मिलता। यही कारण है भागवत् में ऋषभदेव की स्मृति सुरक्षित है। केरली-संस्कृति में जैन-योगदान एक विस्तृत शोधलेख है, जिसमें दक्षिण भारत में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार के बारे में रोचक जानकारी मिलती है। सबसे महत्त्वपूर्ण है आपका संपादकीय ध्वज से दिशाबोध' 'ध्वज' शब्द के विभिन्न अर्थ, प्रतीकात्मकता एवं विभिन्न वर्णी की व्याख्यायें ज्ञानवर्धन करती है। जैनधर्म की पंचवर्णी ध्वजा उसके मध्य स्वस्तिक तथा बीच में चार बिंदु तथा चार तिरछे लघुदण्ड के अनुसार ध्वज के बीच 'स्वस्तिक' का रूप कुछ स्पष्ट नहीं रहा है। परन्तु मुखपृष्ठ पर जो 'स्वस्तिक' है, ध्वजा में वह इस रूप में नहीं है। कारण बता सकें, तो ज़रूर बताइए। जो भी है आपका संपादकीय भी सूचनापरक है, तथा हमारे प्राचीन प्रतीकों की वैज्ञानिकता सिद्ध करता है। -डॉ. (श्रीमती) प्रवेश सक्सेना, नई दिल्ली** 0 'प्राकृतविद्या' का अंक 3 मिला। पूरी पत्रिका ही सारगर्भित एवं संग्रहणीय होती है। यह प्राकृत-प्रेमियों का कण्ठहार बनती जा रही है। आपका, डॉ. बाली, राजमल जैन जी के लेख संग्रहणीय हैं। -प्रणव शास्त्री, बदायूँ (उ.प्र.) ** ० 'प्राकृतविद्या' का वर्ष 13, अंक 3 प्राप्त हुआ, जिसका आभारी हूँ। पत्रिका मनोहर और ज्ञानवर्धक-सामग्री से परिपूर्ण है। धर्म और प्राचीन भाषा साहित्य-विषयक जो सामग्री इसमें सुलभ है, उससे जिज्ञासुओं की ज्ञान-पिपासा शांत होती है। मैं इस पत्रिका के अनवरत प्रकाशन की सत्कामना करता हूँ। –डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित, उज्जैन (म.प्र.) ** ० 'प्राकृतविद्या' का अक्तूबर-दिसम्बर 2001 का अंक प्राप्त हुआ, धन्यवाद । शौरसेनी, प्राकृत एवं सांस्कृतिक-मूल्यों की प्रद्योतित करने के लिए यह पत्रिका नितान्त उपयोगी तो है ही, सर्वोपरि भी है। मनोहारी-आवरण जैनशासन के मांगलिक-प्रतीक पंचरंगी ध्वज और इसे विश्लेषित करनेवाले महत्त्वपूर्ण सम्पादकीय-आलेख के लिए पत्रिका के यशस्वी सम्पादक डॉ. सुदीप जी को अनेक बधाइयाँ । आपने साधु-संस्था, इतिहास, आगम, भाषाशास्त्र, संस्कृति और सम-सामयिक घटनाचक्र पर पुष्कल प्रामाणिक-सामग्री इस अंक में प्रकाशित कर अध्येताओं और अनुसन्धित्सुओं को सौविध्य सुलभ कराया है। ___ दार्शनिक-राजा की परम्परा के प्रवर्तक तीर्थंकर ऋषभनाथ' और 'मनीषीप्रवर टोडरमल : प्रमुख शौरसेनी जैनागमों के प्रथम हिन्दी टीकाकार' आलेख सभी मनीषियों शोध-खोज में निरत विद्वानों को प्रभूत सामग्री के साथ जिनशासन के रहस्य उद्घाटित करते हैं। इस भव्य और प्रभावोत्पादक शोधपत्रिका के प्रकाशन तथा सम्पादन के लिए प्रकाशन प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 40 181 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थान एवं सम्पादक साधुवाद के अधिकारी हैं। —प्रो. डॉ. भागचन्द्र जैन 'भागेन्द' ** ® 'प्राकृतविद्या' का अक्तूबर-दिसम्बर 2001 अंक अध्ययन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। प्रत्येक अंक की भाँति यह अंक भी मनमोहक, आकर्षक, सुन्दर छपाई-युक्त व पठनीय है। कवर पृष्ठ पर जैनशासन का मांगलिक-प्रतीक ‘पंचरंगी-ध्वज' को देखकर मस्तक स्वत: ही विनत हो गया। बाद में कवर-पृष्ठ के पीछे तथा आपके सम्पादकीय में ध्वज, जैन-ध्वज के सम्बन्ध में एकाग्रचित्त होकर पढ़ा, जिससे काफी अच्छी जानकारी मिली। 'जैनध्वज' की महत्ता-प्रतिपादन में आपका सम्पादकीय निश्चित ही एक बहुत बड़ा साधन है। जैनसमाज में जैनध्वज के सम्बन्ध में अनेक भ्रांतियाँ फैली हैं, उनको निश्चित ही यह शोधपरक-लेख समाधान करने में समर्थ है। जैनध्वज जैनसमाज की आत्मा है। 'पिच्छि और कमण्डलु' आचार्यश्री विद्यानन्द जी का शोधपरक लेख बहुत अच्छा दस्तावेज है। प्रो. राजाराम जी ने मनीषीप्रवर टोडरमल जी के सम्बन्ध में चौंकानेवाला सफल वर्णन-परिचय दिया है। टोडरमल जी बहुत बड़े साधक-विद्वान् मनीषी थे। उनकी सेवा जैनसमाज में सदैव चिर-स्मरणीय होगी। पीछे चित्रमय झलकियों ने तो मन को प्रफुल्लित ही कर दिया। 'प्राकृत' के उत्थान में 'कुन्दकुन्द भारती' के अतुलनीय प्रयास के लिए जैनसमाज सदैव ऋणी रहेगा। -सुनील जैन ‘संचय' शास्त्री, वाराणसी (उ.प्र.) ** 0 आप द्वारा सम्पादित 'प्राकृतविद्या' यथासमय प्राप्त होती है, अनुगृहीत हूँ। 'प्राकृतविद्या' सभी दृष्टियों से स्तरीय है। इस शोभन प्रकाशनार्थ आप साधुवाद के पात्र है। -डॉ. प्रेमचन्द रांवका, जयपुर (राज.) ** ● 'प्राकृतविद्या' का पठनीय, संग्रहणीय अंक मिला, धन्यवाद । --डॉ. कुसुम पटोरिया, नागपुर (महा.) ** वर्णज्ञान की आवश्यकता “वर्णज्ञानविलोपे च पदज्ञानं कथं भवेत्? । सत्येव वर्णज्ञाने पदज्ञानस्य सम्भवात् ।। पदज्ञानमनावृत्य वाक्यज्ञानस्य दुर्लभम् । पदज्ञानानुजं यस्माद्वाक्यज्ञानं परैर्मतम् ।। पदवाक्यव्यवस्था च तज्ज्ञानासम्भवे कथम् । व्यवहारो यत: शाब्द: सिद्धयेन्यायविदां मते ।। -(आचार्य वादिराजसूरि, न्यायविनिश्चयविवरणे, 1/20-629-631 पृ0 223) ___अर्थ :- वर्णज्ञान न होने पर पदज्ञान कैसे हो सकता है, क्योंकि वर्णज्ञान होने पर ही पदज्ञान होता है। पदज्ञान के बिना वाक्यज्ञान होना दुर्लभ है, क्योंकि पदज्ञान से ही वाक्यज्ञान होता है। पद-वाक्य-व्यवस्था का ज्ञान न होने पर न्याय का ज्ञान नहीं | होता, क्योंकि व्यवहार शब्दों से ही होता है। 00 182 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूल सुधार 'प्राकृतविद्या' के पिछले अंक के सम्पादकीय में मुद्रण-सम्बन्धी त्रुटि के कारण कुछ चिह्न आदि मुद्रित होने से रह गये थे, जिसके सम्बन्ध में प्रबुद्ध-पाठकों ने अपने पत्रों के माध्यम से हमारा ध्यानाकर्षण कराया । यद्यपि पत्रिका छपकर आते यह विसंगति हमारी दृष्टि में आ गयी थी, फिर भी हम अपने सभी प्रबुद्ध - पाठकों का आभार व्यक्त करते हैं, और सम्पादकीय लेख का वह अंश, जिसमें मुद्रण-सम्बन्धी त्रुटि रह गयी थी, उसका निर्दोषरूप यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं । सुधी पाठकों से अनुरोध है कि कृपया इस संशोधन को पिछले अंक में सुधार कर उसे पूर्णता प्रदान करें । -सम्पादक 'स्वस्तिक' के निर्माण की विधि अत्यन्त वैज्ञानिक है। इसमें सर्वप्रथम नीचे से ऊपर की ओर एक खड़ी रेखा ( 1 ) बनाते हैं, जो 'उत्पत्ति' या 'जन्म' की सूचिका है। इसके बाद इसी को काटती हुई बाँये से दाँयी ओर आड़ी रेखा ( - ) बनाते हैं, जो लेटी हुई अवस्था के समान 'मृत्यु' की प्रतीक है। इन रेखाओं का एक-दूसरे को बाधित करने (+) का अभिप्राय यही है, कि जीव स्वयं ही स्वयं का बाधक है, अन्य द्रव्य उसका भला-बुरा नहीं करता है। अपने अज्ञान के कारण ही जीव जन्म-मरण कर रहा है। इन | जन्म-मरण के चक्र में वह चार गतियों में परिभ्रमण करता है. - यह सूचित करने के लिए (+) चिह्न के चारों सिरों पर चारों दिशाओं में अनुक्रम (क्लॉक वाइज़) जानेवाली छोटी रेखायें या दण्ड बनाते हैं ( 5 ), जो जन्म-मरण से चतुर्गति-परिभ्रमण को ज्ञापित करती हैं। फिर इन चारों दण्डों के किनारे तिरछे लघुदण्ड इसप्रकार बनाते हैं (5), जो कि चतुर्गति-परिभ्रमण से बाहर निकलने के पुरुषार्थ के प्रतीक हैं।' बीच के चार बिन्दु इसप्रकार हम रखते हैं ( ) । ये चार बिन्दु नहीं हैं, अपितु चार कूट- अंक हैं, जो कि क्रमश: 3, 24, 5, 4 के रूप में लिखे जाते हैं । इनका सूचक प्राकृत प्रमाण निम्नानुसार है“ रयणत्तयं च वंदे, चउवीसं जिणं च सदा वंदे । पंचगुरूणं वंदे, चारणचरणं सदा वदे ।। " - ( इति समाधिभक्ति: 10, पृष्ठ 114 ) अर्थात् 3 का अंक रत्नत्रय, 24 का अंक चौबीस तीर्थंकरों का, 5 का अंक पंचपरमेष्ठी का एवं 4 का अंक चार- अनुयोगमयी जिनवाणी का सूचक है। इनकी भक्ति, वंदना, सान्निध्य एवं आश्रय से जीव क्रमश: द्रव्यकर्म, भावकर्म एवं नोकर्म इन तीन कर्मों से मुक्त होकर सिद्धशिला पर सिद्ध परमात्मा के रूप में विराजमान हो जाता है; इस तथ्य को सूचित करने के लिए स्वस्तिक के ऊपर तीन बिन्दु, अर्धचन्द्र - आकृति एवं मध्यबिन्दु इसप्रकार बनाया जाता है । इसप्रकार चतुर्गति-परिभ्रमण - निवारण की प्रतीक यह | मंगलाकृति आत्मस्वरूप में स्थिरता की सूचिका है। इनसे अलंकृत होकर जैनों की पंचवर्णी ध्वजा 'महाध्वजा' कहलाती है । प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2002 वैशालिक - महावीर विशेषांक ☐☐ 183 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार दर्शन ... 'आचार्य कुन्दकुन्द' एवं 'आचार्य उमास्वामी' पुरस्कार समर्पित 'आचार्य कुन्दकुन्द एवं आचार्य उमास्वामी पुरस्कारों के समर्पण-समारोह के सुअवसर पर मंगल-आशीर्वाद प्रदान करते हुये पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द मुनिराज ने कहा कि भगवान् महावीर के जीवन की प्रत्येक घटना और उनके द्वारा बताया गया आत्मकल्याण का मार्ग प्रत्येक-काल में हर व्यक्ति के लिये उपयोगी है, और उसे अपना आदर्श बनाकर ही हम अपना जीवन मंगलमय बना सकते हैं। आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज ने अन्य-भाषाओं के विकास में और उन भाषाओं में व्याप्त प्राकृत के शब्दों की चर्चा करते हुए कहा कि तुलसीदास के काव्यग्रन्थ 'रामचरित मानस' में 68 प्रतिशत और वेदों में 66 प्रतिशत प्राकृत के शब्द हैं। डॉ. नामवर सिंह की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि उनकी रचना में ओज और तेज है तथा उनकी कलम पर सरस्वती विराजती है। उन्होंने सम्मानित विद्वानों को अपना शुभाशीष देते हुये कहा कि प्राकृत और संस्कृत-भाषायें भारत की मूलभूत प्राचीन-भाषायें हैं, तथा भारत का अधिकांश प्राचीन ज्ञान-विज्ञान इन्हीं भाषाओं के ग्रन्थों में सुरक्षित है। ऋषि-परम्परा ने संस्कृतभाषा को मुख्यता दी, तथा श्रमण-परम्परा के मुनियों ने प्राकृतभाषा को विशेषरूप से अपनाया। इन दोनों परम्पराओं के मनीषियों द्वारा भारतीय संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान का प्रचार-प्रसार युगों से भारत देश में होता रहा है। हम अपनी प्राचीन-विरासत को यदि भूल जायेंगे, तो हम अपनी संस्कृति और परम्परा को भी भूल जायेंगे। इसलिये हमें प्राकृतभाषा एवं संस्कृतभाषा को सीखना होगा, तथा इनके विद्वानों का सम्मान करने के साथ-साथ इस विद्या के क्षेत्र में अधिक से अधिक लोग आकर्षित हों —ऐसा भी प्रयत्न करना होगा। प्राकृतभाषा एवं साहित्य-विषयक 'आचार्य कुन्दकुन्द पुरस्कार' से सम्मानित विश्वविख्यात भाषाशास्त्री प्रो. नामवरसिंह जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि "पूज्य आचार्यश्री के अगाध ज्ञान से मैं वर्षों से परिचित हूँ, और ऐसे सन्तों की प्रेरणा और आशीर्वाद पाकर ही मैं प्राकृतभाषा और उसके साहित्य के क्षेत्र में कुछ योगदान कर सका हूँ। मेरी हार्दिक भावना है कि देश के प्रत्येक विश्वविद्यालय में प्राकृतभाषा के अध्ययन-अध्यापन के लिये स्वतन्त्र और समृद्ध विभाग हों, ताकि अधिक से अधिक लोक इसे सीख सकें और इस भाषा में लिखित भारतीय ग्रन्थों का अध्ययन और अनुसंधान कर सकें। इस भाषा के ग्रन्थों में ऐसे रहस्य 40 184 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छिपे हुये हैं, कि जिनको जान ले, तो सारा विश्व चमत्कृत हो जाये।" उन्होंने कहा कि "बीसवीं सदी अति की सदी रही है और यदि महावीर का अनेकान्तवाद सही है, तो हमें कामना करनी चाहिये कि यह सदी अति के अंत की सदी हो। 'अति सर्वत्र वर्जयत' की जरूरत आज सबसे ज्यादा है। यही कारण है कि जैनदर्शन के अनेकान्तवाद का मैं ऋणी हूँ, क्योंकि भारत की बहुलता का दर्शन अनेकान्तवाद में प्राप्त होता है।" उन्होंने काशी के संस्कारों की चर्चा करते हुये कहा कि काशी में मेरे 'अस्सीघाट' स्थित निवास के एक तरफ 'स्याद्वाद विद्यालय' था, तो दूसरी तरफ 'तुलसी घाट'। इन दोनों के बीच रहकर प्राकृत और अपभ्रंश का संस्कार मैंने ग्रहण किया। उन्होंने कहा कि मैं जैन नहीं हूँ और न ही मेरे संस्कारों में दूर-दूर तक जैन-परम्परा है और मेरे बाद मेरे घर में भी प्राकृत पढ़ने-जाननेवाला कोई नहीं है, किन्तु न जाने वह कौन-सा संस्कार है, जिसने मुझे प्राकृत की ओर प्रेरित किया? डॉ. नामवर सिंह ने इसके पीछे अपने पूर्वजन्मों के संस्कार होने की बात कही। 'कुन्दकुन्द भारती न्यास'. और 'जैन मित्र मंडल' द्वारा भगवान् वर्धमान महावीर के 2600वें जन्मकल्याणक-वर्ष के अवसर पर आयोजित 'आचार्य कुन्दकुन्द पुरस्कार' एवं 'आचार्य उमास्वामी पुरस्कार' अर्पण समारोह में प्राकृतभाषा में विशेष-कार्य करने के लिये दिये जाने वाले 'कुन्दकुन्द पुरस्कार' के रूप में डॉ. नामवर सिंह को लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष एवं विपक्ष के उपनेता शिवराज पाटिल ने अंगवस्त्र, भगवान् महावीर का स्वर्ण मंडित लॉकेट, सम्मान पत्र, स्मृति चिह्न एवं एक लाख रुपये की राशि प्रदान की। संस्कृतभाषा एवं साहित्य-विषयक 'आचार्य उमास्वामी पुरस्कार' से सम्मानित मनीषी प्रो. वाचस्पति उपाध्याय जी ने कहा कि “यह श्रमण-संस्कृति की विशेषता है कि उसने प्राकृत के साथ-साथ संस्कृतभाषा को भी अपनाया, और इसीलिये आचार्य उमास्वामी जैसे विश्वविख्यात आचार्यों ने संस्कृतभाषा में भी साहित्य-सृजन किया। जैन मुनियों एवं विद्वानों की संस्कृत-साहित्य की समृद्धि के लिये महत्त्वपूर्ण देन रही है। मुझे यह कहते हुये हर्ष है कि लाल बहादुर शास्त्री विद्यापीठ में संस्कृत के अध्ययन के साथ-साथ स्वतन्त्र प्राकृतभाषा का विभाग खुला है, तथा मैं हर संभव प्रयत्न करूँगा कि यह विभाग अधिक से अधिक उन्नति करे, और इसमें अच्छी से अच्छी शिक्षा की सुविधायें उपलब्ध हों।" पूज्य आचार्यश्री के प्रति विनम्र कृतज्ञता ज्ञापित करते हुये उन्होंने कहा कि "श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ पूज्य आचार्यश्री की कृपा और आशीर्वाद का ही सुफल है, तथा आज भी यह कुन्दकुन्द भारती की छत्रछाया में प्रगतिपथ पर अग्रसर है।" संस्कृतभाषा एवं साहित्य में उल्लेखनीय योगदान करने के लिए दिये जाने वाले 'आचार्य उमास्वामी पुरस्कार' के रूप में प्रो. वाचस्पति उपाध्याय को भी अंगवस्त्र, भगवान् महावीर का स्वर्ण मंडित लॉकेट, स्मृति-चिह्न, सम्मान-पत्र एवं एक लाख रुपये की राशि प्रदान की गयी। इस अवसर पर दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रेमसिंह ने कहा कि महावीर और गौतम बुद्ध भी साम्यवादी थे, वे एक नये समतामूलक समाज के बारे में सोचते थे इसलिये प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 10 185 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामवर सिंह के साम्यवादी होने पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिये। उन्होंने कहा कि 'साम्यं मे सर्वभूतेषु' का सन्देश जैनदर्शन ने हमें दिया है, अत: सामाजिक स्तर पर हमारी विचारधारा और दर्शन का आधार जैनदर्शन ही है। इसके पहले हमारे यहाँ यह विचार ही नहीं था। अपरिग्रह की विचारधारा हमें जैन-परम्परा से ही मिली है, किन्तु आज हम पुरानी भारतीय सामाजिक परम्परा को भूल गये हैं। इस समारोह का आयोजन भगवान् महावीर के 2600वें जन्मकल्याणक-वर्ष के सुअवसर पर दिनांक 28 अप्रैल, 2002 रविवार को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के जवाहरलाल नेहरू सभागार' में गरिमापूर्वक किया गया। समारोह में स्वागत-भाषण श्रीमती सरयू दफ्तरी ने दिया, तथा समारोह का संयोजन एवं संचालन डॉ. सुदीप जैन ने किया। तथा कृतज्ञता-ज्ञापन भारतीय ज्ञानपीठ के प्रबन्ध-न्यासी साहू रमेश चन्द्र जैन ने किया। इस सुअवसर पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति प्रो. कपिल कपूर, पुरातत्त्ववेत्ता डॉ. मुनीश चन्द्र जोशी, प्रो. बी.आर. शर्मा, श्री सतीश चन्द्र जैन (S.C.J.), श्री चक्रेश जैन बिजलीवाले, कुन्दकुन्द भारती न्यास के मन्त्री श्री सुरेश चन्द्र जैन एवं कुन्दकुन्द भारती न्यास के न्यासीगण तथा अन्य अनेकों महानुभाव उपस्थित थे। इस समारोह में देशभर के ख्यातिप्राप्त विद्वान्, समाजसेवी एवं धर्मानुरागी भाई-बहिन भी बड़ी भारी संख्या में उपस्थित थे। ** वर्धमान महावीर स्मृति-ग्रन्थ का लोकार्पण "जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थकर भगवान् महावीर के अहिंसावाद, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद एवं अपरिग्रहवाद जैसे कालजयी सन्देश आज के भौतिकवादी वातावरण में भी पूरी तरह प्रासंगिक बने हुये हैं। उन्होंने आत्मिक विकास के लिये जो रास्ता बताया, वह व्यक्ति के चरित्र को उन्नत तो करता ही है, साथ ही सम्पूर्ण समाज और राष्ट्र के लिये भी सर्वतोमुखी उन्नति प्रदान करता है। जीवन में अहिंसा, विचारों में अनेकान्त, वाणी में स्याद्वाद और समाज में अपरिग्रह की भावनायें यदि आ जायें, तो हिंसा आदि पापों को कोई स्थान इस देश में नहीं बचेगा, तथा आपस में प्रेम, मैत्री और सहयोग की भावना उस चरम शिखर पर होगी, जहाँ हमारे धर्मग्रन्थ सर्वोत्तम-लक्ष्य के रूप में व्यक्ति को पहुँचने की प्रेरणा देते हैं। लोकतंत्र का बाह्यरूप भले ही भारतीय न हो, लेकिन उसकी आत्मा भारतीय है। अनेकान्तवाद को लोकतन्त्र का बाह्यरूप भले ही भारतीय न हो, लेकिन अनेकान्तवाद न हो तो लोकतन्त्र नहीं होगा। आज के इस कार्यक्रम में भगवान महावीर के जीवन-दर्शन, परम्परा और प्राकृतभाषा के सम्बन्ध में जिस विशालकाय स्मृति-ग्रन्थ का लोकार्पण हुआ है, वह अपने आप में इस 2600वें जन्मकल्याणक-वर्ष की अतिविशिष्ट उपलब्धि है। साथ ही प्राकृतभाषा एवं संस्कृतभाषा के जिन विशिष्ट विद्वानों का यहाँ सम्मान किया गया है, वह सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति का सम्मान है। मैं स्वयं भगवान् महावीर के सिद्धान्तों में पूरी आस्था रखता हूँ, और मेरा दृढ़ विश्वास है कि पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द मुनिराज जैसे महान् सन्त ही आज के वातावरण में राष्ट्र को सही दिशाबोध दे सकते हैं।" -ये विचार 00 186 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'वर्धमान महावीर स्मृति-ग्रन्थ-लोकार्पण' एवं 'आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य उमास्वामी पुरस्कारों' के समर्पण-समारोह के सुअवसर पर पूर्व लोकसभाध्यक्ष एवं वर्तमान विपक्ष के उपनेता माननीय श्री शिवराज पाटिल ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रस्तुत किये। __ जैन-परम्परा के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् वर्धमान महावीर के 2600वें जन्म-कल्याणकवर्ष की पुण्यबेला में 260 x 2 = 520 की शुभ- संख्या को दृष्टिगत रखते हुए शास्त्राकार 520 पृष्ठों का यह विशालकाय-ग्रन्थ मूलत: चार खण्डों में वर्गीकृत है। परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज की पावन-प्रेरणा एवं मंगल-आशीर्वाद से निर्मित इस ग्रन्थ के प्रथम खंड में भगवान् महावीर के जीवन और व्यक्तित्व-कृतित्व का, द्वितीय खंड में उनके दार्शनिक अवदान का, तृतीय खंड में उनकी परम्परा का अद्यावधि संक्षिप्त-इतिवृत्त तथा चतुर्थ खंड में उनके उपदेशों एवं आगम-साहित्य की माध्यम-भाषा प्राकृत' का संक्षिप्त परिचय समाहित है। अन्त में परिशिष्ट-एक में मनीषी लेखक-लेखिकाओं का तथा परिशिष्ट-दो में स्मृतिग्रन्थ में प्रस्तुत-आलेखों की आधार-सामग्री का संक्षिप्त-उल्लेख है। निर्विवाद, गहन-अध्येता, प्रामाणिक मनीषियों की सारस्वत-लेखनियों से प्रसूत उपर्युक्त विषयोंवाले बहुआयामी आलेखों का प्रभूत श्रम, समीक्षा एवं वैज्ञानिक सम्पादनपूर्वक प्रस्तुतीकरण इस स्मृतिग्रन्थ की मौलिक-विशेषता है। अत्यन्त अल्प-अवधि में निर्मित होते हुए भी इसमें प्रस्तुत सामग्री विषय-वस्तु, वर्णनशैली एवं तथ्यात्मकता की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। यद्यपि भगवान् महावीर का व्यक्तित्व एवं जीवन आधुनिक-विचारकों की कल्पना एवं चिंतन-परिधि से कहीं ज्यादा विशाल एवं व्यापक था, फिर भी प्राचीन आचार्यों एवं मनीषियों के द्वारा प्रस्तुत-विवरणों को आधार बनाकर उनके निर्विवाद प्रामाणिक-स्वरूप का आधुनिक-परिप्रेक्ष्य में शब्दांकन अत्यन्त आवश्यक था। इसके साथ ही भगवान् महावीर के दार्शनिक-अवदान आज पौराणिक-आदर्शो की वस्तु माने जाने लगे हैं, वर्तमान-सन्दर्भो में उनकी उपादेयता क्या है? उनका आधुनिक-शब्दावली में वास्तविक-स्वरूप कैसे प्रतिपादित किया जा सकता है? ---यह एक अतिसामयिक एवं ज्वलंत प्रश्न है; विशेषत: नयी पीढ़ी के लिए। अत: इसका रूढ़िगत-शैली से हटकर परम्परित-प्रमाणों की साक्षीपूर्वक आधुनिक-शब्दावली में प्रस्तुतीकरण अपेक्षित था। भगवान् महावीर की परम्परा में आज बहुरूपिता दृष्टिगत होती है। उनकी वास्तविक-परम्परा में कहे जाने योग्य कौन हैं? तथा उनकी परम्परा का वास्तविक-स्वरूप क्या है? —यह भी निर्विवाद एवं पक्षव्यामोहरहित तथ्यपरक-रीति से प्रस्तुत किया जाना अपेक्षित था। साथ ही महावीर की वाणी के रूप कहे जानेवाले जैन आगम-ग्रन्थ प्राकृतभाषा में निबद्ध हैं। महावीर और उनकी परम्परा ने प्राकृतभाषा को क्यों अपनाया? प्राकृतभाषा के मूलस्वरूप को हम कैसे निर्धारित करें? तथा प्राकृतभाषा और उनके साहित्य का ज्ञान महावीर के अनुयायियों को क्यों अपेक्षित है? -- इन सबका परिचय आवश्यक था। . इन सब बिन्दुओं का संक्षिप्त, किन्तु सशक्त-निदर्शन है यह 'वर्धमान महावीर स्मृति-ग्रन्थ'। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 187 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री के जन्म-दिवस पर श्री पारस दास जैन को ‘साहू श्री अशोक जैन स्मति-पुरस्कार समर्पित राष्ट्रसन्त आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज के 78वें जन्मोत्सव पर उन्हीं के पावन सान्निध्य में 22 अप्रैल 2002 को 'परेड ग्राऊण्ड' मैदान के वैशाली मण्डप' में आयोजित एक ऐतिहासिक एवं भव्य समारोह में देश के वरिष्ठ पत्रकार एवं प्रमुख समाजसेवी श्री पारसदास जैन को उनकी अनन्य सामाजिक एवं साहित्यिक सेवाओं के लिए समाज के शीर्ष नेता साहू श्री अशोक कुमार जैन की पुण्य-स्मृति में दिगम्बर जैन समाज, बड़ौत (उ.प्र.) द्वारा स्थापित वर्ष 2000 का ‘साहू श्री अशोक जैन स्मृति पुरस्कार' प्रदान किया गया। पुरस्कार समिति के अध्यक्ष श्री सुखमाल चंद जैन ने उन्हें माल्यार्पण, साहू श्री रमेशचन्द्र जैन ने शाल, समारोह के अध्यक्ष दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति श्री विजेन्द्र जैन ने प्रशस्ति-पत्र, श्रीफल एवं एक लाख रुपये की राशि प्रदान की। उन्हें स्वर्ण-पदक पहनाकर 'श्रावक शिरोमणि' की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। समारोह का विद्वत्तापूर्ण संचालन करते हुए डॉ. सुदीप जैन ने प्रशस्ति-पत्र का वाचन किया। ___ आचार्यश्री ने अपने आशीर्वचन में कहा कि “पारसदास जी ने साहू शांति प्रसाद जी, रमा जी, श्रेयांस प्रसाद जी के साथ कार्य करते हुए जैनधर्म की प्रभावना में बहुत बड़ा योगदान दिया। अशोक जी इन्हें मित्र मानते थे। इन्होंने साहित्य, समाज और धर्म की महान् सेवा की है। समाज इनकी सेवा भुला नहीं सकता। इनके पुत्र अनिल जैन भी नेपाल में जैनधर्म की भारी प्रभावना कर रहे हैं।" समारोह के मुख्य अतिथि केन्द्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री डॉ. सत्यनारायण जटिया ने कहा कि “समाज में सद्कार्य करनेवालों का सम्मान होना चाहिए। पारसदास जी की समाजसेवा सभी के लिए एक अनुकरणीय आदर्श है।" श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. वाचस्पति उपाध्याय ने कहा कि "हम अशोक जी की तरह शोक रहित, मितभाषी, संकल्प के धनी पारसमणि बनें। आचार्यश्री ऐसे प्रकर्ष दीप हैं जो अपने सान्निध्य में आनेवाले प्रत्येक प्राणी को ज्ञानवान बना देते हैं। इनकी छाया अमृतरूप है।" भारतीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी एवं परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष साहू रमेशचन्द्र जी ने पारसदास जी को निष्ठावान, व सच्चरित्र समाजसेवी बताते हुए उनकी नि:स्वार्थ समाजसेवा की सराहना की। डॉ. हुकमचंद जैन भारिल्ल ने उनकी समाज की एकता के लिए किये गये प्रयासों की सराहना की। समारोह में सर्वश्री शीलचंद जैन जौहरी, कुन्दकुन्द भारती के ट्रस्टी सतीश जैन, सरयू दफ्तरी मुम्बई, चक्रेश जैन, डॉ. त्रिलोक चंद कोठारी, डॉ. हुकमचंद जैन भारिल्ल, श्रवणबेलगोल के भट्टारक जी की ओर से एम.के. जैन, धर्मस्थल के धर्माधिकारी श्री वीरेन्द्र हेगडे जी की ओर से धर्मराजा, सुशील आश्रम के जी.के. जैन, तेरापंथ समाज के हस्तीमल मुनोत, स्वदेशभूषण जैन, ताराचंद प्रेमी, सुनील गंगवाल - कलकत्ता, नवभारत टाइम्स के 00 188 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक पुनीत जैन, प्रकाश हितैषी, देवसेन जैन, अशोक शाह - मुम्बई, विनोद सेठी, अखिल बंसल - जयपुर, जीवेन्द्र जैन - गाजियाबाद, श्री भगत राम जैन, सतीश जैन, प्रताप जैन, अशोक जैन - तरुणमित्र परिषद, पद्मावती पुरवाल समाज की अनेक संस्थाओं सहित लगभग 60 व्यक्तियों ने पारसदास जी को माल्यार्पण एवं शाल ओढ़ाकर सम्मानित किया। श्री पारसदास जी ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि “आचार्यश्री की दृष्टि बहुत व्यापक है। उन्हीं के आशीर्वाद से वे सेवा के कार्यों में आगे बढ़ सके हैं।" साहू अशोक जी को समाज का गांधी बताते हुए उन्होंने कहा कि वे समन्वयवादी थे। हमेशा संगठन की बात करते थे। पारसदास जी ने श्रम और मानवता के प्रति अपनी अटूट आस्था को निरन्तर बनाए रखने का संकल्प व्यक्त करते हुये पुरस्कार राशि रुपए एक लाख समाज सेवी कार्यों में ही खर्च करने की घोषणा की। समारोह प्रसिद्ध गायिका उमा गर्ग के मंगलाचरण से शुरू हुआ, जिसमें श्री ताराचंद प्रेमी एवं प्रभाकिरण जैन ने आचार्यश्री को काव्यमयी विनयांजलि अर्पित की। समारोह में श्री नरेन्द्र जैन द्वारा प्रकाशित डायरी का विमोचन जस्टिस विजेन्द्र जैन ने किया। मुनि लोकेश कुमार जी ने आचार्यश्री के लिए डॉ. महाप्रज्ञ जी का विनयांजलि संदेश पढ़ा। समारोह में राष्ट्रीय महिला आयोग की नवनिर्वाचित सदस्या डॉ. सुधा मलैया आदि भी उपस्थित थे। समारोह का संयोजन जैन मित्र मंडल ने किया। -रमेश जैन ** प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन जी को प्राकृतभाषा-विषयक राष्ट्रपति-सम्मान भागमा R ule... आ भारतास राष्ट्रपतिः के० आर० नारायणन् प्रा० राजा राम जन पाक्ति/प्राकृतवाङ्मये पाणित्याय सावे व धुण्याय Hinubarundhan महामहिम राष्ट्रपति जी से प्रशस्ति-ग्रहण करते हुए प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन को प्राप्त प्रशस्ति का चित्र प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन प्रो. राजाराम जैन का जन्म 1 फरवरी 1929 को मालथौन, सागर, (म.प्र.) में हुआ। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक .40 189 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपने 1954 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दी (प्राकृत-पालि के साथ) में एम.ए. तथा शास्त्राचार्य और बिहार विश्वविद्यालय से सन् 1958 में एम.ए. प्राकृत एवं जैनोलॉजी तथा 1965 में पी-एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त की। डॉ. जैन आरा में प्राकृत के प्राध्यापक नियुक्त हुए तथा बाद में मगध विश्वविद्यालय में संस्कृत तथा प्राकृत विभाग' के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष नियुक्त हुए। डॉ. जैन ने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं भाषावैज्ञानिक महत्त्व की प्राकृत-अपभ्रंश की 32 अप्रकाशित दुर्लभ-पाण्डुलिपियों की खोज की, जिनमें से वैज्ञानिकपद्धति से सम्पादन के साथ 10 ग्रन्थों का प्रकाशन हो चुका है। आपने 'प्राकृत परिषद्' की स्थापना की तथा मगध विश्वविद्यालय में संस्कृत के साथ प्राकृत विभाग की स्थापना भी की। सम्प्रति डॉ. जैन 'प्राकृतविद्या' के प्रधान-सम्पादक तथा श्री कुन्दकुन्द भारती शोध संस्थान, दिल्ली के मानद-निदेशक हैं। आप जयपुर से प्रकाश्यमान 'एन्साइक्लोपीडिया ऑफ जैनिज्म' के शौरसेनी-प्राकृत-साहित्य खण्ड के उपसम्पादक' भी हैं। —सम्पादक ** प्रो. (डॉ.) वाचस्पति उपाध्याय जी को संस्कृतभाषा-विषयक राष्ट्रपति-सम्मान महामहिम राष्ट्रपति जी से प्रशस्ति-ग्रहण करते हुए प्रो. (डॉ.) वाचस्पति उपाध्याय सुल्तानपुर (उ.प्र.) में जन्मे प्रो. वाचस्पति उपाध्याय मीमांसादर्शन के विशिष्ट विद्वान् हैं। आप महामहोपाध्याय पद्राभिराम शास्त्री जी की यशस्वी शिष्य-परम्परा के ज्योतिर्मय-रत्न हैं। सम्पूर्ण विश्व में मीमांसादर्शन के अतिरिक्त समस्त भारतीय दर्शनों, संस्कृतभाषा एवं साहित्य के क्षेत्र में आपकी अतिविशिष्ट-ख्याति है। आपने कलकत्ता विश्वविद्यालय में उच्च-शिक्षा ग्रहण की, तथा प्रथमत: वहीं पर अध्यापन-कार्य प्रारम्भ 00 190 . प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया। फिर आप सम्पणानन्द विश्वविद्यालय, वाराणसी में 'कुलसचिव' के रूप में कार्यरत हुये। तदुपरान्त दिल्ली विश्वविद्यालय के 'संस्कृत विभाग' में 'प्रोफेसर' के पद पर नियुक्त हुये। इस पद के सुदीर्घ-अनुभव के बाद आप श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ (मानित विश्वविद्यालय), नई दिल्ली के 'कुलपति' पद पर सुशोभित हुये। आपके निर्देशन में शताधिक छात्र-छात्रायें शोध-उपाधि प्राप्त कर चुके हैं। अनेकों ग्रन्थों के यशस्वी-लेखक, वाणीभूषण, सुयोग्य-प्रशासक एवं अनेकों प्रतिष्ठित-पुरस्कारों से विभूषित डॉ. उपाध्याय को संस्कृतभाषा एवं साहित्य-विषयक राष्ट्रपति-प्रशस्ति मिलने के सुअवसर पर 'प्राकृतविद्या-परिवार' की ओर से हार्दिक बधाई व अभिनंदन। –सम्पादक ** प्रो. (डॉ.) श्रीधर वशिष्ठ जी को संस्कृतभाषा-विषयक राष्ट्रपति-सम्मान श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ (मानित विश्वविद्यालय), नई दिल्ली के 'कुलपति' पद पर सुशोभित रहे प्रो. (डॉ.) श्रीधर वशिष्ठ इस विद्यापीठ की स्थापनाकाल से निरन्तर इसके साथ जुड़े रहे। स्वनामधन्य डॉ. मण्डन मिश्र जी के अनन्य-सहयोगियों में प्रमुख स्थान प्राप्त प्रो. वशिष्ठ जी इस विद्यापीठ के 'शिक्षा-शास्त्र महामहिम राष्ट्रपति जी से प्रशस्ति-ग्रहण करते हुए प्रो. (डॉ.) श्रीधर वशिष्ठ विभाग' में 'आचार्य' एवं विभागाध्यक्ष रहे, तथा इसी विद्यापीठ के 'कुलसचिव' पद को भी आपने सुशोभित किया। ... आप संस्कृतभाषा एवं साहित्य के उत्कृष्ट विद्वान् एवं सक्रिय, समर्पित कार्यकर्ता रहे हैं। प्रो. (डॉ.) श्रीधर वशिष्ठ को संस्कृतभाषा एवं साहित्य-विषयक राष्ट्रपति-प्रशस्ति मिलने के सुअवसर पर 'प्राकृतविद्या-परिवार' की ओर से हार्दिक अभिनंदन । --सम्पादक** प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 191 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूडबिद्री के भट्टारक जी 'भारतभूषण' गौरव से सम्मानित 'विश्व ज्योतिष विद्यापीठ' कोलकाता की ओर से जैनकाशी मूडबिद्री के भट्टारक स्वस्तिश्री चारुकीर्ति स्वामी जी को 'भारतभूषण' की प्रशस्ति से विभूषित किया गया है। भट्टारक जी के ज्योतिष-ज्ञान, नाड़ी-संहिता एवं सिद्धान्त-वास्तु आदि विषयों पर महत्त्वपूर्णविचारों को दृष्टिगत रखते हुये कोलकाता के इस संस्थान ने अपने रजत-जयन्ती वर्ष के सुअवसर पर उन्हें सम्मानित किया है। सम्मान-समारोह में देश-विदेश से पधारे अनेकों विद्वान् तथा केन्द्र एवं राज्य-स्तर के कई मन्त्रीगण भी उपस्थित थे। -डॉ. एस.पी. विद्याकुमार, मूडबिद्री ** महाराष्ट्र में 'जैन इतिहास परिषद् का द्वितीय अधिवेशन सम्पन्न । _ 'महाराष्ट्र जैन इतिहास परिषद्' का द्वितीय अधिवेशन प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन, आरा (बिहार) तथा मानद निदेशक कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली की अध्यक्षता में 'भातकुली अतिशयक्षेत्र (अमरावती, महाराष्ट्र) में दिनांक 12-13 जनवरी को सम्पन्न हो गया। इसमें on इतिहास परिषद दुसरे दिनांक १२ व १३ जाने.२ नेल्हा अमर जी अपना वक्तव्य प्रस्तुत करते हुये प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन जैन-इतिहास-सम्बन्धी शोधपत्र-वाचन, विशिष्ट-भाषण तथा सांस्कृतिक-कार्यक्रमों के आयोजन किये गये। अपने विशिष्ट अध्यक्षीय-भाषण में प्रो. राजाराम जैन ने खारवेल-शिलालेख के सन्दर्भ में महाराष्ट्र की प्राचीनता-सम्बन्धी अनेक ऐतिहासिक-सूत्रों का विश्लेषण करते हुए बतलाया कि महावीर-युग में सारा दक्षिणापथ जैन-संस्कृति का गढ़ था। इसीलिये मगध के द्वादशवर्षीय भीषण-दुष्काल के समय आचार्य भद्रबाहु अपने नवदीक्षित-शिष्य मगध-सम्राट चन्द्रगुप्त को लेकर अपने 12000 साधु-संघ के साथ दक्षिणापथ के 'कटवप्र' (वर्तमान श्रमणबेलगोल) पधारे थे तथा वहीं से अपने पट्टशिष्य आचार्य विशाख के नेतृत्व में समस्त 00 192 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंघ को दक्षिणापथ के सीमान्त-प्रदेशों में जैनधर्म के प्रचारार्थ भेजा था। ___अपने शोधपूर्ण-भाषण में डॉ. जैन ने जैन-संस्कृति के विकास में महाराष्ट्र के अपूर्व योगदान की चर्चा करते हुए वहाँ के आदिकालीन, मध्यकालीन एवं आधुनिक साहित्य की शानदार-परम्पराओं पर प्रकाश डालते हुए वहाँ की ऐतिहासिक तीर्थभूमियों की चर्चा की तथा महाराष्ट्र के बहुमुखी-विकास के क्रम में वहाँ के स्वनामधन्य बालचन्द्र हीराचन्द्र दोशी, आचार्य समन्तभद्र जी महाराज, कर्मवीर भाऊराव पाटिल, दानवीर माणिकचन्द्र जे.पी., रावजी सखाराम दोशी, ब्रह्म. जीवराज गौतमचन्द्र दोशी, महिलारत्न मगनबाई, पद्मश्री पैं. सुमतिबाई जी, पं. नाथूराम प्रेमी, प्रो. डॉ. ए.एन. उपाध्ये, सौ. सरयू ताई दफ्तरी, सौ. सरयू विनोद दोशी आदि के प्रगतिशील रचनात्मक-योगदानों की चर्चा की। इस अधिवेशन का उद्घाटन अमरावती विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. सुधीर पाटिल ने किया। परिषद् के महासचिव श्रेणिक अन्नदाते ने परिषद् के कार्य-कलापों पर विस्तृत प्रकाश डाला तथा मंच-संचालन सौ. पद्मा चन्द्रकान्त महाजन एवं सौ. मीना गरीबे ने किया। परिषद् के अध्यक्ष श्री सतीश संगई ने धन्यवाद ज्ञापन किया। -सौ. पद्मा चन्द्रकान्त महाजन, अमरावती ** मुमुक्षु समन्वय समिति का गठन मुमुक्षु-समाज के प्रमुख लोगों की एक मीटिंग देवलाली (महाराष्ट्र) में दिनांक 31 दिसम्बर, 2001 को आयोजित की गई, जिसमें मुमुक्षु-समाज की एकता तथा समस्त दिगम्बर जैनसमाज के साथ समन्वय स्थापित करने के उद्देश्य से एक समिति का गठन किया गया। इस समिति का मूल उद्देश्य मुमुक्षु-समाज में एकता कायम रखना तो है ही, साथ ही समस्त दिगम्बर-समाज से समन्वय स्थापित करना भी है कि जिससे जिनवाणी के प्रचार-प्रसार में आज जो बाधायें आ रही हैं; वे समाप्त होंगी। यह समिति मुमुक्षु-समाज का प्रतिनिधित्व करेगी और मुमुक्षु-समाज के हित में जो कुछ भी उचित होगा, संभव होगा, वह करेगी। 21 सदस्यीय इस समिति के 18 सदस्य निम्नानुसार हैं और 3 सदस्यों को सहवरण करने का अधिकार उक्त 18 व्यक्तियों को है। 1. डॉ. हुकमचंदजी भारिल्ल, जयपुर 10. श्री देवेन्द्रकुमार बडकुल, भोपाल 2. श्री बसंतलाल एम. दोशी, मुंबई 11. श्री ब्र.पं. यशपाल जी जैन, कर्नाटक 3. श्री हरखचंद जी बिलाला, आकोला 12. श्री विमलचंदजी झांझरी, उज्जैन 4. श्री पवनकुमार जी जैन, अलीगढ़ 13. श्री पं. उत्तमचंदजी जैन, सिवनी 5. श्री अमृतलाल सी. महेता, फतेहपुर 14. श्री अनंतभाई ए. शेठ, मुंबई 6. श्री मुकुंदभाई खारा, देवलाली 15. श्री पूनमंदजी सेठी, दिल्ली 7. श्री कांतीभाई मोटाणी, मुंबई 16. श्री परमात्म प्रकाशजी भारिल्ल, बोरीवली 8. श्री आदीशकुमार जैन, दिल्ली 17. श्री भीमजीभाई शेठ, थाणा, लन्दन 9. श्री जतीशभाई जैन, सनावद ___18. श्री अभिनन्दनप्रसादजी जैन, सहारनपुर 00 193 - प्राकृतविद्या-जनवरी-जन '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्त समिति की कार्यकारिणी 5 सदस्यों की रहेगी, जिनमें अभी डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, श्री वसंतभाई दोशी और हरखचन्द बिलाला का चयन हुआ है। शेष दो सदस्यों का चयन उक्त तीन व्यक्ति करेंगे। पत्र व्यवहार का पता- श्री दिगम्बर जैन मुमुक्षु समन्वय समिति 173/175, मुम्बादेवी रोड, मुंबई-400002 -भरत शाह, मुम्बई ** डॉक्टरेट की शोध-उपाधि प्राप्त . (1) श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ (मानित विश्वविद्यालय), नई दिल्ली110016 के 'जैनदर्शन विभाग' की छात्रा श्रीमती आभा रानी जैन ने 'मुनि रामसिंह विरचित दोहापाहुड ग्रन्थ का अनुशीलन' विषय पर विद्यावारिधि (पी-एच.डी.) की शोधउपाधि प्राप्त की है। उन्होंने अपना शोधकार्य डॉ. सुदीप जैन के मागदर्शन में भरपूर श्रम एवं निष्ठा के साथ गरिमापूर्वक सम्पन्न किया, तथा उन्हें दिनांक 17 फरवरी, 2002 को सम्पन्न दीक्षांत समारोह में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष डॉ. हरि गौतम जी के करकमलों से उपाधि प्राप्त हुई। श्रीमती आभा रानी जैन दिल्ली के सुप्रसिद्ध समाजसेवी श्री सुभाष चन्द जैन (महावीर इन्टरनेशनल) की पुत्रवधू हैं। आपने इसके पहले जैनदर्शन-आचार्य' एवं शिक्षाशास्त्री' की परीक्षाओं में भी इसी विद्यापीठ से स्वर्ण पदक प्राप्त किया था। ऐसी यशस्विनी महिला के लिये डॉक्टरेट की इस उपाधि की प्राप्ति के उपलक्ष्य में अनेकों मित्रों, समाजसेवियों एवं विद्वानों ने हार्दिक बधाई दी है। तथा उनके उज्ज्वल-भविष्य की मंगल-कामना की है। (2) श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ (मानित विश्वविद्यालय), नई दिल्ली110016 के जैनदर्शन विभाग के छात्र श्री अशोक कुमार जैन ने 'आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन' विषय पर विद्यावारिधि (पी-एच.डी.) की शोध-उपाधि प्राप्त की है। उन्होंने अपना शोधकार्य डॉ. सुदीप जैन के मागदर्शन में निष्ठा के साथ गरिमापूर्वक सम्पन्न किया, तथा उन्हें दिनांक 17 फरवरी, 2002 को सम्पन्न दीक्षांत समारोह में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष डॉ. हरि गौतम जी के करकमलों से उपाधि प्राप्त हुई। ___ श्री अशोक कुमार जैन दिल्ली जैनसमाज के जाने-माने विद्वान् एवं समाजसेवी हैं। आप अखिल भारतीय दिगम्बर जैन विद्वपरिषद के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष' भी हैं। आपने इसके पहले जैनदर्शन-आचार्य परीक्षा में भी स्वर्ण-पदक प्राप्त किया था। ऐसे यशस्वी विद्वान् के लिये डॉक्टरेट की इस उपाधि की प्राप्ति के उपलक्ष्य में अनेकों मित्रों, समाजसेवियों एवं विद्वानों ने हार्दिक बधाई दी है। तथा उनके उज्ज्वल भविष्य की मंगल-कामना की है। 40 194 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतभाषा विभाग का सुयश श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ (मानित विश्वविद्यालय), नई दिल्ली110016 के प्राकृतभाषा विभाग के छात्र श्री विजयसेन बालगोंडा पाटील ने 'आचार्य परीक्षा' में स्वर्णपदक प्राप्त किया है। आप जैनदर्शन एवं प्राकृतभाषा के अच्छे अध्येता रहे हैं। आपको दिनांक 17 फरवरी, 2002 को सम्पन्न दीक्षांत समारोह में डॉ. रमारंजन मुखर्जी के करकमलों से उपाधि एवं स्वर्ण पदक समर्पित किया गया। इसी विद्यापीठ के प्राकृतभाषा विभाग की ही छात्रा कुमारी प्रीति अग्रवाल ने 'आचार्य परीक्षा' में सम्पूर्ण विद्यापीठ में महिला-वर्ग में सर्वोच्च अंक लेकर स्वर्णपदक प्राप्त किया है। आप प्राकृतभाषा की अच्छी अध्येत्री रही हैं, आपको दिनांक 17 फरवरी, 2002 को सम्पन्न दीक्षांत समारोह में डॉ. रमारंजन मुखर्जी के करकमलों से उपाधि एवं स्वर्ण-पदक समर्पित किया गया। पत्राचार प्राकृत सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम दिगम्बर जैन अतिशयक्षेत्र श्रीमहावीरजी द्वारा संचालित 'अपभ्रंश साहित्य अकादमी' द्वारा पत्राचार प्राकृत सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम' प्रारम्भ किया जा रहा है। सत्र 1 जुलाई 2002 से प्रारम्भ होगा। इसमें प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी एवं अन्य भाषाओं/विषयों के प्राध्यापक अपभ्रंश, प्राकृत शोधार्थी एवं संस्थानों में कार्यरत विद्वान् इसमें सम्मिलित हो सकेंगे। -डॉ. कमलचन्द सोगाणी, जयपुर ** वैशाली-महोत्सव-सम्पन्न भगवान् महावीर के 2600वें जन्मोत्सव के अवसर पर 25 अप्रैल 2002 को भगवान् महावीर की जन्मस्थली पावनतीर्थ वैशाली में एक भव्य समारोह 'वैशाली महोत्सव' के रूप में हुआ। इस अवसर पर प्राकृत, जैनशास्त्र एवं अहिंसा शोध संस्थान में दिनांक 25 एवं 26 अप्रैल को मध्याह्न में द्विदिवसीय संगोष्ठी आयोजित की गई, जिसका विषय था'आतंकवाद के शमन में भगवान महावीर के उपदेशों की प्रासंगिकता'। इस संगोष्ठी की अध्यक्षता भीमराव अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय के उपकुलपति डॉ. नीहार नन्दन सिंह ने की। मुजफ्फरपुर के कमिशनर श्री जयराम लाल मीना इस संगोष्ठी के मुख्य अतिथि थे। ____ 25 अप्रैल को संध्या वेला में भगवान् महावीर के चित्र के सम्मुख बिहार सरकार के पर्यटन तथा कला संस्कृति एवं युवा विभाग के मंत्री श्री अशोक कुमार सिंह ने दीप प्रज्जवलन करके कार्यक्रम का विधिवत् उद्घाटन किया। अध्यक्षता करते हुए राजद अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री श्री लालू प्रसाद ने भगवान् महावीर स्मारक समिति द्वारा प्रकाशित पत्रिका 'भगवान् महावीर-स्मृति-वैशाली' का लोकार्पण किया। इस विशिष्ट-अंक में अनेक विद्वज्जनों के भगवान् महावीर के जन्मस्थान-वैशाली के सम्बन्ध में ऐतिहासिक पुरातात्त्विक एवं शास्त्रोक्त-तथ्यों पर आलेख एवं मत प्रकाशित किये गये हैं। विशिष्ट अतिथि पद से श्रीमती प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 195 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीणा शाही, मन्त्री सहकारिता विभाग, श्री वसावन प्रसाद भगत, मन्त्री गृह (कारा) विभाग एवं डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह सांसद ने अपने उद्गार व्यक्त किये एवं सभी प्रमुख वक्ताओं ने भगवान् महावीर की जन्मभूमि वैशाली बासोकुण्ड क्षेत्र के विकास में हो रहे विलम्ब के लिए दुःख प्रकट करते हुए जैन समाज से अनुरोध किया कि वे शीघ्रातिशीघ्र जन्मभूमि का विकास कर भगवान् महावीर के प्रति अपनी सच्ची श्रद्धा अर्पित करें। -श्री कैलाश चन्द जैन, पटना ** धर्म की व्याख्या पर भी विचार करेगी संविधान पीठ देश के प्रमुख विवादास्पद-मुद्दों में शामिल अल्पसंख्यकों के शैक्षिक संस्थान चलाने के अधिकार-संबंधी मामले की सुनवाई आज से सर्वोच्च-न्यायालय की 11 सदस्यीय संविधानपीठ ने शुरू कर दी है। मामले में अनुच्छेद 30(1) के तहत धर्म की व्याख्या, अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों की स्थापना के अधिकार और कौन-से संस्थान इस श्रेणी में आते हैं? — इन पहलुओं की पुनर्व्याख्या होगी। लगभग दो सौ याचिकाओं पर यह सुनवाई कल भी जारी रहेगी। - खंडपीठ में जस्टिस बी.एन. कृपाल, जस्टिस वी.एन. खरे, जस्टिस एस. राजेंद्र बाबू, जस्टिस सैय्यद शाह मोहम्मद कादरी, जस्टिस रुमा पाल, जस्टिस एस.एन. वरीआवा, जस्टिस के.जी. बालाकृष्णन, जस्टिस पी. वेंकटरामा रेड्डी, जस्टिस अशोक भान और जस्टिस अरिजीत पसायत शामिल हैं। संविधान-पीठ के समक्ष आज जैन-समाज की ओर से वरिष्ठ-अधिवक्ता एफ.एफ. नारीमन और सुशील कुमार जैन ने अपना पक्ष रखना शुरू किया। जैन-समाज अल्पसंख्यक-समुदाय की श्रेणी में रखने की मांग कर रहा है। इस संविधानपीठ का गठन 1993 से लंबित मामले की सुनवाई के लिए किया गया है कि अनुच्छेद 30(1) में उल्लिखित धर्म की अभिव्यक्ति की क्या व्याख्या है? संविधान के अनुच्छेद 29 में प्रावधान है कि केवल अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को ही नहीं, वरन् देश के सभी नागरिकों को यह अधिकार है कि अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति का संरक्षण कर सकें। परंतु अनुच्छेद 30 में अल्पसंख्यक-समुदाय के लोगों के लिए शैक्षिक- संस्थानों की स्थापना का विशेषाधिकार प्राप्त. है। याचिकाओं में मांग की गई है कि ऐसे शैक्षिक संस्थानों को अलग से मान्यता और अपनी पसंद के 50 प्रतिशत छात्रों के प्रवेश की अनुमति भी मिले। याचियों में दिल्ली के सेंट स्टीफंस कालेज' और मुंबई के सेंट जेवियर कालेज' भी शामिल हैं। ___संविधान-पीठ के सामने जो प्रश्न सुनवाई के लिए आने हैं, उनमें प्रमुख हैं- 1(ए) धार्मिक और भाषाई तौर पर अल्पसंख्यक संगठन क्या संबद्ध-राज्य में शैक्षिक-संस्थान खोल सकते हैं। तथा संबंद्ध-राज्य में ऐसे शैक्षिक संस्थान का दावा संविधान के अनुच्छेद 30(1) के तहत आता है। 1(बी) क्या यह कहना उचित होगा कि संबद्ध-राज्य में रह रहे अल्पसंख्यक ऐसे 90 196 'प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थान के सदस्य होकर अल्पसंख्यक माने जायेंगे? 2. क्या ऐसे संस्थानों को इसलिये अल्पसंख्यकों का शैक्षिक संस्थान माना जाये, चूंकि इसकी स्थापना ऐसे व्यक्ति ने की है जो धार्मिक और भाषाई तौर पर अल्पसंख्यक समुदाय से संबंधित है या इसका संचालन ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जा रहा है, जोकि अल्पसंख्यक समुदाय से ताल्लुक रखता है। 3. क्या अल्पसंख्यकों को अपनी इच्छा के अनुसार शैक्षिक संस्थान की स्थापना और संचालन का अधिकार है, जिसमें विद्यार्थियों की दाखिला-प्रक्रिया भी निहित है। 4. क्या अनुदान अथवा गैर अनुदान-प्राप्त ऐसे संस्थानों में छात्रों के प्रवेश-संबंधी प्रक्रिया पर राज्य सरकार अथवा उस विश्वविद्यालय का नियंत्रण होगा, जिसके वह संबद्धित हैं। 5. सेंट स्टीफंस कालेज के मामले में 1992 में अदालत ने जो अनुपात रखा है, क्या वह उचित है? 6. अनुच्छेद 30(1) में उल्लिखित धर्म की अभिव्यक्ति का क्या अर्थ है? क्या ऐसे धर्म अनुयायी भी अनुच्छेद 30(1) के तहत संरक्षण हासिल कर सकते हैं, जो एक राज्य में अल्पसंख्यक हैं, लेकिन अन्य राज्यों में वह बहुसंख्यक-श्रेणी में हों? यह मामला अक्तूबर 1993 में शुरु हुआ था, तब पाँच सदस्यीय संविधानपीठ ने इसे सात सदस्यीय संविधानपीठ के सुपुर्द कर दिया था। तब पहला सवाल यह था कि भारतीय-संविधान के अनुच्छेद 30 के अनुसार अल्पसंख्यक का अर्थ और सारांश क्या है? दूसरा सवाल अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों की अभिव्यक्ति से संबंद्धित है और तीसरा यह कि क्या अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों में संबद्धित-राज्य अथवा विश्वविद्यालय को हस्तक्षेप का अधिकार है और क्या वह संबंधित धार्मिक समुदाय के छात्रों को कुल क्षमता का 50 प्रतिशत प्रवेश दे सकती है? 18 मार्च 1994 को एक सात सदस्यीय खंडपीठ ने इन प्रश्नों की संख्या तीन से बढ़ाकर सात कर दी। उसके बाद 7 जनवरी 1997 को फिर सात सदस्यीय खंडपीठ ने प्रश्नों को पुनर्गठित किया। - (दैनिक जागरण, बुधवार 3 अप्रैल, 2002, दिल्ली) ** सिख, बौद्ध व जैन को हिन्दू से अलग धर्म मानने का सुझाव सिख, बौद्ध एवं जैन-मतावलंबियों की अलग-पहचान को मान्यता देने की मंशा से संविधान-समीक्षा आयोग ने सिफारिश की है कि सिख, बौद्ध और जैन पंथ को हिंदू-मत से 'अलग-धर्म' का माना जाना चाहिए और कहा कि इन पंथों के मतावलंबियों को हिंदुओं से जोड़नेवाले संवैधानिक प्रावधान को खत्म कर देना चाहिए। गौरतलब है कि संविधान के अनुच्छेद 25 की मौजूदा स्पष्टीकरण-2 (अन्त:करण की आजादी व स्वतंत्र-व्यवसाय, आचरण व धर्म-प्रचार) के तहत कहा गया है कि हिंदुओं के संदर्भ से सिख, बौद्ध व जैनधर्म माननेवाले लोगों को भी शामिल करके अर्थ लगाया जाएगा और हिंदुओं की धार्मिक-संस्थाओं का आशय भी उसी तरह होगा। रविवार को सरकार को सौंपी गई न्यायमूर्ति एम.एन. वेंकटचलैया आयोग की सिफारिश के अनुसार संविधान के अनुच्छेद-25 के स्पष्टीकरण-2 को संविधान से हटाने के लिए कहा गया है। आयोग ने यह भी कहा है कि अनुच्छेद-25 में एक उपनियम जोड़ दिया जाए, प्राकृतविद्या+जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 197 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिससे जो बात इस अनुच्छेद के एक नियम में नहीं कही गई है और इससे किसी मौजूदा-कानून का क्रियान्वयन प्रभावित न होता हो, या सामाजिक-कल्याण व सुधार के लिए कोई कानून बनाने से राज्य को रोकता न हो, या जो सार्वजनिक प्रकृति की हिंदू धार्मिक-संस्थाओं को हिंदू-समुदाय के सभी वर्गों के लिए खोलता हो। ___आयोग ने इसी क्रम में आगे यह भी सुझाव दिया है कि अनुच्छेद-25 के नियम (2) के उपनियम (बी) को इसप्रकार पढ़ा जाए कि सामाजिक कल्याण व सुधार के लिए या हिंदू, सिख, जैन व बौद्धों की सार्वजनिक महत्त्ववाली सभी धार्मिक-संस्थाओं का दरवाजा इन धर्मों के सभी वर्गों व समुदायों के लिए खोल दिया जाये। --('दैनिक जागरण', नई दिल्ली, बृहस्पतिवार, 4 अप्रैल 2002) ** श्री चौगुले को पी-एच.डी. की शोध-उपाधि कराड (जिला-सतारा, महा.) के युग-विद्वान् श्री पुरन्दर चौगुले जी को कोल्हापुर विश्वविद्यालय से 'सल्लेखना: एक दार्शनिक अध्ययन' विषय पर पी-एच.डी. की शोध-उपाधि के लिए सर्वानुमति से स्वीकृत किया गया है। आपने उक्त विषय पर अपना शोध प्रबन्ध 'अन्नासाहेब डांगे महाविद्यालय' के प्राचार्य डॉ. ए.बी. दिगे के मार्गनिर्देशन में गरिमापूर्वक सम्पन्न किया है। आप अपने इस शोधकार्य के निमित्त कुन्दकुन्द भारती शोध संस्थान, नई दिल्ली में भी आकर रहे और यहाँ के विद्वानों से महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन प्राप्त किया। पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज के पावन-आशीर्वाद से आप इतने जटिल विषय पर सफलतापूर्वक कार्य सम्पन्न कर सके हैं। ____ इस गरिमापूर्ण उपलब्धि के लिए प्राकृतविद्या-परिवार डॉ. पुरन्दर बाहु चौगुले को हार्दिक बधाई एवं उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए शुभकामनायें प्रेषित करता है। –सम्पादक ** श्रुत-संवर्द्धन पुरस्कार समर्पण-समारोह 26 मई को केकड़ी में श्रुत संवर्द्धन संस्थान, मेरठ द्वारा 26 नवम्बर 01 को निम्नवत 5 श्रुत संवर्द्धन-2001 पुरस्कार एवं एक सराक पुरस्कार-2001 की घोषणा की गई थी। 1. आचार्य श्री शांतिसागर छाणी स्मृति संवर्द्धन पुरस्कार-2001 : पं. मल्लिनाथ जैन शास्त्री चेन्नई। 2. आचार्य श्री सूर्यसागर स्मृति श्रुत संवर्द्धन पुरस्कार-2001 : डॉ. श्रेयांसकुमार जैन, बड़ौत। 3. आचार्य श्री विमलसागर (भिण्ड) स्मृति श्रुत संवर्द्धन पुरस्कार-2001 : श्री जयसेन • जैन, इन्दौर। 4. आचार्य श्री सुमतिसागर स्मृति श्रुत संवर्द्धन पुरस्कार-2001 : डॉ. भागचन्द्र जैन 00 198 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भास्कर', नागपुर। 5. आचार्य मुनि श्री वर्द्धमानसागर स्मृति श्रुत संवर्द्धन पुरस्कार-2001 : डॉ. (श्रीमती) नीलम जैन, गाजियाबाद। 6. सराक पुरस्कार-2001 : श्री कमलकुमार जैन, साढम (बोकारो) प्रथम 5 पुरस्कारों के अन्तर्गत प्रत्येक को 31,000 की नगद राशि एवं छठे पुरस्कार के अन्तर्गत 25,000 की नगद राशि के अतिरिक्त शॉल, श्रीफल, प्रशस्ति एवं प्रतीक चिन्ह समर्पित किये जाते हैं। __इन पुरस्कारों का समर्पण-समारोह पूज्य उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी महाराज के ससंघ मंगल सान्निध्य में राजस्थान की प्रसिद्ध नगरी केकड़ी में 26 मई 2002 को मध्यान्ह 1.00 बजे केन्द्रीय वस्त्र राज्य मंत्री श्री वी. धनंजय कुमार के मुख्य आतिथ्य में सम्पन्न होगा। डॉ. अनुपम जैन ** महत्त्वपूर्ण सूचना सभी को सूचित करते हुये हर्ष है कि रेल मंत्रालय, भारत सरकार के सहयोग से 16 अप्रैल 2002 से तीर्थराज श्री सम्मेदशिखर जी के स्टेशन 'पारसनाथ' पर 'पूर्वा एक्सप्रेस' (अप तथा डाउन) में रुकना प्रारम्भ हो गयी है तथा इसके रिजर्वेशन भी स्वीकार किये जा रहे हैं। तीर्थयात्रियों से अनुरोध है कि इस सुविधा से अधिक से अधिक लाभ उठायें। गाड़ी नं. स्टेशन दिन समय स्टेशन समय 2382 नई दिल्ली सोम, मंगल, शुक्र 16:15 पारसनाथ 10:38 2381 पारसनाथ बुध, गुरु, रवि 13:48 नई दिल्ली 08:10 . विशेष— पूर्वा एक्सप्रेस, अलीगढ़, टूण्डला, इटावा, कानुपर, इलाहाबाद, मुगलसराय, गया स्टेशनों पर ठहरती है। ___-विजय जैन ** अपभ्रंश के सद्य:प्रकाशित दो ग्रन्थ पुरस्कृत प्राकृत एवं आधुनिक भारतीय भाषाओं के मध्य की एक प्रमुख जीवन्त कड़ी होने के कारण भारतीय भाषा-विज्ञान के शास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से अपभ्रंश-भाषा का विशेष महत्त्व है। इसमें तीसरी-चौथी सदी से ही प्रचुर मात्रा में साहित्य का प्रणयन होता रहा। यद्यपि उसकी अनेक पाण्डुलिपियाँ लुप्त-विलुप्त हो गईं, फिर भी जो पाण्डुलिपियाँ वर्तमान में उपलब्ध हैं, उनमें से कुछ तो देश-विदेश के प्राच्य शास्त्र भाण्डारों में सुरक्षित हैं और कुछ अभी भी प्रच्छन्नावस्था में मध्यकालीन इतिहास एवं श्रमण संस्कृति की विश्रृंखलित कड़ियों को अपने अन्तर्तम में संजोए हुए अपने-अपने भाग्य-भरोसे उद्धार के लिये व्याकुल हैं। पाण्डुलिपियों की खोज एवं उनका सम्पादनादि कार्य बहुत जटिल एवं दुरूह होने के कारण नई पीढ़ी के शोधेच्छु विद्वान् इस क्षेत्र में आने का साहस नहीं जुटा पाते। यही कारण है कि अपभ्रंश-साहित्य की सैकड़ों पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध होते हुए भी अभी तक अंगुलियों पर गिनी जाने योग्य पाण्डुलिपियों का ही सम्पादन-प्रकाशन हो सका है। प्रकाशनों की इसी प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 199 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरस्कार ग्रहण करती हुई प्रो. (डॉ.) विद्यावती जैन पुरस्कार ग्रहण करते हुये प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन श्रृंखला में अभी हाल में अपभ्रंश के अद्यावधि अप्रकाशित दो ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं--. पज्जुण्णचरिउ एवं पुण्णासवकहको । पज्जुण्णचरिउ तेरहवीं सदी का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं, जिसके लेखक हैं महाकवि सिंह । मूलत: यह ग्रन्थ महाकवि सिद्ध द्वारा लिखा गया था; किन्तु चूहों एवं दीमक ने उसका अधिकांश भाग नष्ट कर दिया था । तब अपने गुरु के आदेश से महाकवि सिंह ने उसका पूर्ण उद्धार किया; अत: आगे चलकर वह उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध हो गया । इसकी विस्तृत रोचक चर्चा उक्त ग्रन्थ की समीक्षात्मक प्रस्तावना में की गई है । वह अपभ्रंश भाषा का एक आलंकारिक महाकाव्य है, जिसकी 13 सन्धियों में ऐतिहासिक प्रशस्ति के अतिरिक्त कुल मिलाकर 308 कडवक हैं । रचना प्रौढ़ है, किन्तु बड़ी ही सरस एवं रोचक | इसकी प्रकाशक संस्था -- भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली ने इसे "ज्ञानपीठ का गौरव-: - ग्रन्थ " कहा है I इसका सम्पादन वीर कुँवरसिंह विश्वविद्यालय सेवान्तर्गत म. म. महिला कॉलेज आरा की प्रोफेसर एवं हिन्दी - विभाग की अध्यक्ष तथा अनेक पाण्डुलिपियों की सम्पादिका और अनेक ग्रन्थों की यशस्वी लेखिका प्रो. डॉ. विद्यावती जैन आरा (बिहार) ने किया है। उन्हें इस पाण्डुलिपि की प्रतिलिपि सन् 1972 में पं. हीरालाल जी सिद्धान्ताचार्य के सौजन्य से ब्यावर (राजस्थान) के प्राच्य शास्त्र - भण्डार से उपलब्ध हुई थी । श्रीमती डॉ. जैन को पाण्डुलिपि के सम्पादन में लगभग 25 वर्ष लगे, किन्तु उनके इस दीर्घकालीन कठोर परिश्रम से प्राच्यविद्या जगत् को एक अमूल्य ग्रन्थरत्न उपलब्ध हो सका, यह विशेष प्रमोद का विषय है, जिसके लिये प्राच्यविद्याजगत उनका सदा आभारी रहेगा। इस ग्रन्थरत्न का मूल्यांकन कर अपभ्रंश अकादमी जयपुर ने उसे स्वयम्भू पुरस्कार पुरस्कृत किया है, जिसमें 21,000/- रुपयों की नकद राशि, शाल, श्रीफल एवं मुक्ताहार द्वारा साहित्यकार को सार्वजनिक रूप में सम्मानित किया जाता है। से दूसरा प्रकाशित अपभ्रंश ग्रन्थ है— पुण्णासवकहकोसु । प्रस्तुत ग्रन्थ के मूललेखक हैं महाकवि रइधू, जिन्होंने अपभ्रंश, प्राकृत एवं प्राचीन हिन्दी में लगभग 30 ग्रन्थों की रचना 200 प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की। पुण्णसवकहकोसु में 13 सन्धियाँ एवं 250 कडवक हैं। वर्ण्य विषय के अतिरिक्त भी यह ग्रन्थ सन्धिकालीन अपभ्रंश-भाषा की दृष्टि से जितना महत्त्वपूर्ण है, उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है समकालीन श्रमण संस्कृति, भारतीय इतिहास एवं मध्यकालीन वैदेशिक व्यापार तथा आयात-निर्यात की दृष्टि से भी। __ इसका प्रथम बार सम्पादन राष्ट्रपति सहस्राब्दी पुरस्कार' से सम्मानित तथा प्राच्य पाण्डुलिपियों के मर्मज्ञ और अनेक ग्रन्थों के लेखक प्रो. डॉ. राजाराम जैन आरा (बिहार) ने किया है। उनके लगभग 20 वर्षों के अथक परिश्रम का ही सुपरिणाम है उक्त ग्रन्थ का सम्पादन-प्रकाशन । इसका नयनाभिराम प्रकाशन परमपूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी की प्रेरणा तथा ब्र. शान्तिकुमार जी के सार्थक प्रयत्न से उनके परमभक्त श्रीमान् लाला शिखरचन्द्र जी जैन दिल्ली द्वारा जैन साहित्य, संस्कृति संरक्षण समिति दिल्ली द्वारा किया गया। ___ इस महनीय ग्रन्थ की सर्वत्र चर्चा हो रही है। इसका मूल्यांकन भी जयपुर की अपभ्रंश अकादमी ने इसी वर्ष किया है तथा उसने उसे सन् 2001 के महावीर पुरस्कार से पुरस्कृत एवं सम्मानित किया है। इस पुरस्कार में भी रुपये 21,000/- नकद तथा शाल, श्रीफल एवं मुक्ताहार द्वारा उसके सम्पादक का सार्वजनिक सम्मान किया गया है। उक्त दोनों साहित्यकारों का सम्मान 27 अप्रैल 2002 के दोपहर में श्रीमहावीरजी (जयपुर) के गम्भीर नदी के तट पर वार्षिक मेले के शुभावसर पर पूज्यचरण मुनिराज क्षमासागर जी के सान्निध्य में लगभग 50,000 नर-नारियों के मध्य किया गया। प्रारम्भ में दोनों साहित्यकारों का परिचय प्रो. डॉ. कमलचन्द्र जी सोगानी ने दिया तथा शाल तथा प्रशस्ति-पत्र वहाँ के जिलाधिकारी महोदय ने तथा पुरस्कार राशि एवं मुक्ताहार महावीर तीर्थ कमेटी के अध्यक्ष श्री एन.के. सेठी (भूतपूर्व-आई.ए.एस.) महोदय ने समिति के अन्य वरिष्ठ सदस्यों के साथ प्रदान कर सम्मानित किया। -राजीव जैन ** भंवरलाल जी नाहटा दिवंगत लब्धप्रतिष्ठ-पुरातत्त्ववेत्ता, बहुभाषाविद्, प्राचीनलिपि-विशेषज्ञ, जैनदर्शन-मनीषी. साहित्य-वाचस्पति श्री भंवरलाल जी नाहटा कोलकातावालों का दिनांक 11 फरवरी 2002 को देहावसान हो गया। 'प्राकृतविद्या' परिवार की ओर से दिवंगत आत्मा को सुगतिगमन, बोधिलाभ एवं शीघ निर्वाण-प्राप्ति की मंगलकामना के साथ श्रद्धासुमन समर्पित हैं। –सम्पादक ** प्रो. लक्ष्मीनारायण तिवारी नहीं रहे श्रमण संस्कृति के विशेषज्ञ, प्राच्यभारतीय भाषाओं के गहन-अनुसंधाता विद्वद्वरेण्य प्रो. लक्ष्मीनारायण जी तिवारी (कृतकार्य प्रोफेसर सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय, वाराणसी) का रविवार दिनांक 10 मार्च 2002 को देहावसान हो गया है। आप पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द 00201 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी मुनिराज के अनन्य-भक्त थे, तथा 'आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति व्याख्यानमाला' में आपके शौरसेनी प्राकृतभाषा पर महत्त्वपूर्ण-व्याख्यान हुये थे। ___ 'प्राकृतविद्या' परिवार की ओर से दिवंगत-आत्मा को सुगतिगमन, बोधिलाभ एवं शीघ्र निर्वाण-प्राप्ति की मंगलकामना के साथ श्रद्धासुमन समर्पित हैं। –सम्पादक ** अहिंसा और महात्मा गाँधी 26 दिसम्बर 1909 ई. को श्री अर्जुनलाल सेठी, ब्र. शीतल प्रसाद, श्री माणिकचंद पानाचंद मुंबई, श्री हीरालाल नेमचंद सोलापुर, रायबहादुर अण्णासाहेब लठे, ने लाहौर में बोर्डिंग की स्थापना की, जिसमें 24 विद्यार्थी सर्वप्रथम रखे गये। इस बोर्डिंग के सुपरिडेंट लाला लाजपतराय को बनाया गया था, क्योंकि लाला लाजपतराय जैन थे। उस समय के वातावरण में 'अहिंसा से देश आजाद नहीं होगा' --- ऐसा चिंतन बढ़ रहा था। अत: लाला लाजपतराय जी ने यह पत्र गाँधी जी को लिखवाया। जिसके उत्तरस्वरूप महात्मा गाँधी जी ने यह पत्र लाला लाजपतराय जी को लिखा था। -सम्पादक Mahatma Gandhi says : "With due deference to Lalaji, I must join this issue with him when he says that the elevation of the doctrine of Ahimsa to the highest position contributed to the downfall of India. There seems to be no historical warrant for the belief that an exaggerated practice of Ahimsa synchronised with our becoming bereft of manly virtues. During the past 1500 years, we have, as a nation, given ample proof of physical courage but we have been torn by internal dissensions and have been dominated by love of self instead of love of country. We have, that is to say, been swayed away by the spirit of irreligion rather than religion. __ . लाला लाजपतराय (लाहौर) जैनधर्म में जन्म लेकर भी अहिंसा परमधर्म के महात्म्य को समझ नहीं पाए परन्तु महात्मा गाँधी ने समझाते हुये लिखा है कि—यद्यपि मैं लाला जी का बहुत आदर करता हूँ, फिर भी, मैं उनके इस मत से सहमत नहीं कि अहिंसा-सिद्धान्त के चरम विकास के कारण ही भारत का अध:पतन हुआ है। ऐसे कोई ऐतिहासिक तथ्य हमारे सामने नहीं आये हैं, जिनसे यह विश्वास किया जा सके कि अहिंसा की पराकाष्ठा से ही हमारे मानवीय गुणों का घात-प्रतिघात हुआ है। पिछले लगभग 1500 वर्षों में भारत-राष्ट्र ने शौर्य-वीर्य सम्बन्धी अनेक प्रेरक उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, फिर भी, यदि हम टूटे हैं, तो केवल अपनी अन्तर्कलहों के कारण ही। स्वराष्ट्र के प्रति समर्पित प्रेम करने के बदले पारस्परिक स्वार्थो के कारण ही हमारा अध:पतन हुआ है। हम तो यहाँ तक भी कह सकते हैं कि नैतिक/धार्मिक वृत्ति की अपेक्षा अनैतिक/अधार्मिक वृत्तियों के कारण ही हमारा अध:पतन हुआ है। -(यथार्थ प्रकाश, पृष्ठ 56).. 00 202 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अंक के लेखक-लेखिकायें 1.आचार्य मल्लिषेण—आप अनेकों जैनग्रन्थों के लेखक सुप्रतिष्ठित प्राचीन आचार्य-परम्परा के श्रमण-रत्न थे। इस अंक में मंगलाचरण के रूप में प्रकाशित 'श्री वाग्देवी स्तोत्र' आपकी पुण्य-लेखनी से प्रसूत है। 2. (स्व०) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी—भारतीय संस्कृति एवं हिन्दी-साहित्य जगत् के शिरोमणि मनीषियों में अग्रगण्य डॉ० द्विवेदी जी की पुष्पलेखनी से प्रसूत 'भगवान् महावीर की जन्मभूमि वैशाली की महिमा' नामक विशिष्ट आलेख इस अंक का अलंकरण है। 3. आचार्य चतुरसेन शास्त्री—हिन्दी साहित्य के सुप्रतिष्ठित और बहुप्रसिद्ध हस्ताक्षर के रूप में आप जाने जाते हैं। अनेकों उपन्यास और कहानियाँ आपकी लेखनी के द्वारा प्रसूत होकर जन-जन में प्रचलित हैं। आपके लेखन का विषय भारत के ऐतिहासिक-चरित्र प्रमुखता से रहे हैं। इस अंक में प्रकाशित वैशाली' शीर्षक-आलेख आपके द्वारा लिखित हैं। 4. मधुसूदन नरहर देशपाण्डे—भारतीय इतिहास, दर्शन एवं साहित्य के सुप्रतिष्ठित हस्ताक्षर के रूप में जाने-माने विद्वान् देशपाण्डे जी की ख्याति विश्वभर में रही है। आपने अपनी निष्पक्ष और प्रामाणिक लेखनी से देश-विदेश में भारतीय इतिहास और संस्कृति के अछूते पक्षों को प्रभावी-रीति से उजागर किया है। इस अंक में प्रकाशित 'जैनधर्म की परम्परा और तीर्थंकर ऋषभदेव' शीर्षक-आलेख आपकी लेखनी से प्रसूत है। 5. शांताराम भालचन्द्र देव-आप भारतीय इतिहास और पुरातत्त्व के जाने-माने विद्वान् रहे हैं। जैनधर्म को महावीर से प्रारम्भ कहनेवालों के प्रति आप खासे सजग रहते थे, और जैनधर्म की सुदीर्घ अतिप्राचीन परम्परा को आपने अनेकों बार प्रामाणिकरूप से अपनी लेखनी के द्वारा बताया है। इस अंक में प्रकाशित 'जैनधर्म का प्रसार' शीर्षक-आलेख आपकी लेखनी से प्रसूत है। 6. (स्व.) डॉ. बलदेव उपाध्याय-संस्कृत-साहित्य के बीसवीं शताब्दी के स्वनामधन्य लेखकों में वरिष्ठतम रहे डॉ. बलदेव उपाध्याय बहुश्रुत विद्वान् थे। इस अंक में प्रकाशित 'भगवान् महावीर : वैशाली की दिव्यभूति' शीर्षक-आलेख आपकी लेखनी से प्रसूत है। 7. पं. जुगलकिशोर मुख्तार—'युगवीर' के उपनाम से सुविख्यात तथा मेरी भावना' नामक कविता से जैनसमाज में प्रतिष्ठा प्राप्त आप जैनदर्शन, इतिहास और संस्कृति के सुप्रतिष्ठित विद्वान् थे। इस अंक में प्रकाशित 'महावीर-वाणी' नामक हिन्दी कविता आपके द्वारा रचित है। 8. पं. नाथूलाल जी शास्त्री—आप संपूर्ण भारतवर्ष में जैनविद्या के, विशेषत: प्रतिष्ठाविधान एवं संस्कार के क्षेत्र में सर्वाधिक प्रतिष्ठित वयोवृद्ध विद्वान् हैं। आपने देश भर के अनेकों महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों का दिग्दर्शन किया है तथा सामाजिक शिक्षण के कार्य में आपका अन्यतम प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00203 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगदान रहा है। आपने विविध विषयों पर अनेकों प्रामाणिक महत्त्वपूर्ण पुस्तकें भी लिखीं हैं। इस अंक में प्रकाशित 'भगवान् महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर' या 'कुण्डपुर'' शीर्षक आलेख आपके द्वारा विरचित है। स्थायी पता—42, शीश महल, सर हुकुमचंद मार्ग, इंदौर-452002 (म.प्र.) 9. डॉ. योगेन्द्र मिश्र—आप भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व के सुप्रतिष्ठित विद्वान् हैं। 'वैशाली अभिनन्दन-ग्रन्थ' के आप यशस्वी सम्पादक हैं। इस अंक में प्रकाशित 'महावीर की जन्मभूमि जैनसाहित्य के संदर्भ में' शीर्षक-आलेख आपकी लेखनी से प्रसूत है। 10. पं. बलभद्र जैन—आप जैनदर्शन एवं संस्कृति के जाने-माने विद्वान् लेखक रहे हैं। 'प्राकृतविद्या' नामक इस पत्रिका के सम्पादक भी आप रहे। इस अंक में प्रकाशित 'वैशाली कुण्डग्राम' शीर्षक-आलेख आपकी लेखनी से प्रसूत है। ___11. डॉ. राजाराम जैन—आप मगध विश्वविद्यालय में प्राकृत, अपभ्रंश के प्रोफेसर' पद से सेवानिवृत्त होकर श्री कुन्दकुन्द भारती जैन शोध संस्थान के निदेशक' हैं। अनेकों महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों, पाठ्यपुस्तकों एवं शोध-आलेखों के यशस्वी लेखक भी हैं। आपको इस वर्ष राष्ट्रपति सम्मान से भी सम्मानित किया गया है। इस अंक के अन्तर्गत प्रकाशित 'भगवान् महावीर के उपदेशों की वर्तमान सन्दर्भ में प्रासंगिकता' एवं 'सहस्राब्दी राष्ट्रपति पुरस्कार मेरा सम्मान नहीं बल्कि प्राकृत, जैनविद्या तथा जैन-पाण्डुलिपियों का सम्मान है' शीर्षक आलेखों के लेखक आप हैं। पत्राचार-पता-महाजन टोली नं0 2, आरा-802301 (बिहार) 12. डॉ. विद्यावती जैन आप मगध विश्वविद्यालय में वरिष्ठ रीडर थी, तथा जैन-साहित्य एवं प्राकृतभाषा की अच्छी विदुषी हैं। इस अंक में प्रकाशित 'नारी जागरण के क्षेत्र में भगवान् महावीर का योगदान' शीर्षक आलेख आपका है। आप प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन की सहधर्मिणी हैं। स्थायी पता—महाजन टोली नं0 2, आरा-802301 (बिहार) 13. डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री— आप जैनदर्शन के साथ-साथ प्राकृत-अपभ्रंश एवं हिंदी भाषाओं के विश्वविख्यात विद्वान् एवं सिद्धहस्त लेखक हैं। पचासों पुस्तकें एवं दो सौ से अधिक शोध-निबंध प्रकाशित हो चुके हैं। इस अंक में प्रकाशित 'वैशाली के राजकुमार' नामक लेख आपकी लेखनी से प्रसूत है। स्थायी पता-243, शिक्षक कालोनी, नीमच-458441 (म०प्र०) 14. डॉ. राजमल जैन—जैन संस्कृति, इतिहास एवं पुरातत्त्व के क्षेत्र में आप एक जाने माने हस्ताक्षर हैं। आपके द्वारा लिखे गये अनेकों पुस्तकें एवं लेख प्रकाशित हैं। सेवानिवृत्ति के बाद भी आप निरन्तर अध्ययन एवं लेखन के साथ-साथ शोधपूर्ण कार्यों में निरत रहते हैं। इस अंक में प्रकाशित वैशाली-गणतन्त्र' शीर्षक का आलेख आपकी लेखनी से प्रसूत है। स्थायी पता—बी-1/324, जनकपुरी, नई दिल्ली-110058 15. सतीश चन्द्र जैन—आप जैनसमाज के सुप्रतिष्ठित कार्यकर्ता एवं समर्पित समाजसेवी हैं। आचार्यश्री विद्यानन्द जी के सान्निध्य में आप वर्षों से निस्पृहरूप से सेवारत हैं। इस अंक में प्रकाशित 'भगवान् महावीर की जन्मभूमि कुण्डपुर 'विदेह' में या 'मगध' में' शीर्षक लेख आपके 00 204 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा लिखित है। स्थायी पता—वर्द्धमान अपार्टमेंट, मयूर विहार, फेस-1, दिल्ली 16. डॉ. अरविंद महाजन—पुरातत्त्व के क्षेत्र में विशेषरूप से प्रतिष्ठित डॉ. अरविन्द महाजन संप्रति पटना संग्रहालय में कार्यरत हैं। आपकी पुरातात्त्विक और ऐतिहासिक लेखन में विशेष प्रतिष्ठा है। इस अंक में प्रकाशित वैशाली : जन्मभूमि महावीर की' शीर्षक-आलेख आपकी लेखनी से प्रसूत है। 17. डॉ. जयदेव मिश्र—प्राचीन भारतीय इतिहास और पुरातत्त्व के सुप्रतिष्ठित विद्वान् डॉ. जयदेव मिश्र पटना विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास और पुरातत्त्व विभाग में कार्यरत हैं। आपकी लेखनी से प्रसूत वर्द्धमान और वैशाली : संस्कृत साहित्य के सन्दर्भ में' शीर्षकआलेख इस अंक का अलंकरण है। 18. डॉ. शांति जैन संस्कृत साहित्य, जैनदर्शन एवं इतिहास आदि क्षेत्रों की अच्छी विदुषी डॉ. शांति जैन ज्ञाननगरी आरा के जैन कॉलेज में संस्कृत विभाग में रीडर हैं। इस अंक में प्रकाशित 'सर्वमान्य है महावीर की जन्मस्थली वैशाली' शीर्षक-आलेख आपकी लेखनी से प्रसूत है। 19. मिश्रीलाल जैन एडवोकेट- अशोकनगर (म.प्र.) के मूलनिवासी आप जैनसाहित्य के क्षेत्र से सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। इस अंक में प्रकाशित 'कुन्दकुन्द वचनामृत' का 'हिन्दी पद्यानुवाद' आपके द्वारा रचित है। । स्थायी पता–पुराना पोस्ट ऑफिस रोड, गुना-473001 (म.प्र.)। 20. विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया आप जैनविद्या के क्षेत्र में सुपरिचित हस्ताक्षर हैं, तथा नियमित रूप से लेखनकार्य करते रहते हैं। इस अंक में प्रकाशित 'यह द्वादशांग का चिंतन है' नामक कविता के रचयिता आप हैं। स्थायी पता-मंगल कलश, 394, सर्वोदय नगर, आगरा रोड़, अलीगढ़-202001 (उ.प्र.) 21. प्रो. (डॉ.) शशिप्रभा जैन—आप श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ (मानित विश्वविद्यालय), नई दिल्ली-110016 में शिक्षाशास्त्र विभाग की विभागाध्यक्ष एवं आधुनिक ज्ञान-विज्ञान संकाय की प्रमुख हैं। प्राकृतभाषा एवं भारतीय इतिहास की आप अच्छी विदुषी हैं। इस अंक में प्रकाशित आलेख सम्राट अशोक के शिलालेखों में उपलब्ध महावीर परम्परा के पोषक तत्त्व' आलेख आपके द्वारा लिखित है। ___ स्थायी पता—प्रोफेसर्स फ्लैट, श्री ला.ब.शा. राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली-110016 22. डॉ० उदयचंद जैन—सम्प्रति सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर (राज.) में प्राकृत विभाग में वरिष्ठ रीडर हैं। प्राकृतभाषा एवं व्याकरण के विश्रुत विद्वान् एवं सिद्धहस्त प्राकृत कवि हैं। इस अंक में प्रकाशित 'प्राकृत-साहित्य महावीर का धर्मदर्शन' शीर्षक लेख आपकी लेखनी से प्रसूत हैं। स्थायी पता—पिऊकुंज, अरविन्द नगर, ग्लास फैक्ट्री चौराहा, उदयपुर-313001 (राज.) 23. डॉ. सुदीप जैन श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली में 'प्राकृतभाषा विभाग' में उपाचार्य एवं विभागाध्यक्ष हैं। तथा प्राकृतभाषा पाठ्यक्रम के संयोजक भी हैं। अनेकों पुस्तकों के लेखक, सम्पादक । प्रस्तुत पत्रिका के 'मानद सम्पादक' । इस अंक प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 10 205 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में प्रकाशित 'सम्पादकीय', के अतिरिक्त 'भारतीय आस्था के स्वर जन-गण-मन' शीर्षक आलेख आपके द्वारा लिखित है । स्थायी पता — बी-32, छत्तरपुर एक्सटैंशन, नंदा फार्म के पीछे, नई दिल्ली- 110030 24. श्रीमती रंजना जैन--3 - आप श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ की प्राकृतभाषा विभाग की वरिष्ठ शोध - छात्रा हैं । विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की जे. आर.एफ. नामक फैलोशिप भी आपको प्राप्त है। इस अंक में प्रकाशित 'सांख्य दर्शन परम्परा और प्रभाव' शीर्षक आलेख आपके द्वारा लिखित है I स्थायी पता 1-बी -32, छत्तरपुर एक्सटैंशन, नंदा फार्म के पीछे, नई दिल्ली- 110030 25. श्रीमती मंजूषा सेठी - आप प्राकृतभाषा एवं साहित्य की अच्छी विदुषी हैं। इस अंक में प्रकाशित आलेख 'महावीर की अचेलक परम्परा' लेख आपके द्वारा लिखित है । स्थायी पता -- सी - 9 /9045, वसंतकुंज, नई दिल्ली-110070 26. प्रभात कुमार दास -- आप प्राकृतभाषा एवं साहित्य के शोधछात्र हैं। इस अंक में प्रकाशित आलेख 'नीराजन : स्वरूप एवं परम्परा' लेख आपके द्वारा लिखित है । पत्राचार पता—शोधछात्र प्राकृतभाषा विभाग, श्री ला. ब. शा. रा. संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली-16 27. अजय कुमार झा – आप दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत - विभाग में शोध - छात्र के रूप शोध-कार्यरत हैं। इस अंक में प्रकाशित 'भगवान् महावीर के अहिंसक दर्शन में करुणा' शीर्षक आलेख आपके द्वारा लिखित है । 'जैन' संज्ञा “ आर्षं मार्गं, सास्य देवता, जिनो देवता अस्य इति जैन: । जिनं वेत्तीति जैन इत्यादि । । ” – ( कातन्त्र-व्याकरण, तद्धित, 496 पृ. 99 ) अर्थ आर्ष-परम्परा के मार्ग को, उनके देवता को ('जिन' कहते हैं ।) तथा 'जिन' हैं देवता जिसके, अर्थात् जिनके अनुयायी 'जैन' कहलाते हैं । 'जिन' को जो जानते हैं, उन्हें भी 'जैन' कहते हैं । 'कर्मारातीन् जयन्तीति जिना: तस्यानुयायिनो जैना: । ' - ( पञ्चसंग्रह, पृ. 589 ) अर्थ • जो कर्मरूपी शत्रुओं को जीतते हैं, वे 'जिन' कहलाते हैं । तथा अनुयायियों को 'जैन' कहते हैं I 'दुर्जय दुर्घट कर्मारातीन् जयन्तीति जिना: । तस्यानुयायिनो जैना: । ।' - ( प्रथमगुच्छ, प्रस्तावना, पृ. 2) • जो दुर्जय एवं दुर्घट कर्मरूपी शत्रुओं को जीतते हैं, वे 'जिन' कहलाते हैं। तथा अनुयायियों को 'जैन' कहते हैं । अर्थ 206 : प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2002 वैशालिक - महावीर-विशेषांक Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्ध सम्पादक की कलम से लेखकों से अनुरोध सम्पादकः मण्डल के निर्णयानुसार एवं शोध पत्रकारिता के नियमानुसार कतिपय सूचनाएँ अपेक्षित हैं, जिनका विवरण निम्नानुसार है । प्राकृतविद्या के प्राज्ञ लेखकों / विदुषी लेखिकाओं से अनुरोध है कि वे अपनी रचनायें भेजते समय कृपया निम्नलिखित बिन्दुओं के बारे में सूचना देकर हमें अनुगृहीत करें : 1. आपकी प्रेषित रचना पूर्णतया मौलिक / सम्पादित/ अनूदित / संकलित है । 2. क्या प्रेषित रचना इसके पूर्व किसी भी पत्र-पत्रिका, अभिनन्दन ग्रन्थ आदि में कहीं प्रकाशित है? यदि ऐसा है, तो कृपया उसका विवरण अवश्य दें । 3. क्या आप प्रेषित रचना 'प्राकृतविद्या' के अतिरिक्त अन्य किसी पत्रिका आदि में प्रकाशनार्थ किसी रूप में अथवा कुछ परिवर्तन के साथ भेजी ? यदि भेजी हो, तो उसका विवरण देने की कृपा करें I 4. क्या प्रेषित रचना किसी सेमीनार / सम्मेलन आदि में पढ़ी गयी है? यदि ऐसा है तो कृपया उसका विवरण अवश्य दें । 5. 'प्राकृतविद्या' का सम्पादक मण्डल विचार-विमर्श पूर्वक ही किसी रचना को प्रकाशित करता है, अत: उक्त जानकारियाँ प्रदान कर हमें अनुगृहीत करें; ताकि आपकी रचना के बारे में निर्विवाद रूप से निर्णय लिया जा सके । 6. कृपया यह भी लिखें कि 'प्राकृतविद्या' से अस्वीकृत हुये बिना आप अपनी यह रचना अन्य कहीं प्रकाशनार्थ नहीं भेजेंगे । कृपया अपने लेख/कविता / रचना आदि के साथ उपर्युक्त जानकारियाँ पत्र द्वारा अवश्य प्रेषित कर अनुगृहीत करें । सदस्यों से अनुरोध यदि आपको पत्रिका नियमित रूप से नहीं मिल रही है, अथवा एकाधिक अंक आ रहे हैं, अथवा आपका पता बदल गया है; तो इनके बारे में पत्र-व्यवहार करते समय सदस्यगण अपनी सदस्यता के क्रमांक (यथा V-23, S-76 आदि) का अवश्य उल्लेख करें । यदि एकाधिक अंक आ रहे हैं, तो उन एकाधिक क्रमांको का भी उल्लेख करें। तथा आप जिस क्रमांक को चालू रखना चाहते हैं, उसको भी स्पष्टतः निर्दिष्ट करें । यदि आपके पते में पिन कोड नं० नहीं आ रहा है, या गलत आ रहा है, तो आप सदस्यता-क्रमांक के उल्लेखपूर्वक अपन सही पिनकोड अवश्य लिखें; ताकि आपको पत्रिका समय पर मिल सके । प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक 207 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतविद्या के सम्बन्ध में तथ्य-सम्बन्धी घोषणा प्रकाशक प्रकाशन स्थान : 18-बी, स्पेशल इन्स्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली-110067 प्रकाशन अवधि : त्रैमासिक : सुरेशचन्द्र जैन राष्ट्रीयता : भारतीय पता : कुन्दकुन्द भारती 18-बी, स्पेशल इन्स्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली-110067 मुद्रक महेन्द्र कुमार जैन राष्ट्रीयता भारतीय पता कुन्दकुन्द भारती 18-बी, स्पेशल इन्स्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली-110067 डॉ. सुदीप जैन राष्ट्रीयता भारतीय पता कुन्दकुन्द भारती 18-बी, स्पेशल इन्स्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली-110067 स्वामित्व सुरेशचन्द्र जैन मन्त्री, कुन्दकुन्द भारती 18-बी, स्पेशल इन्स्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली-110067 मैं सुरेशचन्द्र जैन एतद्द्वारा घोषित करता हूँ कि मेरी अधिकतम जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य हैं। सुरेशचन्द्र जैन प्रकाशक सम्पादक प्राकृतविद्या के स्वत्वाधिकारी एवं प्रकाशक श्री सुरेशचन्द्र जैन, मंत्री, श्री कुन्दकुन्द भारती, 18-बी, स्पेशल इन्स्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली-110067 द्वारा प्रकाशित; एवं मुद्रक श्री महेन्द्र कुमार जैन द्वारा, मै. धूमीमल विशालचंद के मार्फत प्रम प्रिंटिंग वर्क्स चूड़ीवालान, चावड़ी बाजार, दिल्ली-110006 में मुद्रित। भारत सरकार पंजीयन संख्या 48869/89 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आचार्य कुन्दकुन्द पुरस्कार एवं आचार्य उमास्वामी पुरस्कार समर्पण-समारोह' की भव्य झलकियाँ मुख्य अतिथि माननीय श्री शिवराज पाटिल जी से भगवान् महावीर के चित्र के समक्ष । रजत-पुष्प अर्पित कर अपनी श्रद्धा समर्पित करते हुये मुख्य अतिथि माननीय श्री शिवराज पाटिल जी को शॉल समर्पित कर उनका सम्मान करते हुये 'आचार्य कुन्दकुन्द-पुरस्कार-समिति' के अध्यक्ष श्री विनोद लालचंद दोशी, साथ में हैं चयन-समिति के अध्यक्ष साहू रमेश चन्द्र जी जैन एवं सयोजक डॉ. सुदीप जैन प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 0 209 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्य अतिथि माननीय श्री शिवराज पाटिल जी से 'आचार्य कुन्दकुन्द-पुरस्कार' ग्रहण करते हुये विद्वद्वरेण्य प्रो. (डॉ.) नामवर सिंह जी मुख्य अतिथि माननीय श्री शिवराज पाटिल जी से 'आचार्य उमास्वामी-पुरस्कार' ग्रहण करते हुये विद्वद्वरेण्य प्रो. (डॉ.) वाचस्पति उपाध्याय जी 00 210 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर के 2800 जल-वाललाक-वर्ष के सुअवसर पर परमपूज्य आचार्य श्री विद्यालय जी. मुनिष कान मालिक ने या वर्द्धमान महावीर स्मृति ग्रन्थ लोकार्पण - समारो आचार्य कुन्दकुन्द पुरस्कार एवं आचार्य उमास्वामी पुरस्कार समक्षा - दिनांक : 20 अप्रैल 2002 पतिवार प्रातः 10.30d 'आचार्य कुन्दकुन्द पुरस्कार' ग्रहण करने के बाद अपने विनम्र उद्गार व्यक्त करते हुये प्रो. (डॉ.) नामवर सिंह जी 'आचार्य उमास्वामी पुरस्कार' ग्रहण करने के बाद अपने विनम्र उद्गार व्यक्त करते हुये प्रो. (डॉ.) वाचस्पति उपाध्याय जी प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक । .. 211.org Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समारोह में मुख्य वक्तव्य प्रस्तुत करते हुये धर्मानुरागी श्री शिवराज पाटिल जी भगवान् महावीर के 260 परनुपूज्य आचार्य श्री विद्य 'वर्द्धमान महावीर स्मृति 'आचार्य कुन्दकुन्द पुरस्कार' एवं दिनांक : जैन Jain 212 national TRE भगवा 'वर्द्धम आचार्य tance पुष्प - स्तबक भेंटकर श्री शिवराज पाटिल जी का स्वागत करती हुयीं श्रीमती सरयू दफ्तरी जी प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहवान महावीर के 2000जनकल्याणका महावीर स्मृति-बान-लोकार्प कृतज्ञता-ज्ञापन करते हुये साहू रमेश चन्द्र जी जैन प्रो. (डॉ.) नामवर सिंह जी का परिचय देते हुये प्रो. प्रेम सिंह जी प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 213 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'बर्द्धमान महावीर स्मृति-ग्रन्य लोकार्पण-समारोह' की भव्य झलकियाँ गालियन 'वर्द्धमान महावीर स्मृति-ग्रन्थ' का लोकार्पण करते हुये पूर्व लोकसभा-अध्यक्ष माननीय श्री शिवराज पाटिल जी, साथ में हैं स्मृति-ग्रन्थ के सम्पादक डॉ. सुदीप जैन एवं प्रकाशक श्री चक्रेश जैन बिजली वाले भगवान महावीर के 26004 जनकल्याला 'परनामा किन वर्द्धमान महावीर स्मृति-ग्रन्धत आचार्य कन्दकन्द पुरस्कार एवं आचाप मारमा पुसकर नामा 'वर्द्धमान महावीर स्मृति-ग्रन्थ'-लोकार्पण के बाद अपने उद्गार व्यक्त करते हुये डॉ. सुदीप जैन 10214 Jain Education intemnational प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक .. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ meena जन सानिया ने जायोगिता सदमान महावीर स्मृति-ग्रन्थ - लोकार्पण - समारोह सायीकृत छन्द पुसत्कार एवं जानार्थ समात्वामी पुरस्कार समर्पण - समारोह समारोह में मंगल-आशीर्वचन प्रदान करते हुये पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज समारोह में उपस्थित धर्मानुरागी भाई-बहिन प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 0 215 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ☐☐ 216 प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक महावीर विशेषांक K परमपूज्य आचार्य श्री विद्यानन्द जी मुनिराज • 78वाँ जन्मदिवस समारोह साहू श्री अशोक जैन स्मृति पुरस्कार समर्पण समारोह एवं दिनांक: 22 अप्रैल २००२ सोमवार चैत्रशुक्ल दशमी वीर निर्वाण संवत 257 130 तक स्यादा आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज के सान्निध्य में आयोजित भव्य समारोह में वरिष्ठ पत्रकार व समाजसेवी श्री पारसदास जैन को “साहू अशोक जैन स्मृति पुरस्कार" से सम्मानित करते हुए जस्टिस विजेन्द्र जैन । साथ में हैं साहू रमेशचन्द्र जैन, श्री चक्रेश जैन, श्री स्वदेश भूषण जैन, श्री सतीश जैन (S.C.J.), श्री सुखमाल चन्द्र जैन एवं श्री शीलचन्द्र जैन जौहरी आदि । साहू श्री अशोक जैन स्मृति पुरस्कार समर्पण समारोह की भव्य झलक Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजधानी नई दिल्ली के आध्यात्मिक नन्दनवन में रित ज्ञानतीर्थ - कुन्दकुन्द भारती केसरी पुष्पगुच्छयुक्त अशोकवृक्ष, आम्रवृक्ष, सप्तपर्णवृक्ष एवं चम्पावृक्ष आदि मांगलिक वृक्षों से युक्त उपवन को नन्दनवन कहा जाता है। कुन्दकुन्द भारती परिसर में अशोकवृक्ष धर्मानुरागी श्री सुरेश चन्द्र जी जैन (EIC) एवं चौबीस तीर्थंकरों के मंगलवृक्ष धर्मानुरागी श्री रमेश चन्द्र जैन (PRJ) के सौजन्य से सुशोभित हैं। ARMA amalini 199NDONTota तर Aadim __ दिगम्बर जैन आगम-ग्रन्थों की माध्यम-भाषा 'शौरसेनी प्राकृत', जिसे वृहत्तर भारत के सर्वाधिक व्यापक क्षेत्र में बोली जानेवाली भाषा का स्वरूप प्राप्त था, के प्रचार-प्रसार के लिए कृतसंकल्प उच्चस्तरीय शिक्षण एवं शोध के संस्थान का नाम है 'कुन्दकुन्द भारती' । ___ शौरसेनी प्राकृत को वैयाकरणों ने अन्य प्राकृतों की प्रकृति कहा है—“प्रकृति: शौरसेनी" – (आचार्य वररुचि, प्राकृतप्रकाश) तथा आचार्य रविषेण ने जिसे भाषात्रयी में सादर स्मृत किया है "नामाख्यातोपसर्गेषु निपातेषु च संस्कृता। प्राकृती शौरसेनी च भाषा यत्र त्रयी स्मृता।।" – (पद्मपुराण, 24/11) ऐसी महत्त्वपूर्ण भारतीय भाषा के प्रमुख ज्ञान-केन्द्र ‘कुन्दकुन्द भारती' के लिए निरन्तर उन्नति एवं प्रगति-हेतु हार्दिक शुभकामनाओं के साथ 'जैनबोधक' (जैनसमाज का प्राचीनतम प्रतिनिधि पत्र) Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीरकालीन वैशाली कुण्डलपुर का नक्शा वज्जि-विदेह जनपद (वैशाली, कुण्डग्राम, मिथिलापुरी) वज्जि-विवेह जनपद | गाव TALUE CIRCUIT मधुबनी दरभगारपुष्प लहरिया वादा पिपुरकसेरा ति बीरगंज मजलिया। चोरावाने पाल पतिया पीली औरयनिज मेजरगंज वीरतिटाली भुथिसोनवया मिथिलापुरी ! मिथिलापुरी मोतीहारी डाई रिगां अपना जलवा रहदोवा मीतामडी जयनगर गोविंवगेज मोविंदराबाजेपट्टी मिसजा शिवहर जनकपुररी बेनीपट्टी/बॉली कैसरिया मधुवम् फूलपरस युमा राजगिर माहणि रतनसय साहेबगंजे मीनापुर भैरवस्थान? सिधुवालिया कप मेहवत सा रान मजफ्फरपुर वाजपविकटि पुर महाराजगंज बलियागा वैशालीमुजफरपुरलहेरियासराय वारिशजगर हारोंडा कुण्डुङ्गामुडोला चन्द्राईन हरपुरगरबिया गोरिल् सहरसा लारा पंला लालट्रीजसा महुआ. सिंगियो बनगांव उ0प्र0 नसहाजीपुर सिमविख्त्यारपुर नरहानत विघापा दलसिंगसराय डरघेरी और भापटना बेगरा विक्रम खगारिया - पुनपुन - बरोनी संदेश जलपुरवियानका बधा पलिमसोपि “पोरीसाटना मोकामा गुगल अरवाजहानाबाद पकंगरविहारवारीफाय करावरहेरा शेखपुरा कस्या खत्म इस्लामपुर नालन्दा संकेत * मजाब महमूद राजगीर राज्य की सीमा. टिकारी बलागंज खिदरसराय मासबीगंज जिले की सीमा... लता• कंचकोडवावानवादा रफीगंज परेयानपर वजीरगंज. पाप meani w wगावेदपुर -बयल राष्ट्रीयमार्ग......... मजहरे मथुरापुर मेकसोर सतगावा गुरुआमालया पादुवा सरबमर कच्या मार्ग........ मदनपुरग जैन तीर्थमार्ग.. या राजौली जिले की राजधानी........... शेरमाटीमा इमामगंज बलाचीठी बोपारन झांम) कोडरमा अन्तराष्ट्रीय सीमा......... . . बछवाड मगर पलिजसोशिप परी निरिसा स्यावर LATEST Aगाह नदिया........ भारत सरकार का प्रतिलिपाधिकार, 1971 भारत के महासर्वेक्षककी अनुजानुसार भारतीय सर्वेक्षण विभागीय मानचित्रपर आधारित।