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________________ राजतंत्रीय विद्वेषवाद के कारण भारत की जनशक्ति विखंडित रहेगी; तब तक अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज्य करो' (डिवाईड एंड रूल) की नीति सफल होती रहेगी । इसके साथ ही भारतीय आस्तिकता (परमात्मा में अनन्य - श्रद्धा) की मूलभावना रक्षा/अभिशंसा करते हुए उन्होंने प्रत्येक भारतवासी को अपने कर्णकुहरों में वैसी ही शंखध्वनि गुंजायमान करने का संकेत भी दिया, जैसी कि नारायण श्रीकृष्ण ने 'महाभारत' युद्ध के समय दुविधाग्रस्त मानसिकता से युक्त अर्जुन एवं सम्पूर्ण पाण्डव - सेना को ‘पाञ्चजन्य शंख' का दिव्यघोष करके गुंजायमान की थी; जिसके फलस्वरूप अर्जुन एवं पाण्डव-सेना में कर्तव्यबोध एवं अद्भुत पुरुषार्थ - भावना का संचार हुआ था । वैसी ही पुरुषार्थ - भावना एवं कर्त्तव्यपरायणता की भावना, व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठकर राष्ट्रहित की उदात्त भावना वे इस गीत के माध्यम से जन-जन के हृदय में उमगाना चाहते थे । के उन्होंने इस गीत में भारत को उगते हुए बालसूर्य की भाँति देखा था, जो अपने प्रकाश और प्रताप से दिग्दिगन्त को आलोकित एवं प्रभावित कर देगा, न कि अस्ताचलगामी सूर्य के रूप में; जो मोह, अज्ञान एवं अकर्मण्यता की काली - निशा का सूचक होता है । आजादी के मतवालों के स्वरों को उन्होंने के स्वरों को उन्होंने प्रातः कालीन पक्षियों के कलरवरूपी मंगलगीत माना था। ऐसी उदात्त भावनाओं से पूरित कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के उस पाँच - स्तबकवाले मूलगीत का मात्र एक ही स्तबक आज 'राष्ट्रगान' के रूप में गाया जाता है। जबकि यह सम्पूर्ण गीत ही अत्यन्त-प्रेरक है। इसका मूलपाठ निम्नानुसार है जनगणमन अधिनायक..... “ जनगणमन - अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता ! पंजाब - सिंधु - गुजरात-मराठा- द्राविड़ उत्कल बंग । विन्ध्य-हिमाचल यमुना- - गंगा उच्छल जलधितरंग ।। तव शुभ नामे जागे, तव शुभ आशिष मांगे, गाहे तव जय गाथा । 0164 जन-गण-मंगलदायक जय हे भारत भाग्य विधाता ! जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे ।। 1 अहरह तव आह्वान प्रचारित, सुनि उदार तव वाणी । हिन्दू-बौद्ध-सिख-जैन- पारसिक-मुसलमान- खुष्टानी ।। पूरब-पश्चिम आसे, तव सिंहासन-पासे, प्रेमहार हय गाथा ।। जन-गण- ऐक्य - विधायक जय हे भारत भाग्य विधाता ! जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे ।। 2 ।। Jain Education International प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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