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________________ वह बिना किसी थकावट के ही प्रतिदिन 14-15 घण्टे निर्द्वन्द्वभाव से सार्थक एवं रचनात्मक कार्य करने की स्थिति में आने लगा है। ___ मैंने तो व्यक्तिगत रूप से यही अनुभव किया है और मुझे पूर्ण विश्वास है कि मेरी यही कार्य-क्षमता अगले कई वर्षों तक बनी रहेगी। मेरी सद्भावना है कि प्राकृत एवं जैनविद्या की सेवा के क्षेत्र में जो भी एकान्त-मन से कार्यरत हैं, वे यदि निर्विवाद रहकर मौलिक अवदान देते रहेंगे, तो वे भी राष्ट्रपति के सर्वोच्च पुरस्कार-सम्मान को प्राप्त करने के अधिकारी बन सकेंगे, इसमें सन्देह नहीं। निर्विवाद मंगलाचरण यस्य ज्ञानदयासिन्धोरगाधस्यानघा गुणा:। सेव्यतामक्षयो धीरा: स श्रिये चामृताय च।। -(अमरकोश 1/1) अर्थ :- जिस अनन्तज्ञान और अनन्त दयानिधि परमात्मा अनघ - निष्पाप गुण हैं, हे धीर पुरुषो ! वह परमात्मा श्री और अमृत्व की प्राप्ति के लिए सेवनीय है। यत: सर्वाणि भूतानि प्रतिभान्ति स्थितानि च। यत्रैवोपशमं यान्ति तस्मै सत्यात्मने नमः।। -(योगवासिष्ठ) अर्थ :- जिससे सारे भूतसर्ग (पर्याय) प्रतिभात (प्रतीत) होते हैं, स्थित हैं तथा जिसमें लीन हो जाते हैं उस सत्य (सत्स्वरूप) परमात्मा को नमस्कार है। सर्वव्याप्यैकचिद्रूप स्वरूपाय परात्मने । स्वोपलब्धिप्रसिद्धाय ज्ञानानन्दात्मने नमः ।। –(अमृतचन्द्रसूरि, प्रवचनसार टीका) अर्थ :- जो सर्वव्यापी (ज्ञानरूपी प्रकाश से व्याप्त), एक मात्र चैतन्यस्वरूप है, परमात्मा है तथा स्व की उपलब्धि से प्रसिद्ध है, उस ज्ञानानन्दात्मा को नमस्कार है। दिक्कालाद्यनवच्छिन्नान्तचिन्मात्रमूर्तये । स्वानुभूत्येकमानाय नम: शान्ताय तेजसे ।। -(भर्तृहरि, नीतिशतक 1) अर्थ :- जो दिक्, काल आदि से अनवच्छिन्न (अव्याप्य, अस्पृष्ट, अबाध) है, अनन्त है, चिन्मात्र स्वरूप हैं तथा स्वानुभवसंवेद्य है, (जिसे स्वानुभूति से ही जाना जा सकता है, प्रवचन से नहीं) उस शान्त तेज:स्वरूप को नमस्कार है। ज्ञाता ज्ञानं तथा ज्ञेयं द्रष्टा दर्शन-दृश्यभूः। कर्ता हेतु: क्रिया यस्मात्तस्मै ज्ञप्त्यात्मने नमः।। -(योगवासिष्ठ) अर्थ :- ज्ञाता, ज्ञान तथा ज्ञेय; द्रष्टा, दर्शन तथा दृश्य; कर्ता, हेतु और क्रिया जिससे प्रसूत हैं; उस ज्ञप्ति-आत्मा (स्व-पर को जाननेवाला ज्ञप्ति आत्मा है) के लिए नमस्कार है। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 171 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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