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________________ कहा गया है- “कपिलादि-रचित श्रुत को अभ्यास। सो है कुबोध बहु-देन त्रास।।* अस्तु, प्रथमत: इस दर्शन के बारे में कुछ परिचय यहाँ प्रस्तुत है। कोशकारों ने ‘सांख्य' का परिचय निम्नानुसार दिया है सांख्य (वि.) {संख्या+अणु} 1. संख्या-संबंधी, 2. आकलनकर्ता, 3. विवेचक, 4. विचारक, तार्किक, तर्ककर्ता, छ: हिन्दू दर्शनों में से एक, जिसके प्रणेता कपिल-मुनि माने जाते हैं। इस शास्त्र का नाम सांख्य दर्शन' इसलिए पड़ा कि इसमें पच्चीस तत्त्व या सत्य सिद्धांतों का वर्णन किया गया है, इस शास्त्र का मुख्य उद्देश्य पच्चीसवें तत्त्व अर्थात् पुरुष या आत्माको अन्य चौबीस तत्त्वों के शुद्ध- ज्ञान द्वारा तथा आत्मा की उनसे समुचित-भिन्नता सांख्य-शास्त्र समस्त विश्व को निर्जीव 'प्रधान' या 'प्रकृति' का विकास मानता है, जबकि 'पुरुष' (आत्मा) सर्वथा निर्लिप्त, एक, निष्क्रिय-दर्शक है। संश्लेषणात्मक होने के कारण वेदान्त से इसकी समानता, तथा विश्लेषणपरक न्याय' और वैशेषिक' से भिन्नता कही जाती है। परन्तु वेदान्त से भिन्नता की सबसे बड़ी बात यह है कि सांख्यशास्त्र द्वैतवाद का समर्थक है, जिनको वेदान्त नहीं मानता। इसके अतिरिक्त सांख्यशास्त्र परमात्मा को विश्व के स्रष्टा और नियन्त्रक के रूप में नहीं मानता, जिनकी कि वेदान्त पुष्टि करता है। 'शब्दकल्पद्रुम' में 'सांख्य' का परिचय इसप्रकार मिलता हैसांख्य:, पुं, कपिलमुनिकृतदर्शनशास्त्रविशेषः । तत्पर्य्याय: कापिल: इति हेमचन्द्रः । तथा च “सांख्यं कपिलमुनिना प्रोक्तं संसारविमुक्तिकारणं हि। यत्रता: सप्ततिरार्या भाष्यं चात्र गौडपादकृतम् ।। एतत् पवित्रमग्रां मुनिरासुरयेऽनुकम्पया प्रददौ । आसुरिरपि पञ्चशिखाय तेन च बहुधा कृतं तन्त्रम् ।। शिष्यपरम्परयागतमीश्वरकृष्णेन चैतदा-भिः । संक्षिप्तमार्यमतिना सम्यग्विज्ञाय सिद्धान्तम् ।। सप्तत्यां किल येऽस्तेिऽर्थाः कृत्स्नस्य षष्टितन्त्रस्य । आख्यायिका-विरहिता: । परवादविवर्जिताश्चापि ।।" इति सांख्यप्रवचनभाष्यम्।। सांख्ययोग:, पुं, (योगः ।) ज्ञानयोगः । सांख्योक्तो स च ब्रह्मविद्या। यथा-- “द्वौतीये शोकसन्तप्तमर्जुनं ब्रह्मविद्यया। प्रतिबोध्य हरिश्चक्रे स्थितप्रज्ञस्य लक्षणम् ।।" इति गीताटीकायां श्रीधरस्वामी।। 2 ।।।। सांख्य पुं०। संख्यानं संख्या विवेकस्तां वेत्तीति सांख्यः। कपिलशिष्ये । अशुद्धद्रव्यास्तिक-मतावलम्बि-सांख्यदर्शन-परिकल्पित- पदार्थसिद्धिरिति पर्यायास्तिकमतम्।' प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 153 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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