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________________ सांरव्य दर्शन : परम्परा और प्रभाव - श्रीमती रंजना जैन भारतीय दर्शनों में सांख्य-दर्शन को सर्वाधिक प्राचीन और ज्ञानात्मक विवेचन की दृष्टि से सर्वाधिक प्रतिष्ठित भी माना जाता है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि आदि-तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र ‘कपिल' ने ही इसका प्रवर्तन किया था। यह इतना प्राचीन था या नहीं? यह भले ही विवाद का विषय हो, किन्तु यह सत्य है कि तीर्थंकर ऋषभदेव के समय में ही उनके पौत्र मारीच कुमार ने मिथ्यामतों का प्रवर्तन करना प्रारंभ कर दिया था। यह भी एक अद्भुत-संयोग है, कि चाचा (कपिल), भतीजे (मारीच) का शिष्य बनकर उनका गणधर बना। सांख्य दर्शन की विचारधारा का भारतीय दार्शनिक चिंतन और जैन-दार्शनिक चिंतन पर क्या प्रभाव पड़ा, और ये परस्पर कैसे सम्बन्धों के साथ आगे बढ़े?— यह विषय दार्शनिक क्षेत्र में जिज्ञासा रखनेवाले पाठकों को अवश्य रोचक एवं ज्ञानवर्धक सिद्ध होगा। –सम्पादक भारतीय-दर्शनों में 'सांख्य' दर्शन एक ऐसा अवैदिक-दर्शन है, जिसकी प्राचीनता एवं गरिमा सभी ने मुक्तकंठ से स्वीकार की है। इस दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कपिल माने गये हैं- 'सांख्यस्य वक्ता कपिल: परमर्षिः स उच्यते ।' अर्थ:- सांख्य के वक्ता परम-ऋषि कपिल' कहे जाते हैं। इनके बारे में निम्नानुसार उल्लेख मिलते हैं - ‘दशानामेकं कपिलं'।' अर्थात् महर्षि कपिल दश-अंगिराओं में से एक हैं। वे स्वायम्भु मनु के दौहित्ररूप में 'आदि विद्वान्' के नाम से विख्यात हैं, तथा वे कपिल-मुनि सृष्टि-प्रवृत्ति के प्रथमयुग में अवतीर्ण हुए थे -ऐसी अनुश्रुति है। __ जैन-परम्परा में इनका परिचय इसप्रकार बताया गया है 'विधाय दर्शनं सांख्यं, कुमारेण मरीचिना। व्याख्यातं निजशिष्यस्य, कपिलस्य पटीयसा।। भगवान् वृषभदेव के पौत्र और चक्रवर्ती भरत के पुत्र अतिशय-चतुर मरीचिकुमार ने सांख्यदर्शन की रचना कर उसका व्याख्यान अपने शिष्य कपिल गणधर के लिए किया। कूटस्थ-नित्य एकान्तमत का प्रवर्तक होने के कारण इन्हें जैन-परम्परा के अनुसार अप्रमाण माना गया है तथा इनके द्वारा प्रतिपादित तत्त्वज्ञान को 'मिथ्या' एवं दुःखदायी भी 00 152 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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