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का निर्माण कराया था तथा विशेष दिनों में पशु-वध पर भी प्रतिबन्ध लगाया था। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि कुमारपाल के प्रयास के फलस्वरूप गुजरात के निवासी आज तक भी शाकाहारी हैं।
कुमारपाल के उपरान्त जैनधर्म के प्रति तीव्र-प्रतिक्रिया हुई और कहा जाता है कि उसके उत्तराधिकारी ने कुछ जैन-मन्दिरों को भी ध्वस्त करा दिया था। किन्तु राजकीय-संरक्षण के समाप्त हो जाने पर भी प्रतीत होता है कि जैनधर्म को जैन मन्त्रियों, व्यापारियों एवं जन-साधारण का बहुत संपोषण और समर्थन मिलता रहा। आबू, गिरनार और शQजयपर्वतों के मन्दिरों का निर्माण बघेले-राजाओं के मन्त्रियों द्वारा कराया गया था। इस काल के अनेक अभिलेख साक्षी हैं कि इस समय जैनधर्म को व्यापक लोकप्रिय समर्थन प्राप्त था।
मध्यकालीन राजपूताने के शासक-वंशों द्वारा जैनधर्म को प्रदत्त राज्याश्रय का साक्ष्य इस काल के जैनों की दान-प्रशस्तियों से प्राप्त होता है। मध्यकाल में पश्चिम-भारत में जैनधर्म को जो प्रोत्साहन प्राप्त हुआ उसने एक स्थायी-प्रभाव छोड़ा, जिसके परिणामस्वरूप गुजरात और राजस्थान में आज भी पर्याप्त संख्या में जैनधर्मानुयायी विद्यमान हैं।
पूर्ववर्ती शताब्दियों में दक्षिणापथ में जैनधर्म के प्रसार का जो अल्प एवं अस्पष्ट साक्ष्य प्राप्त है, उसकी अपेक्षा बादामी के चालुक्यों (सन् 535-757) के काल में जैनधर्म की स्थिति में व्यापक-परिवर्तन हुआ। सातवीं शताब्दी में यहाँ जैनधर्म की समृद्ध-स्थिति का परिचय अनेक शिलालेखीय-साक्ष्यों से प्राप्त होता है। कोल्हापुर' से प्राप्त ताम्र-पत्रों और बीजापुर जिलान्तर्गत एहोले', धारवाड़ जिलान्तर्गत 'लक्ष्मेश्वर' और 'अदूर' से प्राप्त शिलालेखों में जैन-मन्दिरों के निर्माण तथा उनकी व्यवस्था के लिए भूमि के अनुदान दिये जाने के उल्लेख मिलते हैं। इसके अतिरिक्त इस अवधि में बादामी, ऐहोले एवं धाराशिव की गुफाओं में पायी गयी जैन-प्रतिमायें और प्रतीक दक्षिणापथ में जैनधर्म की उपस्थिति की सूचक हैं।
‘मान्यखेट' के राष्ट्रकूटों (सन् 733-975) के शासनकाल में जैनधर्म को राज्याश्रय भी प्राप्त रहा प्रतीत होता है। इस वंश के कई राजाओं का जैनधर्म के प्रति अत्यन्त-झुकाव रहा। यह भी कहा जाता है कि जिनसेन, अमोघवर्ष (सन् 814-78) के गुरु थे। उसके उत्तराधिकारियों कृष्ण द्वितीय (सन् 878-914), इन्द्र-तृतीय (लगभग सन् 914-22) तथा इन्द्र-चतुर्थ (लगभग सन् 973-82) ने जैनधर्म को अपना प्रश्रय दिया तथा जैन-मन्दिरों के लिए अनुदान दिये थे। यह भी प्रतीत होता है कि राष्ट्रकूटों के सामन्त, यथा सौंदत्ति के रट्ट, भी जैनधर्म के प्रश्रयदाता थे। एलोरा की जैन गुफायें, जिनके निर्माण का समय राष्ट्रकूट-काल निर्धारित किया जा सकता है, दक्षिणापथ में जैनधर्म की सम्पन्न-स्थिति के साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं।
आगे चलकर जैनधर्म को कल्याणी के चालुक्यों (सन् 973-1200), देवगिरि के यादवों (सन् 1187-1318) तथा शिलाहारों (सन् 810-1260) के शासनकालों में और अधिक
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प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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