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प्रोत्साहन प्राप्त हुआ प्रतीत होता है। इस तथ्य का समर्थन महाराष्ट्र के दक्षिणवर्ती जिलो तथा कर्नाटक के विभिन्न भागों से प्राप्त अनेक अभिलेखों से होता है । कल्याणी के चालुक्यो के बीस से अधिक अभिलेख उपलब्ध हैं, जो दसवीं से लेकर बारहवीं शताब्दी तक के हैं और अधिकांशत: बेलगाँव, धारवाड़ और बीजापुर जिलों में पाये गये हैं। ये अभिलेख इस क्षेत्र मे जैनधर्म के अस्तित्व का साक्ष्य प्रस्तुत करने के अतिरिक्त कुछ अन्य रोचक - विवरण भी प्रस्तु करते हैं। उदाहरण के लिए ये अभिलेख सिद्ध करते हैं कि इस क्षेत्र में दिगम्बर जैनधर्म क उत्कर्ष था; केवल शासकवर्ग ही नहीं, अपितु जनसाधारण भी जैन धर्म के प्रति उदार थे; और विभिन्न संस्थानों को दिये गये विपुल भूमि - अनुदानों ने मठपतियों की परम्परा को जन्म देने की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी ।
कलचुरियों के शासनकाल में (ग्यारहवी से तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक ), विशेषकर बिज्जल (सन् 1156-1168) के समय में, जैनधर्म को दुर्दिनों का सामना करना पड़ा तथापि कतिपय शिलालेखों से ज्ञात होता है कि शैवों द्वारा किये गये उत्पीड़न के होते हुए भ जैनधर्म किसी प्रकार अपने को जीवित बनाये रख सका और यादवों के शासनकाल (सन् 11871318) में अपने अस्तित्व की समुचित रक्षा में सफल रहा । 'कोल्हापुर' से प्राप्त कुछ शिलालेखे से ज्ञात होता है कि जैनधर्म की ऐसी ही स्थिति शिलाहारों के शासनकाल में भी रही ।
जैन - आचार्यों को दिये गये दानों का उल्लेख करनेवाले कतिपय राज्यादेशों से यह प्रमाणित होता है कि पूर्वी चालुक्यों (सन् 624-1271) के राज्य में जैनधर्म प्रचलित था वेंकटरमनय्या का कथन है कि जैन साधु अत्यन्त सक्रिय थे। देश भर की ध्वस्त बस्तिये में प्राप्त परित्यक्त-प्रतिमायें सूचित करती हैं कि वहाँ कभी अनगिनत जैन- संस्थान रहे थे पूर्वी चालुक्य राजाओं और उनके प्रजाजनों के अनेक अभिलेखों में बसदियों एवं मन्दिरों के निर्माण कराये जाने तथा उनके परिपालन के लिए भूमि एवं धन-दान के विवरण प्राप्त हैं
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यही स्थिति होयसलों (सन् 1106-1343) के शासनकाल में थी। इस राज्यवंश क स्थापना का श्रेय ही एक जैन मुनि को दिया जाता है। बताया जाता है कि जैनधर्म एक लम्बी अवधि तक निष्क्रिय रहा था, उसे आचार्य गोपीनन्दि ने उसीप्रकार सम्पन्न एक प्रतिष्ठित बना दिया था, जैसा वह गंगों के शासनकाल में था । यह माना जाता है कि इस वंश के वीर बल्लाल-प्रथम (सन् 1101-06 ) तथा नरसिंह तृतीय (सन् 1263-91 ) जैसे क राजाओं के जैनधर्म के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध थे ।
सुदूर दक्षिण में कुमारिल, शंकराचार्य तथा माणिक्क वाचकार जैसे ब्राह्मण-धर्म वे नेताओं का उदय होने पर भी 'कांची' और 'मदुरा' जैनों के सुदृढ़ गढ़ बने रहे उत्थान-पतन की इस परिवर्तनशील - प्रक्रिया में भी सुदूर दक्षिण और दक्षिणापथ सदैव दिगम्बर जैनधर्म के गढ़ रहे । परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि शैवधर्म के प्रबल विरोध क सामना करने के कारण आठवीं शताब्दी के लगभग जैनधर्म का प्रभाव शिथिल हो गय
प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक
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