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________________ 'अप्पर' और 'संवन्दार' नामक शैव-सन्तों के प्रभावाधीन पल्लव (चौथी से दसवीं शताब्दी), तथा पाण्ड्य (लगभग तीसरी शताब्दी से 920 ईसवी) राजाओं ने जैनों का उत्पीडन किया। दीर्घकालोपरान्त विजयनगर' और 'नायक' शासकों के काल में जैनों का शैवों एवं वैष्णवों के साथ समझौता हुआ, उदाहरणार्थ, 'बैलूर' के बेंकटाद्रि नायक के शासनकाल के सन् 1633ई. के एक शिलालेख में हलेबिडु' में एक जैन द्वारा शिवलिंग का उच्छेद करने का उल्लेख है। परिणामस्वरूप एक सांप्रदायिक-उपद्रव हुआ, जिसका निपटारा इसप्रकार हुआ कि वहाँ पहले शैवविधि से पूजा होगी, तदनन्तर जैनविधि से। मुसलमानों के आगमन के फलस्वरूप भारत के सभी धर्मों को आघात सहना पड़ा। इसमें जैनधर्म अपवाद नहीं था। उदाहरणार्थ यह कहा जाता है कि मुहम्मद गौरी ने एक दिगम्बर-मुनि का सम्मान किया था। यह भी कहा जाता है अलाउद्दीन खिलजी जैसे प्रबल प्रतापी शासक ने जैन-आचार्यों के प्रति सम्मान व्यक्त किया था। मुगल सम्राट अकबर को आचार्य हीराविजय ने प्रभावित किया था और उन्हीं के उपदेश से उसने कई जैन-तीर्थों के निकट पशु-वध पर प्रतिबन्ध लगा दिया था तथा उन तीर्थों को कर से भी मुक्त कर दिया था। कुछ ऐसे भी साक्ष्य उपलब्ध हैं जिनसे ज्ञात होता है कि जहाँगीर ने भी कुछ जैन आचार्यों को प्रश्रय दिया था, यद्यपि उसके द्वारा एक जैन-अधिकारी को दंडित भी होना पड़ा था। भारत में मुस्लिम-शासन के सम्भावित परिणामस्वरूप पन्द्रहवीं शताब्दी के लगभग गुजरात के श्वेताम्बर जैनों में स्थानकवासी-सम्प्रदाय' का उदय हुआ था। उसी अवधि में दिगम्बर जैनों में तेरापन्थ' नाम का वैसा ही सम्प्रदाय अस्तित्व में आया। वर्तमान में भारत के अन्य-भागों की अपेक्षा पश्चिम भारत, दक्षिणापथ और कर्नाटक में जैन-धर्मानुयायियों की संख्या सर्वाधिक है। जहाँ दक्षिणी महाराष्ट्र और कर्नाटक में दिगम्बर जैनों की बहुलता है, वहाँ गुजरात में श्वेताम्बर मूर्ति-पूजक और पंजाब में स्थानकवासियों का प्राबल्य है। जैन धर्मानुयायियों में अधिकांशत: व्यापारी एवं व्यवसायी हैं, अत: यह समाज आर्थिक दृष्टि से सुसम्पन्न है। इस समाज की आर्थिक सम्पन्नता उसके पर्व एवं पूजा-उत्सवों तथा मन्दिरों के निर्माणों में प्रतिबिम्बित होती है। ये प्रवृत्तियाँ आज भी विशाल-स्तर पर चलती हैं। जैनधर्म प्रसार के उपरोक्त-विवरण से यह ज्ञात होता है कि जैनधर्म अपने जन्मस्थान बिहार से बाहर की ओर फैलता तो गया; किन्तु एक अविच्छिन्न-गति के साथ नहीं, विविधकारणों से उसका प्रतिफलन धाराओं या तरंगों के रूप में हुआ। जैनधर्म ने राज्याश्रय तथा व्यापारी-वर्ग के संरक्षण पर मुख्यतया निर्भर रहने के कारण अपने पीछे मन्दिरों, मन्दिर-बहुल-नगरों, सचित्र पाण्डुलिपियों, अनगिनत मूर्तियों, तथा सांस्कृतिक-क्षेत्र में सर्वाधिक उल्लेखनीय अहिंसा के सिद्धान्त की अद्भुत धरोहर छोड़ी है।। --(साभार उद्धृत -- महाभिषेक स्मरणिका, पृष्ठ 14-22, प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ)* 00 148 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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