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________________ तथा बड़ी संख्या में तीर्थंकरों की प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। जोधपुर' के निकट 'ओसिया' से प्राप्त वत्सराज (778-812) के शासनकाल के एक अन्य शिलालेख में एक जैन- मन्दिर के निर्माण का विवरण है। इससे ज्ञात होता है कि प्रतीहारों के शासनकाल मे जैनधर्म सक्रिय रहा, यद्यपि उसके वैभव के दिन बीत चुके थे। नौवीं शताब्दी से बुन्देलखण्ड-क्षेत्र के शासक चन्देल-राजाओं के समय में जैनधर्म अपने लुप्त-वैभव को पुन: प्राप्त करता हुआ प्रतीत होता है। खजुराहों में आदिनाथ और पार्श्वनाथ के भव्य-मन्दिर तथा घंटाई-मन्दिर के अवशेष इस तथ्य के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि इस क्षेत्र मे जैनधर्म के अनुयायी विशाल-संख्या में थे। धंगराज मदनवर्मन और परमार्दिन के शासनकालों के भी जैन-धार्मिक-शिलालेख उपलब्ध हैं। वास्तु-स्मारकों तथा मूर्तियों के अवशेष तथा शिलालेख यह सिद्ध करते हैं कि नौवीं से बारहवीं शताब्दी के मध्य महोबा, खजुराहो तथा अन्य स्थान जैनधर्म के महान्-केन्द्र थे। हैहयों (नौवीं से तेरहवीं शताब्दी), परमारों (लगभग दसवीं से तेरहवीं शताब्दी), कच्छपघातों, (लगभग सन् 950 से 1125) ओर गाहड़वाल राजाओं (लगभग 1075 से 1200 सन्) के शासनकालों में मालवा, गुजरात, राजस्थान तथा उत्तरप्रदेश के भागों में जैनधर्म का व्यापक प्रभाव रहा, जैसाकि इन क्षेत्रों में स्थान-स्थान पर पाये गये अनेकानेक शिलालेखों, प्रतिमाओं और भग्न-मन्दिरों से समर्थित होता है। दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दियों में मालवा के कुछ परमार राजाओं, यथा सिंधुराज, मुञ्ज, भोज और जयसिंह ने अनेकानेक प्रसिद्ध जैन-विद्वानों एवं साहित्यकारों को प्रश्रय प्रदान किया था। पं. आशाधर जैसे कुछ अन्य लब्धप्रतिष्ठ जैन-विद्वान् इसी वंश के नरेश अर्जुनवर्मन के प्रश्रय में पल्लवित हुए। परमारों के राज्य में कई जैन उच्च-पदों पर भी आसीन थे। मध्यकालीन गुजरात में राष्ट्रकूटों (सन् 733-795) के शासनकालों में जैनधर्म को प्रभूत-उत्कर्ष प्राप्त हुआ। राष्ट्रकूट-कालीन कुछ ताम्र-पत्रों में जैन-संघ के कई समुदायों के अस्तित्व का उल्लेख है; उदाहरणार्थ, कर्कराज सुवर्णवर्ष के सन् 821 के एक ताम्र-पत्र-लेख में सेनसंघ' और 'मूलसंघ' की विद्यमानता का तथा 'नागसारिका' (वर्तमान नवसारी) में स्थित एक जैन-मन्दिर एवं जैन-विहार का उल्लेख है। ... चौलुक्य-नरेशों के शासनकाल में श्वेताम्बर-जैन-सम्प्रदाय ने गुजरात में अपना दृढ़प्रभाव स्थापित कर लिया था। इस वंश का शासक भीमदेव उनका सर्वाधिक उल्लेखनीय प्रश्रयदाता था। यद्यपि वह शैव-मतावलम्बी था, तथापि उसने मन्त्री विमल को आबू पर्वत पर प्रसिद्ध विमलवसही' मन्दिर के निर्माण कराने की अनुमति प्रदान की थी। विश्वास किया जाता है कि राजा जयसिंह की सुप्रसिद्ध जैन-आचार्य हेमचन्द्र से घनिष्ठ-मैत्री थी। इस काल में श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों के मध्य शास्त्रार्थ भी होते थे। जयसिंह के उत्तराधिकारी कुमारपाल ने पालिताना, गिरनार और तारंगा में जैन-मन्दिरों प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 145 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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