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________________ जैनधर्म का प्रबल प्रभाव रहा, यह इस बात से स्पष्ट है कि वलभी' में दो सम्मेलन (संगीतियाँ) आयोजित हुए थे, जिनमें से प्रथम चौथी शताब्दी में तथा द्वितीय पाँचवीं शताब्दी में हुए बताये जाते हैं, किन्तु इन सम्मेलनों की तिथियों के विषय में मतैक्य नहीं है। इसप्रकार यह प्रतीत होता हे कि ईसा सन् के आरम्भ होने तक तथा उसकी प्रारम्भिक शताब्दियों में जैनधर्म का कार्यक्षेत्र पूर्वी-भारत से मध्य-भारत एवं पश्चिम-भारत की ओर स्थानान्तरित हो गया था। उत्तर-भारत में कुषाणों के पतनोपरान्त गुप्तशासकों ने ब्राह्मणधर्म को पुनरुज्जीवित एवं संगठित करने में सहायता दी। तथापि यह मानना सदोष होगा कि उस काल में जैनधर्म का गत्यवरोध हुआ। यद्यपि गुप्त-शासक मूलत: वैष्णव थे, तथापि उन्होंने उल्लेखनीय धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया। अब यह विदित है कि प्रारम्भिक गुप्त-शासक रामगुप्त के समय में तीर्थकर-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा हुई थी। कुमारगुप्त के शासनकाल में उत्कीर्ण उदयगिरि गुफा' के शिलालेख में पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठापना का उल्लेख मिलता है। मथुरा के एक शिलालेख में एक श्राविका द्वारा कोट्टियगण' के अपने गुरु के उपदेश से एक प्रतिमा की स्थापना करायें जाने का उल्लेख है। कुमारगुप्त के उत्तराधिकारी स्कन्दगुप्त के शासनकाल से भी सम्बन्धित इसप्रकार की सामग्री प्राप्त हुई है। कहाऊँ-स्तम्भ' के लेख में, जो कि सन् 460-61 का है, 'मद्र' नामक व्यक्ति द्वारा पाँच तीर्थंकर मूर्तियों की प्रतिष्ठापना का वर्णन है। इन यत्र-तत्र बिखरे साक्ष्यों में उस विवरण को भी सम्मिलित किया जा सकता है, जो कि बाँग्लादेश में 'पहाड़पुर' से प्राप्त ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण है और बुधगुप्त के शासनकाल का है। उसमें एक ब्राह्मण-दम्पत्ति द्वारा एक जैन-विहार की आवश्यकताओं की सम्पूर्ति के लिए भूमिदान का उल्लेखन है। इस संदर्भ में हैवेल का यह कथन उद्धरणीय है कि : 'गुप्त-सम्राटों की राजधानी ब्राह्मण-संस्कृति का केन्द्र बन गयी थी, किन्तु जन-सामान्य अपने पूर्वजों की धार्मिकपरम्पराओं का ही पालन करता था, और भारत के अधिकांश-भागों में बौद्ध एवं जैन-विहार सार्वजनिक-विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों के रूप में कार्य कर रहे थे। परवर्ती इतिहास उत्तर-भारत में गुप्त साम्राज्य के पतनोपरान्त हर्षवर्धन के राज्यारम्भ तक का इतिहास धूमिल-सा है। यद्यपि हर्ष का बौद्ध धर्म से घनिष्ठ-सम्बन्ध था, तथापि जैसा कि जैन-गृहस्थों द्वारा बिहार के जैन-संस्थानों को दिये गये दानों से ज्ञात होता है, जैनधर्म ने इस काल में अपना अस्तित्व बनाये रखा। यों उसकी स्थिति दुर्बल ही रही। हर्ष के परवर्तीकाल में जैनधर्म ने राजपूताना, गुजरात और मध्य-भारत में प्रसार पाया। दिवगढ़' से प्राप्त प्रतीहारकालीन कतिपय शिलालेख सन् 862 के लगभग वहाँ एक स्तम्भ के स्थापित किये जाने का उल्लेख करते हैं। देवगढ़ में जैन-मन्दिरों के एक समूह के अवशेष 00 144 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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