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प्रश्न उठा कि वे आम्र की मंजरी रोज़ देखते थे, और यहाँ आने से पहले उन्होंने बीसियों बार आम्रमंजरी का अध्ययन किया था, आज कौन-सी नई बात हो गई? नई बात यह हुई, कि उस दिन उस शब्द और अर्थ के साथ अन्तरात्मा का योग हुआ था । पद का अर्थ जान काफी नहीं है, पद और पदार्थ के भीतर के प्रत्यय होते हैं, भीतर की अन्तरात्मा का योग होता है, यह अन्तरात्मा का योग उस दिन हुआ । वैशाली वही है, जो आज से हजारों वर्ष पहले और आज से सौ-दो सौ वर्ष पहले वह थी ।
इतिहास के साथ हमारा सम्बन्ध थोड़े दिनों का है, इसलिये बहुत कम जानता हूँ। आपकी खुदाई में जो थोड़े-से खिलौने मिले हैं, थोड़ी-सी मूर्तियाँ मिली हैं, वह काफी नहीं हैं। लेकिन वे इंगित करती हैं, उस महिमा की ओर, कोई उनसे पूछे कि उनका घर कहाँ है ? अगर अंगुली दिखाई, तो अंगुली पकड़कर वे लटक जायेंगी। अंगुली जिस जगह को बता रही है, उसी जगह पर जाना चाहिये । किन्तु हमें यह नहीं समझना चाहिये कि ये जो भग्नावशेष हैं, वही वैशाली है। नहीं, यह वैशाली का वैभव है । वैशाली के वैभव बतानेवाली अंगुलियाँ हैं, जो बता रही हैं, कि ये चीजें जो संग्रहीत हुई हैं, बहुत थोड़ी हैं, पर बहुत बड़ी चीज की ओर इशारा करती हैं, किसी महिमा की ओर इंगित करती हैं, यह हमें समझना चाहिये । - ( साभार उद्धृत, वैशाली अभिनंदन - ग्रंथ, पृष्ठ 153-159)
अशरण-भावना
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इस जीव के कर्म की उदीरणा होते कर्म का नाश करनेकूं कारण दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप रक्षक - शरण होय है, और कोऊ शरण नहीं है । जातैं इस संसार में स्वर्गलोक के इन्द्र का नाश होइ औरनि की कहा कथा है? जो अणिमादिक ऋद्धीनि के धारक समस्त स्वर्गलोक के असंख्यात देव मिलि करिके अपना स्वामी इन्द्र कूं ही रक्षा नहीं सके, तदि अन्य अधम व्यंतरादिक देव-ग्रह-यक्ष-भूत - योगिनी - क्षेत्रपाल - चंडी - भवानी इत्यादिक असमर्थ देव जीव की रक्षा करने में कैसे समर्थ होयंगे? जो मनुष्यनि की रक्षा करने में कुलदेवी-मंत्र-तंत्र क्षेत्रपालादिक समर्थ होइ, तो जगत में मनुष्य अक्षय होइ जाय। तातैं जो अपनी रक्षा करने में शरण ग्रह - भूत-पिशाच- योगिनी - यक्षनिकूं माने है, सो दृढ़-मिथ्यात्वकरि मोहित है । जातैं आयु का क्षय करिके मरण होय है, अर आयु देने में कोऊ देव-दानव समर्थ नहीं, तातैं मरण की रक्षा करने में कोऊकूं सहायी माने है, सो मिथ्यादर्शन का प्रभाव है । जो देव ही मनुष्यनि की रक्षा करने में समर्थ होइ, तो आप ही देवलोक कं कैसे छांडै? तातैं परमश्रद्धान करिके ज्ञान-दर्शन - चारित्र - तप का परम शरण ग्रहण करो । संसार में भ्रमण करते के कोऊ शरण नहीं है । इस जगत में उत्तम क्षमादिकरूप आपके आत्माकूं परिणामावता आपही आपका रक्षक होय है । अर क्रोध, मान, माया, लोभरूप परिणमन करता आपकूं आप घाते है । तातैं अपना रक्षक अर नाशक अपना आप ही है । - ( मूलाराधना, गाथा 1755 की वचनिका)
प्राकृतविद्या�जनवरी-जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक
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