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________________ उन्होंने नहीं किया। ___आम्रपाली यहाँ की एक गणिका थी, बड़ी मशहूर गणिका थी, हमारे बेनीपुरीजी ने उसका बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। अगर आप लोगों ने नहीं पढ़ा हो, तो एक बार अवश्य पढ़ें। एक बार आम्रपाली ने महात्मा बुद्ध को निमन्त्रण दिया। महात्मा बुद्ध भोले थे, उन्होंने स्वीकार कर लिया निमन्त्रण । इसके बाद वैशाली के नागरिकों ने आम्रपाली से कहा कि देखो आम्रपाली! जिसको तुमने आमन्त्रित किया है, जिसने तुम्हारा निमन्त्रण स्वीकार किया है, उसे तुम मेरे हाथ बेच दो, मैं लुम्हें एक लाख मुद्रायें दूँगा।' आम्रपाली ने कहा---- 'मैं ऐसा नहीं चाहती।' कई लोगों में यह होड़ मच गई कि उससे किसीप्रकार इस अधिकार को ले लिया जाये। किसी ने एक लाख, सवा लाख किसी ने दो लाख रख दिया कि 'हमें तुम यह अधिकार दे दो, और महात्मा बुद्ध को हमारे घर भोजन करने दो।' आम्रपाली ने कहा - 'नहीं ! मैं क्यों बेचने जाऊँ? मैंने उस महात्मा को बुलाया है, मैं उन्हें अपने यहाँ भोजन कराऊँगी।' लेकिन, किसी ने उसको यह नहीं कहा, कि 'मैं तुमसे जबरदस्ती यह काम करवाऊँगा।' उसके बाद आम्रपाली महात्मा बुद्ध को अपने आम्रकुंज में ले गई, जहाँ वे कई बार आ चुके थे। एक और मशहूर-बाला थी, उसने भी अपने यहाँ महात्मा को आमन्त्रित किया था। इस नगरी की इतनी बड़ी महिमा है। वैशाली के इतिहास का पता लगाया बड़े-बड़े धुरन्धर-विद्वानों ने, कुछ विदेशी विद्वानों ने, कुछ भारतीय विद्वानों ने; मैं उनकी श्रद्धा और निष्ठा को देखकर लज्जित रह जाता हूँ। परन्तु, बड़ी कृतज्ञता के साथ उनका नाम लेता हूँ -- कितने प्रेम से, कितनी निष्ठा से, कितनी कठिनाई से काम करके उन्होंने इन चीजों का उद्धार किया है, उन विदेशी-विद्वानों के प्रति हमें हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिये। लेकिन सवाल यह है, कि वैशाली में तो पहले इतना उल्लास नहीं था, आज क्यों उल्लास है? पहले वे वैशाली की महिमा से अपरिचित थे, किन्तु अब उन्हें विदित हो गया है, कि वैशाली यहीं थी, यह वह भूमि है, जिसमें महात्मा बुद्ध और भगवान् महावीर की चरण-रज पड़ी है। पता नहीं, जहाँ आप बैठे हैं, वहाँ भी वे चरण-रज उड़ रही हो! यहाँ के आकाश में, वायुमण्डल में, उनके सन्देश गूंज रहे हैं। यह आनन्द पहले भी था, और आज भी है। . एक बार शान्तिनिकेतन में हमारे एक विदेशी-मित्र, जो संस्कृत के बड़े विद्वान् थे, संस्कृत-नाटकों में 'आम्रमंजरी' का नाम सुना था, ठहरे थे। संयोग से उनका स्वागत करने के लिये आम्रकुंज में ही आयोजन किया गया। जब वह आये, तब मैंने उन्हें बताया, कि ये आम के पेड़ हैं, और यह उनकी आम्रमंजरी है। उन्होंने बहुत सुना था, आम्रमंजरी को देखा भी था; लेकिन जब उनको मालूम हुआ, कि यह आम्रमंजरी है, तब उछल पड़े, और कहने लगे कि यही कालिदासवाली आम्रमंजरी है, यही वह आम्रमंजरी है, जैसा कि कालिदास ने कई बार कहा है? मैंने कहा कि हाँ, यही आम्रमंजरी है, तो वे बड़े उल्लसित हुये। मेरे मन 0088 प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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