________________
भी कहा है। वे वर्धमान जिन" भी हैं, और वे वीरनाथ भी हैं ।" यद्यपि समस्त शौरसेनी आगम-साहित्य के आचार्यों ने वर्धमान को मात्र स्मरण ही नहीं किया, अपितु उनके सिद्धान्तों पर भी प्रकाश डाला है। ___ 'आचारांग' का 'उपधान सूत्र' दीक्षा के पश्चात् की चर्या, शय्या, आहार-विहार के बड़े ही रोचक एवं कष्टदायी विषय का व्याख्यान करता है— इसमें महावीर आत्म-विजय बनाम लोकविजय के पर्याय हैं 'हंता हंता बहबे कंदिस' के चिल्लाने पर ध्यान-मग्न हैं। जोगं च सव्वसो णच्चा' कहने से ज्ञानी है। पंथपेही चरे जयमाणे' में आत्मा का विशुद्ध-मार्ग है। 'अप्पमत्ते समाहिए झाई' में समाधि की उत्कृष्टता है। 'इत्थी एगइया पुरिया य' उपसर्ग आने पर स्थिरता की ओर ले जाता है। 'अह दुच्चर-लाढमचारी' वज्रभूमि या शुभ्रभूमि में सहिष्णु बनाती है। इसीतरह के अन्य प्रसंग भी महापथ का बोध कराते हैं।
सूत्रकृतांग' गुणोत्कर्ष के साथ दार्शनिक दृष्टि ही दृष्टि दिखलाता है। इसमें वीरत्थुइ - महावीरत्थवो' नामक छठे अध्ययन में 'नातसुतस्स' के विषय में वे पूछा कि वे क्या है? तब कहा कि वे दक्ष हैं, कुशल हैं, आसुप्रज्ञ हैं, अनंतज्ञानी, सर्वदर्शी, भूतिप्रज्ञ आदि सभी कुछ हैं।
सुदंसणस्सेस जसो गिरिस्स, पंकुच्चती महतो पव्वतस्स ।
एतोवमे समणे नायपुत्ते, जाति-जतो दंसण-णाणसीले।। 6/14।। वे वैशालिक, त्रिशलानंदन, ज्ञातपुत्र - "खत्तीण सेहे जह दंतवक्के, इसीण सेढे तह वड्ढमाणे" हैं। (6/22)।
भगवती, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथांग, कल्पसूत्र आदि अर्धमागधी के सूत्र-ग्रन्थ महावीर के धर्म-दर्शन के रहस्य का उद्घाटन करते हैं। बुद्ध के विनयपिटक, मज्झि-निकाय, दीर्घनिकाय, महापरिनिव्वाण, पासादिक, सुत्तनिपात आदि में महावीर के जीवन का विवेचन है। ___ भारतीय सांस्कृतिक-मूल्यों की स्थापना में महावीर का अपूर्व-योगदान है। उनकी सूझ-बूझ के फलस्वरूप ही तत्कालीन समाज में व्याप्त हिंसक-प्रवृत्तियों को विराम दिया गया। उन्होंने सभी को एक-सूत्र में जोड़ने का कार्य किया। उनके समकालीन केशकंबली, मक्खली-गोशालक, पकुद्ध-कच्चायन, पूरण-कश्यप, संजय वेलट्ठिपुत्त और तथागत बुद्ध भी थे। जितने दिन उतने ही मत-मतान्तरों के बीच महावीर धर्म और दर्शन की स्वस्थ्य परम्परा को देने में समर्थ हुए। उन्हे सुव्यवस्थित करने के लिए आदर्श समन्वय की व्यवस्था दी। वे स्वयं प्रयोगवादी बने, जिससे अनुगमनशील को गति ही गति, प्रगति ही प्रगति और सामाजिक धरातल को उच्च-आदर्श की आध्यात्मिक-दृढ़ता भी प्राप्त हुई।
जीवन-कला – जीवन जीने की कला भी महावीर के प्राकृत-साहित्य में इसके लिये विनय, वैराग्य, संयम, इंद्रिय-निग्रह, मनोनिग्रह, राग-द्वेष आदि की विजय भी आवश्यक है।
00 108
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org