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________________ तक ले जानेवाली है। जो तीर्थंकर ऋषभ के समय मरीचि' के भव में थे, जो ऋषभ के प्रौत्र रूप में रहे, जिन्होंने ऋषभदेव की देशना का पारायण किया और भव-भवान्तर के पश्चात् वैशाली-गणतन्त्र को सफल करने में समर्थ हुए। वैशाली' गणतन्त्र की शोभा कुण्डग्राम के नरेशसिद्धार्थ से थी। उन्होंने जहाँ इसकी समृद्धि में योगदान दिया, वहीं प्रियकारिणी त्रिशला को अपार-सम्पदा प्रदान की। लगभग 2600 सौ वर्ष पूर्व त्रिशला के गर्भ से जो बालक उत्पन्न हुआ, वह वैशाली' गणराज्य में गर्भ से लेकर जन्म तक सभी समृद्धियों में योगदान देता रहा, जिसे 'वर्धमान' कहने में किसी ने चूक नहीं की। तीर्थकर पार्श्व के 278 वर्ष पश्चात् ईसा पूर्व 599 आषाण शुक्ल षष्ठी शुक्रवार 17 जून 'हस्त' नक्षत्र में वैशाली के प्रमुख-शासक चेटक की पुत्री, जिसका नाम 'त्रिशला' था, वही सिद्धार्थ की सहचरी बनीं, जिससे ईसापूर्वक 599 के चैत्र'मास के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी के उत्तराफाल्गुनी' नक्षत्र में 27 मार्च, सोमवार के दिन 'अर्यमा' योग में सुन्दर बालक को जन्म दिया। इस आत्मज्ञानी की अद्भुत लीलायें थीं। जिसमें अपूर्व-साहस था, बुद्धि-विशालता, आत्मविश्वास, आत्मशक्ति आदि भी। वे वीर, अतिवीर, सन्मति और महावीर भी कहलाने लगे। इसे आत्मज्ञ ने आठ वर्ष में ही दर्शन के सूत्र को दे दिया था। तत्त्वविषयक-शंका का समाधान भी देखने मात्र से है। फिर वह कैसा होगा और उसका चिन्तन क्या कह रहा होगा? वर्धमान ‘णमो वड्ढमाण-बुद्ध-रिसिस्स" षट्खंडागम की 'धवला' टीका में जो सूत्र दिया है, उससे यह स्पष्ट है कि जो वर्धमान हैं, वे वर्धमान बुद्ध भी हैं और ऋषि भी हैं । गुणों की वृद्धि के कारण वर्धमान, पूर्णज्ञान की प्राप्ति से बुद्ध/केवलज्ञानी/सर्वज्ञ हैं और अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तबल के वैभव से 'ऋषि' हैं, उन वर्धमान बद्धर्षि के लिए नमन/इसके टीकाकार ने इस विषय में स्पष्ट कथन किया है कि वर्धमान बुद्ध हैं, वे धर्मपथ के नायक हैं, तीर्थकर हैं और समस्त लोक को देखने वाले सर्वज्ञ भी हैं। उन्हें 'वर्धमान भट्टारक' भी कहा है। वे तीर्थप्रवर्तक हैं, तीर्थकर्ता हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में कहा एस सुरासुर-मणुसिंद-वंदिदं, धोद धादि-कम्म-मलं। पणमामि वड्ढमाणं, तित्थं धम्मस्स कत्तारं ।। अर्थात् घातिया-कर्मरहित, देव-असुर-चक्रवर्तियों द्वारा वंदित, धर्मतीर्थ (श्रावक-श्राविका, साधु-साध्वी) के कर्ता वर्धमान को प्रणाम करता हूँ। 'धवला' टीका पुस्तक एक खण्ड चार में वर्धमान के जन्म से लेकर मुक्तिपथ तक का सम्पूर्ण-चित्रण है। यतिवृषभाचार्य ने तिलोयपण्णत्ति' नामक ग्रन्थराज में वर्धमान' को 'वीर' प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 107 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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