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________________ 'विणए ठवेज्ज अप्पाणं, इच्छंतो हियमप्पगो। – (उत्तराध्ययनसूत्र 1/6) हितेच्छुक विनय में स्थित हो, ताकि 'सीलं पडिलभेज्जओ' शील की ओर अग्रसर होते रहे। वैराग्य - 'माणुसत्ते असारम्मि, वाहिरोगाण आलए' आदि का बोध कराता है। संयम – ‘मवासंजमे वइसंजमे कायसंजमे उवगरणसंजमे।' – (स्था. 4/2) को निग्रह पर बल देता। यदि श्रमण हैं, तो 'सयणे अ जणे अ समो, समो अ माणावमाणेसु' - (अनु. 132) मान-अपमान आदि में समभाव रखें। 'उवसमसारं खु सामण्णं । - (वृहत्कल्प 1/35) श्रमणत्व का सार उपशम है। 'कालं अणवकंखमाणे विहरइ। - (उपासकदशांग 1/73) आत्मार्थी-साधक काले के आने पर अनपेक्ष बना रहता है। धर्म-दर्शन :- महावीर का धर्मदर्शन मानवीय-मूल्यों की स्थापना करता है, वह अभाव है, दुराग्रह, दु:ख, अशान्ति, अनाचार आदि से दूर, बहुत दूर ले जाता ही नहीं; अपितु उनसे पृथक ही कर देता है। वह 'जा जा वच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई अहम्म कुणमाणस्स, अफला 'जंति राइणो।' - (उत्त. 14/24) से पृथक् सफलता जंति राइणो' --- (उत्त. 14/25) का उद्घोष देता है। 'आयतुले पयासु' – जैसा 'सूत्रकृतांग' का सूत्र भी दे जाता है और इस बात की शिक्षा दे जाता है कि 'आत्म-तुल्य भाव' हो ताकि सभी प्राणी सुखी रह सकें। 'अप्पणा सच्चमेसिज्जा' — (उत्त. 6/2) यही अपने सत्य अर्थात् आत्मविशुद्ध-मार्ग की ओर ले जा सकता है। णाणस्स सव्वस्स पगासणाए अण्णाणमोहस्स विवज्जणाए। रागस्स दोसस्स य संखएणं एगंत सॉक्खं समुवेइ मोक्खं ।। -(उत्त. 32/2) सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाश से, अज्ञान और मोह के त्याग से, राग-द्वेष के क्षय से व्यक्ति अनंतसुख-रूप मोक्ष प्राप्त कर लेता है। शिक्षा और व्यवहार : --- मनुष्य को मनुष्य, मनुष्य जन्म की सार्थकता, भाषा विवेक, विषयभोग-विमुक्ति, अज्ञान, प्रमाद की समाप्ति आदि प्राकृत-साहित्य में है। इसमें है. कधं चरे कधं चिट्टे कधमासे कधं सए। कधं भुजेज्ज भासेज्ज कधं पावं ण बज्झदि।। 70।। अर्थ :- किस प्रकार चलना चाहिये या आचरण करना चाहिये, किस प्रकार ठहरना चाहिये, कैसे बैठना चाहिये, किस प्रकार सोना चाहिये, कैसे भोजन करना चाहिये और किस प्रकार भाषण करना चाहिये, जिससे कि पाप का बन्ध न हो? जदं चरे जदं चिट्टे जनमासे जदं सए। जदं भुंजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झदि ।। 71 ।। अर्थ :- यत्नपूर्वक चलना चाहिये, यत्नपूर्वक ठहरना चाहिये, यत्नपूर्वक बैठना चाहिये, यत्नपूर्वक सोना चाहिये, भोजन करना चाहिये और यत्नपूर्वक भाषण करना चाहिये, इसप्रकार पाप का बन्ध नहीं होता।। 71 ।। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 109 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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