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महावीर की अचेलक - परम्परा
- श्रीमती मंजूषा सेठी
यह एक व्यापक ऊहापोह का विषय बना हुआ है, कि भगवान् महावीर और उनकी परम्परा मूलत: 'सचेलक' थी या 'अचेलक' ? अपने-अपने सम्प्रदाय के लोग अपनी मान्यतानुसार प्ररूपण करते हैं, किन्तु सामान्यजन और आज के नई पीढ़ी के लोग सत्य और तथ्य को निष्पक्ष - रीति से प्रमाणों के आलोक में जानना चाहते हैं । प्रस्तुत आलेख में विदुषी - लेखिका ने यथासंभव श्रम और अनुसंधानपूर्वक तथ्यात्मक रीति से इस सम्बन्ध में प्रतिपादन किया है । आशा है प्राकृतविद्या के जिज्ञासु पाठकवृन्द इस आलेख को अपनी सूक्ष्मदृष्टि से परखकर उचित दिशाबोध प्राप्त कर सकेंगे ।
-सम्पादक
“णग्गो हि मोंक्खमग्गो” अर्थात् नाग्न्य ही मोक्षमार्ग है। आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा कथित, परंतु पूर्वपरम्परा से चलते आए इस मार्ग पर अनेकों साधु अग्रसर थे, अग्रसर हैं, अग्रसर रहेंगे। केवल वस्त्रों का त्याग करने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है क्या? आचार्य कहते हैं जैसे 'ताल' शब्द से सभी वनस्पतियाँ कही जाती हैं। 'ताल का फल नहीं खाना चाहिए' -- ऐसा कहने पर 'सभी वनस्पतियों का फल नहीं खाऊँगा' – ऐसा जाना जाता है इसीतरह वस्त्र के त्याग से सभी तरह के परिग्रह का त्याग होता है । अन्तर्बाह्य से पूर्णदिगम्बर हु बिना निर्ग्रन्थत्व की पूर्णता कदापि संभव नहीं है ।
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अचेलक परम्परा :- महावीर से पहले तथा महावीर के बाद चली आ रही जो परम्परा आज तक खंडित नहीं हुई है, वह है अचेलकता । जिसे जैन धर्म के आदिप्रवर्त्तक ऋषभदेव भगवान् से लेकर महावीर - पर्यंत सभी तीर्थकरों ने इसी को मोक्षमार्ग का साधन मानकर अपनाया और मोक्ष की प्राप्ति की । महावीर के पश्चात् भी गौतम स्वामी, आचार्य भद्रबाहु, आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य पूज्यपाद, आचार्य उमास्वामी से लेकर आचार्य शांतिसागर, आचार्य देशभूषण, आचार्य विमलसागर, आचार्य विद्यानन्द, आचार्य वर्धमानसागर आदि अनेकों साधुओं ने इस परम्परा का गौरव बढ़ाया है। हमारे पूजनीय, आदर मुनि इस अचेलकत्व का कठोर पालन करते है । इनके आचरण से इनका तप में अटूट- - विश्वास प्रकट होता हैं । अध्यात्म का सहारा लेकर मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर होनेवाले ये साधु चलते-फिरते धर्म हैं, इनके रोम-रोम में धर्म है, इनकी प्रत्येक क्रिया में धर्म है ।
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प्राकृतविद्या + जनवरी - जून 2002 वैशालिक - महावीर - विशेषांक
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