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________________ महावीर का शासन :- “संयम-मार्ग में प्रवृत्ति करनेवाले जिससे समर्थ बनते हैं, वह कल्प' कहलाता है।" भगवान् महावीर ने भेद-प्रभेद सहित दो प्रकार का कल्प' मुनियों के लिए बताया है- (1) जिनकल्प, (2) स्थविरकल्प। 1.जिनकल्प -- बाह्याभ्यंतर-परिग्रह से रहित, स्नेह-रहित, निस्पृही, जिन के समान (तीर्थंकर के समान) विचरण करते हैं, ऐसे ही श्रमण जिनकल्प' में स्थित कहलाते हैं, 'जिनकल्प' इस समय विच्छिन्न हो चुका है। 2. स्थविरकल्प- यह दो प्रकार का कहा गया है। स्थितकल्प और अस्थितकल्प। प्रथम और अन्तिम-तीर्थंकर का शासन स्थितकल्प' और शेष 22 तीर्थंकर का शासन 'अस्थितकल्प' है। इस समय अन्तिम तीर्थंकर महावीर का शासन है। इनके शासन में 'स्थितकल्प' कहा जाता है। यह दस प्रकार है “आचेलक्कुद्देसियसेंज्जाहररायपिंडकिरियम्मे। वदजेट्ठपडिक्कमणे मासं पज्जोसवणकप्पो।।" _-(भगवती आराधना, 423) अर्थ :- "आचेलक्य, औद्देशिक का त्याग, शय्यागृह का त्याग, राजपिण्ड का त्याग, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठता, मास और पर्युषणा —ये दस स्थितकल्प' हैं।" मुनियों की चारित्रशुद्धि के हेतुओं का कथन करते हुए आचार्य वट्टेकर-प्रणीत 'मूलाचार' में चार प्रकार के लिंग का विवेचन किया है। इसमें भी अचेलता को प्रथम-स्थान दिया है “अच्चेलक्कं लोचो वोसट्टसरीरदा य पडिलिहणं । एसो हु लिंगकप्पो चदुविधो होदि णादव्वो।।" - (मूलाचार 910) अर्थ :- नग्नत्व, लोच, शरीरसंस्कारहीनता और पिच्छिका यह चार प्रकार का लिंगभेद जानना चाहिए। ऐसे अनेक उदाहरण आगमशास्त्र में दिये गये हैं, जिससे अचेलता का महत्त्व प्रकट होता है। ... आचेलक्य— जिसके चेल' अर्थात् वस्त्र न हो, वह 'अचेल' कहलाता है। अचेल का भाव आचेलक्य या अचेलता है। सामान्यत: 'चेल' वस्त्र को कहते हैं; किन्तु यहाँ 'चेल' का ग्रहण परिग्रह' का उपलक्षण है, अत: समस्त परिग्रह के त्याग को 'आचेलक्य' कहते हैं। जब आचेलक्य का बात आती है, तो एक सवाल खड़ा हो जाता है - क्या श्वेतांबरपंथी महावीर के अनुयायी नहीं है। जैनधर्म के मुख्यत: दो संप्रदाय है— दिगम्बर और श्वेताम्बर। दोनों ही पंथों के साधु परिग्रहत्याग-महाव्रत के धारी कहे गये हैं। केवल अचेलता के कारण ही दोनों में मुख्य-भेद पैदा हुआ है। दिगम्बर-साधु तो नग्न रहते हैं। नग्नता उनके मूलगुणों में से एक है; किन्तु श्वेताम्बर-साधु वस्त्र धारण करते हैं और वस्त्र को संयम प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 10 111 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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