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का साधन मानते हैं।
यद्यपि 'आचारांग' में कहा है कि भगवान महावीर प्रव्रजित होने के तेरह महीने पश्चात नग्न हो गये। 'स्थानांग' में महावीर के मुख से कहलाया है—“मए समणाण अचेलते धम्मे पण्णत्ते।” अर्थात् मैंने श्रमणों के लिए अचेलता-धर्म कहा है। 'दशवैकालिक' में भी नग्नता का उल्लेख है। उत्तराध्ययन सूत्र' में नग्नता को 'छठा-परिषह' कहा है। किन्त उत्तरकालीन टीकाकारों ने अचेलता का अभिप्राय अल्पमूल्य के मलिन, जीर्ण और प्रमाणयुक्त वस्त्रों का धारण करे —ऐसा किया। ___ आचेलक्य के लाभ--- दिगम्बर-आम्नाय के आगम में तो आचेलक्य के अनेक लाभ गिनाये हैं, परंतु श्वेताम्बर आम्नाय के आगम स्थानांगसूत्र' में भी नग्नता के अनेक लाभ बताये हैं, जैसे अल्प-प्रतिलेखना, लाघव, विश्वास का रूप, जिनरूपता का पालन आदि।
दोनों आम्नायों के आगम में उल्लिखित-लाभों के साथ-साथ अचेलता से संक्षेप से दसप्रकार के धर्मो का कथन होता है। वह किस प्रकार इसे देखते हैं
(i) उत्तम क्षमा- अचेल के अदत्त का त्याग भी सम्पूर्ण होता है, क्योंकि परिग्रह की इच्छा होने पर बिना दी हुई वस्तु के ग्रहण करने में प्रवृत्ति होती है, अन्यथा नहीं होती। तथा राग आदि का त्याग होने पर भावों की विशुद्धि बनी रहती है। परिग्रह के निमित्त से क्रोध होता है। परिग्रह के अभाव में उत्तम क्षमा' रहती है।
(ii) उत्तम मार्दव— 'मैं सुंदर हूँ, संपन्न हूँ' – इत्यादि मद अचेल के नहीं होते, अत: उसके 'मार्दव' भी होता है।
(iii) उत्तम आर्जव— अचेल अपने भाव को बिना किसी छल-कपट को प्रकट करता है, अत: उसके 'आर्जव धर्म' भी होता है; क्योंकि माया के मल परिग्रह का उसने त्याग किया
(iv) उत्तम सत्य- जो परिग्रह-रहित होता है, वह सत्यधर्म में भी सम्यक रूप से स्थित होता है। क्योंकि परिग्रह के निमित्त ही दूसरे से झूठ बोलना होता है। बाह्य-परिग्रह क्षेत्र आदि तथा अभ्यन्तर-परिग्रह रागादि के भाव में झूठ बोलने का कारण नहीं है। अत: बोलने पर अचेल-मुनि सत्य ही बोलता है। इससे ‘सत्य-धर्म' का पालन होता है।
(v) उत्तम शौच धर्म- लोभ-कषाय के अभाव में होता है। लोभ सभी पापों को करानेवाला है। आशा, इच्छारूपी पाश भयानक-दुःखों को देनेवाला है, अत: संतोष को धारण करनेवाले जीव सुख को प्राप्त करते हैं। इस जीव की शुचिता (पवित्रता) शील, जप, तप, ज्ञान, ध्यान के प्रभाव से होती है। हमेशा गंगा, यमुना आदि नदियों में एवं समुद्र में भी स्थान करने से शुचिता अर्थात् पवित्रता नहीं होता, क्योंकि इस शरीर का स्वभाव ही अपवित्र है। यह ऊपर तो अत्यंत निर्मल दिखाता है, परंतु इसके अंदर मल भरा हुआ है —ऐसे शरीर को किसप्रकार पवित्र कहा जा सकता है? जिनका शरीर तो मलिन है, पर जो गुणों के भंडार
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प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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