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________________ है —ऐसे महाव्रती-साधु ही इस 'शौच-गुण' को प्राप्त करते हैं। (vi) संयम- अचेलकता में संयम की शुद्धि एक एक गुण है। अचेल का सम्पूर्ण आचरण ही संयमित होता है। हर क्रिया में संयम होता है। पसीना, धूलि और मैल से लिप्त वस्त्र में उसी योनिवाले और उसके आश्रय से रहनेवाले त्रस-जीव तथा सूक्ष्म और स्थूलजीव उत्पन्न होते है, उस वस्त्र धारण करने से उनको बाधा पहुँचती है। यदि कहोगे कि "ऐसे जीवों से संबद्ध वस्त्र को अलग कर देंगे”, तो भी उनकी हिंसा होगी, क्योंकि उन्हें अलग कर देने से वे वहाँ मर जायेंगे। जीवों से युक्त वस्त्र धारण करनेवाले के उठने, बैठने, सोने, वस्त्र को फाड़ने, काटने, बाँधने, वेष्टित करने, धोने, कूटने और धूप में डालने पर जीवों को बाधा होने से महान् असंयम होता है। जो अचेल होता है, उसके इसप्रकार का असंयम न होने से 'संयम' की विशुद्धि होती है। (vii) तप— हर प्रकार के भौगोलिक, प्राकृतिक वातावरण में साधु अपने आपको रखता है। सर्दी, गर्मी, वायु आदि के विषमतम-परिस्थिति का सामना करना ही अपने आप में बहुत बड़ा तप है। परिग्रह से मुक्त होने से शीत, उष्ण, डाँस, मच्छर आदि परिषहों को साधु सहता है। अत: वस्त्र-त्याग को स्वीकार करने से घोर तप' होता है। (viii) त्याग— दशधर्मों में 'त्याग' नामक एक धर्म है। समस्त परिग्रह से विरति को त्याग कहते है, वही अचेलता भी है। अत: हमारे साधु 'त्याग' नामक धर्म में प्रवृत्त होते हैं। क्योंकि माया के मूल 'परिग्रह' का उसने त्याग किया है। बाह्य वस्त्र आदि परिग्रह का त्याग अभ्यंतर-परिग्रह के त्याग का मूल है। (ix) आकिंचन्य— परिग्रह के 24 भेद हैं, उनका त्याग (व्यवहार आकिंचन्य) हमारे साधु करते हैं और तृष्णाभाव को नष्ट करते हैं (निश्चय आकिंचन्य)। परिग्रह चिन्ता, दु:ख के ही पर्याय है। जैसे छोटी-सी फाँस भी पूरे शरीर को दुःखी कर देती है, उसीप्रकार लंगोटी का आवरण या लंगोटी कि चाह दु:ख को देनेवाली होती है। और हमारे साधु अचेल रहकर समता और सुख को प्राप्त कर लेते हैं। (x) ब्रह्मचर्य— अचेलकता का महत्त्वपूर्ण गुण है 'इंद्रियों को जीतना' । साधु व्यवहारब्रह्मचर्य और निश्चय-ब्रह्मचर्य दोनों में ही तत्पर रहते हैं। राग आदि का त्याग होने पर भावों की विशुद्धिरूप ब्रह्मचर्य भी अत्यंत-विशुद्ध होता है। सर्पो से भरे जंगल में विद्या-मंत्र आदि से रहित पुरुष दृढ़-प्रयत्न से खूब सावधान रहता है। उसीप्रकार जो अचेल होता है, वह भी इंन्द्रियों को वश करने का पूरा प्रयत्न करता है। ऐसा न करने पर शरीर में विकार हुआ, तो लज्जित होना पड़ता है। • अचेलकता के उर्वरित-गुणों के अलावा भी अनेक गुण अचेल के होते हैं, जिनके कारण उनका व्यक्तित्त्व प्रभावशाली होता है, तथा लोगों का उनके प्रति आदर, विश्वास कई गुना बढ़ता है। प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 113 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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