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________________ तथापि पञ्चवटी में राम (अकारण परित्याग करनेवाले) को देखकर उनका हृदय करुणाद्रित हो जाता है। वह राम से प्रतिशोध लेता तो दूर उनकी उलाहना भी सुनना नहीं चाहती हैं तथा राम के मूर्छित होने पर अपने कर स्पर्श से उन्हें संचेतना प्रदान करती है। जब वासन्ती राम को उलाहना देती है, तब वह कहती है त्वमेव सखि वासन्ति, दारुणा कठोरा च........। ___ इसप्रकार सीता के इस कारुणिक व्यवहार में अहिंसा ही वह परम-तत्त्व है, जो उन्हें अपने अपकारी से प्रतिकार लेने के लिए उद्वेलित होने से बचाता है तथा अपकारी के प्रति उपकारी-दृष्टि अपनाने के लिए प्रेरित करता है। 'वाल्मीकि रामायण' का समापन राम और सीता के वियोग से होता है, परन्तु इस वियोग को भवभूति हिंसा समझते हैं तथा 'वाल्मीकि रामायण' की कथा में परिवर्तन पर अपने 'उत्तररामचरित' का समापन राम और सीता के संयोग से करते हैं। भवभूति का सम्पूर्ण उत्तररामचरित' करुणा से ओत-प्रोत है। इस करुणा के मूल में उनका अहिंसक-चिन्तन काम कर रहा है। इसप्रकार भगवान् महावीर ने जिस अहिंसा-वृक्ष का पल्लवन किया उसकी शीतल-छाया दिदिगन्तर में व्याप्त है। परवर्ती सभी रचनाओं में अहिंसा-दर्शन का प्रभाव साफ-साफ दिखता है। संदर्भग्रंथ-सूची 1. महाभारत, पं. रामचंद्रशास्त्री किंजवडेकर, अनुशासन पर्व, 115/25,116/38-391 2. वही, 116/40-42 1 3. मत्स्यपुराण, सं.-डॉ. पुष्पेन्द्र, 106/48। 4. नारदपुराण, सं.-डॉ. चारुदेव शास्त्री, नाग प्रकाशन, 16/26 1 5. वाल्मीकि रामायण, निर्णय सागर प्रेस, वालकाण्ड, 2/15 1 6. आचार्य अमितगति, भावनाद्वात्रिंशका। 7. उत्तररामचरित, डॉ. कपिलदेव द्विवेदी, 1/28। 8. वही, 3/47। 9. वही, 1/11 | 10. वही, 1/12। 11. वही, 3/1 । 12. वही, पृ. 1191 13. वही, 2/8 1 14. वही, 2/101 15. वही, 3/4। 16. वही, पृ. 216। जैनधर्म का प्रवर्तन आचार्य धर्मकीर्ति ने न्यायबिन्दु पृ. 126, पं. 18 तथा पृ. पं. 128, पं. 19 में जैनियों के तीर्थंकर ऋषभ का उल्लेख दोनों स्थल पर तथा वर्धमान का उल्लेख प्रथम-स्थल पर किया है। इससे प्रगट होता है कि उनके समय आठवीं शताब्दी में भी जैनेतर-विद्वान् जैनधर्म का प्रथम-उपदेश देनेवाला भगवान् ऋषभदेव को ही समझते थे, न कि भगवान् वर्धमान को। जैनधर्म का प्रथम-उपदेष्टा भगवान् महावीर या पार्श्वनाथ को कहने की धारणा पाश्चात्य-ऐतिहासिकों के ही मस्तिष्क की उपज विदित होती है। __-(न्यायबिन्दु', प्रकाशक-चौखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, पृ. 32) प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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