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जैनधर्म की परम्परा और तीर्थंकर ऋषभदेव
- मधुसूदन नरहर देशपाण्डे
- जैनधर्म की गणना भारत के प्राचीनतम धर्मों में है। जैन-परम्परा के अनुसार धर्म शाश्वत है और चौबीस तीर्थंकरों द्वारा अपने-अपने युग में प्रतिपादित होता रहा है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे और अन्तिम थे वर्धमान महावीर । महावीर के निर्वाण अर्थात् 527 ई. पूर्व लगभग 250 वर्ष पहले तीर्थंकर पार्श्वनाथ के काल का निर्धारण किया जाता है । जहाँ व्यवस्थित रूप से पुरातात्त्विक उत्खनन हुआ है, उन वाराणसी, अहिच्छत्र, हस्तिनापुर और कौशाम्बी नगरों का इतिहास, वहाँ से प्राप्त मृत्तिमा-भाण्डों तथा भूरे रंग के चित्रित मिट्टी के बड़े बर्तनों के आधार पर छठी शती ई. पूर्व से कुछ शती पूर्व तक निश्चितरूप से जा पहुँचता है। इसलिए यह सम्भावना बन पड़ती है कि यह स्थान पार्श्वनाथ के क्रियाकलापो से सम्बद्ध रहा है।
तथापि जब हम पार्श्वनाथ से पहले के समय की बात करते हैं, तब एक-एक तीर्थकर के समयान्तराल और उनके चरित्र-वर्णन के सम्बन्ध में आख्यानों के एक साम्राज्य में ही पहुँच जाते हैं।
प्रथम-तीर्थंकर के सम्बन्ध में परम्पराओं पर विचार करते हुए डॉ. हीरालाल जैन ने 'भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान' में वैदिक और पौराणिक दोनों सन्दर्भो का उल्लेख किया है। वैदिक परम्परा का सर्वप्रथम उल्लेख 'ऋग्वेद' संहिता के दसवें मण्डल (2-3) में मिलता है, जिसमें वातरशन मुनियों को मलिन (पिशंग) बताया गया है। वेद और 'भागवत पुराण' में वर्णित इन मुनियों का विवरण जैन मुनिचर्या की विशिष्ट प्रकृति और प्राचीनता को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है।
भारतीय रहस्यवाद के विकास की रूपरेखा देते हुए आर.डी. रानाडे' ने 'भागवत पुराण' (स्कंद 5, श्लोक 5-6) से एक अन्य प्रकार के योगी का मनोरंजक-प्रसंग उद्धृत किया है, जिसकी परम विदेहता ही उसकी आत्मानुभूति का स्पष्टतम-प्रमाण था। उद्धरण यह है : 'हम पढ़ते हैं कि अपने पुत्र भरत को पृथ्वी का राज्य सौंपकर किसप्रकार उन्होंने संसार से निर्लिप्त और एकांत जीवन बिताने का निश्चय किया; कैसे उन्होंने एक अन्धे, बहरे या गूंगे मनुष्य का जीवन बिताना आरम्भ किया; किस प्रकार वे नगरों और ग्रामों में, खानों
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प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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