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________________ और उद्यानों में, वनों और पर्वतों में समान मनोभाव से रहने लगे; किस प्रकार उन्होंने उन लोगों से घोर अपमानित होकर भी मन में विकार न आने दिया। यह विवरण वस्तुत: जैन-परम्परा के अनुरूप है, जिसमें उनके आरम्भिक जीवन के अन्य-विवरण भी विद्यमान हैं। कहा गया है कि उनकी दो पत्नियाँ थीं'—सुमंगला और सुनन्दा; पहली ने भरत और ब्राह्मी को जन्म दिया और दूसरी ने बाहुबली और सुन्दरी को। भरत के और भी अट्ठानवें सगे भाई थे। इस परम्परा से हमें यह भी ज्ञात होता है कि ऋषभदेव बचपन में जब एक बार पिता की गोद में बैठे थे, तभी हाथ में इक्षु (गन्ना) लिये वहाँ इन्द्र आया। गन्ने को देखते ही ऋषभदेव ने उसे लेने के लिए अपना मांगलिक लक्षणों से युक्त हाथ फैला दिया। बालक की इक्षु के प्रति अभिरुचि देखकर इन्द्र ने उस परिवार का नाम 'इक्ष्वाकु' रख दिया। इस परम्परा से यह भी ज्ञात होता है कि विवाह-संस्था का आरम्भ सर्वप्रथम ऋषभदेव ने किया था। कहा गया है 'असि' और 'मसि' का प्रचलन भी उन्होंने किया। कृषि के प्रथम जनक भी वही बताये गये हैं। ब्राह्मी लिपि' और मसि (स्याही) से लेखन की कला भी उन्हीं के द्वारा प्रचलित की गयी। एक बात पूर्णतया निश्चित है कि भारत में साधुवृत्ति अत्यन्त पुरातन-काल से चली आ रही है और जैन-मुनिचर्या के जो आदर्श ऋषभदेव ने प्रस्तुत किये वे ब्राह्मण-परम्परा से अत्यधिक भिन्न हैं। यह भिन्नता उपनिषद्काल में और भी मुखर हो उठती है, यद्यपि साधुवृत्ति की विभिन्न शाखाओं के विकास का तर्कसंगत प्रस्तुतीकरण सरल बात नहीं है। रानाडे का कथन है कि इस मान्यता के प्रमाण हैं कि उपनिषद्कालीन दार्शनिक विचारधारा पर इस विलक्षण और रहस्यवादी आचार का पालन करनेवाले भ्रमणशील-साधुओं और उपदेशकों का व्यापक प्रभाव था। जैसाकि कहा जा चुका है, उपनिषदों की मूल-भावना की संतोषजनक-व्याख्या केवल तभी सम्भव है, जब इसप्रकार सांसारिक बन्धनों के परित्याग और गृहविरत भ्रमणशील-जीवन को अपनानेवाली मुनिचर्या के अतिरिक्त-प्रभाव को स्वीकार कर लिया जाये।' रिस डेविड्स का अनुमान है कि जिन वैदिक अध्येताओं या ब्रह्मचारियों ने भ्रमणशील-साधु का जीवन बिताने के लिए गृहस्थ-जीवन का परित्याग किया, उनके द्वारा साधुचर्या उतने उदार मानदण्डों पर गठित नहीं की जा सकी होगी, जो मानदण्ड जैन-मुनिचर्या के थे। ड्यूसन के मतानुसार, परम्परा का विकास इससे भी कम स्तर पर इसप्रकार के प्रयत्न द्वारा हुआ होगा, जिसमें कि व्यावहारिक परिधान को आत्मज्ञान जैसे आध्यात्मिक-सिद्धान्त से जोड़ा गया हो और जिसका उद्देश्य था— (1) सभी वासनाओं और उनके फलस्वरूप सबप्रकार के नीतिवरुद्ध-आचार का सम्भावित निराकरण, जिसके लिए सन्यास या परित्याग ही सर्वाधिक उपयोगी साधन था, और (2) प्राणायाम और ध्यान-योग के यथाविधि परिपालन से उत्पन्न निरोध-शक्ति के द्वारा द्वैत की भावना का निराकरण । नियमित आश्रम या जीवन के सर्वमान्य-व्यवहार के रूप में जो प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 135 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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