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यहाँ स्नेह, दया, सौख्य और आवश्यकता पड़ने पर अर्धागिनी सीता का भी परित्याग करके प्रजानुरञ्जन की प्रतिज्ञा में अहिंसा का अप्रत्यक्ष, परन्तु प्राणपद निदर्शन होता है। अपने सुख-दुःख की चिन्ता किये बिना दूसरों को प्रसन्न रखना ही अहिंसा है। इस दृष्टि से राम की प्रजानुरञ्जन की प्रतिज्ञा वस्तुत: अहिंसाव्रत के पालन की प्रतिज्ञा है। वे लोकानुरञ्जन के लिए लेशमात्र भी अपनी चिंता नहीं करते हैं। वे अपने समस्त सौख्यों के साथ प्राणप्रिया सीता का भी परित्याग करने की प्रतिज्ञा करते हैं। इससे बड़ी अहिंसा क्या हो सकती है?
राम अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार सीता का परित्याग भी कर देते हैं। परन्तु एक बड़े साम्राज्य की प्रजा के अनुरञ्जनार्थ एक व्यक्ति अर्थात् सीता का परित्याग राजसिद्धान्त के अनुसार भले ही उचित हो, परन्तु भगवान् महावीर के अहिंसा-दर्शन के अनुसार यह भी हिंसा है। राम का कारुणिक हृदय भी इसे हिंसा मानता है। वे अपने इस कार्य को 'अति-बीभत्सकर्म' कहते हैं तथा स्वयं को 'अपूर्वकर्म-चण्डाल' कहते हैं। वे इसे एक गम्भीर हिंसा मानते हैं तथा इस हिंसा के पश्चात्ताप में उनका हृदय अन्दर ही अन्दर दग्ध होने लगता है। वे अन्दर ही अन्दर जलकर पुटपाक के समान दग्ध हो जाते हैं, परन्तु अपनी मर्यादा के कारण उसको प्रस्फुटित नहीं होने देते हैं....
अनिर्भिन्नो गभीरत्वादन्तर्गुढघनव्यथः ।
पुटपाकप्रतीकाशो रामस्य करुणो रस:।।" द्वितीय अंक में साम्राज्य के धर्मविप्लव को रोकने के लिए एक व्यक्ति अर्थात् शम्बूक की हत्या की गई है। यह हत्या तत्कालीन राज्य-व्यवस्था के अनुसार भले ही अनुकूल हो, परन्तु भगवान् महावीर के अहिंसा-दर्शन के परिप्रेक्ष्य में यह हिंसा ही है। राम की दृष्टि में भी यह अनर्थ है, हिंसा है। तभी तो उनकी भुजायें शम्बूक की हत्या करने के लिए तैयार नहीं है
रे हस्त ! दक्षिण मतस्य शिशोर्द्विजस्य । जीवातवे विसृज शूद्रमनौ कृपाणम् ।। रामस्य गात्रमसि निर्भरगर्भखिन्न
सीताविषासनपटो: करुणो कृतस्ते।। इसप्रकार महाकवि भवभूति ने शम्बूक-प्रसंग के माध्यम से अहिंसा का पाठ पढ़ाया है, जो अद्वितीय है।
तृतीय अंक में अकारण परित्यक्त सीता पञ्चवटी में शोक के कारण साक्षात् करुणा के समान हो जाती हैं
करुणस्य मूर्तिरथवा शरीरिणी। विरहव्यथेव वनमेति जानकी।।
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प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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