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________________ पारिवारिक - रथ की एक प्रमुख संवाहिका थी । समाज एवं परिवार की सुव्यवस्था एवं अनुशासन में उसका प्रारम्भ से ही प्रमुख हाथ रहा है। गृहस्थ एवं मुनिधर्म का निर्वाह उसके सक्रिय-सहयोग के बिना सम्भव नहीं हो सकता, अतः महावीर ने पूर्वागत जैन- परम्परानुसार ही 'चतुर्विध- संघ' में श्रावक के साथ श्राविका ( महिलाओं) तथा साधु के साथ साध्विय (महिलाओं) को गरिमापूर्ण स्थान देकरं उन्हें समाज में प्रतिष्ठित किया तथा समानाधिकार प्रदान किया। पारिवारिक जीवन में उन्हें पुत्र के साथ बराबरी से सम्पत्ति प्राप्त करने का भी समानाधिकार दिया गया, जैसा कि आचार्य जिनसेन ने लिखा है : पुत्र्यश्च संविभागार्हाः समं पुत्रैः समांशकै: । – (154) अर्थात् पुत्रों की भाँति पुत्रियाँ भी पिता की सम्पत्ति की बराबरी के भाग की अधिकारिणी होती हैं । महावीर - युग में वैदिक - शास्त्रों में महिलाओं को वेदादि के अध्ययन करने का अधिकार नहीं दिया गया था, जैसा कि उल्लेख मिलता है—“स्त्री - शूद्रौ नाधीयताम् "; किन्तु जैनसिद्धान्तानुसार महिलायें आगम-शास्त्रों का अध्ययन कर सकती थीं । इसीप्रकार क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र-कन्यायें जहाँ वैदिक - पूजायें नहीं रचा सकती थीं, वहीं पर उन्हें जैन-पू - पूजा करने का पूर्ण-स्वातन्त्र्य प्राप्त था । महावीर ने मगध से कौशाम्बी की यात्रा कर क्रीतदासी के रूप में उपस्थित बन्दिनी चन्दना का उद्धार ही नहीं किया, अपितु उसे दीक्षित कर अपने संघ में रहनेवाली 36,000 साध्वी - महिलाओं को प्रधान - नेत्री भी बनाया। इसप्रकार उन्होंने नारी को समाज में समानाधिकार दिलाने की जीवन भर वकालत की, उनके लिए आत्म-विकास का मार्ग सुझाया और इस रूप में स्वस्थ समाज एवं राष्ट्र-निर्माण की दिशा में अभूतपूर्व कार्य किया । सद्य: आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय महिला - वर्ष के क्रम में भगवान् महावीर का यह योगदान निश्चय ही स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य है । सामाजिक एवं राष्ट्रिय-उत्थान में अनुशासन का अपना विशेष महत्त्व होता है । उसके अभाव में विविध अन्याय, अत्याचार पनपने लगते हैं। महावीर ने इसके लिए तीन मकार अर्थात् मद्य (Drinks), मांस (Meat), एवं मधु (Honey) के सर्वथा त्याग तथा हिंसा ( Injury ), झूठ (False food), चोरी (Theft), कुशील (Unchastity) एवं परिग्रह रूप पाँच पापों के त्याग पर विशेष जोर दिया । गम्भीरता से विचार करने पर विदित होता है कि सुसंस्कृत समाज एवं समुन्नत राष्ट्र में जो भी अन्तर्बाह्य-विषमतायें आती हैं, उनके मूल में भी उक्त पाप अथवा अपराध-कर्म ही हैं। महावीर ने इन पापों का त्याग, प्रत्येक गृहस्थ - श्रावक के लिये अनिवार्य बतलाया तथा सच्ची - नागरिकता के लिये वह आवश्यक अंग घोषित किया। पाँच पापों के एकदेश-त्याग के लिए जैनधर्म में 'अणुव्रत' की संज्ञा प्रदान की गई। वस्तुत: ये अणुव्रत सच्चे नागरिक बनने के लिए ऐसे सर्वश्रेष्ठ अनुशासन - सूत्र (Code of Conduct) हैं, जिनके बिना कोई भी समाज प्रगति एवं प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर सकती है। OC 102 Jain Education International प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2002 वैशालिक महावीर विशेषांक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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