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________________ इस अपरिग्रहवाद की व्याख्या करते हुए प्रथम शताब्दि के आचार्य उमास्वामी ने कहा कि क्षेत्र (खेत) वास्तु (भवन आदि) हिरण्य (आभूषणादि) स्वर्ण, धन-धान्य (अनाजादि) दासी-दास एवं कुप्य (अर्थात् बर्तन, वस्त्र आदि) की सीमाबन्दी समतावादी स्वस्थ-समाज एवं राष्ट-निर्माण के लिये अनिवार्य है। अथवा अनावश्यक-संग्रह राष्ट्रिय-विकास में घोर बाधक है। इसप्रकार महावीर ने परिग्रह-वृत्ति (Hoarding) का घोर-विरोध किया तथा अपरिग्रहवाद को स्वस्थ समाज एवं राष्ट्र-निर्माण का अनिवार्य-अंग घोषित किया। महात्मा गाँधी एवं विनोबा भावे ने महावीर के इस सिद्धान्त की जीवनभर सराहना की और उसका सर्वत्र प्रचार किया। महावीर के सम्मुख तीसरी विषम-समस्या थी—दलित-वर्ग के उत्थान की। महावीर चूँकि सच्चे साम्यवादी, सर्वोदयवादी अथवा अहिंसावादी थे, अत: उच्च-जाति या नीच-जाति (Upper and Lower Castes) जैसे शब्दों के प्रयोग के पक्षधर वे कभी नहीं रहे। जब-जब जातिवाद की आवाज उठी, उन्होंने स्पष्ट घोषित किया कि व्यक्ति जन्म से नहीं, कर्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र होता है। यथा कम्मुणा बंभणो होइ कम्मुणा होई खत्तिओ। बइस्सो कम्मुणा होई सुद्दो हवइ कम्मुणा।। -(उत्तरज्झयण, 25/31) इसीप्रकार __समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो। -(उत्तरज्झयण, 25/30) अर्थात् समभाव की साधना करने से 'श्रमण' होता है तथा ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने से 'ब्राह्मण' होता है। और भी—ण वि मुंडिएण समणो ण ओंकारेण बंभणो। ण मुणि रण्णवासेणं कुसचीरेण ण तावसो।। -(उत्तरज्झयण, 25/29) अर्थात्, सिर मुड़ा लेने से कोई 'श्रमण' नहीं हो जाता, 'ओम्-ओम्' का जाप कर लेने मात्र से कोई ‘ब्राह्मण' नहीं हो जाता, केवल वनवास कर लेने मात्र से कोई 'मुनि' नहीं हो जाता और चीवर (फटे वस्त्र धारण कर लेने मात्र से कोई 'तापस' नहीं हो जाता। प्राकृत के आगम-ग्रन्थों में कुछ ऐसे उदाहरण प्राप्त होते हैं, जिनसे पता चलता है कि महावीर ने ब्राह्मणों, क्षत्रियों एवं वैश्यों को तो अपने संघ में दीक्षित किया ही, साथ ही हरिजन, चाण्डाल, ग्वाले, बढ़ई, कुम्हार, लुहार, मजदूर तथा अशिक्षित स्त्री-पुरुषों का उद्धार कर उन्हें भी अपने संघ में प्रतिष्ठित-स्थान दिया। इसीलिए लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने एक बार कहा था कि “ब्राह्मण-धर्म में एक सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि उसमें ब्राह्मणादि चारों वर्गों को समानाधिकार नहीं दिये गये। यज्ञ-यागादि-कर्म ब्राह्मण ही कर सकते थे, क्षत्रिय अथवा वैश्य नहीं। शूद्र तो उसे देख भी न सकते थे। जैनधर्म ने इस त्रुटि को दूर कर मानव-समाज का बड़ा भारी उपकार किया है।" महावीर के सम्मुख चौथी-समस्या थी नारी के उत्थान की, क्योंकि वह मानाव के प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 101 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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