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होती थी, उसी का वे प्रयोग भी किया करते थे, जो कि जन-सामान्य की समझ से प्राय: परे रहती थी। मुगलों की 'फारसी' एवं अंग्रेजों की 'अंग्रेजी' के समान उनकी भी अपनी भाषा-नीति थी, जिसके चलते जन-सामान्य के बहुभाग पर वे शासन किया करते थे। महावीर ने इस भाषा-नीति के सर्वथा-विपरीत जन-समुदाय के बीच तत्कालीन जनभाषा-प्राकृत में अपने विचार व्यक्त किए, जिसका आशय था कि इने-गिने लोगों की विशिष्ट-भाषा कभी भी सम्पर्क-भाषा अथवा राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती। यह पद तो उसी सार्वजनीन-भाषा को दिया जा सकता है, जिसे राष्ट्र का बहुल-भाग प्रयोग करता हो, जिसे दलित से दलित और अपढ़ से अपढ़ व्यक्ति भी बोल और समझ सकता हो । क्योंकि व्यक्ति जो भी विचार करता है, उसकी सहज एवं स्पष्ट-अभिव्यक्ति वह अपनी स्थानीय-मातृभाषा में ही कर सकता है। तथा अन्तर्निहित-शक्ति का विश्वासपूर्वक पूर्ण-विकास भी कर सकता है। इसप्रकार महावीर ने जन-सामान्य का मनोबल ऊँचा करने हेतु समकालीन लोकप्रचलित-भाषा 'प्राकृत' में अपने उपदेशों का प्रसार कर सर्वोदय का मार्ग प्रशस्त किया। - महावीर का भाषा-सम्बन्धी यह सिद्धान्त इतना लोकप्रिय हुआ कि उनके परिनिर्वाण के बाद सैकड़ों वर्षों तक जन-सम्पर्क की भाषा वही प्राकृत बनी रही। प्रियदर्शी सम्राट अशोक एवं खारवेल आदि ने अपने-अपने शासनकालों में उसी को प्रमुखता प्रदान कर जनसामान्य का विश्वास प्राप्त किया तथा शान को सुदृढ़ बनाकर उन्होंने अपने-अपने राष्ट्रों को सुखी-सम्पन्न बनाया और देश-विदेश में भारतीय-आदर्शों का शंखनाद किया।
बिहार एवं झारखण्ड-प्रान्त की आधुनिक संथाली, मुण्डारी, मगही, मैथिली, भोजपुरी, अंगिका एवं वज्जिमा आदि बोलियों का विकास उपर्युक्त जनभाषा-प्राकृत से ही हुआ।
सुप्रसिद्ध भाषाविद् तथा आधुनिक-पाणिनि के नाम से प्रसिद्ध डॉ. जार्ज ग्रियर्सन तथा रिचर्ड पिशल एवं डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी आदि ने आधुनिक बिहार एवं झारखण्ड की बोलियों को उक्त प्राकृत की पुत्रियाँ अथवा पौत्रियाँ माना है। इस दृष्टि से इन प्रान्तों की बोलियों के उद्भव और विकास, तथा उनके व्युत्पत्तिमूलक तथा भाषावैज्ञानिक अध्ययन के लिये महावीरकालीन-प्राकृत का उच्चस्तरीय तुलनात्मक-अध्ययन अनिवार्य है। ___ भगवान् महावीर के सम्मुख दूसरी विषम-समस्या थी - असमान-वितरण एवं आर्थिक-विषमता की। उन्होंने इसका समाधान 'अपरिग्रहवाद' के माध्यम से किया। क्योंकि वे जानते थे कि आर्थिक-विषमता एवं असमान-वितरण मानव-समाज को तोड़-मरोड़कर चूर-चूर कर देता है। इससे समाज शोषक एवं शोषित —इन दो वर्गों में बँट जाता है। फलस्वरूप कटुता एवं घृणा की विनाशकारी-भावनायें जन्म लेने लगती हैं। महावीर ने बताया कि व्यक्ति को अपने पास उतनी ही सामग्री रखनी चाहिये, जो जीवन-धारण के लिये आवश्यक है। बाकी की सामग्री समाज के अभावग्रस्त लोगों को अर्पित कर देना चाहिए, यही वास्तविक अपरिग्रह है।
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प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक
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