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________________ भगवान् महावीर के उपदेशों की वर्तमान-सन्दर्भ में उपयोगिता —प्रो. डॉ. राजाराम जैन भगवान् महावीर के जन्मकल्याणक का 2600वाँ पावन-दिवस उनके सद्गुणों के स्मरण का ही नहीं, अपितु उनके आदर्शों को जीवन में उतारने के लिये भी है; साथ ही, वह आत्मालोचन का भी पुण्य-पर्व है। इस प्रसंग में हमें यह निरीक्षण एवं परीक्षण करना चाहिये कि गत एक वर्ष में हमने कितने लोकहित-साधक कार्य किये हैं तथा कितने समाज-विरोधी कार्य किये हैं? __ भगवान् महावीर के जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे जिन बातों का उपदेश देना चाहते थे, उन बातों को सर्वप्रथम अपने जीवन में उतारते थे और जीवन की कसौटी पर जब वे खरे उतरते थे, तभी दूसरों को उनका उपदेश करते थे। यहाँ एक प्रश्न यह उठता है कि राजकुमार वर्धमान को राज-वैभव के त्याग की आवश्यकता क्यों पड़ी? मन्थन करने से विदित होता है कि तत्कालीन मानव-समाज में कुछ ऐसी विषमतायें थीं, जो सामाजिक-जीवन को खोखला किये जा रही थीं और जिनके कारण महावीर अत्यन्त विचलित हो उठे थे। जब वे आडम्बरवाले निरर्थक-क्रियाकाण्डों एवं रुढ़ियों में जकड़े हुए लोगों को देखते, तो छटपटा उठते, आर्थिक-विषमता तथा जाति एवं वर्ग-भेदों को देखते, तो उनका हृदय रुदन करने लगता। एक ही सूर्य एवं चन्द्र के नीचे एक ही पृथिवी पर रहनेवालों में यह मानव-भेद, प्राणिभेद एवं सम्प्रदाय-भेद उन्हें बहुत ही खला। यह दुर्निवार-भेदभाव, सुख-सिंहासन पर बैठकर तथा राजकीय-प्रशासकीय नियम-विधान का भय दिखाकर उन्हें मिटा पाना उनके लिये सम्भव न था, उसके लिये तो त्याग एवं साधना की प्रभावक-शक्ति का संचय तथा उसके आधार पर लोगों का हृदय-परिवर्तन करना आवश्यक था। ____ अत: महावीर ने लोकमंगल-हेतु अपने भौतिक-सुखों की आकांक्षाओं का सर्वथा त्याग कर सर्वप्रथम दीर्घ-तपस्या द्वारा आत्मशक्ति प्राप्त की। उन्होंने जन-सम्पर्क का माध्यम तत्कालीन लोक-प्रचलित जनभाषा-प्राकृत को चुना; क्योंकि भाषा ही विचारों की समर्थ संवाहिका होती है। उस सामन्ती-युग में तथाकथित कुछ नेताओं की अपनी एक विशिष्ट-भाषा प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 0099 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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