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________________ संदर्भ-सूची 1. तस्य पुत्रो महातेजा: सम्प्रत्येष पुरीमिमाम्। आवसत्परमप्रख्य: सुमति म दुर्जयः ।। 16 ।। सुमतिस्तु महातेजा विश्वामित्रमुपागतम्।। श्रुत्वा नरवरघे : प्रत्यगच्छन्महायशाः ।। 120 ।। -- (बालकाण्ड, 47 सर्ग) 2. द्रष्टव्य, दीघनिकाय - महापरिव्वाण-सुत्त – (नं. 13)। -(साभार उद्धृत, वैशाली अभिनंदन-ग्रंथ, पृष्ठ 237-242) ज्योतित्रयी "देहज्योतिषि यस्य मज्जति जगदुग्धाम्बुराशाविव । ज्ञानज्योतिषि च स्फुटव्यतितरामो भूर्भुव: स्वस्त्रयी।। शब्दज्योतिषि यस्य दर्पण इव स्वार्थाश्चकासन्त्यमी। स श्रीमानमरार्चितो जिनपति]तिस्त्रयायाऽस्तु न: ।।" –(आचार्य रामसेन, तत्त्वानुशासन, 259) - अर्थ :- जिसकी देह-ज्योति में जगत् ऐसे डूबा रहता है, जैसे कोई क्षीर-सागर में स्नान कर रहा हो; जिसकी ज्ञान-ज्योति में भू: (अधोलोक) भुवः (मध्यलोक) और स्व: (स्वर्गलोक) यह त्रिलोकीरूप ज्ञेय (ओं) अत्यन्त स्फुटित होता है और जिसकी शब्द श्री शब्द-ज्योति (दिव्य ध्वनि) दिव्य-अर्थों की ध्वननकी, प्रकाश में ये स्वात्मा और परपदार्थ दर्पण की तरह निर्मल प्रतिभासित होते हैं, वह देवों से पूजित श्रीमान् तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव महावीर तीनों ज्योतियों की प्राप्ति के लिये हमारे सहायक (निमित्त-कारण) होवें। दिहज्योतिषि यस्य शक्र सहिता: सर्वेऽपि मग्ना: सुराः । ज्ञानज्योतिषि पञ्चतत्त्वसहितं मग्नं नभश्चाखिलम् ।।' –(आचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, 64-55) __ अर्थ :-- एक देह-ज्योति, दूसरी ज्ञान-ज्योति और तीसरी शब्द-ज्योति में इन्द्रसहित सब देवताओं को निमग्न बतलाया है, जो उनके समवसरण आदि को प्राप्त हुए हैं, और ज्ञान-ज्योति पंचतत्त्व (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश) सहित सारे लोक को व्याप्त प्रकट किया है। तीसरी शब्द-ज्योति अनुषंगिकता से लेना है। 'यस्माच्छब्दात्मकं ज्योति: प्रसृतमतिनिर्मलम् । वाच्य-वाचक-सम्बन्धस्तेनेव परमेष्ठिन: ।।' - (आचार्य शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव-तन्त्र) | अर्थ :- इसमें शब्दात्मक-ज्योति और परमेष्ठी का परस्पर वाच्य-वाचक सम्बन्ध है. ऐसा उल्लेख किया है और यह बात 'अर्हमित्यक्षरब्रह्म वाचकं परमेष्ठिन:' तथा 'शब्दब्रह्म परब्रह्म के वाचक-वाच्य-नियोग' जैसे वाक्यों से भी जानी जाती है।.. प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक 00 93 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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