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________________ संस्थान एवं सम्पादक साधुवाद के अधिकारी हैं। —प्रो. डॉ. भागचन्द्र जैन 'भागेन्द' ** ® 'प्राकृतविद्या' का अक्तूबर-दिसम्बर 2001 अंक अध्ययन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। प्रत्येक अंक की भाँति यह अंक भी मनमोहक, आकर्षक, सुन्दर छपाई-युक्त व पठनीय है। कवर पृष्ठ पर जैनशासन का मांगलिक-प्रतीक ‘पंचरंगी-ध्वज' को देखकर मस्तक स्वत: ही विनत हो गया। बाद में कवर-पृष्ठ के पीछे तथा आपके सम्पादकीय में ध्वज, जैन-ध्वज के सम्बन्ध में एकाग्रचित्त होकर पढ़ा, जिससे काफी अच्छी जानकारी मिली। 'जैनध्वज' की महत्ता-प्रतिपादन में आपका सम्पादकीय निश्चित ही एक बहुत बड़ा साधन है। जैनसमाज में जैनध्वज के सम्बन्ध में अनेक भ्रांतियाँ फैली हैं, उनको निश्चित ही यह शोधपरक-लेख समाधान करने में समर्थ है। जैनध्वज जैनसमाज की आत्मा है। 'पिच्छि और कमण्डलु' आचार्यश्री विद्यानन्द जी का शोधपरक लेख बहुत अच्छा दस्तावेज है। प्रो. राजाराम जी ने मनीषीप्रवर टोडरमल जी के सम्बन्ध में चौंकानेवाला सफल वर्णन-परिचय दिया है। टोडरमल जी बहुत बड़े साधक-विद्वान् मनीषी थे। उनकी सेवा जैनसमाज में सदैव चिर-स्मरणीय होगी। पीछे चित्रमय झलकियों ने तो मन को प्रफुल्लित ही कर दिया। 'प्राकृत' के उत्थान में 'कुन्दकुन्द भारती' के अतुलनीय प्रयास के लिए जैनसमाज सदैव ऋणी रहेगा। -सुनील जैन ‘संचय' शास्त्री, वाराणसी (उ.प्र.) ** 0 आप द्वारा सम्पादित 'प्राकृतविद्या' यथासमय प्राप्त होती है, अनुगृहीत हूँ। 'प्राकृतविद्या' सभी दृष्टियों से स्तरीय है। इस शोभन प्रकाशनार्थ आप साधुवाद के पात्र है। -डॉ. प्रेमचन्द रांवका, जयपुर (राज.) ** ● 'प्राकृतविद्या' का पठनीय, संग्रहणीय अंक मिला, धन्यवाद । --डॉ. कुसुम पटोरिया, नागपुर (महा.) ** वर्णज्ञान की आवश्यकता “वर्णज्ञानविलोपे च पदज्ञानं कथं भवेत्? । सत्येव वर्णज्ञाने पदज्ञानस्य सम्भवात् ।। पदज्ञानमनावृत्य वाक्यज्ञानस्य दुर्लभम् । पदज्ञानानुजं यस्माद्वाक्यज्ञानं परैर्मतम् ।। पदवाक्यव्यवस्था च तज्ज्ञानासम्भवे कथम् । व्यवहारो यत: शाब्द: सिद्धयेन्यायविदां मते ।। -(आचार्य वादिराजसूरि, न्यायविनिश्चयविवरणे, 1/20-629-631 पृ0 223) ___अर्थ :- वर्णज्ञान न होने पर पदज्ञान कैसे हो सकता है, क्योंकि वर्णज्ञान होने पर ही पदज्ञान होता है। पदज्ञान के बिना वाक्यज्ञान होना दुर्लभ है, क्योंकि पदज्ञान से ही वाक्यज्ञान होता है। पद-वाक्य-व्यवस्था का ज्ञान न होने पर न्याय का ज्ञान नहीं | होता, क्योंकि व्यवहार शब्दों से ही होता है। 00 182 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2002 वैशालिक-महावीर-विशेषांक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003216
Book TitlePrakrit Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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